Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

Sneh Jain

Members
  • Posts

    315
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    11

 Content Type 

Profiles

Forums

Events

Jinvani

Articles

दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

Downloads

Gallery

Blogs

Musicbox

Everything posted by Sneh Jain

  1. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध न छोटे से है न बड़े से। आत्मा तो मात्र दर्शन, ज्ञान और चेतना स्वरूप मात्र है। आत्मा के जाग्रत होने पर वह समझता है कि आत्मा का सम्बन्ध न मनुष्य गति से है, न देव गति से, न तिर्यंच गति से और न नरक गति से। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 90. अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ । अप्पा णारउ कहि ँ वि णवि णाणिउ जाणइ जोइ ।। अर्थ - आत्मा मनुष्य तथा देव भी नहीं है, आत्मा पशु-पक्षी आदि तिर्य´्च नहीं है, आत्मा कभी भी नरक में उत्पन्न हुआ प्राणी नहीं है, ज्ञानी (यह) गम्भीर भाव चिन्तन से जानता है। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, माणुसु -मनुष्य, देउ- देव, ण-नहीं, वि -तथा, अप्पा -आत्मा, तिरिउ - पशु, पक्षी आदि तिर्यंच ण -नहीं, होइ - है, अप्पा - आत्मा, णारउ-नरक में उत्पन्न प्राणी, कहि ँवि - कहीं भी, णवि-नहीं, णाणिउ-ज्ञानी, जाणइ-जानता है, जोइ -गंभीर भाव चिन्तन से।
  2. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध न छोटे से है न बड़े से । आत्मा तो मात्र दर्शन, ज्ञान और चेतना स्वरूप मात्र है। आत्मा के जाग्रत होने पर वह समझता है कि आत्मा न गुरु है, न शिष्य है, न स्वामी है, न सेवक है, न शूरवीर (और) कायर है, और न श्रेष्ठ (और) नीच है। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के आचार्य योगीन्दु के अनुसार यदि प्रत्येक मनुष्य मात्र इस एक गाथा पर गहराई से विचारकर अपनी आत्मा को जाग्रत करले तो निश्चित रूप से सम्पूर्ण देश समभाव पर स्थित हो सकता है। देश से ऊँच-नीच अर्थात विषमता का अन्त सम्भव है। 89. अप्पा गुरु णवि सिस्सु णवि णवि सामिउ णवि भिच्चु । सूरउ कायरु होइ णवि णवि उत्तमु णवि णिच्चु।। अर्थ - आत्मा गुरु नहीं है, शिष्य नहीं है, स्वामी नहीं है, सेवक नहीं है, शूरवीर (और) कायर नहीं है, श्रेष्ठ (और) नीच नहीं है। शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, गुरु-गुरु, णवि-नहीं, सिस्सु-शिष्य, णवि-नहीं, णवि-नहीं, सामिउ-स्वामी, णवि-नहीं, भिच्चु-सेवक, सूरउ-शूरवीर, कायरु-डरपोक, होइ-है, णवि-नहीं, णवि-नहीं, उत्तमु-श्रेष्ठ, णवि-नहीं, णिच्चु-नीच
  3. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब वह समझता है कि आत्मा का सम्बन्ध ना बौद्ध धर्म से है, न दिगम्बर जैन धर्म से, न श्वेताम्बर से न किसी अन्य धर्म सम्प्रदाय से। उसके लिए आत्मा मात्र एक आत्मा है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 88. अप्पा वंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होइ। अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ।। अर्थ -आत्मा वन्दना करनेवाला, (और) तपस्वी जैन मुनि नहीं है, आत्मा धर्माचार्य नहीं है, तथा आत्मा किसी धर्म के वेश को धारण करनेवाला एक साधुु नहीं है, (यह) ज्ञानी गंभीर भाव चिन्तन से जानता है। शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, वंदउ-वंदन करनेवाला, खवणु-तपस्वी जैन मुनि, ण-नहीं, वि-तथा, अप्पा-आत्मा, गुरउ-धर्माचार्य, ण-नहीं, होइ-है, अप्पा-आत्मा, लिंगिउ-किसी धर्म के वेश को धारण करनेवाला साधु, एक्कु -एक, ण-नहीं, वि-भी, णाणिउ -ज्ञानी, जाणइ-जानता है, जोइ-गंभीर भाव चिंतन से।
  4. आचार्य योगिन्दु ज्ञानी आत्मा का स्वरूप बताते हुए आगे कहते हैं कि ज्ञानी आत्मा, ब्राह्मण, वणिक, क्षत्रिय, क्षुद्र जातियाँ तथा पुरुष, नपुंसक, स्त्री लिंगो का भी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं मानता है। वह आत्मा को मात्र दर्शन, ज्ञान चेतना स्वरूप मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 87. अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु। पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु।। अर्थ - आत्मा ब्राह्मण तथा वणिक नहीं है, क्षत्रिय भी नहीं है और बाकी बचा हुआ (क्षुद्र) भी नहीं है, तथा पुरुष, नपुंसक, स्त्री भी नहीं है, (यह) ज्ञानी निःशेष रूप से जानता है। शब्दार्थ - अप्पा- आत्मा, बंभणु- ब्राह्मण, वइसु-वणिक, ण-नहीं, वि-तथा, ण-नहीं, वि-भी, खत्तिउ-क्षत्रिय, ण-नहीं, वि-भी, सेसु - बचा हुआ, पुरिसु-पुरुष, णउंसउ-नपुंसक, इत्थि-स्त्री, ण-नहीं, वि-तथा, णाणिउ-ज्ञानी, मुणइ-जानता है, असेसु-निःशेष।
  5. आचार्य योगिन्दु ज्ञानी आत्मा का स्वरूप बताते हुए आगे कहते हैं कि ज्ञानी आत्मा, ब्राह्मण, वणिक, क्षत्रिय, क्षुद्र जातियाँ तथा पुरुष, नपुंसक, स्त्री लिंगो का भी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं मानता है। वह आत्मा को मात्र दर्शन, ज्ञान चेतना स्वरूप मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 87. अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु। पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु।। अर्थ - आत्मा ब्राह्मण तथा वणिक नहीं है, क्षत्रिय भी नहीं है और बाकी बचा हुआ (क्षुद्र) भी नहीं है, तथा पुरुष, नपुंसक, स्त्री भी नहीं है, (यह) ज्ञानी निःशेष रूप से जानता है। शब्दार्थ - अप्पा- आत्मा, बंभणु- ब्राह्मण, वइसु-वणिक, ण-नहीं, वि-तथा, ण-नहीं, वि-भी, खत्तिउ-क्षत्रिय, ण-नहीं, वि-भी, सेसु - बचा हुआ, पुरिसु-पुरुष, णउंसउ-नपुंसक, इत्थि-स्त्री, ण-नहीं, वि-तथा, णाणिउ-ज्ञानी, मुणइ-जानता है, असेसु-निःशेष।
  6. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जैसे ही आत्मा का मूढ स्वभाव नष्ट होता है वैसे ही आत्मा जाग्रत अवस्था को प्राप्त होने लगती है। जाग्रत अवस्था से पूर्व मूढ अवस्था में उसकी जो क्रियाएँ होती थी वे जाग्रत अवस्था में पूर्ण परिवर्तन के साथ होती हैं। मूढ अवस्था में वह आत्मा को गोरा, काला आदि विभिन्न वर्णोवाला मानता था किन्तु जाग्रत अवस्था प्राप्त कर लेने पर वह गम्भीर भाव चिन्तन से यह समझ जाता है कि आत्मा गोरवर्णवाली, काले रंगवाली, नहीं है, आत्मा लाल नहीं है, आत्मा सूक्ष्म और स्थूल भी नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 86. अप्पा गोरउ किण्हु ण वि अप्पा रत्तु ण होइ। अप्पा सुहुमु वि थूलु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ।। 86।। अर्थ - आत्मा गोरवर्णवाली, काले रंगवाली, नहीं है, आत्मा लाल नहीं है, आत्मा सूक्ष्म और स्थूल भी नहीं है, (ऐसा) योगी गम्भीर भाव चिन्तन से जानता है। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, गोरउ- गौरवर्णवाली, किण्हु-कालेरंगवाली, णवि- नहीं, अप्पा- आत्मा, रत्त-लाल,ु ण-नहीं, होइ-होती है, अप्पा-आत्मा, सुहुमु-सूक्ष्म, वि-और, थूलु-स्थूल, ण-नहीं, वि-भी, णाणिउ -ज्ञानी, जाणइ-जानता है, जोइ-गंभीर भाव चिन्तन से।
  7. आचार्य योगिन्दु व्यक्ति की मूढता का कथन करने के बाद कहते हैं कि उसकी इस मूढता का कारण उसका अपना मोह स्वभाव है, और जैसे-जैसे उपयुक्त समय आने पर उसका मोह नष्ट होता है उसकी मूढता नष्ट होती है। उसके बाद ही उसकी सत्य तत्त्व पर श्रद्धा होती है और तब ही आत्मा से उसकी पहचान शुरु होने लगती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 85 काल लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोह गलेइ। तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमे ँ अप्पु मुणेइ। अर्थ -हे योगी! समय प्राप्तकर जैसे-जैसे मोह नष्ट होता है, वैसे-वैसे मनुष्य सत्य तत्व पर श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) प्राप्त करता है, (और) निश्चय से आत्मा को जानता है। शब्दार्थ - काल -समय, लहेविणु-प्राप्तकर, जोइया-हे योगी, जिमु जिमु- जैसे जैसे, मोह-मोह, गलेइ-नष्ट होता है, तिमु तिमु- वैसे वैसे, दंसणु -सत्य तत्त्व पर श्रद्धा, लहइ-प्राप्त करता है, जिउ-मनुष्य, णियमे ँ -निश्चय से, अप्पु- आत्मा को, मुणेइ-जानता है।
  8. बन्धुओं!, जैसा कि आप को पूर्व में बताया जा चुका है कि परमात्मप्रकाश में 3 अधिकार हैं। 1. आत्माधिकार 2. मोक्ष अधिकार 3. महाधिकार। अभी हमारा प्रवेश आत्माधिकार में ही है। आत्मा के विषय में पूर्णरूप से जान लेने के बाद ही हम आत्मा की शान्ति अर्थात् मोक्ष में प्रवेश होने की बात कर सकते है। आत्माधिकार के 82 दोहों तक हम आत्मा के विषय में जान चुके हैं। आत्माधिकार के 41 दोहे और शेष हैं, इसके बाद हमारा मोक्ष अधिकार में प्रवेश होगा। निश्चितरूप से मोक्ष अधिकार हमें आसानी से समझ आयेगा। आत्माधिकार के अगले दो दोहों में आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति माता-पिता, पत्नी, पुत्र, मित्र, धन-संपत्ति जो सब मायाजाल हैं उनमें आसक्त हुआ उनको अपना मानता है। फिर उनके संयोग, वियोग में सुखी, दुःखी होता है। इस प्रकार वह आसक्ति के कारण दुःख-सुख भोगने में ही अपना दुर्लभ मनुष्य भव व्यतीत कर देता है,शुद्धात्मा की अनुभूति जो मनुष्य भव में ही संभव है उसे अपनी मूर्खता से व्यर्थ गवाँ देता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहे - 83. जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्तु वि मित्तु वि दव्वु। माया- जालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सव्वु।। ् अर्थ -जननी, जनक और स्त्री, घर, पुत्र और मित्र तथा धन-सम्पत्ति (आदि) सब मायाजाल को भी मूर्ख अपना मानता है। शब्दार्थ - जणणी-जननी, जणणु-जनक, वि-और, कंत-स्त्री, घरु-घर, पुत्तु-पुुत्र, वि-और, मित्तु-मित्र, वि-तथा, दव्वु- धन-संपत्ति, माया-जालु-मायाजाल को, वि-भी, अप्पणउ-अपना, मूढउ-मूर्ख, मण्णइ-मानता है, सव्वु-सब। 84. दुक्खहहँ कारणि जे विसय ते सुह-हेउ रमेइ। मिच्छाइट्ठिउ जीेवडउ इत्थु ण काइँ करेइ।। अर्थ -(इस प्रकार) (ऐसा माननेवाला) दुःखों के कारण जो विषय हैं, उनको सुख का कारण (मानकर) (उनमें) रमण करता है। (इस प्रकार) मिथ्यादृष्टि जीव यहाँ (इस संसार में) क्या (गलत काम) नहीं करता ? शब्दार्थ -दुक्खहहँ-दुःखों के, कारणि-कारण में, जे-जो, विसय-विषय, ते-उनको, सुह-हेउ- सुख का कारण, रमेइ-रमण करता है, मिच्छाइट्ठिउ-मिथ्यादृष्टि, जीेवडउ-जीव, इत्थु-यहाँ, ण- नहीं, काइँ-क्या, करेइ-करता है।
  9. पुनः आचार्य योगिन्दु मूर्छित आत्मा वाले मूढ व्यक्ति का लक्षण बताते हैं कि वह आत्मा को छोड़कर जाति, लिंग, अवस्था तथा अपने सम्प्रदाय को अपना मानता है और उस पर अहंकार करता है, जबकि ये सब उसके ऊपरी आवरण या भेद हैं। आत्मा के अतिरिक्त सभी वस्तुए भिन्न हैं। जाग्रत आत्मा अपनी आत्मा में स्थित हुआ बाकी सब भेदों को आत्मा से भिन्न मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे- 81. हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउं खत्तिउ हउँँ सेसु। पुरिसु णउँसउ इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु।। अर्थ - मैं (सबमें) श्रेष्ठ ब्राह्मण (हूँ), मैं वणिक (हूँ), मैं क्षत्रिय (हूँ) (तथा)(इनसे) बाकी (क्षुद्र) (हूँ), मैं पुरुष, नपुंसक (और) स्त्री (हूँ), (इस) भेद को मूर्ख मानता है। शब्दार्थ - हउँ-मैं, वरु-श्रेष्ठ, बंभणु-ब्राह्मण, वइसु-वणिक, हउँ-मैं, हउं -मैं, खत्तिउ -क्षत्रिय, हउँँ-मैं, सेसु-बचा हुआ, पुरिसु-पुरुष, णउँसउ-नपुंसक, इत्थि-स्त्री, हउँ-मैं, मण्णइ-मानता है, मूढु-मूर्ख, विसेसु-प्रभेद को। 82. तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु। खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु।। अर्थ - मैं जवान (हूँ), बूढा (हूँ), रूपवाला (हूँ) शूरवीर (हूँ), विद्वान (हूँ), अलौकिक (हूँ), जैन तपस्वी (हूँ), वन्दना करनेवाला (हूँ), श्वेताम्बर (हूँ), (इन) सब (भेद) कोे मूर्ख मानता है। शब्दार्थ - तरुणउ-जवान, बूढउ-बूढा,, रूयडउ-रूपवाला, सूरउ-शूरवीर, पंडिउ-विद्वान, दिव्वु-अलौकिक, खवणउ-तपस्वी जैन मुनि, वंदउ- वंदना करनेवाला, सेवडउ-श्वेताम्बर, मूढउ-मूर्ख, मण्णइ-मानता है, सव्वु-सबको।
  10. पुनः आचार्य योगिन्दु मूर्छित आत्मा वाले मूढ व्यक्ति का लक्षण बताते हैं कि वह आत्मा को छोड़कर जाति, लिंग, अवस्था तथा अपने सम्प्रदाय को अपना मानता है और उस पर अहंकार करता है, जबकि ये सब उसके ऊपरी आवरण या भेद हैं। आत्मा के अतिरिक्त सभी वस्तुए भिन्न हैं। जाग्रत आत्मा अपनी आत्मा में स्थित हुआ बाकी सब भेदों को आत्मा से भिन्न मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे- 81. हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउं खत्तिउ हउँँ सेसु। पुरिसु णउँसउ इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु।। अर्थ - मैं (सबमें) श्रेष्ठ ब्राह्मण (हूँ), मैं वणिक (हूँ), मैं क्षत्रिय (हूँ) (तथा)(इनसे) बाकी (क्षुद्र) (हूँ), मैं पुरुष, नपुंसक (और) स्त्री (हूँ), (इस) भेद को मूर्ख मानता है। शब्दार्थ - हउँ-मैं, वरु-श्रेष्ठ, बंभणु-ब्राह्मण, वइसु-वणिक, हउँ-मैं, हउं -मैं, खत्तिउ -क्षत्रिय, हउँँ-मैं, सेसु-बचा हुआ, पुरिसु-पुरुष, णउँसउ-नपुंसक, इत्थि-स्त्री, हउँ-मैं, मण्णइ-मानता है, मूढु-मूर्ख, विसेसु-प्रभेद को। 82. तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु। खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु।। अर्थ - मैं जवान (हूँ), बूढा (हूँ), रूपवाला (हूँ) शूरवीर (हूँ), विद्वान (हूँ), अलौकिक (हूँ), जैन तपस्वी (हूँ), वन्दना करनेवाला (हूँ), श्वेताम्बर (हूँ), (इन) सब (भेद) कोे मूर्ख मानता है। शब्दार्थ - तरुणउ-जवान, बूढउ-बूढा,, रूयडउ-रूपवाला, सूरउ-शूरवीर, पंडिउ-विद्वान, दिव्वु-अलौकिक, खवणउ-तपस्वी जैन मुनि, वंदउ- वंदना करनेवाला, सेवडउ-श्वेताम्बर, मूढउ-मूर्ख, मण्णइ-मानता है, सव्वु-सबको।
  11. पूर्व कथित बात को ही पुष्ट करते हुए आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि यह व्यक्ति कर्म से रचित भेदों को ही अपना मूल स्वरूप समझलेने के कारण अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को भूल जाता है। इसी कारण शान्ति के मार्ग से भटककर अशान्ति के मार्ग पर चल देता है, जिसका परिणाम होता है दुःख और मानसिक तनाव। कर्म से रचित भेदों को अपना मानने के कारण ही व्यक्ति अपने को गोरा, काला, दुबला, मोटा आदि मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 80. हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्ण्उ वण्णु। हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मूढउ मण्णु।। अर्थ - मैं गोरा (हूँ), मैं काला (हूँ), मैं अनेक रंग (वाला हूँ), मैं कृश शरीर (वाला) हूँ, मैं स्थूल (मोटा हूँ), इस प्रकार (माननेवाले को) (तुम) मूढ (मूर्ख) समझो। शब्दार्थ - हउँ - मैं, गोरउ-गोरा, हउँ-मैं, सामलउ-काला, हउँ-मैं, जि-पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय, विभिण्ण्उ-अनेक, वण्णु-रंग, हउँ-मैं, तणु-अंगउँ- कृश शरीर, थूलु-स्थूल, हउँ-मैं, एहउँ-इस प्रकार, मूढउ -मूढ, मण्णु-समझो।
  12. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती बल्कि सम्यक् से विपरीत होती है, वह वस्तु के स्वरूप का जैसा वह है, उससे विपरीत रूप में आकलन करता है तथा कर्म से रचित भावों को अपना आत्मस्वरूप समझता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 79. जीउ मिच्छत्ते ँ परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेइ। कम्म-विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ।। 79।। अर्थ - मिथ्यात्व से परिपूर्ण हुआ जीव तत्व (वस्तु स्वरूप) को विपरीत जानता है।( वह) कर्म से रचित उन भावों को अपना कहता है। शब्दार्थ - जीउ-जीव, मिच्छत्ते ँ-मिथ्यात्व से, परिणमिउ-परिपूर्ण हुआ, विवरिउ-विपरीत, तच्चु-तत्व को, मुणेइ-जानता है, कम्म-विणिम्मिय-कर्म से विरचित, भावडा-भावों को, ते-उन, अप्पाणु-अपना, भणेइ-कहता है।
  13. परमात्मप्रकाश का प्रत्येक दोहा आचार्य योगीन्दु के मन में प्रत्येक प्राणी के प्रति प्रेम होने का द्योतक है। वे चाहते हैं कि सृष्टि का प्रत्येक जीव सुख और शान्ति का जीवन जीवे तथा दुःखों से दूर रहे। उनके अनुसार प्रत्येक जीवके दुःख का कारण उसके मन की आसक्ति ही हैै। इस आसक्ति के कारण वह दूसरों से अपेक्षा रखता है और दूसरे उससे अपेक्षा रखते हैं। स्वयं की अपेक्षा पूरी नहीं होने तथा दूसरों की अपेक्षा पूरी नहीं कर पाने के कारण ही प्राणी दुःख भोगता है। आसक्ति नहीं होने पर व्यक्ति कीचड़ में कमल के समान तथा राज महल में भी योगी के समान जीकर एक शान्त जीवन जी सकता है। आसक्ति ही कर्मबन्ध का कारण है, और ये कर्म ही व्यक्ति को गलत मार्ग में गिराकर उसके लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। आसक्ति रहित व्यक्ति प्रत्येक प्राणी का प्रिय होता है। हमारे सभी महापुरुषों का जीवन आसक्ति रहित होने के कारण ही संसारी प्राणियों के लिए प्रेरणास्पद रहा है। मेरा सभी पाठकों से अनुरोध है कि आपसे जितना संभव हो सके लोगों को योगिन्दु महाराज की इस वाणी से जोडे़ । निश्चितरूप से सभी इससे लाभान्वित होंगे। देखिये इसी से सम्बन्धित आगे का दोहा - 78. कम्मइँ - दिढ-घण-चिक्कणइँ गरुवइँ वज्ज-समाइँ। णाण-वियक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहिँ ताइँ।। अर्थ - वेे मजबूत, घने, चिकने, तथा वज्र के समान भारी कर्म, ज्ञान से दक्ष प्राणी को खोटे मार्ग में गिरा देते हैं। शब्दार्थ - कम्मइँ - दिढ-घण-चिक्कणइँ- मजबूत, घने, चिकने कर्म, गरुवइँ-भारी, वज्ज-समाइँ-वज्र के समान, णाण-वियक्खणु - ज्ञान से दक्ष, जीवडउ-प्राणी को, उप्पहि-खोटे मार्ग में, पाडहिँ-गिरा देते हैं, ताइँ - वे
  14. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि विभिन्न पर्यायों में आसक्त हुआ जीव मिथ्या दृष्टि होता है। जो कर्म करके आसक्त नहीं होता उसकी दृष्टि निर्मल होती है, किन्तु जिसकी बहुत आसक्ति होती है उसकी दृष्टि निर्मल नहीं हो सकती। वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है। आसक्ति के कारण वह बहुत प्रकार के कर्मों को बांध लेता है, जिससें उसका संसार से भ्रमण समाप्त नहीं होता। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 77. पज्जय-रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ। बंधइ बहु-विह-कम्मडा जंे संसारु भमेइ।। अर्थ -पर्याय में अनुरक्त जीव मिथ्यादृष्टि होता है। वह बहुत प्रकार के कर्मों को बाँधता है, जिससे वह संसार में भ्र्रमण करता है। शब्दार्थ - पज्जय-रत्तउ- पर्याय में अनुराग युक्त, जीवडउ-जीव, मिच्छादिट्ठि-मिथ्यादृष्टि, हवेइ-होता है, बंधइ-बाँधता है, बहु-विह-कम्मडा- बहुत प्रकार के कर्मों को, जें - जिससे, संसारु-संसार में, भमेइ-भ्रमण करता है।
  15. जीवन का निर्मल होना ही सम्यक् जीवन जीना है। निर्मलतापूर्ण सम्यक् जीवन के लिए व्यक्ति की दृष्टि का निर्मल होना आवश्यक है। निर्मल दृष्टि ही सम्यक् दृष्टि है। आचार्य योगिन्दुु कहते हैं कि आत्मा से आत्मा को जानता हुआ व्यक्ति सम्यक् दृष्टि होता है। वैसे भी यदि हम अनुभव करें तो हम देखेंगे कि सुख- दुख का अनुभव प्रत्येक आत्मा में समानरूप से होता है, और यह बात जो समझ लेता है वह किसी को दुःख नहीं दे सकता। ऐसा व्यक्ति ही जिनेन्द्र द्वारा कथित मार्ग पर चलकर शीघ्र ही कर्मों से मुक्त हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित अगला दोहा - 76. अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिट्ठि हवेइ। सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइं मुच्चेइ।। 76।। अर्थ - आत्मा से आत्मा को जानता हुआ प्राणी सम्यग्दृष्टि (सत्य तत्व पर शृद्धा रखनेवाला) होता है। सम्यग्दृष्टि प्राणी शीध्र कर्म से मुक्त किया जाता है। शब्दार्थ - अप्पिं -आत्मा से, अप्पु - आत्मा को, मुणंतु-जानता हुआ, जिउ-प्राणी, सम्मादिट्ठि-सम्यग्दृष्टि हवेइ-होता है, सम्माइट्ठिउ-सम्यग्दृष्टि, जीवडउ-जीव, लहु-शीघ्र, कम्मइं-कर्म से, मुच्चेइ-मुक्त किया जाता है।
  16. आचार्य योगिन्दु कहते है कि हमें दुःखों से मुक्ति पाने हेतु आत्मा का ध्यान करना चाहिए। उसी क्रम में वे कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर अन्य सब पराये भाव हैं। उसके बाद आत्मा के ध्यान की विधि बताते हुए कहते हैं कि जो आत्मा आठ कर्मों से बाहर, समस्त दोषों से रहित (तथा) दर्शन, ज्ञान और चारित्रयुक्त है, वही ध्यान करने योग्य है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 74. अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ । सो छंडेविणु जीव तुहुँ भावहि अप्प-सहाउ।। अर्थ - हे जीव! ज्ञानमय आत्मा को छोडकर अन्य भाव अपने से भिन्न है, (अतः) उसको छोड़कर तू आत्म-स्वभाव का चिन्तन कर। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा को, मेल्लिवि-छोड़कर, णाणमउ-ज्ञानमय, अण्णु-अन्य, परायउ-अपने से भिन्न, भाउ-भाव, -उसको, छंडेविणु ,छोड़कर जीव-हे जीव, तुहुँ -तू, भावहि-चिन्तन कर, अप्प-सहाउ-आत्म स्वभाव का। 75 अट्ठहँ कम्महँ बाहिरउ सयलहँ दोसहँ चत्तु । दंसण-णाण-चरित्तमउ अप्पा भावि णिरुत्तु।। 75।। अर्थ- आठ कर्मों से बाहर, समस्त दोषों से रहित (तथा) दर्शन, ज्ञान और चारित्रयुक्त स्पष्ट आत्मा का शब्दार्थ -अट्ठहँ -आठों, कम्महँ -कर्मों से, बाहिरउ-बाहर, सयलहँ -सम्पूर्ण, दोसहँ-दोषों से, चत्त-रहित, दंसण-णाण-चरित्तमउ-दर्शन, ज्ञान और चारित्र युक्त, अप्पा-आत्मा का, भावि-गुणाधान कर, णिरुत्त-स्पष्ट। जय जिनेन्द्र, आगे के ब्लाॅग नये वर्ष से आरम्भ होंगे क्योंकि मैं मुनिवर प्रमाणसागरजी महाराजश्री के सानिध्य में होनेवाली पदयात्रा में 23 दिसम्बर से 30 दिसम्बर तक श्रीमहावीरजी जा रही हूँ।
  17. आचार्य योगीन्दु देह से लगे जरा और मरण के भय से मुक्त करने हेतु आत्मा का चिंतन करने की बात करते हैं। फिर आत्मा का चिंतन कैसे करे यह बताते हैं। वे कहते हैं कि हे प्राणी! कर्म और कर्म से उत्पन्न भाव तथा सभी पुद्गल द्रव्य आत्मा से भिन्न है। तू इस प्रकार विचारकरके और आत्मा का सुगमता से चिंतन करके अपने दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। 73. कम्महँ केरा भावडा अण्णु अचेयणु दव्वु । जीव-सहावहँ भिण्णु जिय णियमिं बुज्झहि सव्वु ।। अर्थ -हे जीव! कर्मों के भाव (तथा) अन्य अचेतन द्रव्य, जीव के स्वभाव से भिन्न हैं, (इन) सबको (तू) नियम से समझ। शब्दार्थ - कम्महँ - कर्मों के, केरा- सम्बन्धवाचक परसर्ग, भावडा-भाव, अण्णु-अन्य, अचेयणु-अचेतन, दव्वु-द्रव्य, जीव-सहावहँ-जीवों के स्वभाव से, भिण्णु-भिन्न, जिय-हे जीव!, णियमिं - नियम से, बुज्झहि-समझ, सव्वु-सबको।
  18. आचार्य योगिन्दु मानव के सभी भयों को मानव की देह से सम्बन्धित ही मानते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि देह से सम्बन्धित दुःखों का विनाश ही मानव के सभी दुःखों का विनाश होना है। आगे वे देह के दुःखों से मुक्ति का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि देह से सम्बन्धित दुःख होने पर देह से आसक्ति का त्याग कर निरन्तर आत्मा का ध्यान करने से ही देह के दुःखों से पार हुआ जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 72. छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु। अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव-तीरु।। अर्थ -हे योगी! यह शरीर छिदे, भिदे (तथा) नाश को प्राप्त हो, (तब भी) (तू) निर्मल आत्मा का चिंतन कर, जिससे (तू) संसार के पार को प्राप्त करे। शब्दार्थ - छिज्जउ- छिदे, भिज्जउ-भिदे, जाउ-प्राप्त हो, खउ-नाश को, जोइय-हे योगी!, एहु-यह, सरीरु-शरीर, अप्पा-आत्मा का, भावहि-चिन्तन कर, णिम्मलउ-निर्मल, जिं -जिससे,पावहि-प्राप्त करे, भव-तीरु-संसार के पार को।
  19. क्षमा करें, पिछले ब्लाॅग में कुछ व्यस्तता के कारण दोहे के शब्दार्थ में गलती हो गयी। 71वें दोहे के शब्दार्थ के स्थान पर 72 वें दोहे के शब्दार्थ दे दिये गये। अतः पुनः शुद्धि के साथ उसी दोहे को दोहराया जा रहा है। शरीर के प्रति अभय विषयक कथन इस संसार के प्रत्येक प्राणी को जितना दुःख है वह शरीर से सम्बन्धित ही है। जिस समय व्यक्ति का मरण होता है उस समय आत्मा के अभाव में देह की समस्त क्रियाओं का निरोध होने से व्यक्ति के देह से सम्बन्धित सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए आचार्य योगिन्दु शरीर से अधिक आत्मा के महत्व का कथन कर प्रत्येक जीव को शरीर के प्रति अभय प्रदान करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 71. देहहँ पेक्खिवि जर-मरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामर बंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि।। अर्थ - हे जीव! देह के बुढापा व मरण को देखकर भय मत कर। जो अजर-अमर परम आत्मा है, वह ही आत्मा है, (ऐसा) (तू) समझ। शब्दार्थ - देहहँ -देहों के, पेक्खिवि-देखकर, जर-मरणु- बुढ़ापा व मरण को, मा -मत, भउ-भय, जीव-हे जीव!, करेहि-कर, जो-जोे, अजरामर-अजर-अमर, बंभु- आत्मा, परु-परम, सो-वह, अप्पाणु-आत्मा, मुणेहि-समझ।
  20. इस संसार के प्रत्येक प्राणी को जितना दुःख है वह शरीर से सम्बन्धित ही है। जिस समय व्यक्ति का मरण होता है उस समय आत्मा के अभाव में देह की समस्त क्रियाओं का निरोध होने से व्यक्ति के देह से सम्बन्धित सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए आचार्य योगिन्दु शरीर से अधिक आत्मा के महत्व का कथन कर प्रत्येक जीव को शरीर के प्रति अभय प्रदान करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 72. छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु । अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव-तीरु ।। अर्थ - हे जीव! देह के बुढापा व मरण को देखकर भय मत कर। जो अजर-अमर परम आत्मा है, वह ही आत्मा है, (ऐसा) (तू) समझ। शब्दार्थ - छिज्जउ-छिदे, भिज्जउ-भिदे, जाउ-प्राप्त हो, खउ-नाश को, जोइय-हे योगी!, एहु-यह, सरीरु-शरीर, अप्पा-आत्मा का, भावहि-चिंतन कर, णिम्मलउ-निर्मल, जिं-जिससे, पावहि-प्राप्त करे, भव-तीरु-संसार के पार को
  21. आत्मा के लक्षण बताकर आचार्य योगिन्दु देह से उसका भेद बताते हुए कहते हैं कि आत्मा का जिसके साथ सम्बन्ध नहीं है शरीर का उसके साथ पूरा सम्बन्ध है। आत्मा के जन्म, बुढ़ापा और मरण, रोग, लिंग वर्ण तथा एक भी संज्ञा नहीं है, किन्तु देह के जन्म, बुढापा, मरण, अनेक प्रकार के रंग रोग, और अनेक प्रकार के लिंग होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 70. देहहँ उब्भउ जर-मरणु देहहँ वण्णु विचित्तु । देहहँ रोय वियाणि तुहुं देहहँ लिंगु विचित्तु ।। अर्थ - देह के जन्म, बुढापा और मरण (होते हैं), देहों के अनेक प्रकार के रंग (होते हैं), देहों के रोग, (और) देहों के (ही) अनेक प्रकार के लिंग होते हैं, (यह) तू समझ। शब्दार्थ - देहहँ -देहों के, उब्भउ-जन्म, जर-मरणु - बुढ़ापा और मरण, देहहँ -देहों के, वण्णु-वर्ण, विचित्तु - अनेक प्रकार के, देहहँ-देहों के, रोय-रोग, वियाणि-जान, तुहुं -तू, देहहँ-देहों के, लिंगु-लिंग, विचित्तु-अनेक प्रकार के
  22. आत्मा के लक्षण बताकर आचार्य योगिन्दु देह से उसका भेद बताते हुए कहते हैं कि आत्मा का जिसके साथ सम्बन्ध नहीं है शरीर का उसके साथ पूरा सम्बन्ध है। आत्मा के जन्म, बुढ़ापा और मरण, रोग, लिंग वर्ण तथा एक भी संज्ञा नहीं है, किन्तु देह के जन्म, बुढापा, मरण, अनेक प्रकार के रंग रोग, और अनेक प्रकार के लिंग होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 70. देहहँ उब्भउ जर-मरणु देहहँ वण्णु विचित्तु । देहहँ रोय वियाणि तुहुं देहहँ लिंगु विचित्तु ।। अर्थ - देह के जन्म, बुढापा और मरण (होते हैं), देहों के अनेक प्रकार के रंग (होते हैं), देहों के रोग, (और) देहों के (ही) अनेक प्रकार के लिंग होते हैं, (यह) तू समझ। शब्दार्थ - देहहँ -देहों के, उब्भउ-जन्म, जर-मरणु - बुढ़ापा और मरण, देहहँ -देहों के, वण्णु-वर्ण, विचित्तु - अनेक प्रकार के, देहहँ-देहों के, रोय-रोग, वियाणि-जान, तुहुं -तू, देहहँ-देहों के, लिंगु-लिंग, विचित्तु-अनेक प्रकार के
  23. आत्मा का कर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बताने के बाद आचार्य योगिन्दु आगे कहते हैं कि कर्म के बिना आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्म के अभाव में आत्मा की अस्तित्वहीनता के विषय में कहा है कि आत्मा आत्मा ही है उसका कर्म को छोड़कर अन्य के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीें है। कर्म के आश्रय के अभाव में आत्मा न उत्पन्न होता है, न मरता है, न बंध को प्राप्त होता है, न मुक्ति को प्राप्त होता है और ना ही उसके जन्म, बुढापा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण आदि कोई एक भी संज्ञा होती है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहे - 67. अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि ण होइ। परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमे ँ पभणहिं जोइ।। 67।। अर्थ -आत्मा, आत्मा ही है, पर, पर ही है, आत्मा पर कभी नहीं होता है, और पर भी कभी भी आत्मा नहीं (होता), योगी निश्चयपूर्वक (ऐसा) कहते हैं। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, अप्पु - आत्मा, जि - ही, परु - पर जि-ही, परु-पर अप्पा-आत्मा, परु-पर, जि ण -कभी नहीं, होइ-होता है, परु-पर, जि-भी, कयाइ-कभी भी, वि-और, अप्पु - आत्मा, णवि-नहीं, णियमे - निश्चयपूर्वक, पभणहिं -कहते हैं, जोइ-योगी 68. ण वि उपज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ । जिउ परमत्थे ँ जोइया जिणवरु एउँ भणेइ ।। 68।। अर्थ - हे योगी! वास्तविकरूप से यह आत्मा न ही उत्पन्न होता है, न ही मरता है, न बंध और मुक्ति को प्राप्त करता है, जिनेन्द्रदेव यह कहते हैं। शब्दार्थ - ण-न, वि-ही, उपज्जइ-उत्पन्न होता है, ण-न, वि-ही, मरइ-मरता है, बंधु-बंध, ण-न, मोक्खु-मुक्ति को, करेइ-प्राप्त करता है, जिउ-आत्मा, परमत्थे ँ - वास्तविकरूप से, जोइया-हे योगी!, जिणवरु -जिनेन्द्रदेव, एउ-यह, भणेइ - कहते हैं। 69. अत्थि ण उब्भउ जर-मरणु रोय वि लिंग वि वण्ण। णियमिं अप्पु वियाणि तुहुँ जीवहँ एक्क वि सण्ण ।। 69।। अर्थ - आत्मा के जन्म, बुढ़ापा और मरण, रोग, लिंग वर्ण तथा एक भी संज्ञा नहीं है, तू निश्चय से (इस प्रकार) आत्मा को जान। शब्दार्थ - अत्थि - है, ण -नहीं, उब्भउ-जन्म, जर-मरणु- बुढापा और मरण, रोय-रोग, वि-तथा, लिंग-लिंग, वि-भी, वण्ण-वर्ण, णियमिं - निश्चय से, अप्पु-आत्मा को, वियाणि - जान, तुहुँ -तू, जीवहँ- जीव के, एक्क-एक, वि-भी, सण्ण-संज्ञा
  24. आज हम 3 गाथाओं में कर्म की महत्ता का कथन करते है। आचार्य योगिन्दु कहते हैं जीवों का बहुत प्रकार का दुःख और सुख, बन्ध और मोक्ष भी कर्म ही करता है तथा तीनों लोकों में भी कर्म ही आत्मा को भ्रमण कराता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे की 3 गाथाएँ - 64. दुक्खु वि सुक्खु वि बहु-विहउ जीवहँ कम्मु जणेइ । अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ।।64।। अर्थ - जीवों का बहुत प्रकार का दुःख और सुख कर्म ही उत्पन्न करता है। आत्मा मात्र देेखता और जानता है, इस प्रकार निश्चय (नय) कहता है। शब्दार्थ - दुक्खु- दुःख, वि-और, सुक्खु-सुख, वि-ही, बहु-विहउ-बहुत प्रकार का, जीवहँ-जीवों का, कम्मु - कर्म, जणेइ-उत्पन्न करता है, अप्पा-आत्मा, देक्खइ-देखता है, मुणइ-जानता है, पर-मात्र, णिच्छउ -निश्चय एउँ-इस प्रकार, भणेइ-कहता है। 65. बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ । अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ।। अर्थ - हे प्राणी! जीवों का कर्म ही बन्ध, मोक्ष आदि सबको उत्पन्न करता है तथा आत्मा कुछ भी नहीं करती, इस प्रकार निश्चय(नय) कहता है। शब्दार्थ - बंधु - बंध, वि-आदि, मोक्खु-मोक्ष, वि-ही सयलु-सबको, जिय-हे प्राणी, जीवहँ-जीव का, कम्मु-कर्म, जणेइ-उत्पन्न करता है, अप्पा-आत्मा, किंपि -कुछ भी, वि-तथा, कुणइ-करती, णवि -नहीं, णिच्छउ-निश्चय, एउँ-इस प्रकार, भणेइ-कहता है। 66. अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ । भुवणत्तयहँ वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ।। 66।। अर्थ -आत्मा न जाती है न आती है, आत्मा (तो) लंगडे (के समान) अनुकरण करती है, तीनों लोकों मे आत्मा को कर्म ही लाता है (और) कर्म ही ले जाता है। शब्दार्थ - अप्पा -आत्मा, पंगुह-लंगड़े अणुहरइ-अनुकरण करती है, अप्पु -आत्मा, ण- न, जाइ-जाता है, ण-न, एइ-आता है, भुवणत्तयहँ-तीनों लोकों, वि-ही, मज्झि-में, जिय-आत्मा को, विहि-कर्म, आणइ-लाता है, विहि-कर्म, णेइ-ले जाता है।
  25. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि इस जगत में कर्मों की ही वर्चस्वता है। हमारी समस्त इन्द्रियाँ, हमारा मन, हमारे समस्त विभाव, चारों गति में जन्म लेकर दुःख -सुख भोगना ये सब अपने शरा किये गये कर्मों के ही परिणाम हंै। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 63. पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल-विभाव। जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव।। 63।। अर्थ - हे जीव! पाँचों ही इन्द्रियाँ और मन, और भी समस्त विभाव और दूसरा चार गति का दुःख (ये सब) जीवों के कर्म से उत्पन्न किये गये हैं। शब्दार्थ - पंच - पाँचों, वि - ही, इंदिय-इन्द्रियाँ, अण्णु - और, मणु -मन, अण्णु - और, वि - भी, सयल-विभाव-समस्त विभाव, जीवहँ - जीवों के, कम्मइँ - कर्म से, जणिय- उत्पन्न किये गये हैं, जिय - हे जीव!, अण्णु - दूसरा, वि - और, चउगइ-ताव - चार गति का दुःख।
×
×
  • Create New...