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Sneh Jain

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शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. आचार्य योगीन्दु द्रव्यों के गमन और आगमन की क्रिया के सम्बन्ध में बताते हैं कि जीव व पुद्गल आवागमन करते हैं। जीव द्रव्य का चारों गतियों में आवागमन होता है और पुद्गल द्रव्य का भी जीव द्रव्य के द्वारा इधर. उधर होना देखा जाता है। इन दो द्रव्यों को छोड़कर बाकी अन्य चारों धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्य जीव व पुद्गल द्रव्य की भाँति आवागमन से रहित है। देखिये इससे सम्बन्धित परमात्मप्रकाश का आगे का दोहा - 23. दव्व चयारि वि इयर जिय गमणागमण-विहीण। जीउ वि पुग्गलु परिहरिवि पभणहि ँ णाण-पवीण।। अर्थ - हे प्राणी! जीव और पुद्गल को छोड़कर अन्य चारों ही द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) जाने-आने से रहित हैं। ज्ञान में निपुण (ज्ञानी) (ऐसा) कहते हैं। शब्दार्थ - दव्व- द्रव्य, चयारि-चारों, वि-ही, इयर-अन्य, जिय-हे जीव!, गमणागमण-विहीण-जाने-आने से रहित, जीउ-जीव, वि-और, पुग्गलु-पुद्गल को, परिहरिवि- छोड़कर, पभणहि ँ-कहते हैं, णाण-पवीण- ज्ञान में निपुण।
  2. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि छः द्रव्यों में से जीव, पुद्गल व काल द्रव्य के अतिरिक्त धर्म, अधर्म व आकाश द्रव्य अपने प्रदेशों से अखंडित हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 22. जीउ वि पुग्गलु कालु जिय ए मेल्लेविणु दव्व।। इयर अखंड वियाणि तुहुं अप्प-पएसहि ँ सव्व।। अर्थ - हे प्राणी! तू जीव, पुदगल और काल इन (तीन) द्रव्यों को छोड़कर दूसरे अन्य सब (धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य) को अपने प्रदेशों से अखंडित (परिपूर्ण) समझ। शब्दार्थ - जीउ-जीव, वि-और, पुग्गलु -पुद्गल, कालु-काल को, जिय- प्राणी! ए-हे, मेल्लेविणु - छोड़कर, दव्व-द्रव्यों को, इयर-अन्य, अखंड-परिपूर्ण, वियाणि-जान, तुहुं -तू, अप्प-पएसहि ँ-आत्मप्रदेशों से सव्व-सव्व
  3. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि छः द्रव्यों में से जीव, पुद्गल व काल द्रव्य के अतिरिक्त धर्म, अधर्म व आकाश द्रव्य अपने प्रदेशों से अखंडित हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 22. जीउ वि पुग्गलु कालु जिय ए मेल्लेविणु दव्व।। इयर अखंड वियाणि तुहुं अप्प-पएसहि ँ सव्व।। अर्थ - हे प्राणी! तू जीव, पुदगल और काल इन (तीन) द्रव्यों को छोड़कर दूसरे अन्य सब (धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य) को अपने प्रदेशों से अखंडित (परिपूर्ण) समझ। शब्दार्थ - जीउ-जीव, वि-और, पुग्गलु -पुद्गल, कालु-काल को, जिय- प्राणी! ए-हे, मेल्लेविणु - छोड़कर, दव्व-द्रव्यों को, इयर-अन्य, अखंड-परिपूर्ण, वियाणि-जान, तुहुं -तू, अप्प-पएसहि ँ-आत्मप्रदेशों से सव्व-सव्व
  4. आचार्य योगिन्दु काल द्रव्य के विषय में कहते हैं कि परावर्तन का हेतु ही काल द्रव्य है। मणियों की माला में जिस प्रकार प्रत्येक मणि का पार्थक्य है उसी प्रकार सृष्टि में विद्यमान काल के अणु भी प्रत्येक अणु से पार्थक्य लिए विद्यमान हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 21. कालु मुणिज्जहि दव्वु तुहुँ वट्टण-लक्खणु एउ। रयणहँ रासि विभिण्ण जिम तसु अणुयहँ तह भेउ।। अर्थ - तू इस परावर्तन के हेतु को काल द्रव्य जान। रत्नों की जुदारूप राशि के समान उस (काल) के अणुओं का भी उसी प्रकार पार्थक्य(विभाजन) है। कालु-काल, मुणिज्जहि-जान, दव्वु-द्रव्य, तुहुँ -तू, वट्टण-लक्खणु -परावर्तन के हेतु को, एउ-इस, रयणहँ-रत्नों की, रासि-राशि, विभिण्ण-जुदा, जिम -के समान, तसु-उसके, अणुयहँ - अणुओं का, तह-उसी प्रकार, भेउ-पार्थक्य।
  5. जीव, पुद्गल, धर्म व अधर्म द्रव्य के बाद आचार्य योगीन्दु आकाश द्रव्य के विषय में कहते हैं कि समस्त द्रव्य जिसमें भलीभाँति व्यवस्थित हैं वही आकाश द्रव्य है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 20. दव्वइं सयलइँ वरि ठियइँ णियमे ँ जासु वसंति। तं णहु दव्वु वियाणि तुहुँ जिणवर एउ भणंति।। अर्थ - समस्त द्रव्य जिसमें अच्छी तरह से व्यवस्थित रहते हैं, उसको तू निश्चयपूर्वक आकाश द्रव्य जान। जिनेन्द्रदेव यह कहते हैं। शब्दार्थ - दव्वइं-द्रव्य, सयलइँ -समस्त, वरि-अच्छी तरह से, ठियइँ-व्यवस्थित, णियमे ँ-निश्चयपूर्वक, जासु-जिसमें, वसंति-रहते हैं, तं - उसको, णहु -आकाश, दव्वु-द्रव्य, वियाणि-जान, तुहुँ-तू, जिणवर-जिनेन्द्रदेव, एउ-यह, भणंति-कहते हैं।
  6. जीव द्रव्य के विषय में संक्षेप में कथन करने के बाद आचार्य योगिन्दु पुद्गल, धर्म व अधर्म द्रव्य के विषय में बताते हुए कहते हैं कि पुद्गल द्रव्य छः प्रकार के रूप से सहित होता है जबकि अन्य पाँचों द्रव्य रूप रहित होते हैं, तथा धर्म व अधर्म द्रव्य गति और स्थित का कारण है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 19 पुग्गलु छब्विहु मुत्तु वढ इयर अमुत्तु वियाणि। धम्माधम्मु वि गयठियहँ कारणु पभणहि ँ णाणि।। अर्थ - हे वत्स! पुद्गल को छः प्रकार का रूपवाला (तथा) अन्य को रूप रहित जान। ज्ञानी धर्म और अधर्म को विशेष रूप सेे गति और स्थित का कारण कहते हैं। शब्दार्थ - पुग्गलु- पुद्गल को, छब्विहु-छः प्रकार का, मुत्तु-रूपवाला, वढ-हे वत्स, इयर-अन्य को, अमुत्तु -रूप रहित, वियाणि-जान, धम्माधम्मु-धर्म और अधर्म को, वि -विशेषरूप से, गयठियहँ - गति और स्थित का, कारणु-कारण, पभणहि ँ -कहते हैं, णाणि-ज्ञानी।
  7. छः द्रव्यों के नाम कथन के बाद आचार्य योगिन्दु प्रथम सचेतन जीव द्रव्य के स्वरूप के विषय में बताते हैं कि यह आत्मारूप जीवद्रव्य आकार रहित, ज्ञानमय, परम आनन्द स्वभाव, नित्य और निरंजन स्वरूप है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 18. मुत्ति-विहूणउ णाणमउ परमाणंद सहाउ। णियमिं जोइय अप्पु मुणि णिच्चु णिरंजणु भाउ।। अर्थ - हे योगी! आत्मा को तू निश्चय से आकार रहित, ज्ञानमय, परम आनन्द स्वभाव, नित्य और निरंजन स्वरूप जान। शब्दार्थ - मुत्ति-विहूणउ - आकार रहित, णाणमउ-ज्ञानमय, परमाणंद- परम आनन्द, सहाउ-स्वभाव, णियमिं -नियम से, जोइय-हे योगी!, अप्पु-आत्मा को, मुणि-जान, णिच्चु-नित्य, णिरंजणु -निरंजन, भाउ-स्वरूप।
  8. द्रव्य को ठीक तरह से जानना और उन पर श्रृद्धान करने को सम्यग्दर्शन का निमित्त बताने के बाद आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि इन द्रव्यों के विषय में जन्म-मरण से रहित हुए ज्ञानी जनों (केवलज्ञान को प्राप्त हुए तीर्थंकरों) ने बताया है। ये द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस प्रकार छः हैं, जो सम्पूर्ण त्रिभुवन में व्याप्त हैं। इनमें जीव सचेतन द्रव्य तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अचेतन द्रव्य हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे- 16. दव्वइँ जाणहि ताइँ छह तिहुयणु भरियउ जेहिँ। आइ-विणास-विवज्जियहिँ णाणिहिं पभणियएहिँं।। अर्थ -उन छ द्रव्यों को जान, जिनसे यह त्रिभुवन भरा हुआ है। आवागमन और विनाश से रहित ऐसे ज्ञानियों (जिनेन्द्रदेवों ) के द्वारा इन द्रव्यों के विषय में कथन किया गया है। उनके अनुसार ये द्रव्य छः हैं। शब्दार्थ - दव्वइँ -द्रव्यों को, जाणहि -जान, ताइँ - उन, छह-छः, तिहुयणु -त्रिभुवन, भरियउ-भरा हुआ है, जेहिँ-जिनसे, आइ-विणास-विवज्जियहिँ -आवागमन और विनाश से रहित, णाणिहिं-- ज्ञानियों के द्वारा, पभणिय -कहे गये हैं, एहिँ- ऐसे। 17. जीव सचेयणु दव्वु मुणि पंच अचेयण अण्ण। पोग्गलु धम्माहम्मु णहु काले ँसहिया भिण्ण।।
  9. आचार्य योगीन्दु मोक्ष अर्थात् परमशान्ति का प्रथम निमित्त सम्यग्दर्शन को मानते हैं। सम्यग्दर्शन को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि आत्मा का वह भाव सम्यग्दर्शन है, जिस भाव से वह जगत में स्थित द्रव्यों को सही रूप में जानता है और सही रूप में श्रद्धान करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 15. दव्वइँ जाणइ जहठियइँ तह जगि मण्णइ जो जि। अप्पहँ केरउ भावडउ अविचलु दंसणु सो जि।। अर्थ - जो द्रव्यों को जिस प्रकार (वे) जगत में स्थित हैं उसी प्रकार जानता है, (तथा) ठीक उसी प्रकार (विश्वासपूर्वक) मानता है, आत्मा का वह भाव ही अविचल (सम्यक्) दर्शन है। शब्दार्थ - दव्वइँ - द्रव्यों को, जाणइ -जानता है, जहठियइँ- जिस प्रकार स्थित हैं, तह-उसी प्रकार, जगि-जग में, मण्णइ-मानता है, जो-जो, जि-ठीक इसी प्रकार, अप्पहँ- आत्मा का, केरउ- सम्बन्धवाची परसर्ग, भावडउ-भाव, अविचलु-अविचल, दंसणु -दर्शन, सो-वह, जि-ही।
  10. आचार्य योगिन्दु आगे मोक्षमार्ग के इन निमित्तों को समझाते हैं और इन निमित्तों को जानकर उनको पूरी तरह समझने से उनसे मिलने वाले फल को बताते हैं। वे कहते हैं कि जो स्व से स्व को देखता है, वह दर्शन है और जो स्व से स्व को जानता है, वह ज्ञान है (और) (स्व के) अनुकूल आचरण करता है, वह चारित्र है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सही ज्ञान होने पर ही पूरी तरह से पवित्र हुआ जा सकता है और अन्ततः वही मोक्ष है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 13. पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पिं अप्पउ जो जि। दंसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहँ कारणु सो जि।। अर्थ - हे जीव! जो स्व से स्व को देखता है, जानता है, (और) (स्व के) अनुकूल आचरण करता है, वह दर्शन, ज्ञान (और) चारित्र ही मोक्ष का कारण है। शब्दार्थ - पेच्छइ - देखता है, जाणइ-जानता है, अणुचरइ-अनुकूल आचरण करता है, अप्पिं-स्व से, अप्पउ -स्व को, जो-जो, जि- (पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय) दंसणु- दर्शन, णाणु-ज्ञान, चरित्तु -चारित्र, जिउ -हे जीव!, मोक्खहँ -मोक्ष का, कारणु -कारण, सो -वह, जि-ही। 14. जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु। तं परियाणहि जीव तुहुँ जे ँ परु होहि पवित्तु।।14।। अर्थ - हे जीव! व्यवहार नय जिस दर्शन, ज्ञान और चारित्र का निर्देश करता है, उसको तू जान, जिससे तू पूरी तरह से पवित्र होवे। शब्दार्थ - जं - जिस, बोल्लइ-निर्देश करता है, ववहारु-णउ- व्यवहार नय, दंसणु- दर्शन, णाणु-ज्ञान, चरित्तु-चरित्र का, तं - उसको, परियाणहि-पूरी तरह से जान, जीव-हे जीव! तुहुँ - तू, जे ँ-जिससे, परु-पूरी तरह से, होहि-होवे, पवित्तु-पवित्र।
  11. अब तक आपने आत्मा के विषय में विस्तृतरूप से अध्ययन किया और अब आप मोक्ष के विषय में जानकारी प्राप्त कर रहे हैं। मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि अब तक आचार्य योगिन्दु द्वारा रचित दोहों को पढकर आपने योगिन्दु आचार्य के विषय में क्या धारणा बनायी ? मेरी धारणा का जहाँ तक सवाल है मैं तो इतना ही जान पायी हूँ इन जैसे विशुद्ध अध्यात्मकार आचार्य की तुलना मैं किसी भी आचार्य से नहीं कर सकती। या यह कहूँ कि अब तक के अध्ययन किये ग्रंथों में मेरा सबसे प्रिय ग्रंथ आचार्य योगिन्दुदेव द्वारा रचित यह परमात्मप्रकाश ही रहा है। आत्मा की चर्चा हो या मोक्ष की, इनकी सोच का दायरा बहुत ही विस्तृत देखते हैं। इनके मोक्षपरक दोहों का सम्बन्ध किसी विशेष से नहीं होकर प्रत्येक जीव से रहा है। उनके अनुसार मोक्ष पर मात्र पुरुष, साधु या मानवजाति का ही अधिकार नहीे है, बल्कि मोक्ष अर्थात शान्ति तो प्रत्येक जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक चाहता है। पिछले दोहे में उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि क्या बँधे हुए पशु भी बंधन के दुःख से छूटकर शान्ति पाना नहीं चाहते हैं। आत्मा और आत्मशान्ति का सम्बन्ध एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों से तथा चारों गतियों के जीवों से हैं। आप भी आचार्य योगिन्दु के अध्यात्मवाद के विषय में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कीजिए। आगे के दोहे में आचार्य ने श्रेष्ठ दर्शन, ज्ञान और चारित्र को ही मोक्ष के निमित्त बताये हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 12 जीवहँ मोक्खहँ हेउ वरु दंसणु णाणु चरित्तु। ते पुणु तिण्णि वि अप्पु मुणि णिच्छएँ एहउ वुत्तु।। अर्थ - जीवों के मोक्ष का कारण श्रेष्ठ दर्शन, ज्ञान (और) चारित्र है। फिर उन तीनों (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को ही आत्मा जानो, निश्चय से ऐसा कहा गया है। शब्दार्थ - जीवहँ - जीवों के, मोक्खहँ-मोक्ष का, हेउ-कारण, वरु-श्रेष्ठ, दंसणु-दर्शन, णाणु -ज्ञान, चरित्तु-चारित्र, ते-उन, पुणु-फिर, तिण्णि-तीनों को, वि-ही, अप्पु-आत्मा, मुणि-जानो, णिच्छएँ -निश्चय से, एहउ-ऐसा, वुत्तु-कहा गया है।
  12. मोक्ष के रूवरूप को जान लेने के बाद आचार्य योगीन्दु मोक्ष के परिणाम को बताते हैं। वे कहते हैं कि यह कैसे जाना जाये कि मोक्ष की प्राप्ति हो गयी है। इसके लिए वे मोक्ष प्राप्ति के परिणाम को बताते हुए कहते हैं कि मोक्ष प्राप्ति होने पर जीव के दर्शन, ज्ञान और अनन्त सुख एक साथ सदैव बने रहते हैं, वे कभी भी कम नहीं होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 11. दंसणु णाणु अणंत-सुहु समउ ण तुट्टइ जासु। सो पर सासउ मोक्ख-फलु बिज्जउ अत्थि ण तासु।। अर्थ - जिसके दर्शन, ज्ञान (और) अनन्त सुख एक साथ (रहता है), घटता नहीं है, उसके लिए वह (ही) पूरी तरह से शाश्वत मोक्ष का फल है, दूसरा नहीं। शब्दार्थ - दंसणु -दर्शन, णाणु -ज्ञान, अणंत-सुहु -अनन्त सुख, समउ-एक साथ, ण-नहीं, तुट्टइ -घटता है, जासु-जिसके, सो -वह, पर-पूरी तरह से, सासउ-शाश्वत, मोक्ख-फलु-मोक्ष का फल, बिज्जउ-दूसरा, अत्थि-है, ण-नहीं, तासु-उसके लिए।
  13. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मैंने अपनी परम्परा के ज्ञानी साधुओं से जो जाना है उसके अनुसार मोक्ष क्या है, वह मैं आपको बताता हूँ। वे कहते हैं कि जब जीव समस्त दोषों से रहित, पूर्ण निर्मल हो जाता है उस समय उसकी आत्मा जिस श्रेष्ठ स्वरूप को प्राप्त होती है, वही मोक्ष है। एक बार मोक्ष अर्थात शान्त अवस्था को प्राप्त हुआ जीव पुनः अशान्त नहीं होता। वह हमेशा के लिए जन्म-मरण के दोषों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष अर्थात शान्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 10. जीवहँ सो पर मोक्खु मुणि जो परमप्पय-लाहु। कम्म-कलंक-विमुक्काहँ णाणिय बोल्लहिँ साहू।। अर्थ -कर्मरूपी दोषों से रहित जीवों के लिए जो श्रेष्ठ आत्मा की प्राप्ति है उसी को मात्र मोक्ष जान। (ऐसा) ज्ञानी साधु कहते हैं। शब्दार्थ - जीवहँ - जीवों के लिए, सो- वह, पर-मात्र, मोक्खु-मोक्ष, मुणि-जान, जो-जो, परमप्पय-लाहु-परम आत्मा की प्राप्ति, कम्म-कलंक-विमुक्काहँ- कर्मरूपी दोषों से रहित जीवों के लिए, णाणिय -ज्ञानी, बोल्लहिँ-कहते हैं, साहू-साधु।
  14. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि हरि, हर, ब्रह्मा, तीर्थंकर, श्रेष्ठ मुनि, सभी भव्य प्राणी भी अपने जीवन के अन्तिम काल में परम निरंजन अर्थात सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए सिद्धों में अपने मन को स्थापित कर मोक्ष का ही ध्यान करते हैं। वैसे भी त्रिभुवन में जीवों के लिए मात्र एक मोक्ष को छोड़कर कोई सुख का कारण नहीं है। परमात्मप्रकाश में इसलिए प्रत्येक भव्य जीव को अपने अन्तिम समय में मोक्ष का ही चिंतन करने का उपदेश दिया गया है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 8. हरि-हर-बंभु वि जिणवर वि मुणि-वर-विंद वि भव्व। परम-णिरंजणि मणु धरिवि मुक्खु जि झायहिँ सव्व।। अर्थ -हरि, हर, ब्रह्मा और जिनेन्द्रदेव तथा श्रेष्ठ मुनिगण और सभी मुक्तिगामी जीव परम निरंजन में मन रखकर मोक्ष का ही ध्यान करते हैं। शब्दार्थ - हरि-हर-बंभु- हरि, हर और ब्रह्मा, वि-और, जिणवर-जिनेन्द्रदेव, वि-तथा, मुणि-वर-विंद-श्रेष्ठ मुनिगण, वि-और, भव्व-मुक्तिगामी जीव, परम-णिरंजणि-परम निरंजन में, मणु-मन को, धरिवि-रखकर, मुक्खु-मोक्ष का, जि-ही, झायहिँ-ध्यान करते हैं, सव्व-सब। 9. तिहुयणि जीवहँ अत्थि णवि सोक्खहँ कारणु कोइ। मुक्खु मुएविणु एक्कु पर तेणवि चिंतहि सोइ।। अर्थ - त्रिभुवन में जीवों के लिए मात्र एक मोक्ष को छोड़कर कोई सुख का कारण नहीं है, इस कारण (तू) उसका ही चिंतन कर। शब्दार्थ - तिहुयणि- त्रिभुवन में, जीवहँ-जीवों के लिए, अत्थि-है, णवि-नहीं, सोक्खहँ-सुख का, कारणु -कारण, कोइ-कोई, मुक्खु-मोक्ष को, मुएविणु-छोड़कर, एक्कु -एक, पर-मात्र, तेणवि-इस कारण, चिंतहि -चिंतन कर, सोइ- उसका ही।
  15. आगे इसी क्रम में आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यदि मोक्ष अर्थात् शान्ति में सुख नहीं होता तो समस्त लोक उस मोक्ष अर्थात् उस शान्ति को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर उसको सिर पर क्यों रखता ? और सिद्ध हमेशा उस सिद्धालय का ही आश्रय क्यों लेते ? देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे - 6. अणु जइ जगहँ वि अहिययरु गुण-गणु तासु ण होइ। तो तइलोउ वि किं धरइ णिय-सिर-उप्परि सोइ।। अर्थ -फिर यदि संसार से अधिकतर गुण समूह उस (मोक्ष) के नहीं भी होता है तो तीन लोक भी उस (मोक्ष) को ही अपने मस्तक पर क्यों रखता है ? शब्दार्थ - अणु - फिर, जइ-यदि, जगहँ-संसार से, वि-भी, अहिययरु-अधिकतर, गुण-गणु- गुण समूह, तासु-उसके, ण-नहीं, होइ-होता है, तो-तब, तइलोउ -तीनलोक, वि-भी, किं -क्यों, धरइ -रखता है, णिय-सिर-उप्परि - अपने मस्तक के ऊपर, सोइ-उसको ही। 7. उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ। तो किं सयलु वि कालु जिय सिद्ध वि सेवहिँ सोइ।। अर्थ - यदि (मोक्ष) श्रेष्ठ सुख को नहीं देता तो मोक्ष श्रेष्ठ नहीं होता, फिर हे जीव! सिद्ध सम्पूर्ण समय ही उस (मोक्ष) का ही आश्रय क्यों करते ? शब्दार्थ - उत्तमु -श्रेष्ठ, सुक्खु-सुख, ण-नहीं, देइ-देता है, जइ-यदि, उत्तमु-श्रेष्ठ, मुक्खु -मोक्ष, ण-नहीं, होइ-हो सकता, तो -फिर, किं-क्यों, सयलु-सम्पूर्ण, वि -ही, कालु -समय, जिय-हे जीव! सिद्ध-सिद्ध, वि-ही, सेवहि- आश्रय करते हैं, सोइ-उसका, ही।
  16. चारों पुरुषार्थों में मोक्ष पुरुषार्थ को श्रेष्ठ बताने के बाद आचार्य उसकी श्रेष्ठता को प्रमाणिकरूप से सिद्ध करते हैं। वे इसके लिए प्रमाण देते हुए कहते हैं कि यदि चारों पुरुषार्थों में मोक्ष श्रेष्ठ नहीं होता, तब जितेन्द्रदेव धर्म, अर्थ, काम जो अशान्ति के कारण है उनको छोड़कर मोक्ष पद अर्थात् शान्ति के स्थान सिद्धालय में क्यों जाते हैं ? और भी यदि मोक्ष अर्थात् मुक्ति में सुख नहीं है और बंधन में सुख है तो बंधन में बंधे पशु बंधन से मुक्त होना क्यों चाहते हैं ? अर्थात् प्रत्येक जीव के लिए सच्चा सुख शान्ति और बंधन से मुक्ति ही है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 4. जइ जिय उत्तमु होइ णवि एयहँ सयलहँ सोइ। तो किं तिण्णि वि परिहरवि जिण वच्चहि ँ पर-लोइ। अर्थ -हे जीव! यदि इन सबसे वह (मोक्ष) ही श्रेष्ठ नहीं होता, तब जितेन्द्रदेव तीनों (धर्म, अर्थ, काम) को छोड़कर मोक्ष मोक्ष में ही क्यों जाते हैं ? शब्दार्थ --यदि, जिय-हे जीव!, उत्तमु-श्रेष्ठ, होइ-होता, णवि-नहीं, एयहँ-इन, सयलहँ-सबसे, सोइ-वह ही, तो-तब, किं-क्यों, तिण्णि-तीनों को, वि -ही, परिहरवि-छोड़कर, जिण-जिनेन्द्रदेव, वच्चहि ँ-जाते हैं, पर-लोइ- मोक्ष में। 5. उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ। तो किं इच्छहि ँ बंधणहिँ बद्धा पसुय वि सोइ।। अर्थ -यदि (मोक्ष) श्रेष्ठ सुख नहीं देता तो मोक्ष श्रेष्ठ ही नहीं होता, तब बंधनों से बंधे पशु भी उस (मुक्ति) की ही इच्छा क्यों करते हैं ? शब्दार्थ - उत्तमु-श्रेष्ठ, सुक्खु-सुख, ण-नहीं, देइ-देता है, जइ-यदि, उत्तमु-श्रेष्ठ, मुक्खु-मोक्ष, ण-नहीं, होइ-हो सकता है, तो-फिर, किं -क्यों, इच्छहि ँ-इच्छा करते हैं, बंधणहिँ -बंधनों से, बद्धा-बंधे हुए, पसुय -पशु ,वि-ही, सोइ-’उसकी ही।
  17. आचार्य योगिन्दु मोक्ष अधिकार में मोक्ष का कथन इस ही से प्रारम्भ करते हैं कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष जो ये चार प्रकार के पुरुषार्थ हैं इनमें मोक्ष पुरुषार्थ श्रेष्ठ है, क्योंकि परम सुख की प्राप्ति मोक्ष से ही संभव है। यहाँ सर्वप्रथम हम यह देखेंगे कि आखिर यह मोक्ष है क्या ? प्राकृत शब्दकोश में मोक्ष (मोक्ख) शब्द के अर्थ मिलते हैं, मुक्ति, निर्वाण, दुःख निवृत्ति, शान्ति, सुख, चैन। यदि हम विचार करें तो पायेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक क्षण इस मोक्ष के लिए ही तो प्रयत्नशील है। जब भी वह किसी दुःख से परेशान होता है तो वह उसी समय से उससे मुक्त होने का प्रयास प्रारम्भ कर देता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया मोक्ष के लिए अर्थात दुःख से निवृत्ति व सुख की प्राप्ति के लिए ही तो होती है। धर्म, अर्थ काम से जुड़ी क्रिया भी तभी सार्थक होती है जब कि वह मोक्ष अर्थात् सुख प्रदान करे। व्यक्ति अज्ञान व रागवश की गयी क्रिया से दुःखी होता है तथा विवेक से वीतरागता प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त होता है। इसीलिए आचार्य महाराजजी ने मोक्ष के कथन में प्रारम्भ में चारों पुरुषार्थों में मोक्ष को श्रेष्ठ पुरुषार्थ कहा है, देखिये इससे सम्बन्धित दोहा- 3. धम्महँ अत्थहँ कामहँ वि एयहँ सयलहँ मोक्खु। उत्तमु पभणहि ँ णाणि जिय अण्णे ँ जेण ण सोक्खु।। . अर्थ - धर्म, अर्थ (और) काम इन सब से ज्ञानी पुरुष मोक्ष को उत्तम कहते हैं, क्योंकि (मोक्ष के) अतिरिक्त (धर्म, अर्थ, काम) से सुख (की प्राप्ति) नहीं है। शब्दार्थ - धम्महँ-धर्म से, अत्थहँ-अर्थ से, कामहँ-काम से, वि-और, एयहँ-इन, सयलहँ-सबसे, मोक्खु-मोक्ष को, उत्तमु-उत्तम, पभणहि ँ-कहते हैं, णाणि-ज्ञानी, जिय-पुरुष, अण्णे ँ -अतिरिक्त, जेण-क्योंकि, ण -नहीं, सोक्खु-सुख।
  18. आचार्य योगिन्दु मोक्ष विषयक कथन प्रारम्भ करने से पूर्व यह स्पष्ट कर देते हैं कि मोक्ष के विषय में मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह मेरा कुछ भी नहीं है। जिनवर ने जैसा कहा है वह ही मैं तेरे लिए कह रहा हूँ। अर्थात् जिनवर की परम्परा में आगे के आचार्यों से मुझे जो मिला है वह ही मैं तेरे लिए कथन कर रहा हूँ । इससे तू मोक्ष को भली भाँति समझ सकेगा। यह आचार्य योगिन्दु के विनम्र भाव का द्योतक है। 2 जोइय मोक्खु वि मोक्ख-फलु पुच्छिउ मोक्खहँ हेउ। सो जिण-भासिउ णिसुणि तुहुँ जेण वियाणहि भेउ।। 2।। अर्थ - हे योगी! तेरे द्वारा मोक्ष, मोक्ष का फल और मोक्ष का कारण पूछा गया। जिनवर के द्वारा कथित उस (मोक्ष) को तू सुन, जिससे तू मोक्ष को विशेष रूप से जान सके। शब्दार्थ - जोइय- हे योगी! मोक्खु-मोक्ष, वि-और, मोक्ख-फलु-मोक्ष का फल, पुच्छिउ-पूछा गया, मोक्खहँ -मोक्ष का, हेउ-कारण, सो - वह, जिण-भासिउ- जिनवर के द्वारा कथित, णिसुणि- सुन, तुहुँ-तू, जेण -जिससे, वियाणहि-जाने, भेउ-विशेष।
  19. त्रिविधात्माधिकार के माध्यम से तीनों प्रकार की आत्मा के विषय में जानने के बाद भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से मोक्ष के विषय में जानना चाहते हैं। इस ही गाथा से परमात्मप्रकाश के द्वितीय अधिकार का प्रारम्भ होता है। वे मोक्ष के विषय में प्रश्न करते हैं, इससे सम्बन्धित देखिये मोक्ष अधिकार की प्रथम गाथा - (कल से प्रारम्भ करेंगे आचार्य योगीन्दु का मोक्ष विषयक कथन) 1. सिरिगुरु अक्खहि मोक्खु महु मोक्खहँ कारणु तत्थु। मोक्खहँ केरउ अण्णु फलु जे ँ जाणउँ परमत्थु।। 1।। अर्थ - हे गुरुश्री! मेरे लिए मोक्ष, मोक्ष का वास्तविक कारण और मोक्ष का फल कहो, जिससे मैं परमार्थ को जानूँ। शब्दार्थ - सिरिगुरु- हे गुरुश्री! अक्खहि-कहो, मोक्खु-मोक्ष, महु-मेरे लिए, मोक्खहँ -मोक्ष का, कारणु-कारण, तत्थु- वास्तविक, मोक्खहँ-मोक्ष का, केरउ- सम्बन्धवाची परसर्ग, अण्णु-और, फलु-फल, जे ँ -जिससे, जाणउँ - जानूँ, परमत्थ-सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य को।
  20. आचार्य योगीन्दु इस गााथा से ही त्रिविधात्माधिकार समाप्त करते हैं और इसके आगे की गाथा से मोक्ष अधिकार का प्रारम्भ करते हैं। वे कहते हैं कि जब स्वयं का निर्मल मन परमात्मा के निर्मल मन के समान हो गया तो फिर स्वयं का और परमात्मा का भेद समाप्त हो गया। वे आगे कहते हैं, विषय कषायरूप दोषों में जाते हुए जिसने अपने मन को वहाँ से हटाकर दोषों से रहित परमात्मा में लगा दिया, वही मोक्ष है। दोषों से हटना मोक्ष का कारण है तथा परमात्म अवस्था की प्राप्ति मोक्ष है। मोक्ष परमशान्ति, शाश्वत शान्ति का ही दूसरा नाम है। एक बार परमशान्तिरूप शाश्वत शान्ति को प्राप्त हुआ जीव दुबारा अशान्ति को प्राप्त नहीं होता है। अगले सप्ताह से मोक्ष अधिकार प्रारम्भ किया जायेगा। यहाँ विशेषरूप से यह बताया गया है कि सम्पूर्ण दोषों से रहित अवस्था ही परमात्म अवस्था है और यह परमात्म अवस्था ही मोक्ष अर्थात् परमशान्ति है। देखिये इससे सम्बन्धित इस प्रथम अधिकार का अन्तिम दोहा - 123.3 जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसय-कसायहि ँ जंतु। मोक्खहँ कारणु एत्तडउ अण्णु ण तंतु ण मंतु।। अर्थ - जिसके द्वारा विषय-कषायों में जाते हुए मन को दोषों से रहित (परमात्मा) में रखा गया है, यह ही मोक्ष (परम शान्ति) का कारण है, अन्य ना तंत्र (और) ना (ही) मंत्र (परम शान्ति का कारण है।) शब्दार्थ - जेण- जिसके द्वारा, णिरंजणि-दोषों से रहित, मणु -मन, धरिउ-रखा गया, विसय-कसायहि ँ- विषय कषायों में, जंतु - जाते हुए, मोक्खहँ - मोक्ष का, कारणु-कारण, एत्तडउ-यह, अण्णु-अन्य, ण-नहीं, तंत-तंत्र, ण-नहीं, मंतु-मंत्र।
  21. जैसा कि मैं पूर्व में बता चुकी हूँ परमात्मप्रकाश में तीन अधिकार हैं। 1 त्रिविध आत्मा अधिकार 2 मोक्ष अधिकार 3 महा अधिकार । प्रथम त्रिविधात्माधिकार को आज हम अन्तिम दो दोहों के साथ समाप्त करने जा रहे हैं। वैसे तो अन्त का एक दोहा और शेष रहता है किन्तु इस अधिकार का अन्तिम दोहा आगे के मोक्ष अधिकार के प्रारम्भ का ही कार्य करता है। त्रिविध आत्मा अधिकार में हमने आत्मा के तीन प्रकारों बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा को बहुत ही स्पष्टरूप से समझा। बहिरात्मा से परमात्मा तक की यात्रा करने के बाद इस अधिकार अन्त के दो दोहे में यही कहा गया है कि परमात्मा कही बाहर नहीं वह अपने समचित्त में ही है। परमात्मा के समान स्वयं का भी समचित्त हो जाने पर परमात्मा व स्वयं का भेद समाप्त हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे - इसके बाद परमात्मप्रकाश के द्वितीय मोक्ष अधिकार का विवेचन प्रारम्भ होगा । आशा है वह भी आपके लिए रोचक एवं उपयोगी सिद्ध होगा। 123. 1 देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति । अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति।। अर्थ - परमात्मा देवालय में नहीं, न, ही पत्थर में, न, ही मूर्ति घड़ने में (और) न, ही चित्र में है, (वह) अविनाशी, निरंजन (और) ज्ञानमय परमात्मा समतावान के चित्त में सम्यक्रूप से स्थित है। शब्दार्थ - देउ-परमात्मा, ण-नहीं, देउले-देवालय में, णवि-न, ही, सिलए-पत्थर में, णवि-न, ही, लिप्पइ-मूर्ति घड़ने में, णवि-न,ही, चित्ति-चित्र में, अखउ-अविनाशी, णिरंजणु-निरंजन, णाणमउ-ज्ञानमय, सिउ-परमात्मा, संठिउ-सम्यक्रूप से स्थित, सम-चित्ति-समतावान के चित्त में। 123. 2 मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। बीहि वि समरसि हूवाहँ पुज्ज चडावउँ कस्स।। अर्थ - मन परमेश्वर से मिल गया (और) परमेश्वर भी मन से (मिल गया), (अतः अब) दोनों के ही समरस होने पर पूजा की सामग्री किसके लिए चढाऊँ ? शब्दार्थ - मणु-मन, मिलियउ-मिल गया, परमेसरहँ-परमेश्वर से, परमेसरु-परमेश्वर, वि-भी, मणस्स-मन से, बीहि-दोनों के, वि-ही, समरसि-समरस, हूवाहँ-होने पर, पुज्ज-पूजा की सामग्री, चडावउं-चढाउँ कस्स- किसके लिए। 123.3 जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसय-कसायहि ँ जंतु। मोक्खहँ कारणु एत्तडउ अण्णु ण तंतु ण मंतु।। जिसके द्वारा विषय-कषायों में जाते हुए मन को दोषों से रहित (परमात्मा) में रखा गया है, यह ही मोक्ष (परम शान्ति) का कारण है, अन्य ना तंत्र (और) ना (ही) मंत्र (परम शान्ति का कारण है।)
  22. आचार्य योगीन्दु की स्पष्ट उद्घोषणा है कि परमात्मा की खोज करने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यक्ता नहीं है।अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन हो सकते है, लेकिन इसके लिए मन की निर्मलता आवश्यक है। मलिन मन में परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। मन की मलिनता का कारण मात्र मन की आसक्ति है। जिसके मन आसक्ति से अपवित्र है उसमें परमात्मा का निवास नामुमकिन है। परमात्मा व आसक्ति का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। परमात्मा वे ही बने हैं जिन्होंने अपनी आसक्तिरूपी मलिनता का त्याग किया है। एक मन में आसक्ति व परमात्मा दोनों का एक साथ बसना संभव नहीं है। किसको प्राथमिकता दी जाये ये अपने मन की ही सोच है। आचार्य योगीन्दु इसे स्पष्ट करने के लिए कहते हैं कि जिसके हृदय में सुन्दर स्त्री है, उसके हृदय में परम आत्मा नहीं है। हे वत्स! एक तलवार की म्यान में दो तलवारें किस प्रकार ठहर सकती हैं। आसक्ति से रहित ज्ञानियों के निर्मल मन में ही परमात्मा निवास करता है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आचार्य का सुंदर स्त्री से विरोध नहीं है स्त्री में आसक्ति के वे विरोधी हैं। क्योंकि आसक्ति व्यक्ति के विकास में बाधक है। वे पुरुष की स्त्री में ही नहीं बल्कि स्त्री की पुरुष में आसक्ति के भी विरोधी हैं। उनकी समभाव से सम्बन्धित गाथा इन सब बातों का खुलासा करती हैं। बिना आसक्ति के जीवन जीने की कला उन्होंने समभाव के आधार पर परमात्मप्रकाश में बतायी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 121 जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि। एक्कहि ँ केम समंति वढ बे खंडा पडियारि।। अर्थ - जिसके हृदय में मृग के समान नेत्रवाली (सुन्दर स्त्री) है, उसके (हृदय में) परम आत्मा नहीं है, (ऐसा तू) विचार कर। हे वत्स! एक तलवार की म्यान में दो तलवारें किस प्रकार ठहर सकती हैं। शब्दार्थ - जसु -जिसके, हरिणच्छी-मृग के समान नेत्रवाली, हियवडए-हृदय में, तसु-उसके, णवि-नहीं, बंभु-परमात्मा, वियारि- विचार कर, एक्कहि ँ -एक, केम-किस प्रकार, समंति-ठहरती हैं, वढ-हे वत्स!, बे-दो, खंडा-तलवारें, पडियारि-तलवार की म्यान में। 122. णिय-मणि णिम्मलि णाणियहँ णिवसइ देउ अणाइ। हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ।। अर्थ -जिस प्रकार मानसरोवर में हंस लीन (रहता है) (उसी प्रकार) ज्ञानियों के निज निर्मल मन में अनादि परमात्मा निवास करता है। मेरे (मन में) ऐसा झलकता (मालूम पडता) है। शब्दार्थ - णिय-मणि-निज मन में, णिम्मलि -निर्मल, णाणियहँ - ज्ञानियों के, णिवसइ -बसता है, देउ -परमात्मा, अणाइ-अनादि, हंसा-हंस, सरवरि-मानसरोवर में, लीणु-लीन, जिम-जिस प्रकार, महु-मेरे, एहउ-ऐसा, पडिहाइ-झलकता है।
  23. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि परमात्मा की खोज करने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यक्ता नहीं है। अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन हो सकते है, लेकिन इसके लिए मन की निर्मलता आवश्यक है। मलिन मन में परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 119. जोइय णिय-मणि णिम्मलए पर दीसइ सिउ संतु। अंबरि णिम्मलि घण-रहिए भाणु जि जेम फुरंतु।। अर्थ - हे योगी! अपने निर्मल मन में शान्त परमात्मा पूरी तरह से दिखाई देता है, जिस प्रकार बादलों से रहित निर्मल आकाश में ही चमकता हुआ सूर्य (दिखाई देता है)। शब्दार्थ - जोइय- हे योगी!, णिय-मणि- अपने मन में, णिम्मलए-निर्मल, पर-पूरी तरह से, दीसइ-दिखायी देता है, सिउ-परमात्मा, संतु-शांत, अंबरि- आकाश में, णिम्मलि-निर्मल, घण-रहिए-बादलों से रहित, भाणु -सूर्य,जि-ही, जेम-जिस प्रकार, फुरंतु-चमकता हुआ 120. राएँ रंगिए हियवडए देउ ण दीसइ संतु। दप्पणि मइलए बिंबु जिम एहउ जाणि णिभंतु।। अर्थ - जिस प्रकार मलिन दर्पण में प्रतिबिम्ब (नहीं) (दिखाई देता), (उसी प्रकार)राग से रंगे हुए हृदय में परमात्मा नहीं दिखाई देता। इसको तू संशय रहित होकर समझ। शब्दार्थ - राएँ -राग से, रंगिए-रंगे हुए, हियवडए-हृदय में, देउ-परमात्मा, ण-नहीं, दीसइ-दिखायी देता, संत-शांत, दप्पणि-दर्पण में, मइलए-मलिन, बिंबु -प्रतिबिम्ब, जिम-जिस प्रकार, एहउ-इसको, जाणि -समझ, णिभंतु-संशय रहित। आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि परमात्मा की खोज करने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यक्ता नहीं है। अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन हो सकते है, लेकिन इसके लिए मन की निर्मलता आवश्यक है। मलिन मन में परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 119. जोइय णिय-मणि णिम्मलए पर दीसइ सिउ संतु। अंबरि णिम्मलि घण-रहिए भाणु जि जेम फुरंतु।। अर्थ - हे योगी! अपने निर्मल मन में शान्त परमात्मा पूरी तरह से दिखाई देता है, जिस प्रकार बादलों से रहित निर्मल आकाश में ही चमकता हुआ सूर्य (दिखाई देता है)। शब्दार्थ - जोइय- हे योगी!, णिय-मणि- अपने मन में, णिम्मलए-निर्मल, पर-पूरी तरह से, दीसइ-दिखायी देता है, सिउ-परमात्मा, संतु-शांत, अंबरि- आकाश में, णिम्मलि-निर्मल, घण-रहिए-बादलों से रहित, भाणु -सूर्य,जि-ही, जेम-जिस प्रकार, फुरंतु-चमकता हुआ 120. राएँ रंगिए हियवडए देउ ण दीसइ संतु। दप्पणि मइलए बिंबु जिम एहउ जाणि णिभंतु।। अर्थ - जिस प्रकार मलिन दर्पण में प्रतिबिम्ब (नहीं) (दिखाई देता), (उसी प्रकार)राग से रंगे हुए हृदय में परमात्मा नहीं दिखाई देता। इसको तू संशय रहित होकर समझ। शब्दार्थ - राएँ -राग से, रंगिए-रंगे हुए, हियवडए-हृदय में, देउ-परमात्मा, ण-नहीं, दीसइ-दिखायी देता, संत-शांत, दप्पणि-दर्पण में, मइलए-मलिन, बिंबु -प्रतिबिम्ब, जिम-जिस प्रकार, एहउ-इसको, जाणि -समझ, णिभंतु-संशय रहित।
  24. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सभी जीवों को आत्मा के दर्शन से प्राप्त होनेवाला सुख समान कोटि का होता है। सभी जीवों को आत्म दर्शन तभी सम्भव है जब उनका मन राग रहित हो। राग ही द्वेष का कारण होता है। राग रहित मन ही द्वेष रहित होता है तथा राग और द्वेष रहित निर्मल मन में ही स्पष्ट आत्मा के दर्शन होते हैं। सभी निर्मल मन के आत्म दर्शन का सुख समान होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 118. अप्पा-दंसणि जिणवरहँ जं सुहु होइ अणंतु। तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु।। अर्थ - अर्हन्देवों के लिए आत्मा के दर्शन में जो अनन्त सुख होता है, उस सुख को राग रहित प्राणी (मुनि) शान्त परम आत्मा को अनुभव करते हुए प्राप्त करता है। शब्दार्थ - अप्पा-दंसणि- आत्मा के दर्शन में, जिणवरहँ -अर्हन्देवों के लिए, जं - जो, सुहु-सुख, होइ - होता है, अणंतु-अनन्त, तं - उस, सुहु-सुख को, लहइ-प्राप्त करता है, विराउ-राग रहित, -प्राणी, जाणंतउ-अनुभव करता हुआ, सिउ -परमात्मा को, संतु-शान्त।
  25. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि परम आत्मा की प्राप्ति के अतिरिक्ति अन्य सभी द्रव्यों की प्राप्ति क्षणिक सुखदायी है। जैसे ही एक वस्तु प्राप्त होती है, दूसरी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत होती है और इस प्रकार अनन्त इच्छाओं की पूर्ति की भागदौड़ में मनुष्य जीवन संघर्ष करते करते व्यतीत हो जाता है। अन्त में जब मनुष्य की शक्ति मानसिक व शारीरिकरूप से क्षीण हो जाती है तब मनुष्य दुःखपूर्वक मरण को प्राप्त होता है, जो उसके मनुष्य जन्म का दुःखद परिणाम है। आचार्य योगिन्दु के अनुसार मात्र परम आत्मा का दर्शन ही वह सर्वश्रेष्ठ सुख है जो शाश्वत है । परम आत्मा के दर्शन के बाद व्यक्ति को आगे कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा शेष नहीं रहती है। इस परम आत्मा के दर्शन के विषय में आचार्य कहते हैं कि परम आत्मा के दर्शन के सुख के बराबर लोक में और कोई सुख नहीं है। करोड़ो देवियों के साथ सुख भोगते हुए इन्द्र का सुख भी आत्मा के दर्शन के सुख के समक्ष कुछ भी नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 116. जं सिव-दंसणि परम-सुहु पावहि झाणु करंतु। तं सुहु भुवणि वि अत्थि णवि मेल्लिवि देउ अणंतु।। अर्थ - तू ध्यान करता हुआ परम आत्मा के दर्शन में जिस परम सुख को प्राप्त करता है, वह सुख अनन्त परमआत्मा को छोड़कर लोक में है ही नहीं। शब्दार्थ - जं-जिस, सिव-दंसणि-परमात्मा के दर्शन में, परम-सुहु -परम सुख को, पावहि-प्राप्त करता है, झाणु - ध्यान, करंतु-करता हुआ, तं -वह, सुहु - सुख, भुवणि- लोक में, वि-ही, अत्थि-है, णवि -नहीं, मेल्लिवि-छोड़कर, देउ-परमात्मा को, अणंतु-अनन्त। 117. जं मुणि लहइ अणंत-सुहु णिय अप्पा झायंतु। तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहि ँ कोडि रमंतु।। अर्थ -मुनि अपनी आत्मा का ध्यान करता हुआ जिस अनन्त सुख को प्राप्त करता है, उस सुख को करोड़ देवियों के साथ क्रीड़ा करता हुआ इन्द्र भी प्राप्त नहीं करता। शब्दार्थ - जं -जिस, मुणि-मुनि, लहइ-प्राप्त करता है, अणंत-सुहु- अनन्त सुख को, णिय- अप्पा- अपनी आत्मा का, झायंतु-ध्यान करता हुआ, तं -उस, सुहु -सुख को, इंदु-इन्द्र, वि - भी, णवि - नहीं, लहइ -प्राप्त करता है, देविहि ँ-देवियों के साथ, कोडि-करोड़ों रमंतु-क्रीड़ा करता हुआ।
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