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Sneh Jain

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  1. बन्धुओं, जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि आचार्य योगिन्दु का समय ई 6ठी शताब्दी है। मैं आपको इस ग्रंथ के बारे में विश्वास दिलाती हूँ कि जब आप इस ग्रंथ का मनोयोगपूर्वक अध्ययन कर लेंगे तब आप इस संसार के वैचारिक द्वन्द से आक्रान्त होने से आसानी से बच जायेंगे। आपका अपने कार्य के प्रति लिया गया निर्णय सही होगा। इससे आप अपने जीवन के आनन्द का मधुर रस पान कर सकेंगे। मैं आपको कर्म की परिभाषा से पूर्व इस ग्रंथ के विषय में पुनः बता दूं कि यह ग्रंथ मुख्यरूप से तीन भागों में विभक्त है। 1. त्रिविध आत्मा अधिकार 2. मोक्ष अधिकार 3. महा अधिकार। वैसे भी यदि हम देखें तो हमारे जीवन में हमारा सबसे महत्वपूर्ण सम्बन्ध भी इन तीन अधिकारों से ही है। प्रथम अधिकार आत्मा से सम्बन्धित है तो हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण आत्मा ही है। आत्मा के अभाव में हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। दूसरा अधिकार मोक्ष अधिकार है। मोक्ष का अर्थ शान्ति है। तो हम सब बन्धनों से मुक्त शान्ति की प्रयास में ही निरन्तर रत हैं। बन्धन, गुलामी की जिन्दगी मनुष्य तो क्या पशु भी पसंद नहीं करता। तीसरा अधिकार महा अधिकार, जो साधुओं से सम्बन्धित है। आचार्य योगिन्दु स्वयं एक संन्यासी थे, अतः उन्होंने यह अधिकार अपने साधर्मी बंधुओं के लिए ही लिखा है। वैसे ही साधर्मी बन्धुओं से प्रेम हमारे भी जीवन का अभिन्न अंग है। मेरा मानना है कि यह ग्रंथ धीरे-धीरे आपके आनन्द को बढ़ायेगा। आचार्य कर्म के विषय में कहते हैं कि जब उपादानरूप जीव विषय-कषायों में आसक्त होता है और उसका किसी निमित्त से सम्बन्ध जुड़ता है तब उसके स्वयं के विषय-कषायरूप राग में आसक्त होने के कारण किसी भी निमित्त के प्रयोजन से जो परमाणु चिपकते हैं वही कर्म है। विषय-कषाय के अभाव में परमाणु चिपकते नहीं है, जिससे कर्म बन्ध नहीं होता है। देखिये इससे सम्बन्धित अगला दोहा - 62. विसय-कसायहि ँ रंगियहँ ते अणुया लग्गंति । जीव-पएसहँ मोहियहँ ते जिण कम्म भणंति। अर्थ - विषय-कषायों से रंगे हुए मोहित जीवों के प्रदेशों के जो परमाण जुडते हैं, उनको जिनेन्द्रदेव कर्म कहते हैं। शब्दार्थ - विसय-कसायहि ँ - विषय-कषायों से, रंगियहँ - रंगे गये, ते - जो, अणुया - परमाणु, लग्गंति- जुड़ जाते हैं, जीव-पएसहँ - जीव प्रदेशों के, मोहियहँ - मोहित, ते - उनको, जिण - जिनेन्द्रदेव, कम्म - कर्म, भणंति - कहते हैं।
  2. आचार्य योगिन्दु कर्म के विषय में स्पष्ट करते हैं किन्तु वे उन कर्मों की नाम सहित व्याख्या नहीं करते, क्योंकि उनके अपने जैन सम्प्रदाय में प्रत्येक धर्म ग्रंथ में इसका उल्लेख होने से प्रायः सभी इससे परिचित हैं। वे कर्म के विषय में कहते हैं कि कर्म से आच्छादित हुआ जीव अपने मूल आत्म स्वभाव को प्राप्त नहीं करता है। वैसे ये आठ कर्म हैं - ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय। ज्ञान का आवरण होने से प्राणी ज्ञान के सही स्वरूप से अवगत नहीं होता, दर्शन का आवरण होने से वस्तु के स्वरूप का सही दर्शन नहीं होता। इसी प्रकार अन्य सभी कर्मों से आच्छादित हुआ जीव अपने आत्म स्वभाव को प्राप्त नहीं करता। सिद्ध आठों कर्मों से मुक्त होते हैं तथा अरिहन्त चार कर्मों से मुक्त होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 61. ते पुणु जीवहँ जोइया अट्ठ वि कम्म हवंति । जेहि ँ जि झंपिय जीव णवि अप्प-सहाउ लहंति।। 61।। अर्थ - हे योगी! जीवों के वे कर्म तथापि आठ ही होते है, जिनसे आच्छादित किये हुए जीव आत्म स्वभाव को प्राप्त नहीं करते हैं। शब्दार्थ - ते - वे, पुणु -तथापि, जीवहँ -जीव के, जोइया - हे योगी, अट्ठ -आठ, वि - ही, कम्म - कर्म, हवंति - होते हैं, जेहि ँ - जिनसे, जि - ही, झंपिय - आच्छादित किये हुए, जीव-जीव, णवि - नहीं अप्प-सहाउ- आत्म स्वभाव को, लहंति - प्राप्त करते हैं।
  3. भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भारत देश में विद्यमान सभी धर्मों के धर्माचार्यों ने सभी जीवों का प्राण कर्म को ही अंगीकार किया है। गीता, महाभारत, रामायण, समयसार, आचारंग बाइबिल, कुरान कोई भी ग्रंथ किसी भी धर्माचार्य द्वारा विरचित हो सभी कर्म को प्रमुखता देते हैं। कर्म को प्रमुखता देकर उसको अंगीकार करनेवाला कोई भी प्राणी धर्मान्धता को मान्यता नहीं देता। वह किसी भी भी झूठे चमत्कार में विश्वास नहीं करता, अपितु धर्मान्धों के चमत्कार में भी वह सच्चाई को ढूंढ निकालता है। किसी भी धर्माचार्य द्वारा रचित कोई भी ग्रंथ ऐसा नहीं जो कर्म की बात करने से विमुख हो। सभी धर्माचार्यों ने अपने ग्रंथों में सत्कर्म करने का ही उपदेश दिया है, तथा सत्कर्म को ही उसके सुख का आधार घोषित किया है। प्रस्तुत परमात्मप्रकाश ग्रंथ में भी दिगम्बर जैन आचार्य योगिन्दु ने कर्म के विषय में कहा है कि प्राणी के धर्म और अधर्म का कारण यह कर्म ही है। देखिये इससे सम्बन्धित परमात्मप्रकाश का क्रमशः 60 दोहा - 60. एहु ववहारे ँ जीवउउ हेउ लहेविणु कम्मु । बहुविह-भावे ँ परिणवइ तेण जि धम्मु- अहम्मु।। 60।। अर्थ -यह जीव कर्म (रूप) कारण को प्राप्तकर अनेक प्रकार के भाव से रूपान्तर को प्राप्त होता है, उससे ही धर्म और अधर्म होता है। शब्दार्थ - एहु - यह, ववहारे ँ- व्यवहार से, जीवउउ-जीव, हेउ-कारण को, लहेविणु-प्राप्त कर, कम्मु-कर्म, बहुविह-भावे ँ-अनेक प्रकार के भाव से, परिणवइ - रूपान्तर को प्राप्त होता है, तेण-उससे, जि-ही, धम्मु- अहम्मु- धर्म और अधर्म।
  4. कर्म सिद्धान्त जैन धर्म एवं दर्शन की रीढ़ है। आचार्य योगीन्दु परमआत्मा का स्वरूप, आत्मा का लक्षण आदि को स्पष्ट करने के बाद आत्मा व कर्म में परस्पर सम्बन्ध का कथन परमात्मप्रकाश में 59.66 दोहों में करते हैं। वे कहते हैं कि जीवों का कर्म अनादिकाल से चला आ रहा है, इन दोनों का ही आदि नहीं है। यह जीव कर्म के कारण ही अनेक रूपान्तरों को प्राप्त होता है। आत्मा के साथ कर्म के सम्बन्ध को हम एक-एक दोहे के माध्यम से देखने और समझने का प्रयास करते हैं - 59. जीवहँ कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण। कम्मे ँ जीउ वि जणिउ णवि दोहि ँ वि आइ ण जेण ।। 59।। अर्थ - हे जीव! जीवों का कर्म अनादिकाल से चला आता हुआ है, उस जीव के द्वारा कर्म उत्पन्न नहीं किया गया, कर्म के द्वारा भी यह जीव उत्पन्न नहीं किया गया, जिससे इन दोनों का ही आदि नहीं है। शब्दार्थ - जीवहँ - जीवों का, कम्मु - कर्म, अणाइ - अनादिकाल से चला आता हुआ, जिय- हे जीव, जणियउ - उत्पन्न किया गया, कम्मु - कर्म, ण - नहीं, तेण - उसके द्वारा, कम्मे ँ -कर्म के द्वारा, जीउ - जीव, वि -भी, जणिउ - उत्पन्न किया गया, णवि - नहीं, दोहि ँ-दोनों का, वि - ही, आइ - आदि, ण-नहीं, जेण - जिससे।
  5. आगे के दो दोहे में आचार्य आत्मा के लक्षण को स्पष्ट करते हैं कि आत्मा द्रव्य है जो गुण और पर्याय से युक्त है। दर्शन और ज्ञान उसके गुण हैं तथा भाव व शरीर सहित चारों गति में जन्म लेना उसकी पर्याय है जो अनुक्रम से विद्यमान है। गुण सदैव आत्मा के साथ रहते हैं जबकि पर्याय परिवर्तनशील है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 57. तं परियाणहि दव्वु तुहुँ जं गुण-पज्जय-जुत्तु। सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम-भुव पज्जउ वुत्तु।। 57।। अर्थ - जो कोई गुण और पर्याय सहित है उसको द्रव्य जान, (आत्मा के) (सदा) एक साथ विद्यमान को उन (द्रव्य) का गुण जान (तथा) अनुक्रम से विद्यमान (द्रव्य की ) पर्याय कही गयी है। शब्दार्थ - तं - उसको, परियाणहि-जान, दव्वु- द्रव्य, तुहुँ -तू, जं - जो कोई, गुण-पज्जय-जुत्तु- गुण, पर्याय सहित, सह-भुव - एक साथ विद्यमान को, जाणहि - जान, ताहँ- उनका, गुण-गुण, कम-भुव - अनुक्रम से विद्यमान, पज्जउ-पर्याय, वुत्तु- कही गयी है। 58. अप्पा बुज्झहि दव्वु तुहुँ गुण पुणु दंसणु णाणु । पज्जय चउ-गइ-भाव तणु कम्म-विणिम्मिय जाणु।। 58।। अर्थ - तू आत्मा को द्रव्य तथा दर्शन और ज्ञान को गुण जान, चारों गति, भाव (तथा) शरीर को कर्म से रचित पर्याय जान। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा को, बुज्झहि-जान, दव्वु -द्रव्य, तुहुँ -तू, गुण-गुण, पुणु - और, दंसणु - दर्शन, णाणु -ज्ञान, पज्जय-पर्याय, चउ-गइ-भाव चारों गति के भाव, तणु -शरीर, कम्म-विणिम्मिय - कर्म से रचित, जाणु - जान।
  6. आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की आत्म विषयक शंका का समाधान करने के बाद आत्मा के विषय में और स्पष्ट करते हुए कहते है कि आत्मा अनादि और अनित्य है। द्रव्य स्वभाव से यह नित्य है तथा पर्याय स्वभाव से यह नाशवान है। देखिये परमात्मप्रकाश के आगे का दोहा क्रमशः - 56. अप्पा जणियउ केण ण वि अप्पे ँ जणिउ ण कोइ। दव्व-सहावे ँ णिच्चु मुणि पज्जउ विणसइ होइ।। 56।। अर्थ - आत्मा किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं की गई, आत्मा के द्वारा कोई उत्पन्न नहीं किया गया, द्रव्य के स्वभाव से (आत्मा ) नित्य है, किन्तु इसकी पर्याय नष्ट होती है। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, जणियउ - उत्पन्न की गयी, केण - किसी के द्वारा, ण वि - नहीं, अप्पे ँ - आत्मा के द्वारा, जणिउ - उत्पन्न किया गया, ण - नहीं, कोइ-कोई, दव्व-सहावे ँ- द्रव्य के स्वभाव से, णिच्चु - शाश्वत, मुणि - जानो, पज्जउ-पर्याय, विणसइ-नष्ट होती है, होइ-है।
  7. आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि आत्मा अनेकान्त दृष्टि से तुम्हारे अनुसार बताये गये स्वरूपों में से सभी स्वरूपों से युक्त है। तीन स्वरूपों को बता चुकने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा सभी प्रकार के कर्मों एवं सभी प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण शून्य है, इसी कारण पूर्णरूप से शुद्ध भी है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 55 अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण । सुद्धहँ एक्कुवि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण।। 55।। अर्थ - जिस कारण से (आत्मा के) आठ ही कर्म (तथा) और भी बहुत प्रकार के नौ-नौ (अठारह) दोष होते हैं, शुद्ध आत्माओं के (उन दोषों में से) एक भी (दोष ) नहीं है, उस कारण से (आत्मा) शून्य भी कही जाती है। शब्दार्थ - अट्ठ-आठ, वि -ही, कम्मइँ-कर्म, बहुविहइँ-बहुत प्रकार के, णवणव-नौ-नौ, दोस-दोष, वि-और भी, जेण-जिस कारण से, सुद्धहँ -शुद्धों के, एक्कु -एक, वि-भी, अत्थि - है, णवि -नहीं, सुण्णु-शून्य, वि-भी, वुच्चइ-कही जाती है, तेण-उस कारण से।
  8. आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि आत्मा अनेकान्त दृष्टि से तुम्हारे अनुसार बताये गये स्वरूपों में से सभी स्वरूपों से युक्त है। तीन स्वरूपों को बता चुकने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा सभी प्रकार के कर्मों एवं सभी प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण शून्य है, इसी कारण पूर्णरूप से शुद्ध भी है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 55 अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण । सुद्धहँ एक्कुवि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण।। 55।। अर्थ - जिस कारण से (आत्मा के) आठ ही कर्म (तथा) और भी बहुत प्रकार के नौ-नौ (अठारह) दोष होते हैं, शुद्ध आत्माओं के (उन दोषों में से) एक भी (दोष ) नहीं है, उस कारण से (आत्मा) शून्य भी कही जाती है। शब्दार्थ - अट्ठ-आठ, वि -ही, कम्मइँ-कर्म, बहुविहइँ-बहुत प्रकार के, णवणव-नौ-नौ, दोस-दोष, वि-और भी, जेण-जिस कारण से, सुद्धहँ -शुद्धों के, एक्कु -एक, वि-भी, अत्थि - है, णवि -नहीं, सुण्णु-शून्य, वि-भी, वुच्चइ-कही जाती है, तेण-उस कारण से।
  9. आत्मा का सर्वव्यापक व जड़ स्वरूप का कथन करने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप चरमशरीर प्रमाण भी है क्योंकि निमित्त से रहित हुए शुद्ध जीव का न क्षय होता है और न वृद्धि होती है। देखिये इस कथन से सम्बन्धित दोहा - 54. कारण - विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण। चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण।। 54।। अर्थ - निमित्त से रहित शुद्ध जीव जिस (निमित्त) के कारण से बढता-खिरता नहीं है, उस (निमित्त) के कारण जिनेन्द्रदेव आत्मा को सम्पूर्ण (अन्तिम) शरीर प्रमाण कहते हैं। शब्दार्थ - कारण-विरहिउ - कारण से रहित, सुद्ध-जिउ -शुद्ध जीव, वड्ढइ-बढता है, खिरइ-घटता है, ण-नहीं, जेण-जिस कारण से, चरम-सरीर-पमाणु-चरमशरीर प्रमाण, जिउ-आत्मा को, जिणवर-जिनेन्द्रदेव, बोल्लहिं-कहते हैं, तेण-उस कारण।
  10. आत्मा का सर्वव्यापक व जड़ स्वरूप का कथन करने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप चरमशरीर प्रमाण भी है क्योंकि निमित्त से रहित हुए शुद्ध जीव का न क्षय होता है और न वृद्धि होती है। देखिये इस कथन से सम्बन्धित दोहा - 54. कारण - विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण। चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण।। 54।। अर्थ - निमित्त से रहित शुद्ध जीव जिस (निमित्त) के कारण से बढता-खिरता नहीं है, उस (निमित्त) के कारण जिनेन्द्रदेव आत्मा को सम्पूर्ण (अन्तिम) शरीर प्रमाण कहते हैं। शब्दार्थ - कारण-विरहिउ - कारण से रहित, सुद्ध-जिउ -शुद्ध जीव, वड्ढइ-बढता है, खिरइ-घटता है, ण-नहीं, जेण-जिस कारण से, चरम-सरीर-पमाणु-चरमशरीर प्रमाण, जिउ-आत्मा को, जिणवर-जिनेन्द्रदेव, बोल्लहिं-कहते हैं, तेण-उस कारण।
  11. भट्टप्रभाकर के द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि स्वबोध में पूर्णरूप से स्थित जीवों में इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा से ज्ञान नहीं होता । अतः इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा जड़ है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 53. जे णिय-बोह -परिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु। इंदिय-जणियउ जोइया तिं जिउ जडु वि वियाणु।। 53।। अर्थ - स्वबोध में सम्पूर्णरूप से स्थित हुए जीवों का जो इन्द्रियों से उत्पन्न किया ज्ञान खण्डित होता है, उस (इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान के खण्डित होने)के कारण आत्मा को जड भी जानो। शब्दार्थ - जे-जो, णिय-बोह -परिट्ठियहँ - स्वबोध में पूर्णरूप से स्थित हुए, जीवहँ - जीवों का, तुट्टइ -खण्ड़ित होता है, णाणु-ज्ञान, इंदिय-जणियउ-इन्द्रिय से उत्पन्न किया, जोइया-हे योगी!, तिं-उस कारण से, जिउ-आत्मा को जडु-जड़, वि-भी, वियाणु-जानो।
  12. भट्टप्रभाकर के द्वारा यह पूछा जाने पर कि कुछ लोग आत्मा को सर्वव्यापक कहते हैं इसमें आपका क्या विचार है ? तब आचार्य योगिन्दु कहते हैं जिन लोगों ने आत्मा को सर्वव्यापक बताया है वह सही है। कर्म से रहित हुई केवलज्ञानरूप आत्मा में समस्त लोक व अलोक स्पष्ट झलकता है, इसलिए आत्मा को सर्वव्यापक कहा गया है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 52. अप्पा कम्म - विवज्जियउ केवल-णाणे ँ जेण । लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ।। 52।। अर्थ - कर्मरहित आत्मा जिस केवलज्ञान से लोक और अलोक कोे जानता है, उस (केवलज्ञान) के कारण आत्मा सर्वव्यापक कहा जाता है। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, कम्म-विवज्जियउ- कर्मरहित, केवल-णाणे ँ -केवलज्ञान से, जेण-जिस, लोयालोउ-लोक और अलोक को, वि-भी, मुणइ-जानता है, जिय-आत्मा, सव्वगु-सर्वव्यापक, वुच्चइ-कहा जाता है, तेण-के कारण।
  13. भट्टप्रभाकर की आत्म विषयक शंका को सुनकर आचार्य योगिन्दु उसकी शंका के अनुरूप ही क्रमशः उसकी शंका का समाधान करते है। यह समाधान भट्टप्रभाकर के समान हम सबके लिए भी अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यक है। आगे के 5 दोहों में आत्मा के स्वरूप को बताया गया है। इस दोहे में वे कहते हैं कि जो जो गुण तुमने आत्मा के विषय में सबकी दृष्टि के अनुसार देखे वे सभी गुण आत्मा में हैं। आगे फिर उसका खुलासा करेंगे कि वह प्रत्येक गुण आत्मा में किस प्रकार है। चलिए देखते है यह दोहा - 51. अप्पा जोइय सव्व-गउ अप्पा जडु वि वियाणि । अप्पा देह-पमाणु मुणि अप्पा सुण्णु वियाणि ।। 51।। अर्थ - हे योगी ! आत्मा को सर्वव्यापक (और) जड भी जानो, आत्मा को देह की नाप (के समान) (तथा आत्मा को शून्य भी जानो। शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा को, जोइय-हे यागी!, सव्व-गउ-सर्वव्यापक, अप्पा-आत्मा को, जडु - जड, वि -और भी, वियाणि - जानो, अप्पा-आत्मा को, देह-पमाणु-देह की नाप, मुणि -जानो, अप्पा-आत्मा को, सुण्ण-शून्य, वि-भी, ,वियाणि-जानो।
  14. अभी हमने आत्मा के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप अर्थात आत्मा की परम अवस्था के स्वरूप के विषय में विस्तार से समझा। हमें परमात्मप्रकाश के अध्ययन के साथ यह भी देखना चाहिए कि आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ थे। इसी कारण उन्होंने सर्व प्रथम हमारे समक्ष आत्मा का उत्कृट स्वरूप को रक्खा ताकि हम उससे आगे बताये आत्मा से सम्बन्धित सम्पूर्ण विवेचन से भलीभाँति अवगत हो सके।परमात्मा के स्वरूप से पूर्ण अवगत होने पर भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से प्रश्न करते हैं कि आखिर आत्मा है क्या ? यह प्रश्न भट्टप्रभाकर द्वारा जितनी रोचकता के साथ पूछा गया है उतनी ही अद्भुतता के साथ आचार्य द्वारा उस प्रश्न का समाधान किया गया है। आज हम मात्र प्रश्न को देखते है फिर अगले ब्लाग में प्रश्न का समाधान देखेंगे। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 50. कि वि भणंति जिउ सव्वगउ जिउ जडु के वि भणंति। कि वि भणंति जिउ देह-समु सुण्णु वि के वि भणंति।। अर्थ - कोई जीव को सर्वव्यापक कहते हैं, कोई जीव को अचेतन कहते हैं, कोई जीव को देह के समान कहते हैं (तथा) कोई (जीव को) शून्य भी कहते हैं।(आखिर आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है ?) शब्दार्थ- कि वि-कोई, भणंति-कहते हैं, जिउ-जीव को, सव्वगउ-सर्वव्यापक, जिउ-जीव को, जडु-अचेतन, के वि-कोई भणंति-कहते हैं, कि वि - कोई, भणंति-कहते हैं, जिउ-जीव को, देह-समु- देह के समान, सुण्णु-शून्य, वि-भी, के वि-कोई भणंति-कहते हैं।
  15. अभी हमने आत्मा के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप अर्थात आत्मा की परम अवस्था के स्वरूप के विषय में विस्तार से समझा। हमें परमात्मप्रकाश के अध्ययन के साथ यह भी देखना चाहिए कि आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ थे। इसी कारण उन्होंने सर्व प्रथम हमारे समक्ष आत्मा का उत्कृट स्वरूप को रक्खा ताकि हम उससे आगे बताये आत्मा से सम्बन्धित सम्पूर्ण विवेचन से भलीभाँति अवगत हो सके।परमात्मा के स्वरूप से पूर्ण अवगत होने पर भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से प्रश्न करते हैं कि आखिर आत्मा है क्या ? यह प्रश्न भट्टप्रभाकर द्वारा जितनी रोचकता के साथ पूछा गया है उतनी ही अद्भुतता के साथ आचार्य द्वारा उस प्रश्न का समाधान किया गया है। आज हम मात्र प्रश्न को देखते है फिर अगले ब्लाग में प्रश्न का समाधान देखेंगे। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 50. कि वि भणंति जिउ सव्वगउ जिउ जडु के वि भणंति। कि वि भणंति जिउ देह-समु सुण्णु वि के वि भणंति।। अर्थ - कोई जीव को सर्वव्यापक कहते हैं, कोई जीव को अचेतन कहते हैं, कोई जीव को देह के समान कहते हैं (तथा) कोई (जीव को) शून्य भी कहते हैं।(आखिर आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है ?) शब्दार्थ- कि वि-कोई, भणंति-कहते हैं, जिउ-जीव को, सव्वगउ-सर्वव्यापक, जिउ-जीव को, जडु-अचेतन, के वि-कोई भणंति-कहते हैं, कि वि - कोई, भणंति-कहते हैं, जिउ-जीव को, देह-समु- देह के समान, सुण्णु-शून्य, वि-भी, के वि-कोई भणंति-कहते हैं।
  16. आचार्य योगीन्द्र कहते हैं मात्र कर्म ही जीव के सुख-दुःख का कारण है। कर्म बंधन से मुक्त हुआ जीव ही सुख दुःख से परे शान्त अवस्था को प्राप्त हुआ परम आत्मा होता है। परम आत्मा से न कुछ उत्पन्न होता है और ना ही उसका कुछ हरण किया जाता है। आत्मा कर्मरूप होकर भी कर्मों से बंधी हुई नहीं होती। देखिये इस कथन को परमात्मप्रकाश के दो दोहे में इस प्रकार बताया गया है - 48. कम्मइं जासु जणंतहि ँ वि णिउ णिउ कज्जु सया वि । किं पि ण जणियउ हरिउ णवि सो परमप्पउ भावि ।। अर्थ - निश्चयरूप से कर्म ही हमेशा जिसके अपने-अपने (सुख-दुःखादि) कार्य को उत्पन्न करते हैं। (किन्तु ) (जो) (किसी के द्वारा) न कुछ भी उत्पन्न की गई और न ही हरण की गयी (है), वह ही परम- आत्मा है, (तुम इस प्रकार ) चिन्तन करो। शब्दार्थ - कम्मइं- कर्म, जासु-जिसके, जणंतहि ँ -उत्पन्न करते हैं, वि-ही, णिउ णिउ -अपने-अपने कज्जु -कार्य को,सया वि-हमेशा,किं पि-कुछ भी, ण -न,जणियउ-उत्पन्न की गयी, हरिउ-हरण की गयी, णवि-ना ही, सो-वह, परमप्पउ -परम आत्मा, भावि-चिन्तन कर । 49. कम्म-णिबद्धु वि होइ णवि जो फुडु कम्मु कया वि । कम्मु वि जो ण कया वि फुडु सो परमप्पउ भावि ।। अर्थ - जो (आत्मा) आत्मा कर्मरूप होकर भी कर्मों से निश्चितरूप से बँंधी हुई नहीं होती (तथा) जो कर्म भी निश्चितरूप से कभी भी (उस आत्मा के) नहीं (होते) (ऐसी) वह परम- आत्मा है, (तुम इस प्रकार) चिन्तन करो। यहाँ तक परमात्मप्रकाश के 49 दोहों में आत्मा के परमात्म स्वरूप का कथन पूर्ण हुआ । आगे भट्टप्रभाकर के प्रश्न के साथ पुनः आत्मा के स्वरूप के विषय में हम देखेंगे।
  17. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जिस प्रकार मंडप के आश्रय के अभाव में बेल मुडकर स्थित हो जाती है उसी प्रकार मुक्ति को प्राप्त हुआ जीव ज्ञान-ज्ञेय के आलंबन के अभाव में प्रतिबिम्बित हुआ लोकाकाश में स्थिर हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 47. णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि । मुक्कहँ जसु पय बिंबियउ परम-सहाउ भणेवि ।। अर्थ - बेल की तरह मुक्ति को प्राप्त हुए जिस जीव का ज्ञान- ज्ञेय के (आलम्बन के) अभाव में लौटकर (तथा) परम स्वभाव का प्रतिपादन करके (इस लोकाकाश में) प्रतिबिम्बित हुआ स्थिर हो जाता है, (वह ही परम- आत्मा है।) शब्दार्थ - णेयाभावे-ज्ञेय के अभाव में, विल्लि-बेल, जिम-की तरह, थक्कइ-स्थिर हो जाता है, णाणु-ज्ञान, वलेवि-लौटकर,मुक्कहँ -मुक्त हुओं का जसु -जिस,पय-जीव,बिंबियउ -प्रतिबिम्बित हुआ, परम-सहाउ-परम स्वभाव को, भणेवि-प्रतिपादित करके।
  18. आचार्य योगीन्दु कहते है कि जो सभी प्रकार के बन्ध और संसार से रहित है, वह ही परम आत्मा है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 46. जसु परमत्थे ँ बंधु णवि जोइय ण वि संसारु । सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लिवि ववहारु ।। अर्थ - हे योगी! वास्तविकरूप में जिसके न ही (संसार के कारण, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप) बन्ध है, न ही (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप) संसार है, वह परम-आत्मा है। तुम मन से (सब लौकिक व्यवहार) विवाद त्यागकर (वीतरागता में स्थित होकर) यह समझो। शब्दार्थ - जसु -जिसके, परमत्थे ँ - वास्तविकरूप म,ें बंधु -बंध, ण -न, वि-ही, जोइय-हे योगी!, ण-न, वि-ही, संसारु-संसार, सो -वह, परमप्पउ -परम आत्मा, जाणि- समझो, तुहुँ-तुम, मणि-मन में, मिल्लिवि -त्यागकर, ववहारु-विवाद को
  19. आचार्य योगिन्दु परमात्मप्रकाश में बताते हैं कि आत्मा और शरीर का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। दोनों में परष्पर इतना अटूट सम्बन्ध है कि एक दूसरे के अभाव में दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। इसके बाद वे कहते हैं कि फिर भी आत्मा का देह से विशिष्ट महत्व है। वे इस बात को स्पष्ट करने हेतु कहते हैं कि जिस आत्मा के होने तक ही सारे इन्द्रिय व विषय सुखों को जाना जाता है, अनुभव किया जाता है। जबकि मात्र इन्द्रियों के विषयों द्वारा आत्मा का अनुभव नहीं किया जाता है। इसी बात को दोहे में इस प्रकार कहा गया है - 45. जो णिय-करणहि ँ पंचहि ँ वि पंच वि विसय मुणेइ। मुणिउ ण पंचहि ँ पंचहि ँ वि सो परमप्पु हवेइ ।। अर्थ - जो अपनी पाँचों ही इन्द्रियों द्वारा पाँचों ही विषयों को जानता है (किन्तु) जो पाँचों (इन्द्रियों) द्वारा (और) पाँचों (ही) (विषयों) द्वारा नहीं जाना गया (है), वह परम- आत्मा होता है। शब्दार्थ - जो-जो, णिय-करणहि ँ-अपनी इन्द्रियों द्वारा, पंचहि ँ-पाँचों, वि-ही, पंच-पाँचों, वि-ही, विसय-विषयों को, मुणेइ-जानता है, मुणिउ-जाना गया, ण-नहीं, पंचहि ँ-पाँचों द्वारा, पंचहि ँ-पाँचों द्वारा, वि-ही, सो-वह, परमप्पु-परम आत्मा, हवेइ-होता है।
  20. आचार्य योगिन्दु परमात्मप्रकाश के 44 वें दोहे में कहते हैं कि आत्मा वह है जिसे कोई भी जीव नकार नहीं सकता। आत्मा की अनुभूति चाहे बिना निर्मल मन के संभव नहीं किन्तु उसके अस्तित्व की बात को साधारण मनुष्य भी आचार्य योगिन्दु के इस दोहे में कथित शब्दों से आसानी से समझ सकता है। आचार्य आत्मा के अस्तित्व के साथ शरीर के साथ आत्मा का दृढ़ सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं कि यह इन्द्रिय रूपी गाँव अर्थात हमारा शरीर जब तक ही है तब तक इसका सम्बन्ध आत्मा से जुड़ा हुआ है। लेकिन जैसे ही इसका आत्मा से सम्बन्ध टूट जाता है, यह शरीर भी पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाता है। वैसे ही शरीर के बिना मुक्त आत्मा को छोड़कर सांसारिक आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। देखते हैं इसी से सम्बन्धित दोहा - 44 देहि वसंते ँ जेण पर इंदिय-गामु वसेइ । उव्वसु होइ गएण फुडु सो परमप्पु हवेइ।। शब्दार्थ - देहि-देह में, वसंते ँ-बसते हुए होने के कारण, जेण-जिससे, पर-परन्तु, इंदिय-गामु-इन्द्रियरूपी गााँव, वसेइ-बसता है, उव्वसु-उजाड़, होइ-हो जाता है, गएण-निकल जाने के कारण, फुडु-निश्चय ही, सो - वह, परमप्पु-परम आत्मा, हवेइ-होता है।
  21. परमात्मप्रकाश के दोहे 42 में बताया गया है कि परम समाधि का अनुभव सांसारिक भोगों के प्रति आसक्ति के त्याग से ही संभव है। भोगों के साथ परम आत्मा की अनुभूति की बात करना चट्टान पर कमल उगाना तथा पानी से मक्खन निकालने के समान है। सभी महापुरुषों ने परमात्मा की अनुभूति भोगों से विरक्त होकर परमसमाधि व तप करके ही की है। 42. देहि वसंतु वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति । परम-समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणंति ।। अर्थ - हरि, हर, (अरिहन्त जैसे महापुरुष) भी देह में बसता हुआ भी जिस (आत्मा) को परम समाधि व तप के बिना आज भी नहीं जान सकते हैं, वह परम- आत्मा (है), (ज्ञानीजन) (ऐसा) कहते हैं। शब्दार्थ - देहि-देह में, वसंतु-बसता हुआ, वि-भी, हरि-हर- हरि, हर, वि-भी, जं-जिसको, अज्ज-आज, वि-भी, ण-नहीं, मुणंति-जानते हैं, परम-समाहि-तवेण- परम समाधि व तप के, विणु-बिना, सो-वह, परमप्पु - परम आत्मा, भणंति-कहते हैं।
  22. परमात्मप्रकाश के क्रमशः आगे के दोहे में आत्मा के ज्ञान गुण की बहुत रोचक अभिव्यक्ति हुई है। इसमें बताया गया है कि आत्मा में ज्ञान गुण होने पर ही आत्मा के ज्ञान में संसार झलकता है, तथा इस ज्ञान गुण के कारण ही वह अपने आपको संसार के भीतर रहता अनुभव करता है। जब वह इस ज्ञान गुण के कारण कर्म बंधन से रहित हो संसार में बसता हुआ भी संसाररूप नहीं होता तब वह ही परम आत्मा होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा- 41 जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग-अब्भंतरि जो जि । जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ।। अर्थ - जिसके (ज्ञान के) भीतर संसार बसता (प्रतिबिम्बित होता) है (और) भी जो संसार के भीतर (ज्ञानरूप से) (व्याप्त है)। इस प्रकार वह संसार में वास करता हुआ भी निश्चय ही संसाररूप नहीं है, वह ही परम- आत्मा है, (ऐसा तू) समझ। शब्दार्थ - जसु - जिसके, अब्भंतरि-भीतर में, जगु -संसार, वसइ-बसता है, जग-अब्भंतरि - जग के भीतर, जो-जो, जि-भी, जगि-संसार में, जि-इस प्रकार, वसंतु-बसता हुआ, वि-भी, जगु-संसाररूप, जि-निश्चय ही, ण वि-नहीं, मुणि-समझ, परमप्पउ-परम-आत्मा, सो-वह, जि -ही।
  23. परमात्मप्रकाश के निम्न दोहे में आचार्य ने समझाया है कि आत्मा के दोनों स्वरूप हैं। जब आत्मा कर्ममय होती है तो वह संसाररूप परिणत होती है और जब वही आत्मा कर्म रहित हो जाती है तो वही परम आत्मा बन जाती है। देखिये इस से सम्बन्धित परमात्मप्रकाश का अगला दोहा- 40. जो जिउ हेउ लहेवि विहि जगु बहु-विहउ जणेइ। लिंगत्तय-परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ।। अर्थ . जोे आत्मा (कर्मरूप) कारण को प्राप्त करके तीनों लिङ्गों से सुशोभित अनेक प्रकार के संसार को उत्पन्न करता है, वह (ही) (मूलरूप से) परम- आत्मा है। शब्दार्थ - जो-जो, जिउ-आत्मा, हेउ-कारण को, लहेवि-प्राप्त करके, विहि-कर्म, जगु-संसार को, बहु-विहउ- अनेक प्रकार के, जणेइ-उत्पन्न करता है, लिंगत्तय-परिमंडियउ- तीनों लिंगों से सुशोभित, सो-वह, परमप्पु-परम आत्मा, हवेइ-है।
  24. परमात्मप्रकाश के अगले दोहे 39 में ध्यान, ध्येय व ध्याता की समग्रता में ही परमआत्मा की प्राप्ति का कथन किया गया है। यहाँ योगियों के समूह को ध्याता, ध्यान के योग्य ज्ञानमय आत्मा तथा परमशान्ति की प्राप्ति को ध्येय बताया गया है। इन तीनों के एकता ही परमआत्मा की प्राप्ति का साधन है। 39. जोइय-विंदहि ँ णाणमउ जो झाइज्जइ झेउ । मोक्खहँ कारणि अणवरउ सो परमप्पउ देउ ।। अर्थ - योगियों के समूह द्वारा परम शान्ति के प्रयोजन से जो ज्ञानमय ध्यान के योग्य(आत्मा) निरन्तर ध्यान किया जाता है, वह ही दिव्य परम- आत्मा है। शब्दार्थ - जोइय-विंदहि ँ -योगियों के समूह द्वारा, णाणमउ - ज्ञानमय, जो-जो, झाइज्जइ-ध्यान किया जाता है, झेउ- ध्येय (ध्यान के योग्य, मोक्खह ँ -परम शान्ति के, कारणि - प्रयोजन से, अणवरउ - निरन्तर, सो -वह, परमप्पउ-परम आत्मा, देउ-दिव्य।
  25. परमात्मप्रकाश के अगले दोहे में कहा गया है कि जिस प्रकार अनन्त आकाश में रात्रि में मात्र एक चन्द्रमा से समस्त संसार प्रकाशित होता है उसी प्रकार समस्त लोक में जिस-जिस जीव के ज्ञान में समस्त लोक प्रतिबिम्बित होता है ही अनादि(शाश्वत) परमात्मा है। ज्ञान व शाश्वत स्वरूप से चन्द्रमा और परमआत्मा का यहाँ साम्य बताया गया है। 38. गयणि अणंति वि एक्क उडु जेहउ भुयणु विहाइ। मुक्कहँ जसु पए बिंबियउ सो परमप्पु अणाइ।। अर्थ -अनन्त आकाश में एक चन्द्रमा के सदृश जिस प्रत्येक मुक्त जीव में प्रतिबिम्बित किया गया (समस्त) लोक चमकता है, वह (जीव) ही शाश्वत परम- आत्मा है। शब्दार्थ - गयणि - आकाश में, अणंति -अनन्त, वि-ही, एक्क-एक, उड-चन्द्रमा, जेहउ-सदृश, भुयणु-लोक, विहाइ-चमकता है, मुक्कहँ - प्रत्येक मुक्त में, जसु-जिस, पए-जीव में, बिंबियउ-प्रतिबिम्बित किया गया, सो - वह, परमप्पु -परम-आत्मा, अणाइ-शाश्वत।
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