तीन लोक का सार आत्मा
बन्धुओं! मुझे कईं बार ऐसा लगता है कि कहीं आप आत्मा ही आत्मा की बात सुनते सुनते ऊब तो नहीं गये हो। लेकिन आगे चलकर आप आत्मा के इस सर्वांगीण विवेचन के उपरान्त ही आत्मशान्ति का सही अर्थ समझ सकेंगे। आचार्य योगिन्दु के अनुसार जब तक आत्मा से भलीभाँति परिचित नहीं हुआ जा सकता, तब तक आत्मशान्ति का सही मायने में अर्थ भी नहीं समझा जा सकता। आत्मा से सम्बन्धित चर्चा कुछ ही शेष है, फिर आत्मशान्ति हेतु मोक्ष अधिकार प्रारंभ होनेवाला है। आत्माधिकार को समझने के बाद मोक्ष अधिकार हमारे लिए सहज बोधगम्य हो सकेगा।
आगे के दोहों में आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अर्थ -हे योगी! मात्र आत्मा ही सम्यक दर्शन और तीन लोक का सार है। एक निर्मल आत्मा का ध्यान करने से एक क्षण में परम-पद की प्राप्ति हो जाती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
96. अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु।
एक्कु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयहँ सारु।।
अर्थ -हे योगी! मात्र आत्मा ही (सम्यक्) दर्शन है, (आत्मा) से भिन्न सब व्यवहार है, एक आत्मा का ही ध्यान किया जाता है जो तीन लोक का सार है।
शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, दंसणु-दर्शन, केवलु-मात्र, वि-ही, अण्णु-अन्य, सव्वु-सब, ववहारु-व्यवहार, एक्कु -एक, जि-ही, जोइय-हे योगी!, झाइयइ-ध्यान किया जाता है, जो-जो, तइलोयहँ-तीनलोक का सारु-सार
97. अप्पा झायहि णिम्मलउ किं बहुएँ अण्णेण।
जो झायंतहँ परम-पउ लब्भइ एक्क-खणेण।।
अर्थ -. (तू) निर्मल आत्मा का ही ध्यान कर, बहुत अन्य (बातों से) क्या ? जो परम-पद है (वह) ध्यान करते हुओं के द्वारा एक क्षण में प्राप्त किया जाता है।
शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा का, झायहि-ध्यान कर, णिम्मलउ-निर्मल, किं-क्या, बहुएँ -बहुत, अण्णेण-अन्य से, जो-जो, झायंतहँ-ध्यान करतेहुओं के लिए, परम-पउ-परत पद, लब्भइ-प्राप्त किया जाता है, एक्क-खणेण-एक क्षण में
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