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Sneh Jain

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  1. आचार्य योगीन्दु ने यहाँ बहुत ही करुणापूर्वक शब्दों में सभी जीवों को समझाया है कि यदि हमसे अज्ञानवश पाप युक्त क्रिया हो भी गयी है तो हमें परेशान होने की ज्यादा आवश्यक्ता नहीं है बल्कि विचारकर आगे के लिए सचेत होना आवश्यक है। वैसे भी देखा जाये तो सुख में व्यक्ति के सुधरने की गुंजाइश कम होती है, जबकि पाप का फल भोगने पर व्यक्ति दुःख से हटना चाहता है और फिर वह मोक्ष मार्ग पर ले जानेवाले मार्ग पर चल देता है। वे पाप ही होते हैं जो व्यक्ति को आगे मोक्ष मार्ग पर लगा देते है। आचार्य ने अपने सुंदर शब्दों में इसका जिस प्रकार कथन किया है वह दृष्टव्य है। देखिये इसे आगे के दोहे में - 56. वर जिय पावइँ संुदरइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइँ जाइँ कुणंति। अर्थ -56. हे जीव! ज्ञानी उन पापों को भी सुन्दर कहते हैं, जो जीवों के लिए दुःख पैदा कर (उनमें) शीघ्र मोक्ष (जानेवाली) बुद्धि उत्पन्न कर देते हैं। वर - श्रेष्ठ, जिय-हे जीव!, पावइँ-पापों को संुदरइँ - सुंदर, णाणिय-ज्ञानीजन, ताइँ-उन, भणंति-कहते हैं, जीवहँ-जीवों के लिए, दुक्खइँ-दुःखों को, जणिवि-पैदाकर,, लहु-शीघ्र, सिवमइँ -मोक्ष जानेवाली बुद्धि, जाइँ-जो, कुणंति-उत्पन्न कर देते हैं।
  2. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अज्ञानी जीव समभाव में स्थित नहीं होने के कारण मोह से दुःख सहता हुआ संसार में भ्रमण करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 55 जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पावु वि दोइ। सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ।। अर्थ - जो जीव पाप और पुण्य दोनों को ही समान नहीं मानता है, वह जीव बहुत काल तक दुःख सहता हुआ मोह से संसार में भ्रमण करता है। शब्दार्थ - जो-जो, णवि-नहीं, मण्णइ-मानता है, जीउ-जीव, समु-समान, पुण्णु-पुण्य, वि-और, पावु-पाप, वि-ही, दोइ-दोनों को, सो-वह, चिरु-चिर काल तक, दुक्खु-दुःख को, सहंतु-सहता हुआ, जिय-जीव, मोहिं-मोह से, हिंडइ-भ्रमण करता है, लोइ-लोक में।
  3. पुनः आचार्य योगीन्दु अज्ञानी व्यक्ति के विषय में कहते हैं कि वह जीव मोक्ष के हेतु दर्शन, ज्ञान और चारित्र को तो समझता नहीं है और जो मोक्ष का कारण नहीं है, उन पाप पुण्य को मोक्ष का कारण मानकर करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 54. दंसण-णाण-चरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ। मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ।। अर्थ -जो (सम्यक्), दर्शन, ज्ञान (और) चारित्रमय आत्मा को नहीं जानता है।, वह जीव उन दोनों (पाप-पुण्य) को मात्र मोक्ष का कारण कहकर करता है। शब्दार्थ - दंसण-णाण-चरित्तमउ - दर्शन, ज्ञान और चरित्रमय, जो-जो, णवि-नहीं, अप्पु-आत्मा को, मुणेइ-जानता है, मोक्खहँ -मोक्ष का, कारणु-कारण, भणिवि-कहकर, जिय-जीव, सो-वह, पर-मात्र, ताइँ-उन दोनों को, करेइ-करता है।
  4. योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 53. बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ। सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।। अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है। शब्दार्थ - बंधहँ - बंध, मोक्खहँ-मोक्ष के, हेउ-कारण को, णिउ-अपने, जो-जो, णवि-नहीं, जाणइ-जानता है, कोइ-कोई, सो-वह, पर-तल्लीन, मोहे-मोह में, करइ-करता है, जिय-जीव, पुण्णु -पुण्य, वि-और, पाउ -पाप, वि -ही, लोइ-लोक में।
  5. योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 53. बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ। सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।। अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है। शब्दार्थ - बंधहँ - बंध, मोक्खहँ-मोक्ष के, हेउ-कारण को, णिउ-अपने, जो-जो, णवि-नहीं, जाणइ-जानता है, कोइ-कोई, सो-वह, पर-तल्लीन, मोहे-मोह में, करइ-करता है, जिय-जीव, पुण्णु -पुण्य, वि-और, पाउ -पाप, वि -ही, लोइ-लोक में।
  6. आचार्य योगीन्दु आगे के दो दोहे में योगी की अन्य विशेषताओ का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि योगी ने शरीर से भिन्न आत्म स्वभाव को तथा कर्म बन्धनों के हेतु और उनके स्वभाव को जान लिया है, इसीलिए वह शरीर तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति में राग द्वेष नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - अर्थ सरल है, इसलिए शब्द विश्लेषण करना आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ। पाठकगण चाहे तो बतायें। 51. देहहं उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ। देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प- सहाउ।। अर्थ - जिसके द्वारा शरीर से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लिया गया है, (वह) श्रेष्ठ मुनि शरीर पर राग और द्वेष नहीं करता। 52. वित्ति-णिवित्तिहि ँ परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ। बंधहँ हेउ वियाणियउ एयहँ जेण सहाउ।। 52।। अर्थ -जिसके द्वारा इन कर्म बन्धनों के हेतु और इनका स्वभाव जान लिया गया है, (वह) श्रेष्ठ मुनि प्रवृत्ति और निवृत्ति में राग-द्वेष नहीं करता।
  7. पुनः आगे के चार दोहों में ज्ञानी अर्थात् मुनि की विशेषता बताते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि ज्ञानी आन्तरिक व बाहरी परिग्रह से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लेता है तथा काम भोगों से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लेता है, अतः वह अंतरंग एवं बाहरी परिग्रह के ऊपर द्वेष और राग नहीं करता और ना ही काम भोग विषयक पदार्थों के ऊपर राग द्वेष करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - दोहे का अर्थ सरल होने के कारण विश्लेषण नहीं किया जा रहा है। 49. गंथहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ। गंथहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प- सहाउ।। अर्थ -जिसके द्वारा आन्तरिक व बाहरी परिग्रह से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लिया गया है, (वह) श्रेष्ठ मुनि अंतरंग एवं बाहरी परिग्रह के ऊपर द्वेष और राग नहीं करता। 50. विसयहँ उप्परि परम- मुणि देसु वि करइ ण राउ। विषयहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प- सहाउ।। अर्थ - जिसके द्वारा काम भोगों से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लिया गया है, (वह) श्रेष्ठ मुनि काम भोग विषयक पदार्थों के ऊपर राग और द्वेष नहीं करता।
  8. abhishekji aapne shantisagarji maharak ke vatsaly ke visay me jo ghatna batai, bahut achhi lagee, abhishekji really pahle shravak or saadhu ka paraspar itna hee prem tha. yahee kaaran tha kee dharm kee dono shakhaae majboot thee. sadhu grahsth ko sahee marg par chalna sikhate theto shravak saadhu ke saadhna me madad karte the. isiliye pahle jain dharm utcarshtta ko prapt tha.
  9. आचार्य योगीन्दु पुनः योगी के विषय में कहते हैं कि योगी कहने, कहलवाने, स्तुति करने, निंदा करने आदि विषम भावों से परे रहकर समभाव में स्थित रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 48. भणइ भणावइ णवि थुणइ णिंदइ णाणि ण कोइ। सिद्धिहिँ कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ। अर्थ -ज्ञानी पुरुष न कुछ कहता है न कहलवाता है, न स्तुति करता है न निंदा करता है। वह सिद्धि का कारण समभाव को जानता हुआ उसी में स्नान (अवगााहन) करता है शब्दार्थ - भणइ- कहता है, भणावइ-कहलवाता है, णवि-न, ही, थुणइ-स्तुति करता है, णिंदइ-निन्दा करता है, णाणि-ज्ञानी, ण-न, कोइ-किसी की, सिद्धिहिँ-सिद्धि का, कारणु-कारण, भाउ-भाव, समु-सम, जाणंतउ-जानता हुआ, पर-पूरी तरह से, सोइ-स्नान करता है।
  10. आचार्य योगीन्दु योगी व संसारी जीव में भेद बताने के बाद योगी अर्थात ज्ञानी के विषय में क्रमश 6 दोहों में कथन करते हैं। प्रथम दोहे में वे कहते हैं कि ज्ञानी समभाव में स्थित होने के कारण ही आत्म स्वभाव को प्राप्त करता है एवं राग से दूर रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 47. णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ। जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्प- सहाउ। अर्थ - ज्ञानी समभाव को छोड़कर कहीं भी राग को प्राप्त नहीं होता। जिससे वह उस (समभाव) के कारण ही ज्ञानमय आत्म स्वभाव को प्राप्त करेगा। शब्दार्थ - णाणि-ज्ञानी, मुएप्पिणु-छोड़कर, भाउ-भाव, समु -सम, कित्थु-कहीं, वि-भी, जाइ -प्राप्त होता,ण -नहीं, राउ-राग को, जेण-जिससे, लहेसइ -प्राप्त करेगा, णाणमउ-ज्ञानमय, तेण-उसके कारण, जि-ही, अप्प- सहाउ- आत्म स्वभाव को।
  11. आचार्य यागीन्दु योगी व संसारी जीवों में भेद बताते हैं कि जब संसारी जीव अपने आत्मस्वरूप से विमुख होकर अचेत सो रहे होते हैं तब योगी अपने स्वरूप में सावधान होकर जागता है और जब संसारी जीव विषय कषायरूप अवस्था में जाग रहे होते हैं उस अवस्था में योगी उदासीन अर्थात् सुप्त रहते हैं। अर्थात् योगी को आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 46.1 जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिँ जग्गेइ। जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।। अर्थ -जो सब संसारी जीवों की रात है उस में साधुु जागता है और जिसमें समस्त संसार जागता है उसको रात मानकर वह सोता है। शब्दार्थ - जा-जो, णिसि-रात, सयलहँ -सब,देहियहँ-संसारी जीवों की, जोग्गिउ-योगी, तहिँ-उसमें, जग्गेइ-जागता है, जहिँ -जिसमें, पुणु-और, जग्गइ-जागता है, सयलु -समस्त, जगु-जग, सा-वह (उसको) णिसि-रात, मणिवि-मानकर, सुवेइ-सोता है।
  12. आगे के दो दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः समभाव में स्थित हुए जीव के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वह अपने शत्रुभाव को छोड़कर परम आत्मा में लीन हो जाता है और और अकेला लोक के शिखर के ऊपर चढ जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 45. अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ। सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहं णिलीणु हवेइ। अर्थ - जो रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव को धारण करता है, उसके अन्य दोष भी होता है कि वह अपने शत्रु को छोड़कर परम आत्मा में अत्यन्त लीन हो जाता है। शब्दार्थ - अण्णु-दूसरा, वि-भी, दोसु-दोष, हवेइ-होता है, तसु-उसके, जो-जो, सम-भाउ-रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव, करेइ-धारण करता है, सत्तु -शत्रु, वि-और, मिल्लिवि-छोड़कर, अप्पणउ-अपने, परहं -परम आत्मा में, णिलीणु-अत्यन्त विलीन, हवेइ-हो जाता है। 46 अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ। वियलु हवेविणु इक्कलउ उप्परि जगहँ चडेइ।। अर्थ - जो रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव को धारण करता है,उसका अन्य दोष और होता है, वह (सबसे) रहित होकर अकेला लोक के (शिखर) के ऊपर चढ़ जाता है। शब्दार्थ - अण्णु-दूसरा, वि-भी, दोसु-दोष, हवेइ-होता है, तसु-उसके, जो-जो, सम-भाउ-रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव, करेइ-धारण करता है, वियलु -रहित, हवेविणु-होकर, इक्कलउ-अकेला, उप्परि-ऊपर जगहँ -लोक के, चडेइ-चढ़ जाता है।
  13. bilkul sahee hai, pavitr man ka ameeree gareebee se koi sambandh nahee hai. aachary shanti saagarjee maharaj kee to har ghatna hee divya hai, sabhee ke liye anukarneey ha.
  14. यहाँ आचार्य ब्याज स्तुति अलंकार के माध्यम से कथन को प्रभावी बनाने के लिए दोष में भी गुण की स्थापना करते हुए कह रहे हैं कि राग द्वेष से रहित हुआ व्यक्ति अपने कर्मबंध को नष्ट कर देता है और अपने प्रति जगत को कठोर बना देता है। इसका दूसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि वह अपने स्वार्थी बन्धु को दूर कर देता है तथा जगत को अपने प्रति पागल (आकर्षित) कर लेता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 44. विण्णि वि दोस हवंति तसु जो सम-भाउ करेइ। बंधु जि णिहणइ अप्पणउ अणु जगु गहिलु करेइ।। अर्थ - जो रागद्वेष रहित तटस्थ भाव को धारण करता है, उसके दो दोष भी होते हैं। (एक) वह अपने (कर्म) बंधन को नष्ट कर देता है, (दूसरा) फिर जगत को अपने प्रति कठोर बना देता है। शब्दार्थ - विण्णि-दो, वि-ही, दोस-दोष, हवंति-होते हैं, तसु-उसके, जो-जो, सम-भाउ-रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव, करेइ-धारण करता है, बंधु-बंधन को, जि-भी, णिहणइ-नष्ट कर देता है, अप्पणउ- अपने, अणु-फिर, जगु-जग को, गहिलु-कठोर, करेइ-बना देता है। (बन्धुओं, अब यहाँ पूर्ववत परमात्मप्रकाश से सम्बन्धित ही ब्लाँग दिया जायेगा। प्रश्नोत्तरी फेसबुक पर दी जा रही है।)
  15. प्रश्न 33 राजा भरत के द्वारा चक्र छोड़ा जाने पर राजा बाहुबलि की मनोस्थिति कैसी थी और उन्होंने क्या किया ? उत्तर 33 भरत के चक्र को देखकर भरत ने मन में विचार किया कि आज मैं भरत को धरती पर गिरा देता हूँ किन्तु पुनः विचार आया, नहीं, नहीं, राज्य के लिए अनुचित किया जाता है। भाई, बाप और पुत्र को भी मार दिया जाता है। मुझे धिक्कार है। मैं राज्य छोड़कर अचल, अनन्त सुख के स्थान मोक्ष की साधना करूँगा। तभी उन्होंने भरत को धरती का उपभोग करने के लिए कहकर संन्यास ग्रहण कर लिया। प्रश्न 34 राजा भरत ने ऋषभदेव के समवशरण में ऋषभदेव से क्या पूछा ? उत्तर 34 भरत ने ऋषभदेव से मुनि बाहुबलि के द्वारा घोर तप किये जाने पर भी उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होने का कारण पूछा। प्रश्न 35 भरत के प्रश्न का ऋषभदेव ने क्या उत्तर दिया ? उत्तर 35 ऋषभदेव ने बताया कि आज भी बाहुबलि के मन में यह ईषत् कषाय है कि जब मैंने अपनी धरती भरत को समर्पित कर दी है तब भी मैंने अपने पैरों से उनकी धरती क्यों चाप रखी है ? इसीलिए प्रव्रज्या लेने के बाद भी वे केवलज्ञान नहीं प्राप्त कर सके। (क्या आज भी हमारे परिवारों में ऋषभदेव जैसे पिताजी हैं जो अपनी संतानों के प्रति अपने कत्र्तव्य का निर्वाह कर राग-द्वेष से परे हो उनकी समस्याओं का समाधान करते हैं। तो वे अवश्य देखें ऋषभदेव में अपनी तस्वीर )
  16. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मोक्ष अर्थात् परमशान्ति की प्राप्ति का उद्देश्य इह और परलोक दोनो से ही होना चाहिए। जिस जीव में वर्तमान जगत में शान्ति प्राप्त करने की योग्यता आ जाती है, वही जीव पर लोक मे शान्ति प्राप्त करने के योग्य हो पाता है। उनके अनुसार वर्तमान जगत में इस योग्यता का आधार है, तत्त्व और अतत्व को मन में समझना, रागद्वेष से रहित होना, तथा आत्म स्वभाव में प्रेम रखना। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 43. तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि। ते पर सुहिया इत्थु जगि जहँ रइ अप्प-सहावि।। अर्थ - जो तत्व और अतत्व को मन में समझकर राग द्वेष रहित (तटस्थ) भाव में स्थित हैं (तथा) जिनकी आत्म-स्वभाव में रति है, वे यहाँ संसार में परम सुखी हैं। शब्दार्थ - तत्तातत्तु - तत्व और अतत्व को, मुणेवि-जानकर, मणि-मन में, जे-जो, थक्का, सम-भावि-तटस्थ भाव में, ते -वे, पर-परम, सुहिया -सुखी, इत्थु -यहाँ, जगि-संसार में, जहँ-जिनकी, रइ-रति, अप्प-सहावि-आत्म स्वभाव में।
  17. प्रश्न 27 राजा बाहुबलि की बात का दूत क्या जवाब देकर अयोध्या लौट आया ? उत्तर 27 दूत ने कहा, यद्यपि यह भूमण्डल तुम्हें पिता के द्वारा दिया गया है परन्तु बिना कर (टेक्स)दिये सरसों के बराबर धरती भी तुम्हारी नहीं है और अयोध्या लौट आया। प्रश्न 28 दूत ने अयोध्या में आकर राजा भरत को क्या बताया ? उत्तर 28 दूत ने बताया, हे देव! आपको वह तिनके के बराबर भी नहीं समझता और ना ही वह आपकी आज्ञा मानता है। वह आपसे युद्ध के लिए तैयार है। प्रश्न 29 दूत की बात सुनकर राजा भरत ने क्या किया ? उत्तर 29 राजा भरत ने शीघ्र प्रस्थान की भेरी बजवा दी और दोनों सेनाएँ परष्पर भिड़ गयीं। (क्या आज भी हमारे परिवारों में राजा बाहुबलि जैसे स्वाभिमानी पुरुष या महिलाएँ हैं तो अवश्य देखें राजा बाहुबलि में अपनी तस्वीर )
  18. प्रश्न 24 राजा भरत ने मंत्री से राजा बाहुबलि का सिद्ध नहीं होना जानकर क्या किया ? उत्तर 24 राजा भरत ने राजा बाहुबलि को समझाने के लिए उनके पास दूत भेजा। प्रश्न 25 दूत ने बाहुबलि के पास जाकर क्या कहा ? उत्तर 25 दूत ने कहा, हे राजन! आपको राजा भरत से जाकर मिलना चाहिए और जिस प्रकार दूसरे अट्ठानवे भाई उनकी सेवा कर जीते हैं, उसी प्रकार तुम भी अभिमान छोड़कर राजा भरत की सेवा अंगीकार करो। प्रश्न 26 राजा बाहुबलि ने दूत की बात का क्या जवाब दिया ? उत्तर 26 बाहुबलि ने कहा, एक बाप की आज्ञा और एक उनकी धरती, इसके अतिरिक्त दूसरी बात स्वीकार नहीं की जा सकती है। प्रवास करते समय पिताजी ने मुझे जो कुछ भी विभाजन करके दिया है, मैं उसी धरती का स्वामी हूँ। न मैं लेता हूँ, और न देता हूँ और न उसके पास जाता हूँ। क्या मैं उसकी कृपा से राज्य करता हूँ ? उससे मिलने से मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? क्या आज भी हमारे परिवारों में बाहुबलि जैसे स्वाभिमानी पुरुष या महिलाएँ हैं तो वे अवश्य देखें राजा बाहुबलि में अपनी तस्वीर।
  19. प्रश्न 21 ऋषभदेव के किस पुत्र को चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त हुई ? उत्तर 21 राजा भरत को प्रश्न 22 अयोध्या में चक्र प्रवेश नहीं करने पर राजा भरत ने क्या किया ? उत्तर 22 राजा भरत क्रोध से भर उठा और उसने अपने मंत्रियों से पूछा-यश और जय का रहस्य जाननेवाले मंत्रियों! बताओ, क्या कोई ऐसा बचा है जो मुझे सिद्ध नहीं हुआ हो ? प्रश्न 23 राजा भरत की बात का मंत्रियों ने क्या जवाब दिया ? उत्तर 23 मंत्रियों ने कहा, हे देव! आपको छःखण्ड धरती, नौ निधियाँ, चैदह प्रकार के रत्न आदि सब सिद्ध हो चुके हैं, किन्तु आपका छोटा भाई, पोदनपुर का राजा, स्वाभिमानी बाहुबलि सिद्ध नहीं हुआ। (क्या आज भी हमारे परिवारों में राजा भरत जैसे यश प्राप्ति के इच्छुक पुरुष या महिलाएँ हैं ? तो वे अवश्य देखें राजा भरत में अपनी तस्वीर।)
  20. प्रश्न 18 ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति कहाँ हुई ? उत्तर 18 पुरिमताल उद्यान में प्रश्न 19 ऋषभदेव के समवशरण का लोगों पर क्या प्रभाव पडा़ ? उत्तर 19 पुरिमताल के प्रधान राजा ऋषभसेन ने संन्यास ग्रहण किया और उसके साथ चैरासी गर्वीले राजाओं ने भी संन्यास लिया।सभी वनचर भी अपने वैर भाव को समाप्त कर रहने लगे। ये चैरासी राजा ही ऋषभदेव के गणधर बने। प्रश्न 20 राजा ऋषभ के कुल कितनी संतान थीं ? उत्तर 20 राजा ऋषभ के यशोवती पत्नी से भरत आदि सौ पुत्र और ब्राह्मी पुत्री तथा सुनन्दा पत्नी से बाहुबलि एवं सुन्दरी पुत्री हुईं। उस प्रकार कुल एक सौ एक पुत्र एवं दो पुत्रियाँ थीं।
  21. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मोह कषाय का कारण है तथा कषाय ही राग द्वेष का कारण है। । इसलिए मोह के त्याग से ही समत्वमय प्रज्ञा की प्राप्ति संभव है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 42. जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु। मोह-कसाय-विवज्जियउ पर पावहि सम-बोहु।। अर्थ - हे जीव! जिससे मन में कषाएँ उत्पन्न होती हैं, उस मोह को तू छोड़। मोह कषाय से रहित हुआ (तू) राग-द्वेष रहित समत्वमय प्रज्ञा कोे प्राप्त कर। शब्दार्थ - जेण-जिससे, कसाय-कषाएँ, हवंति-होती हैं, मणि-मन में, सो-उसको, जिय-हे जीव!, मिल्लहि-छोड़, मोहु- आसक्ति को, मोह-कसाय-विवज्जियउ-मोह कषाय से रहित हुआ, पर सर्वोपरि, पावहि-प्राप्त कर, सम-बोहु -समत्वमय प्रज्ञा को।
  22. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि कषाय नष्ट होने पर ही मन शान्त होता है और तब ही जीव के संयम पलता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 41. जाँवइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ। होइ कसायहँ वसि गयउ जीव असंजदु सोइ।।।41।। अर्थ - जब तक ज्ञानी शांत रहता है, तब तक ही वह संयमी घटित होता है। कषायों के वश में गया हुआ वह ही जीव असंयमी हो जाता है। शब्दार्थ - जाँवइ -जब तक, णाणिउ-ज्ञानी, उवसमइ-शान्त रहता है, तामइ-तब तक, संजदु-संयमी, होइ-होता है, होइ-हो जाता है, कसायहँ -कषायों के, वसि-वश में, गयउ-गया हुआ, जीव-जीव, असंजदु-असंयमी, सोइ- वह, ही।
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