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राग शान्ति का मार्ग नहीं आत्म चिंतन ही शान्ति का मार्ग है
Sneh Jain posted a blog entry in Apbhramsa - Language & Literature
आचार्य योगीन्दु ने अपनी अथक साधना से जीवन की शान्ति के मार्ग का अनुसंधान किया है। उस ही अनुसंधान के आधार पर वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि जीवन में शान्ति का मार्ग मात्र आत्म चिंतन ही है। आत्मा का ध्यान करने वाले को सभी की आत्मा समान जान पडती है जिससे उसके द्वारा की गया प्रत्येक क्रिया स्व और पर के लिए हितकारी होती है। इसी से उसका जीवन शान्तिमय होता है। अतः घर-परिवार की चिन्ता करने से शान्ति नहीं अपितु आत्मा का चिंतन करने से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है।देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 124. मुक्खु ण पावहि जीव तुहुँ घरु परियणु चिंतंतु। तो वरि चिंतहि तउ जि तउ पावहि मोक्ख महंतु।। अर्थ - हे जीव! तू घर और परिवार की चिंता करता हुआ शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। इसलिए अच्छा है कि तू उस ही उस आत्मा का चिंतन कर, (जिससे) श्रेष्ठ शान्ति को प्राप्त कर सके। शब्दार्थ - मुक्खु-शान्ति, ण-नहीं, पावहि-प्राप्त कर सकता है, जीव-हे जीव!, तुहुँ- तू, घरु -घर,परियणु - परिवार की, चिंतंतु-चिन्ता करता हुआ, तो-इसीलिए, वरि-अच्छा है, चिंतहि-चिन्तन कर, तउ-उस, जि-ही, तउ -उसका, पावहि-प्राप्ति कर सके, मोक्ख-शान्ति, महंतु-श्रेष्ठ। -
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि हे जीव! तू मात्र अपनी आत्मा को ही अपनी मान। उसके अतिरिक्त घर, परिवार, शरीर और अपने प्रियजन पर हैं। योगियों के द्वारा आगम में इन सबको कर्मों के वशीभूत और कृत्रिम माना गया है। आत्मा पर श्रृद्वान होने से ही व्यक्ति स्व का कल्याण कर पर कल्याण के योग्य बनता है। जब वह अपनी आत्मा पर श्रृद्वान करता है तो उसे पर की आत्मा भी स्वयं के समान प्रतीत होती है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु ने आत्मा पर श्रृ़द्वान करने के लिए कहा है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 123. जीव म जाणहि अप्पणउँ घरु परियणु तणु इट्ठु। कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहि ँँ दिट्ठु।। अर्थ - हे जीव! तू घर, परिवार, शरीर (और) प्रिय (लगनेवाले) को अपना मत जान। योगियों के द्वारा आगम में (इनमें से प्रत्येक ) कर्मों के वशीभूत और कृत्रिम माना गया है। शब्दार्थ - जीव - हे जीव! म -मत, जाणहि -जान, अप्पणउँ-अपना, घरु -घर, परियणु-परिवार, तणु -शरीर, इट्ठु-प्रिय, कम्मायत्तउ-कर्मों के वशीभूत, कारिमउ-कृत्रिम, आगमि-आगम में, जोइहि ँँ-योगियों के द्वारा, दिट्ठुःमाना गया है। (ठोलिया साहब के अस्वस्थ होने के कारण लम्बा व्यवधान रहा। आगे उसी क्रम में आगे चलते हैं)
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परमशान्ति की प्राप्ति मात्र ज्ञान से ही संभव है।
Sneh Jain posted a blog entry in Apbhramsa - Language & Literature
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि चाहे यह लोक हो या परलोक, दुःख का कारण मात्र अपना अज्ञान ही है जिसके कारण हम पति, सन्तान व स्त्रियों से मोह कर दुःख उठाते है। यदि हम अपने ज्ञान से अपना मोह समाप्त कर लेंगे तो हमारा वर्तमान जीवन तो शान्त होगा ही और यही हमारी शान्त दशा हमें परलोक में ले जायेगी। मोक्ष का अर्थ भी शान्ति ही तो है। अतः शान्ति के इच्छुक भव्य जनों को अपने ज्ञान से मोह को नष्ट करना चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 122. जोणिहि लक्खहि परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु। पुत्त-कलत्तहिँ मोहियउ जाव ण णाणु महंतु।। अर्थ -जब तक उत्तम ज्ञान नहीं है, पुत्र और स्त्रियों के द्वारा मोहित किया हुआ जीव, दुःख सहन करता हुआ लाखों योनियों में परिभ्रमण करता है। शब्दार्थ - जोणिहि-योनियों में, लक्खहि-लाखों, परिभमइ-परिभ्रमण करता है, अप्पा-आत्मा, दुक्खु-दुःख सहंतु-सहन करता हुआ, पुत्त-कलत्तहिँ -पुत्र और स्त्रियों के द्वारा,मोहियउ-मोहित किया हुआ, जाव-जब तक, ण-नहीं, णाणु-ज्ञान, महंतु-उत्तम। -
हम सब अपने ही कर्मों से परेशान हैं
Sneh Jain posted a blog entry in Apbhramsa - Language & Literature
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि हम सब अज्ञानी जीव भोगों में फँसकर दिन रात अपने-अपने व्यापार में लगे हुए हैं । हमारे पास आत्मा के चिंतन के लिए जरा सा भी समय नहीं है, जो कि शान्ति का सबसे बड़ा साधन है। यही कारण है कि आज सारा जगत अपने इन ही कारणों से अशान्त है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 121. धंधइ पडियउ सयलु जगु कम्मइँ करइ अयाणु। मोक्खहँ कारणु एक्कुु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु।। अर्थ -धंधे में फँसा हुआ समस्त अज्ञानी जगत (ज्ञानावरणादि आठों) कर्मों को करता है,(किन्त)ु मोक्ष का हेतु अपनी आत्मा का चिंतन एक क्षण भी नहीं करता है। शब्दार्थ -धंधइ-धंधे में, पडियउ-फँसा हुआ, सयलु - समस्त, जगु-जग, कम्मइँ-कर्मों को, करइ-करता है, अयाणु-अज्ञानी, मोक्खहँ -मोक्ष का, कारणु -हेतु, एक्कुु-एक, खणु-क्षण, णवि-भी, नहीं, चिंतइ-चिंतन करता है, अप्पाणु-आत्मा का। -
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराज को समझाते हैं कि हे योग का निरोध करनेवाले जीव, जब तूने संसार के भय से घबराकर शान्ति हेतु मोक्ष मार्ग अपनाया है तो फिर तू पुनः संसार भ्रमण के कर्मों को क्यों करता है ? देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 120. जिय अणु-मित्तु वि दुक्खडा सहण ण सक्कहि जोइ। चउ-गइ-दुक्खहँ कारणइँ कम्मइँ कुणहि किं तोइ।। अर्थ - 120. हे योग का निरोध करनेवाले जीव! तू अणुमात्र भी दुःख सहन करने के लिए समर्थ नहीं होता है, तो फिर तू चारों गतियों के दुःखों के हेतु कर्मों को क्यों करता है ? शब्दार्थ - जिय-हे जीव, अणु-मित्तु - अणु मात्र, ,वि-भी, दुक्खडा-दुःख, सहण-सहन करने के लिए, ण-नहीं, सक्कहि-समर्थ होता है, जोइ-हे योग का निरोध करनेवाले, चउ-गइ-दुक्खहँ-चारों गतियों के दुःखों के, कारणइँ-हेतु, कम्मइँ-कर्मों को, कुणहि-करता है, किं -क्यों, तो -फिर, इ-पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय।
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आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी साधु को समझाते हैं कि तू संसार में भ्रमण करता हुआ बहुत दुःख प्राप्त कर रहा है। अतः अब शीघ्र अपने आठों ही कर्मों को नष्ट कर, जिससे मोक्ष को प्राप्त हो सके। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 119. पावहि दुक्खु महंतु तुहुँ जिय संसारि भमंतु। अट्ठ वि कम्मइँ णिद्दलिवि वच्चहि मुक्खु महंतु।। अर्थ -. हे जीव! तू संसार में भ्रमण करता हुआ बहुत दुःख प्राप्त करता है। (अतः) आठों ही कर्मों को नष्ट कर श्रेष्ठ (स्थान) मोक्ष जा। शब्दार्थ -पावहि-प्राप्त करता है, दुक्खु-दुःख, महंतु-बहुत, तुहुँ-तू, जिय-हे जीव!, संसारि-संसार में, भमंतु-भ्रमण करता हुआ, अट्ठ-आठों, वि-ही, कम्मइँ-कर्मों को, णिद्दलिवि-नष्ट कर, वच्चहि-जा, मुक्खु-मोक्ष, महंतु-श्रेष्ठ।
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साधुजनों का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति ही है
Sneh Jain posted a blog entry in Apbhramsa - Language & Literature
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी उन साधुजनों को समझा रहे हैं जो साधु मार्ग का अनुकरण कर कठोर चर्या का पालन करके भी अनेक प्रकार की आसक्तियों में पड़कर आत्म हित नहीं कर रहे हैं। वे कहते हैं जिन राज सुखों को पाने के लिए लोग अपनी जान लगा देते हैं, उन राज्य सुखों का जिनवरों ने आसानी से त्याग कर मोक्ष प्राप्ति के द्वारा आत्म हित कर लिया। किन्तु हे मूर्ख साधु तुझे तो किसी प्रकार का राज सुख भी नहीं त्यागना पड़ा, फिर भी तू आत्म हित में तत्पर नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 118. मोक्खु जि साहिउ जिणवरहि ँ छंडिवि बहु-विहु रज्जु। भिक्ख-भरोडा जीव तुहुँ करहि ण अप्पउ कज्जु।। अर्थ -जिनदेवों के द्वारा अनेक प्रकार का राज्य वैभव छोड़कर मोक्ष ही सिद्ध किया गया है। हे भिक्षा पर आश्रित पूजनीय जीव! तू आत्मा का करने योग्य कार्य (आत्म हित) (भी) नहीं करता है। शब्दार्थ - मोक्खु-मोक्ष, जि-ही, साहिउ-सिद्ध किया गया है, जिणवरहि ँ -जिनदेवों के द्वारा, छंडिवि- छोड़कर, बहु-विहु रज्जु- अनेक प्रकार का राज्य वैभव, भिक्ख-भरोडा -हे भिक्षा पर आश्रित पूजनीय, जीव -जीव, तुहुँ-तू, करहि-करता है, ण-नहीं, अप्पउ-आत्मा का, कज्जु-करने योग्य कार्य। -
युवा अवस्था व्यक्ति की महत्वपूर्ण अवस्था है
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति की जीवन यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उसकी युवावस्था है। बच्चे का जब बचपन होता है तब उसके माता-पिता की युवावस्था होती है। उस युवावस्था में माता-पिता का जीवन अनुशासन में होता है तो वे बच्चे की परवरिश बहुत अच्छी कर पाते हैं। जब बच्चा युवा अवस्था को प्राप्त होता है तो तो वही बच्चा युवा अवस्था प्राप्त कर वृद्धावस्था को प्राप्त हुए अपने माता-पिता की परवरिश अच्छी तरह से कर पाता है। इस प्रकार बच्चों और माता-पिता का सम्पूर्ण जीवन आनन्दमय, सुख और शान्ति के साथ व्यतीत होता चलता है। इसके लिए मात्र आवश्यक्ता है युवावस्था में जीवन को अनुशासित बनाये रखने की। आज जितने हालात बिगड़ते दिखायी दे रहे हैं वे मात्र युवावस्था में उत्पन्न हुए दोषों के कारण ही हैं। आचार्य योगिन्दु युवावस्था में अनुशासनमय जीवन जीने वालों के लिए कहते हैं कि इस जीवलोक में वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष हैं, और वे ही जीवनदशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा हैं, जो युवारूपी यौवन समुद्र में गिरे हुए भी आसानी से तैर जाते है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 117. ते चिय धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जिय-लोए। वोद्दह-दहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए।। अर्थ - इस जीवलोक में वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष हैं, (और) वे ही जीवनदशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा हैं, जो युवारूपी (यौवन) समुद्र में गिरे हुए भी आसानी से तैर जाते है। शब्दार्थ - ते -वे, चिय-ही, धण्णा -धन्य हैं, ते-वे, चिय-ही, सप्पुरिसा-सत्पुरुष हैं, ते- जियंतु-जीवन दशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा, जिय-लोए-जीव लोक में, वोद्दह-दहम्मि- यौवनरूपी समुद्र में, पडिया-गिरे हुए, तरंति - तैर जाते हैं, जे - जो, चेव-ही, लीलाए-आसानी से। -
युवा अवस्था व्यक्ति की महत्वपूर्ण अवस्था है
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति की जीवन यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उसकी युवावस्था है। बच्चे का जब बचपन होता है तब उसके माता-पिता की युवावस्था होती है। उस युवावस्था में माता-पिता का जीवन अनुशासन में होता है तो वे बच्चे की परवरिश बहुत अच्छी कर पाते हैं। जब बच्चा युवा अवस्था को प्राप्त होता है तो तो वही बच्चा युवा अवस्था प्राप्त कर वृद्धावस्था को प्राप्त हुए अपने माता-पिता की परवरिश अच्छी तरह से कर पाता है। इस प्रकार बच्चों और माता-पिता का सम्पूर्ण जीवन आनन्दमय, सुख और शान्ति के साथ व्यतीत होता चलता है। इसके लिए मात्र आवश्यक्ता है युवावस्था में जीवन को अनुशासित बनाये रखने की। आज जितने हालात बिगड़ते दिखायी दे रहे हैं वे मात्र युवावस्था में उत्पन्न हुए दोषों के कारण ही हैं। आचार्य योगिन्दु युवावस्था में अनुशासनमय जीवन जीने वालों के लिए कहते हैं कि इस जीवलोक में वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष हैं, और वे ही जीवनदशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा हैं, जो युवारूपी यौवन समुद्र में गिरे हुए भी आसानी से तैर जाते है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 117. ते चिय धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जिय-लोए। वोद्दह-दहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए।। अर्थ - इस जीवलोक में वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष हैं, (और) वे ही जीवनदशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा हैं, जो युवारूपी (यौवन) समुद्र में गिरे हुए भी आसानी से तैर जाते है। शब्दार्थ - ते -वे, चिय-ही, धण्णा -धन्य हैं, ते-वे, चिय-ही, सप्पुरिसा-सत्पुरुष हैं, ते- जियंतु-जीवन दशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा, जिय-लोए-जीव लोक में, वोद्दह-दहम्मि- यौवनरूपी समुद्र में, पडिया-गिरे हुए, तरंति - तैर जाते हैं, जे - जो, चेव-ही, लीलाए-आसानी से। -
आचार्य योेगिन्दु अपने साधर्मी योगी को प्रेम का त्याग करने के लिए एवं वैराग्य के पथ पर अग्रसर होने के लिए कह रहे हैं। वे समझा रहे हैं कि तू इस जगत को देख कि यह प्रेम की आसक्ति के कारण कितने दुःखों को झेल रहा है। एनके अनुसार प्रेम सुख रूप वैराग्य वृद्धि में बाधक है। बन्धुओं, कबीरदास जी ने ‘ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होइ’ यह दोहा गृहस्थों के लिए कहा है। अतः यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ के लिए प्रेम की मुख्यता है तो साधुजन के लिए वैराग्य की प्रमुखता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 115. जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ। णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।। अर्थ - हे योगी! (तू) स्नेह को पूरी तरह छोड दे, स्नेह अच्छा नहीं होता है। स्नेह में लीन समस्त जगत (प्राणी) को (तू) दुःख सहता हुआ देख। शब्दार्थ - जोइय-हे योगी! णेहु-प्रेम को, परिच्चयहि-पूरी तरह से छोड़, णेहु-प्रेम, ण -नहीं, भल्लउ-अच्छा, होइ-होता है, णेहासत्तउ-प्रेम में लीन, सयलु-समस्त, जगु-संसार को, दुक्खु - दुःख, सहंतउ-सहता हुआ, जोइ-देख।
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आचार्य योेगिन्दु अपने साधर्मी योगी को प्रेम का त्याग करने के लिए एवं वैराग्य के पथ पर अग्रसर होने के लिए कह रहे हैं। वे समझा रहे हैं कि तू इस जगत को देख कि यह प्रेम की आसक्ति के कारण कितने दुःखों को झेल रहा है। एनके अनुसार प्रेम सुख रूप वैराग्य वृद्धि में बाधक है। बन्धुओं, कबीरदास जी ने ‘ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होइ’ यह दोहा गृहस्थों के लिए कहा है। अतः यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ के लिए प्रेम की मुख्यता है तो साधुजन के लिए वैराग्य की प्रमुखता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 115. जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ। णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।। अर्थ - हे योगी! (तू) स्नेह को पूरी तरह छोड दे, स्नेह अच्छा नहीं होता है। स्नेह में लीन समस्त जगत (प्राणी) को (तू) दुःख सहता हुआ देख। शब्दार्थ - जोइय-हे योगी! णेहु-प्रेम को, परिच्चयहि-पूरी तरह से छोड़, णेहु-प्रेम, ण -नहीं, भल्लउ-अच्छा, होइ-होता है, णेहासत्तउ-प्रेम में लीन, सयलु-समस्त, जगु-संसार को, दुक्खु - दुःख, सहंतउ-सहता हुआ, जोइ-देख।
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि लोभ एक ऐसा भाव है जिसके रहते व्यक्ति कभी भी शाश्वत सुख की प्राप्ति की ओर नहीं बढ़ सकता है। वह सारा समय दुःखी होकर ही व्यतीत करता है। आज के युग में समस्त जगत लोभ में लीन होने के कारण ही दुःखी है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु योगीजनों को लोभ के त्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। वे कहते हैं- देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 113. जोइय लोहु परिच्चयहि लोहु ण भल्लउ होइ। लोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।। अर्थ - हे योगी! (तू) लोभ को पूरी तरह छोड दे, लोभ अच्छा नहीं होता है। लोभ में लीन समस्त जगत (प्राणी) को (तू) दुःख सहता हुआ देख। शब्दार्थ - जोइय-हे योगी! लोहु-लोभ को, परिच्चयहि -पूरी तरह से छोड़, लोहु-लोभ, ण -नहीं,भल्लउ -अच्छा, होइ-होता है, लोहासत्तउ -लोभ में लीन,सयलु-समस्त, जगु -संसार को, दुक्खु -दुःख, सहंतउ - सहता हुआ, जोइ-देख।
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इन्द्रिय जनित सुख, दुःख के कारण हैं
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आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी साधुओं को समझाते हुए कहते हैं कि जब मात्र एक रूप में आसक्त हुए कीट पतंग जीव दीपक में जलकर मर जाते हैं,े शब्द विषय में लीन हिरण व्याघ के बाणों से मारे जाते हैं, हाथी स्पर्श विषय के कारण गड्ढे में पड़कर बाँधे जाते हैं, सुगंध की लोलुपता से भौरें कमल में दबकर प्राण छोड़ देते हैं और रस के लोभी मच्छ धीवर के जाल में पड़कर मारे जाते हैं, तो यह जानते हुए भी साधु विषयों में क्यों रमते हैं ? देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 112. रूवि पयंगा सद्दि मय गय फासइ णासंति। अलिउल गंधइँ मच्छ रसि किम तहिं संतु रमंति। अर्थ - रूप में (लीन) पतंगे, शब्द में (लीन) हिरण, स्पर्श में (लीन) हाथी, सुगंध के कारण भौंरें, (तथा) रस में (लीन) मच्छ नष्ट हो जाते हैं, (तब भी) साधु उन (विषयों) में क्यों रमते हैं? शब्दार्थ - रूवि - रूप में,, पयंगा -पतंगे, सद्दि -शब्द में, मय-हिरण, गय-हाथी, फासइ-स्पर्श में, णासंति-नष्ट हो जाते हैं, अलिउल-भौरें, गंधइँ-सुगंध के कारण, मच्छ-मच्छ, रसि-रस में, किम-क्यों, तहिं-उनमें, संतु-साधु, रमंति-रमते हैं। -
मुनि की आहार में आसक्ति स्व और पर दोनों के लिए घातक है
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आचार्य योगीन्दु मुनिराजों की आहार के प्रति आसक्ति को एक दम अनुचित मानते हैं। वेे कहते हैं कि जिस परम तत्त्व को स्वयं समझने और श्रावकों को समझाने हेतु उन्होंने मुनि पद धारण किया है वही मुनि पद उनकी आहार में आसक्ति होने के कारण निष्फल हो जाता है। आहार में आसक्ति उन्हें गिद्धपक्षी के समान बना देती है। मन में भोजन के प्रति गिद्धता उत्पन्न होने से परम तत्त्व को समझ पाना बहुत मुश्किल है, और जो उस परम तत्त्व को स्वयं नहीं समझ सकता वह दूसरों को कैसे समझा सकता है। अतः मुनि के लिए आहार में आसक्ति का त्याग अति आवश्यक है, ऐसा मुनिराजों के प्रति करुणा एवं हित की भावना भानेवाले आचार्य योगीन्दु कहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 111.4 जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहंति। ते मुणि भोयण-धार गणि णवि परमत्थु मुणंति।। अर्थ -जो (मुनि) रसीले (आहार) से सन्तुष्ट मन हैं, (तथा) नीरस (आहार) में कषाय धारण करते हैं उन मुनि को भोजन में गिद्ध पक्षी की कोटि में रखो। (वे) परम तत्व को नहीं समझते हैं। शब्दार्थ - जे - जो, सरसिं-रसीले से, संतुट्ठ-मण-सन्तुष्ट मन, विरसि-नीरस में, कसाउ-कषाय, वहंति-धारण करते हैं, ते -उन, मुणि-मुनि को, भोयण-धार-भोजन में गिद्ध पक्षी की गणि-काटि में रखो। णवि-नहीं, परमत्थु-परम तत्त्व को, मुणंति-समझते हैं। -
बन्धुओं, मैं नहीं जानती कि आप सब इन दोहों के माध्यम से कितना आनन्द ले पा रहे हैं, लेकिन मुझे तो बहुत आनन्द आ रहा है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे हमारे घर में हमारे माता-पिता हमको हमारी गलतियाँ बताकर अच्छा जीवन जीना सीखाते हैं, वैसे ही आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी साधुओं को साधु जीवन की शिक्षा दे रहे हैं। वे कहते हैं, हे साधु! यदि तू बारह प्रकार के तप के फल की इच्छा करता है तो मन, वचन काय के द्वारा भोजन की आसक्ति का त्याग कर। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 111.3 जइ इच्छसि भो साहू बारह-विह-तवहलं महा-विउलं। तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवज्जेसु।। अर्थ - हे साधु! यदि (तू) बहुत बडे़ बारह प्रकार के तप के फल की इच्छा करता है तो मन, वचन काय के द्वारा भोजन की आसक्ति का त्याग कर। शब्दार्थ - जइ-यदि, इच्छसि-इच्छा करता है, भो-हे, साहू -साधु, बारह-विह-तवहलं -बारह प्रकार के तप फल की, महा-विउलं-बहुत बड़े, तो-तो, मण-वयणे -मन और वचन, काए-काय के द्वारा, भोयण-गिद्धी -भोजन की आसक्ति को, विवज्जेसु-छोड़।
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मुनिराज का आहार चर्या के योग्य होना चाहिए
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देखा जाय तो हम सभी का भोजन अपनी चर्या के अनुसार ही होना चाहिए। तन के स्वस्थ नहीं होने का मूल कारण यही है कि हम अपनी चर्या के अनुसार भोजन ग्रहण नहीं करते हैं। यहाँ योगीन्दु आचार्य अपने साधर्मी बन्धु मुनिराज को, जो अपनी चर्या के अनुसार आहार ग्रहण नहीं करते उनको लक्ष्य कर कहते हैं कि तू नग्न वेश धारण करके भी अपने लक्ष्यकी प्राप्ति में साधक आहार क्यों नहीं ग्रहण करता है, क्यो स्वादिष्ट आहार की इच्छा करता है ? देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 111.2 काऊण णग्गरूवं बीभस्सं दड्ढ-मडय-सारिच्छं। अहिलससि किं ण लज्जसि भिक्खाए भोयणं मिट्ठं।।111.2।। अर्थ - जले हुए मुरदे के समान वीभत्स नग्नरूप करके भिक्षा में स्वादिष्ट आहार क्यों चाहता है? (ऐसा करके) (तू) क्यों नहीं शरमाता है ? शब्दार्थ- काऊण-करके, णग्गरूवं-नग्नरूप, बीभस्सं-वीभत्स, दड्ढ-मडय-सारिच्छं-जले हुए मुरदे के समान, अहिलससि-चाहता है, किं-क्यों, ण-नहीं, लज्जसि-शरमाता है, भिक्खाए-भिक्षा में, भोयणं-आहार, मिट्ठं-स्वादिष्ट। -
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी योगीराज को सम्बोधित कर कहते हैं कि हे योगी! मोह ही समस्त दुःखों का कारण है, इसलिए तू मोह का पूरी तरह से त्याग कर। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 111. जोइय मोहु परिच्चयहि मोहु ण भल्लउ होइ। मोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।। अर्थ -हे योगी! मोह को पूरी तरह छोड़ दे, मोह अच्छा नहीं होता है। मोह से लीन समस्त जगत (प्राणी) को (तू) दुःख सहता हुआ देख। शब्दार्थ -जोइय- हे योगी! मोहु-मोह को, परिच्चयहि-पूरी तरह से छोड़, मोहु -मोह, ण-नहीं, भल्लउ-अच्छा, होइ-होता है, मोहासत्तउ-मोह में लीन, सयलु -समस्त, जगु-जग को, दुक्खु-दुःख, सहंतउ -सहता हुआ, जोइ-देख।
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आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराजों को समझाते हैं कि दुष्टों की संगति दुष्टों के साथ हो तो सामान्य बात है लेकिन जब सज्जन दुष्टों की संगति करते हैं तो सज्जन व्यक्तियों के गुण नष्ट हो जाते हैं और उनकी सज्जनता भी दुर्जनता में बदलने लगती है। जिस प्रकार आग लोहे से मिलने पर हथोड़े से पीटी जाती है। इसलिए यदि सज्जनों को अपने गुणों में स्थित रहना है तो उनके लिए दुष्टों की संगति का त्याग अति आवश्यक है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 110. भल्लाहँ वि णासंति गुण जहँ संसग्ग खलेहिं। वइसाणरु लोहहँ मिलिउ तें पिट्टियइ घणेहिं।। अर्थ - (उन) सज्जनों के भी गुण नष्ट हो जाते हैं, जिनकी संगति दुष्टों के साथ होती है। इसीलिए लोहे के साथ मिली हुई आग हथोड़ों से पीटी जाती है। शब्दार्थ - भल्लाहँ - सज्जनों के, वि-भी, णासंति-नष्ट हो जाते हैं, गुण-गुण, जहँ-जिनकी, संसग्ग -संगति, खलेहिं-दुष्टों के साथ, वइसाणरु-अग्नि, लोहहँ-लोहे से, मिलिउ-मिली हुई, तें-इसीलिए, पिट्टियइ -पीटी जाती है, घणेहिं-हथोड़ों से।
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समभाव में रहने वालो की संगति ही सुखकर है
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आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराज को ऐसे गृहस्थों की संगति करने से मना करते हैं जो समता भाव से रहित हैं, क्योंकि समता भाव से रहित व्यक्तियों की संगति से मानसिक और शारीरिक दोनों ही प्रकार के दुःख मिलते हैं। उनसे मिलनेवाली चिंता मानसिक पीड़ा देती है जिससे शरीर भी पीड़ित होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 109. जो सम-भावहँ बाहिरउ तिं सहुं मं करि संगु। चिंता-सायरि पडहि पर अण्णु वि डज्झइ अंगु।। अर्थ -जो समभाव से बाहर का है, उसके साथ संगति मत कर, (क्योंकि इससे तू) चिंतारूपी समुद्र में गिरता है, इसके बाद (वह) अज्ञानी (तेरा) शरीर भी जलाता है। शब्दार्थ - जो-जो, सम-भावहँ-सम भाव से, बाहिरउ-बाहर है, तिं -उसके, सहुं -साथ, मं -मत, करि - कर, संगु-संगति, चिंता-सायरि-चिंतारूपी समुद्र में, पडहि-गिरता है, पर-उसके बाद, अण्णु-अज्ञानी, वि-भी, डज्झइ-जलाता है, अंगु-शरीर को। -
श्रेष्ठ मुनि की पर पदार्थों के प्रति अनासक्ति
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आचार्य योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश ग्रंथ के प्रथम अधिकार त्रिविधात्माधिकार में आत्मा के तीन प्रकार का विस्तृत विवेचन किया। दूसरे मोक्ष अधिकार में मोक्ष का कथन किया। आगे इस तीसरे महाअधिकार में आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी भाई मुनिराजों के हित के लिए मुनि विषयक कथन कर रहे हैं। वे तीसरे अधिकार के प्रथम दोहे की शुरुआत ही इससे करते हैं कि श्रेष्ठ मुनि की आत्मद्रव्य से भिन्न पर पदार्थों के प्रति अनासक्ति होती है। वे आत्म द्रव्य से भिन्न पर द्रव्य को जानते हुए पर द्रव्य के सम्बन्ध को छोड़ देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि पर द्रव्य के प्रति आसक्ति से परमात्मा के ध्यान से विचलित हो जाते हैं, भटक जाते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 108. परु जाणंतु वि परम-मुणि पर-संसग्गु चयंति। पर-संगइँ परमप्पयहँ लक्खहँ जेण चलंति।। श्रेष्ठ मुनि उत्कृष्ट (आत्म द्रव्य) को जानते हुए होते हैंैं, इसलिए (आत्मा से भिन्न) पर द्रव्य के सम्बन्ध को छोड़ देते हैं, क्योंकि (आत्मा से भिन्न) पर द्रव्य के सम्बन्ध से ध्यान करने योग्य परम पद से विचलित हो जाते हैं (भटक जाते हैं)। शब्दार्थ - परु -पर को,जाणंतु-जानते हुए, वि-इसीलिए, परम-मुणि - श्रेष्ठ मुनि, पर-संसग्गु-पर के सम्बन्ध को, चयंति-छोड़ देते हैं, पर-संगइँ-पर के सम्बन्ध से, परमप्पयहँ-परम पद से, लक्खहँ -ध्यान करने योग्य, जेण - क्योंकि, चलंति-विचलित हो जाते हैं। -
शुद्ध मन के लिए यह त्रिभुवन ही मोक्ष स्थल हैै
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आचार्य योगीन्दु परमात्म प्रकाश के दूसरे मोक्ष अधिकार को इस दोहे के साथ समाप्त करते हैं। वे समापनरूप इस अन्तिम दोहे में स्पष्ट घोषणा करते हैं कि जिस दिन सभी जीवों का मन राग-द्वेष को समाप्त कर सभी जीवो को समान मान कर शुद्धरूप हो जायेगा, उस दिन समस्त त्रिभुवन में शान्ति हो जायेगी। यह त्रिभुवन ही शान्त अर्थात मोक्षस्थल बन जायेगा। देखिये इससे सम्बन्धित परमात्म प्रकाश के मोक्ष अधिकार का अन्तिम दोहा - 107. एक्कु करे मण बिण्णि करि मं करि वण्ण-विसेसु। इक्कइँ देवइँ जे ँ वसइ तिहुयणु एहु असेसु।। अर्थ - तूू अपने मन को एक कर (राग और द्वेष से) वर्ण भेद करके दो मत कर , क्योंकि यह सम्पूर्ण त्रिभुवन एक परमेश्वर में (ही) निवास करता है। शब्दार्थ -एक्कु -एक, करे-कर, मण-मन को, बिण्णि -दो, करि-कर, मं -मत, करि-कर, वण्ण-विसेसु-वर्ण भेद, इक्कइँ-एक में, देवइँ -परमेश्वर, जे ँ-क्योंकि, वसइ-निवास करता है, तिहुयणु-त्रिभुवन, एहु-यह, असेसु-समस्त। (बन्धुओं, आचार्य योगीन्दुदेव द्वारा रचित परमात्मप्रकाश का तृतीय महा अधिकार भी इसी रूप में आगे चलता रहेगा)। -
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव व कर्म का अपना- अपना, अलग-अलग अस्तित्व है। ना कर्म जीव होता है और ना ही जीव कर्म होता है। यही कारण है कि किसी भी समय में जीव कर्मों को नष्ट कर उनसे अलग अपना अस्तित्व सिद्ध कर सिद्ध हो जाता है। जीवों का भेद कर्मों के द्वारा ही किया गया है। कर्मों से रहित जीव सभी समान रूप से सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं। देखिये इससे सम्बत्धित परमात्मप्रकाश का अगला दोहा - 106. जीवहँ भेउ जि कम्म-किउ कम्मु वि जीउ ण होइ। जेण विभिण्णउ होइ तहँ कालु लहेविणु कोइ।। अर्थ - निश्चयपूर्वक जीवों का भेद कर्मों के द्वारा किया गया है, कर्म जीव होता ही नहीं है, जिस कारण से किसी भी समय को प्राप्त करके जीव उन (कर्मों) से अलग हो जाता है। शब्दार्थ - जीवहँ-जीवों का, भेउ-भेद, जि-निश्चयपूर्वक, कम्म-किउ-कर्मों के द्वारा किया गया है, कम्मु-कर्म, वि -ही, जीउ-जीव, ण-नहीं, होइ-होता है, जेण-जिस कारण से, विभिण्णउ-अलग, होइ-हो जाता है, तहँ-उनसे, कालु-समय को, लहेविणु-प्राप्त करके, को- किसी, इ-भी।
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समभाव ही शान्ति प्राप्त करने का साधन है
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आचार्य योगिन्दु स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि जो भी व्यक्ति सभी जीवों का एक सा स्वभाव या अवस्था स्वीकार नहीं करता, उसके समभाव नहीं हो सकता और समभाव के अभाव में वह अशान्त बना रहता है। यदि उसको शान्ति चाहिए तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह सभी जीवों की एक सी अवस्था स्वीकार कर सब के प्रति सम भाव रखे। यह समभाव ही संसाररूप सागर में शान्ति की प्राप्ति हेतु नाव के समान है। देखिये इससे सम्बन्धित अगला दोहा - 105 जो णवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक्क-सहाव। तासु ण थक्कइ भाउ समु भव-सायरि जो णाव।। अर्थ -हे प्राणी! जो सभी ही जीवों को एक स्वभाव नहीं मानता है उसके समभाव नहीं रहता है, जो (समभाव) संसाररूप सागर में (शान्ति की प्रात्ति हेतु) नाव (के समान है।) शब्दार्थ - जो-जो, णवि-नहीं, मण्णइ-मानता है, जीव-जीवों को, जिय -हे प्राणी, सयल-सभी, वि-ही, एक्क-सहाव-एक स्वभाव, तासु - उसके, ण-नहीं, थक्कइ-रहता है, भाउ -भाव, समु - सम, भव-सायरि -संसाररूपी सागर में, जो - जो, णाव-नौका । -
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सच्चे अर्थ में आत्मा के स्वरूप को वही समझ सकता है और अनुभव कर सकता है जो जीव के शत्रु और मित्र, अपने और दूसरे, इन समस्तभेद को व्यवहार मानता है किन्तु निश्चय से इनको एक समान समझता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 104. सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु विएइ। एक्कु करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेइ।। अर्थ - जो जीव के शत्रु और मित्र, अपने और दूसरे, (इस) समस्त (भेद) को (व्यवहार से) जानता है, (तथा) दृढ़ निश्चय करके (इनको) एक समान समझता है, वह (ही) आत्मा (के स्वरूप) को अनुभव करता है। शब्दार्थ - सत्तु-शत्रु, वि-और, मित्तु-मित्र, वि-और, अप्पु-अपने, परु -दूसरे, जीव-जीव के, असेसु-समस्त, विएइ-जानता है, एक्कु-एक समान, करेविणु -दृढ़ निश्चय करके, जो-जो, मुणइ-समझता है, सो-वह, अप्पा-आत्मा को, जाणेइ-अनुभव करता है।
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आचार्य योगीन्दु सभी जीव समान किस प्रकार हैं, इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सभी जीनों को जो जो भी शरीर मिला है वह अपने अपने किये गये कर्मों के अनुसार मिला है, एक दूसरे के कर्म का फल किसे भी नहीं मिला। सभी जीव सभी स्थानों में और सब समय में उतने ही प्रमाण में होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 103. अंगइँ सुहुमइँ बादरइँ विहि-वसिँ होंति जे बाल। जिय पुणु सयल वि तित्तडा सव्वत्थ वि सय-काल।। अर्थ - जो अबोध सूक्ष्म और बादर शरीर (हैं) (वे) कर्मों की अधीनता से होते हैं।(वे) सभी जीव सभी स्थानों में और सब समय में उतने (प्रमाण) ही हंै। शब्दार्थ - अंगइँ-शरीर, सुहुमइँ-सूक्ष्म, बादरइँ-बादर, विहि-वसिँ -कर्मों की अधीनता से, होंति-होते हैं, ज-जोे, बाल-अबोध, जिय-जीव, पुणु-और, सयल-सभी, वि-ही, तित्तडा-उतने, सव्वत्थ-सब स्थान में, वि -और सय-काल-सभी समय में।