परम आत्मा का दर्शन ही सर्वश्रेष्ठ सुख है
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि परम आत्मा की प्राप्ति के अतिरिक्ति अन्य सभी द्रव्यों की प्राप्ति क्षणिक सुखदायी है। जैसे ही एक वस्तु प्राप्त होती है, दूसरी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत होती है और इस प्रकार अनन्त इच्छाओं की पूर्ति की भागदौड़ में मनुष्य जीवन संघर्ष करते करते व्यतीत हो जाता है। अन्त में जब मनुष्य की शक्ति मानसिक व शारीरिकरूप से क्षीण हो जाती है तब मनुष्य दुःखपूर्वक मरण को प्राप्त होता है, जो उसके मनुष्य जन्म का दुःखद परिणाम है। आचार्य योगिन्दु के अनुसार मात्र परम आत्मा का दर्शन ही वह सर्वश्रेष्ठ सुख है जो शाश्वत है । परम आत्मा के दर्शन के बाद व्यक्ति को आगे कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा शेष नहीं रहती है। इस परम आत्मा के दर्शन के विषय में आचार्य कहते हैं कि परम आत्मा के दर्शन के सुख के बराबर लोक में और कोई सुख नहीं है। करोड़ो देवियों के साथ सुख भोगते हुए इन्द्र का सुख भी आत्मा के दर्शन के सुख के समक्ष कुछ भी नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
116. जं सिव-दंसणि परम-सुहु पावहि झाणु करंतु।
तं सुहु भुवणि वि अत्थि णवि मेल्लिवि देउ अणंतु।।
अर्थ - तू ध्यान करता हुआ परम आत्मा के दर्शन में जिस परम सुख को प्राप्त करता है, वह सुख अनन्त परमआत्मा को छोड़कर लोक में है ही नहीं।
शब्दार्थ - जं-जिस, सिव-दंसणि-परमात्मा के दर्शन में, परम-सुहु -परम सुख को, पावहि-प्राप्त करता है, झाणु - ध्यान, करंतु-करता हुआ, तं -वह, सुहु - सुख, भुवणि- लोक में, वि-ही, अत्थि-है, णवि -नहीं, मेल्लिवि-छोड़कर, देउ-परमात्मा को, अणंतु-अनन्त।
117. जं मुणि लहइ अणंत-सुहु णिय अप्पा झायंतु।
तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहि ँ कोडि रमंतु।।
अर्थ -मुनि अपनी आत्मा का ध्यान करता हुआ जिस अनन्त सुख को प्राप्त करता है, उस सुख को करोड़ देवियों के साथ क्रीड़ा करता हुआ इन्द्र भी प्राप्त नहीं करता।
शब्दार्थ - जं -जिस, मुणि-मुनि, लहइ-प्राप्त करता है, अणंत-सुहु- अनन्त सुख को, णिय- अप्पा- अपनी आत्मा का, झायंतु-ध्यान करता हुआ, तं -उस, सुहु -सुख को, इंदु-इन्द्र, वि - भी, णवि - नहीं, लहइ -प्राप्त करता है, देविहि ँ-देवियों के साथ, कोडि-करोड़ों रमंतु-क्रीड़ा करता हुआ।
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