निर्मल आत्मा में लोक और अलोक प्रतिबिम्बित होते हैं
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि चारों गतियों में मनुष्य जीवन ही महत्वपूर्ण है क्योंकि मनुष्य जीवन में ही अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का विवेक जाग्रत हो सकता है। मनुष्य गति को प्राप्तकर मनुष्य का उद्देश्य अपनी आत्मा को निर्मल बनाना ही होना चाहिए। इस को उद्देश्य मानलेने पर व्यक्ति स्वयं का गुरु स्वयं हो जाता है। स्वतः वह अपनी राह बनाना सीख लेता है।उसकी प्रत्येक क्रिया सार्थक होती है। एक दिन उसकी आत्मा पूर्ण निर्मल हो जाने से वही परमआत्मा को प्राप्त करलेता है जिससे उसकी आत्मा में लोक और अलोक प्रतिबिम्बित होते दिखायी देते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
102. तारायणु जलि बिंबियउ णिम्मलि दीसइ जेम।
अप्पए णिम्मलि बिंबियउ लोयालोउ वि तेम।।
अर्थ - जिस प्रकार स्वच्छ जल में ताराओं का समूह प्रतिबिम्बित किया हुआ दिखाई देता है, उसी प्रकार स्वच्छ आत्मा में लोेक और अलोक भी प्रतिबिम्बित किया हुआ (दिखाई पड़ता है।)
शब्दार्थ - तारायणु - तारों का समूह, जलि- जल में, बिंबियउ- प्रतिबिम्बित किया हुआ, णिम्मलि-स्वच्छ दीसइ- दिखायी पडता है, जेम-जिस प्रकार, अप्पए-आत्मा में , णिम्मलि- स्वच्छ, बिंबियउ-प्रतिबिम्बित किया हुआ, लोयालोउ-लोक और अलोक, वि - भी, तेम- उसी प्रकार।
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