निर्मल आत्मा के अभाव में सब कुछ व्यर्थ
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव बाल्यावस्था को पारकर युवावस्था में पहुँचता है, उसकी समझ विकसित होती है, तब से उसका प्रयास आत्मा को निर्मल बनाने की ओर ही होना चाहिए। यदि आत्मा निर्मल है तो उसकी निर्मलता से उसके द्वारा समस्त जग जाना हुआ होता है। उसके निर्मल स्वभाव में लोक प्रतिबिम्बित किया हुआ विद्यमान रहता है। इसके विपरीत यदि आत्मा निर्मल नहीं है तो उसके द्वारा शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन किया जाना तथा घोर तपश्चरण किया जाना भी व्यर्थ है, क्योंकि अध्ययन व तपश्चरण भी आत्मा को निर्मल बनाने हेतु ही किया जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
98. अप्पा णिय-मणि णिम्मलउ णियमे ँ वसइ ण जासु।
सत्थ- पुराणइँ तव-चरणु मुक्खु वि करहि ँ कि तासु।।
अर्थ -जिसके निज मन में निर्मल आत्मा निश्चय से नहीं बसती है, उस के लिए शास्त्र और पुराण (तथा) तपश्चर्या भी क्या मोक्ष उत्पन्न करते हैं ?
शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, णिय-मणि-निज मन में, णिम्मलउ-निर्मल, णियमे ँ-निश्चय से, वसइ -बसती है,ण -नहीं, जासु-जिसके, सत्थ- पुराणइँ- शास्त्र और पुराण, तव-चरणु-तपश्या, मुक्खु-मोक्ष, वि-भी, करहि ँ -उत्पन्न कर सकते है, कि-क्या, तासु-उसके लिए
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