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Sneh Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अपनी आत्मा में परमआत्मा के दर्शन तभी संभव है जब जीवन के सभी संकल्प-विकल्पों से परे होकर निश्चिन्त हुआ जाये। निश्चिन्त होकर अपने चित्त को परम पद प्राप्त परमआत्मा में स्थापित करने पर ही परम आत्मा के दर्शन होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 115. मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिच्चिंतउ होइ।। चित्तु णिवेसहि परमपए देउ णिरंजणु जोइ।। अर्थ - हे जीव! सभी अपेक्षाओं को छोड़कर निश्चिन्त हो, (फिर) चित्त को परम पद में स्थापित कर निरंजन परम आत्मा को देख। शब्दार्थ - मेल्लिवि-छोड़कर, सयल-समस्त, अवक्खडी-अपेक्षाओं को, जिय-हे जीव!, णिच्चिंतउ-निश्चिन्त, होइ-हो, चित्तु-चित्त को, णिवेसहि-स्थापित कर, परमपए-परम पद में, देउ-परमात्मा को, णिरंजणु -निरंजन, जोइ-देख।
  2. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति पलक झपकने के समय से आधा समय भी परमात्मा से प्रेम कर ले तो उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। आचार्य योगिन्दु के अनुसार परमात्मा से प्रेम करना आसान नहीं है उसके लिए अपने मन को निर्मल बनाना पड़ता है, राग-द्वेष से परे होना पड़ता है, अशुभ व शुभ भावों से परे शुद्ध भाव में स्थित होना पडता है। स्वतः यही स्थिति ही पापों से परे हो जाती है एवं अपनी आत्मा ही परम आत्मा बन जाती है। भोगों के विषम जीवन से हटकर व्यक्ति सरल सम जीवन में स्थित हो जाता है। समभाव में स्थित मन में ही परम आत्मा के दर्शन होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा 114. जइ णिविसद्धु वि कु वि करइ परमप्पइ अणुराउ । अग्गि-कणी जिम कट्ठ-गिरी डहइ असेसु वि पाउ।। अर्थ - यदि कोई (मनुष्य) आधे पलक समय के लिए भी परमात्मा से प्रेम करता है (तो) जिस प्रकार अग्नि का कण लकड़ी के ढ़ेर को जला देता है, (उसी प्रकार) (परमात्मा में प्रेम) सम्पूर्ण पाप को ही (नष्ट कर देता है)। शब्दार्थ - जइ-यदि, णिविसद्धु-आधी पलक समय के लिए, वि-भी, कु-कोई, वि-भी, करइ-करता है, परमप्पइ-परमात्मा में, अणुराउ-प्रेम, अग्गि-कणी- अग्नि का कण, जिम-जिस प्रकार, कट्ठ-गिरी-लकड़ी के पहाड़ को, डहइ-जला देता है, असेसु-समस्त, वि-ही, पाउ-पाप।
  3. आचार्य योगीन्दु हमें समझाते हैं कि आत्म द्रव्य के अतिरिक्त वे पर द्रव्य कौन-कौन से हैं जिनमें हमें मति नहीं करनी चाहिए। आत्म पदार्थ से पृथक् अचेतन पदार्थ हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, (इन) पाँचों को पर द्रव्य जानो। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 113 जं णियदव्वहँ भिण्णु जडु तं पर-दव्वु वियाणि। पुग्गलु धम्माधम्मु णहु कालु वि पंचमु जाणि।। अर्थ -जो आत्म पदार्थ से पृथक् अचेतन (पदार्थ) हैं, उनको पर द्रव्य जानो। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, (इन) पाचैं को पर द्रव्य जानो। शब्दार्थ - जं-जो, णियदव्वहँ-आत्म पदार्थ से, भिण्णु -पृथक, जडु-अचेतन, तं-उसको, पर-दव्वु-पर द्रव्य, वियाणि-जानो,, पुग्गलु- पुद्गल, धम्माधम्मु -धर्म और अधर्म, णहु-आकाश, कालु -काल, वि-और, पंचमु -पाँचों को, जाणि-जानो।
  4. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव अपनी आत्मा में ही अपनी मति को लगाना चाहिए। मनुष्य की यह आत्म निष्ठ बुद्धि ही उसके सुख का कारण है। जो अपनी बुद्धि को आत्मा में स्थित रखता है, वह उत्कृष्ट जन कहा जाता है। बुद्धि और आत्मा का परोष्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि जिसमें जीव की बुद्धि होती है उसमें ही नियम से उसकी गति होती है। यही कारण है कि जिस का निदान कर व्यक्ति मरण को प्राप्त होता है मरकर जिसका निदान कर वह मरा है उस ही गति में वह पुनः जन्म लेता है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु सदैव पर वस्तु में मति रखने के स्थान पर परमआत्मा में मति करने का उपदेश देते हैं। पुराणों में भी कथन हुआ है कि अमुक राजा धन में आसक्त हुआ मरकर अपने ही भण्डार में अजगर हुआ। अतः सभी को अपनी बुद्धि पर वस्तुओं से हटाकर आत्मा में लगानी चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 111. सो पर वुच्चइ लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेइ। जहिँ मइ तहिँं गइ जीवह जि णियमे ँ जेण हवेइ।। अर्थ -जिसकी बुद्धि उस (निज आत्मस्वरूप) में बसती है वह सर्वथा उत्कृष्ट जन कहा जाता है। क्योंकि जिसमें जीव की बुद्धि होती है, उसमें ही नियम से उसकी गति होती है। शब्दार्थ - सो -वह, पर-सर्वथा, वुच्चइ-कहा जाता है, लोउ-जन, परु-उत्कृष्ट, जसु-जिसकी, मइ-मति, तित्थु-उसमें, वसेइ-बसती है, जहिँ-जिसमें मइ-मति, तहिँं-उसमें, गइ-गति, जीवह-जीव की, जि-ही, णियमे ँ - नियम से, जेण-क्योंकि, हवेइ-होती है। 112. जहिँ मइ तहिँ गइ जीव तुहुँ मरणु वि जेण लहेहि। ते परबंभु मुएवि मइँ मा पर-दव्वि करेहि।। अर्थ - . हे जीव! जिसमें तेरी मति है, उस (मति) के कारण मरकर भी उस ही गति को प्राप्त करता है। इसलिए हे जीव! (त)ू परम आत्मा को छोड़कर पर वस्तु में मति मत कर।
  5. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि समस्त प्राणी जगत के लिए अनुकरणीय एक ही परमसत्ता है, वह है परम आत्मा। नित्य, निरंजन, ज्ञानमय एवं परमआनन्द स्वभाव इस परमआत्मा के विषय में हम पूर्व में विस्तार से विवेचन कर चुके हैं। सभी ज्ञानी एवं भव्य आत्माएँ इस ही निरंजन परमआत्म स्वभाव को प्राप्त होती है। हरि, हर, मुनिवर सभी अपने निर्मल चित्त में इसी निरंजन स्वरूप का ध्यान करते हैं। इस प्रकार यह परम सत्ता एक ही है और इस परमआत्म तत्त्व की प्राप्ति करनेवाले सभी भव्यजनों का निर्मल स्वभाव भी समान ही है। आचार्य योगीन्दु की इस गाथा पर जरा सा भी विचार किया जाये तो आज भी साम्प्रदायिकता की भावना से उत्पन्न हुए विवादों और उनके कुपरिणामों से आसानी से निजात पाया जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 110. मुणि-वर-विंदहँ हरि-हरहं जो मणि णिवसइ देउ। परहँ जि परतरु णाणमउ सो वुच्चइ पर-लोउ।। अर्थ - श्रेष्ठ मुनिजनों के, हरि और हर (आदि) के चित्त में जो श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठतर ज्ञानमय परमेश्वर बसता है, वह ही श्रेष्ठ लोक कहा जाता है। शब्दार्थ - मुणि-वर-विंदहँ-श्रेष्ठ मुनिजनों के, हरि-हरहं-हरि और हर के, जो-जो, मणि-चित्त में, णिवसइ-बसता है, देउ-परमेश्वर, परहँ-श्रेष्ठ से, जि-भी, परतरु-श्रेष्ठतर, णाणमउ-ज्ञानमय, सो-वह, वुच्चइ-कहा जाता है, पर-लोउ-श्रेष्ठ लोक
  6. आचार्य योगीन्दु ज्ञानमय आत्मा के विषय में विस्तृतरूप से कथन करने के बाद अन्त में कहते है कि ज्ञानमय आत्मा ही परमात्मा को देखने, जानने और प्राप्त करने का साधन है। दंखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 109. जोइज्जइ ति बंभु परु जाणिज्जइ तिं सोइ। बंभु मुणेविणु जेण लहु गम्मिज्जइ परलोइ।। अर्थ - उस (ज्ञानी आत्मा) से (ही) (वह) श्रेष्ठ परमात्मा देखा जाता है, (और) उस (ज्ञानी आत्मा) से ही वह (श्रेष्ठ परमात्मा) जाना जाता है, जिससे परमात्मा को जानकर (उसके द्वारा) शीध्र श्रेष्ठ लोक में जाया जाता है। शब्दार्थ - जोइज्जइ-देखा जाता है, ति-उसके द्वारा, बंभु-परमात्मा, परु -श्रेष्ठ, जाणिज्जइ-जाना जाता है, तिं-उसके द्वारा, सोइ-वह ही, बंभु-परमात्मा को, मुणेविणु-जानकर, जेण-जिससे, लहु-शीघ्र, गम्मिज्जइ-जाया जाता है, परलोइ-श्रेष्ठ लोक। बन्धुओं! श्रवणबेलगोला एवं केरल भ्रमण करने के कारण 15 फरवरी तक आगे के लेखन कार्य में अवकाश रहेगा। जय जिनेन्द्र
  7. आचार्य योगीन्दु के अनुसार अपनी आत्मा को श्रेष्ठ तभी बनाया जा सकता है जब आत्मा ज्ञानवान हो और उस ज्ञानवान आत्मा से ज्ञानमय आत्मा को पहिचान लेता हो। अर्थात जब ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का भेद समाप्त होकर एकरूपता हो जाती है तब ही परम आत्मा की प्राप्ति होती है। देखिये इससे सम्बधित आगे का दोहा - 108. णाणिय णाणिउ णाणिएण णाणिउँ जा ण मुणेहि। ता अण्णाणि णाणमउँ किं पर बंभु लहेइ।। 108।। अर्थ - हे ज्ञानी (भट्टप्रभाकर)! ज्ञानवान(आत्मा) ज्ञानी (आत्मा) से ज्ञानमय (आत्मा) को जब तक नहीं जानता है तब तक (उस) अज्ञानी को ज्ञानमय श्रेष्ठ परमात्मा कैसे प्राप्त हो सकती है ? शब्दार्थ - णाणिय-हे ज्ञानी!, णाणिउ-ज्ञानवान, णाणिएण-ज्ञानी से, णाणिउँ -ज्ञानी को, जा-जब तक, ण -नहीं, मुणेहि-जानता, ता-तब तक, अण्णाणि-अज्ञानी को, णाणमउँ -ज्ञानमय, किं -कैसे, पर-श्रेष्ठ, बंभु -परमात्मा, लहेइ-प्राप्त हो सकती है।
  8. आचार्य योगीन्दु कहते है कि आत्मा को ज्ञान से ही जाना जा सकता है इन्द्रियों आदि से नहीं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 107. अप्पा णाणहँ गम्मु पर णाणु वियाणइ जेण। तिण्णि वि मिल्लिवि जाणि तुहुँ अप्पा णाणे तेण।। अर्थ - आत्मा ज्ञान के ही जानने योग्य है, क्योंकि मात्र ज्ञान (ही) (आत्मा को) जानता है, (इसलिए) उन सबको ही छोड़कर तू उस ज्ञान से आत्मा को जान। शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, णाणहँ-ज्ञान के, गम्मु-जानने योग्य, पर-मात्र, णाणु-ज्ञान, वियाणइ-जानता है, जेण-क्योंकि, तिण्णि-उन सबको, वि-ही, मिल्लिवि-छोडकर, जाणि-जान, तुहुँ -तू ,अप्पा - आत्मा को, णाणे -ज्ञान से, तेण-उस
  9. आचार्य योगीन्दु कहते है कि आत्मा को ज्ञान से ही जाना जा सकता है इन्द्रियों आदि से नहीं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 107. अप्पा णाणहँ गम्मु पर णाणु वियाणइ जेण। तिण्णि वि मिल्लिवि जाणि तुहुँ अप्पा णाणे तेण।। अर्थ - आत्मा ज्ञान के ही जानने योग्य है, क्योंकि मात्र ज्ञान (ही) (आत्मा को) जानता है, (इसलिए) उन सबको ही छोड़कर तू उस ज्ञान से आत्मा को जान। शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, णाणहँ-ज्ञान के, गम्मु-जानने योग्य, पर-मात्र, णाणु-ज्ञान, वियाणइ-जानता है, जेण-क्योंकि, तिण्णि-उन सबको, वि-ही, मिल्लिवि-छोडकर, जाणि-जान, तुहुँ -तू ,अप्पा - आत्मा को, णाणे -ज्ञान से, तेण-उस
  10. आचार्य योगीन्दु आत्मा को ही ज्ञान बताने के बाद स्पष्ट घोषणा करते हैं कि आत्मा के अतिरिक्त सभी ज्ञान व्यर्थ हैं, क्योंकि ज्ञान की सार्थकता आत्मा को जानने, समझने और उसे अनुभव करने में है। वैसे भी प्रत्येक श्रेष्ठ जीव का अपना चरम उद्देश्य सभी जीवों को सुख और शान्ति प्रदान करना हैए तथा सभी जीवों का अस्तित्व आत्मा के साथ ही है। आत्मा के बिना जीव का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि आत्मा की उपेक्षा करते हुओं के सभी ज्ञान व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 106. अप्पहँ जे वि विभिण्ण वढ ते वि हवंति ण णाणु । ते तुहुँ तिण्णि वि परिहरिवि णियमि ँ अप्पु वियाणु।। अर्थ - हे वत्स! आत्मा से जो भी अलग हैं, वे सब ज्ञान नहीं होते हैं, इसलिए तू उन सबको छोड़कर नियम से आत्मा को जान। शब्दार्थ - अप्पहँ -आत्मा से, जे-जो, वि-भी, विभिण्ण-अलग, वढ-हे वत्स!, ते-वे सब, वि-ही, हवंति-होते हैं, ण-नहीं, णाणु-ज्ञान, ते -इसलिए, तुहुँ-तू, तिण्णि-उन सबको, वि-ही, परिहरिवि णियमि ँ-नियम से, अप्पु - आत्मा को, वियाणु-जान।
  11. आचार्य योगीन्दु आत्मा को ही ज्ञान बताने के बाद स्पष्ट घोषणा करते हैं कि आत्मा के अतिरिक्त सभी ज्ञान व्यर्थ हैं, क्योंकि ज्ञान की सार्थकता आत्मा को जानने, समझने और उसे अनुभव करने में है। वैसे भी प्रत्येक श्रेष्ठ जीव का अपना चरम उद्देश्य सभी जीवों को सुख और शान्ति प्रदान करना हैए तथा सभी जीवों का अस्तित्व आत्मा के साथ ही है। आत्मा के बिना जीव का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि आत्मा की उपेक्षा करते हुओं के सभी ज्ञान व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 106. अप्पहँ जे वि विभिण्ण वढ ते वि हवंति ण णाणु । ते तुहुँ तिण्णि वि परिहरिवि णियमि ँ अप्पु वियाणु।। अर्थ - हे वत्स! आत्मा से जो भी अलग हैं, वे सब ज्ञान नहीं होते हैं, इसलिए तू उन सबको छोड़कर नियम से आत्मा को जान। शब्दार्थ - अप्पहँ -आत्मा से, जे-जो, वि-भी, विभिण्ण-अलग, वढ-हे वत्स!, ते-वे सब, वि-ही, हवंति-होते हैं, ण-नहीं, णाणु-ज्ञान, ते -इसलिए, तुहुँ-तू, तिण्णि-उन सबको, वि-ही, परिहरिवि णियमि ँ-नियम से, अप्पु - आत्मा को, वियाणु-जान।
  12. भट्टप्रभाकर के द्वारा आत्मा को जाननेवाले ज्ञान के विषय में पूछा जाने पर आगे योगीन्दु आचार्य कहते हैं कि आत्मा को ही ज्ञान जान। आत्मा स्वयं ज्ञानवान है वह अपने ज्ञान से स्वयं को जानती है। इसलिए तू आत्मा को ही ज्ञान समझ। इससे सम्बन्धित देखिये आगे का दोहा जिसमें इसको अच्छी तरह से स्पष्ट किया गया है। 105. अप्पा णाणु मुुणेहि तुहुँ जो जाणइ अप्पाणु । जीव-पएसहि ँ तित्तिडउ णाणे ँ गयण-पवाणु।। अर्थ - तू आत्मा को ही ज्ञान जान, जो (ज्ञानरूप) आत्मा अपने को अपने ज्ञान से जानती है कि (अपने) आत्मा के प्रदेशों में (भी) उतना ही आकाश प्रमाण ज्ञान है। शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा को, णाणु-ज्ञान, मुुणेहि-जान, तुहुँ -तू, जो-जो, जाणइ-जानता है, अप्पाणु-अपने को, जीव-पएसहि ँ-जीव प्रदेशों में, तित्तिडउ-उतना ही, णाणे -ज्ञान से, गयण-पवाणु-आकाश प्रमाण।
  13. भट्टप्रभाकर गुरुवर आचार्य योगिन्दु के मुख से आत्मा के विषय में विस्तार से जानकर पुनः प्रश्न करता है कि हे स्वामी आत्मा के विषय में जानकर अब मुझे संसार की बातों से कोई प्रयोजन नहीं रहा। अब आप मुझे आत्मा को जाननेवाला ज्ञान और समझाइय, जिससे मैं अपनी आत्मा को जान सकूँे। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 104. णाणु पयासहि परमु महु किं अण्णे ँ बहुएण। जेण णियप्पा जाणियइ सामिय एक्क-खणेण।। अर्थ - हे स्वामी! अन्य बहुत (बात) से क्या ? (आप) मेरे लिए (वह) परम ज्ञान प्रकाशित करें, जिससे एक क्षण में आत्मा जानी जाती है। शब्दार्थ - णाणु-ज्ञान, पयासहि-प्रकाशित करो, परमु -परम, महु-मेरे लिए, किं -क्या, अण्णे ँ-अन्य, बहुएण-बहुत, जेण-जिससे, णियप्पा-अपनी आत्मा, जाणियइ- जानी जाती है, सामिय-हे स्वामी!, एक्क-खणेण-एक क्षण में।
  14. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अपनी स्वयं की आत्मा को भलीभाँति जानना और समझना ही श्रेष्ठ ज्ञान है। आत्मा सबकी समान है इसीलिए सुख सभी को प्रिय व दुःख सभी को अप्रिय लगते हैं। आत्मा अनुभूति के स्तर पर सबकी समान है। अतः जिसमें अपनी आत्मा को अनुभूत करने का ज्ञान विकसित हो जाता है वह पर आत्मा के विषय में भी जानने लग जाता है। उसे पर के दुःख भी अपने ही दुःख लगने लगते हैं जिससे उसका जीवन स्वतः अहिंसामय होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 103 अप्पु वि परु वि वियाणइ जे ँ अप्पे ँ मुणिएण। सो णिय-अप्पा जाणि तुहुँ जोइय णाण- बलेण।। अर्थ - जिस जानी हुई (ज्ञानमय) आत्मा से (अपनी आत्मा) स्वयं को और पर को भी जानती है, वह (ही) अपनी आत्मा है। हे योगी! तू (उस अपनी आत्मा को) ज्ञान के सामथ्र्य से जान। शब्दार्थ - अप्पु - स्वयं को, वि-और, परु-पर को, वि-भी, वियाणइ-जानती है, जे ँ-जिस अप्पे ँ-आत्मा से मुणिएण-जानी हुई, सो-वह, णिय-अप्पा -अपनी आत्मा, जाणि-जान, तुहुँ-तू, जोइय-हे योगी, णाण- बलेण- ज्ञान के सामथ्र्य से।
  15. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि चारों गतियों में मनुष्य जीवन ही महत्वपूर्ण है क्योंकि मनुष्य जीवन में ही अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का विवेक जाग्रत हो सकता है। मनुष्य गति को प्राप्तकर मनुष्य का उद्देश्य अपनी आत्मा को निर्मल बनाना ही होना चाहिए। इस को उद्देश्य मानलेने पर व्यक्ति स्वयं का गुरु स्वयं हो जाता है। स्वतः वह अपनी राह बनाना सीख लेता है।उसकी प्रत्येक क्रिया सार्थक होती है। एक दिन उसकी आत्मा पूर्ण निर्मल हो जाने से वही परमआत्मा को प्राप्त करलेता है जिससे उसकी आत्मा में लोक और अलोक प्रतिबिम्बित होते दिखायी देते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 102. तारायणु जलि बिंबियउ णिम्मलि दीसइ जेम। अप्पए णिम्मलि बिंबियउ लोयालोउ वि तेम।। अर्थ - जिस प्रकार स्वच्छ जल में ताराओं का समूह प्रतिबिम्बित किया हुआ दिखाई देता है, उसी प्रकार स्वच्छ आत्मा में लोेक और अलोक भी प्रतिबिम्बित किया हुआ (दिखाई पड़ता है।) शब्दार्थ - तारायणु - तारों का समूह, जलि- जल में, बिंबियउ- प्रतिबिम्बित किया हुआ, णिम्मलि-स्वच्छ दीसइ- दिखायी पडता है, जेम-जिस प्रकार, अप्पए-आत्मा में , णिम्मलि- स्वच्छ, बिंबियउ-प्रतिबिम्बित किया हुआ, लोयालोउ-लोक और अलोक, वि - भी, तेम- उसी प्रकार।
  16. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि वस्तु का स्वभाव ही उसका मूल धर्म है। उस ही क्रम में आत्मा का स्वभाव प्रकाशमान है। जो स्वयं भी प्रकाशित है और दूसरे को भी अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 101. अप्पु पयासइ अप्पु परु जिम अंबरि रवि-राउ। जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु- सहाउ।। अर्थ -आत्मा स्वयं को (तथा) पर को प्रकाशित करता है, जिस प्रकार आकाश में सूर्य का प्रकाश (स्वयं को तथा पर को प्रकाशित करता है)। हे योगी! (तू) इसमें सन्देह मत कर,ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है। शब्दार्थ - अप्पु-आत्मा, पयासइ-प्रकाशित करती है, अप्पु-स्वयं को, परु-पर को, जिम-जिस प्रकार, अंबरि -आकाश में, रवि-राउ- सूर्य का प्रकाश, जोइय-हे योगी! एत्थु -इसमें, म -मत, भंति - संदेह, करि-कर, एहउ-ऐसा, वत्थु-सहाउ - वस्तु का स्वभाव ।
  17. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मस्वभाव में स्थित हुए व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि उसको स्वयं में ही समस्त लोक और अलोक दिखायी पड़ता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 100. अप्प-सहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु। दीसइ अप्प-सहावि लहु लोयालोउ असेसु।। अर्थ - आत्मा के स्वभाव में सम्पूर्णरूप से स्थित हुए (प्राणियों) की ऐसी विशेषता होती है (कि) (उनको) आत्मा के स्वभाव में समस्त लोक और अलोक शीघ्र दिखाई पड़ता है। शब्दार्थ - अप्प-सहावि- आत्मा के स्वभाव में, परिट्ठियहँ- सम्पूर्णरूप् से स्थित हुए की, एहउ-ऐसी, होइ-होती है, विसेसु-विशेषता, दीसइ-दिखायी पड़ता है, अप्प-सहावि-आत्मा के स्वभाव में, लहु-शीघ्र, लोयालोउ-लोक और अलोक, असेसु-समस्त
  18. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव बाल्यावस्था को पारकर युवावस्था में पहुँचता है, उसकी समझ विकसित होती है, तब से उसका प्रयास आत्मा को निर्मल बनाने की ओर ही होना चाहिए। यदि आत्मा निर्मल है तो उसकी निर्मलता से उसके द्वारा समस्त जग जाना हुआ होता है। उसके निर्मल स्वभाव में लोक प्रतिबिम्बित किया हुआ विद्यमान रहता है। इसके विपरीत यदि आत्मा निर्मल नहीं है तो उसके द्वारा शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन किया जाना तथा घोर तपश्चरण किया जाना भी व्यर्थ है, क्योंकि अध्ययन व तपश्चरण भी आत्मा को निर्मल बनाने हेतु ही किया जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 98. अप्पा णिय-मणि णिम्मलउ णियमे ँ वसइ ण जासु। सत्थ- पुराणइँ तव-चरणु मुक्खु वि करहि ँ कि तासु।। अर्थ -जिसके निज मन में निर्मल आत्मा निश्चय से नहीं बसती है, उस के लिए शास्त्र और पुराण (तथा) तपश्चर्या भी क्या मोक्ष उत्पन्न करते हैं ? शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, णिय-मणि-निज मन में, णिम्मलउ-निर्मल, णियमे ँ-निश्चय से, वसइ -बसती है,ण -नहीं, जासु-जिसके, सत्थ- पुराणइँ- शास्त्र और पुराण, तव-चरणु-तपश्या, मुक्खु-मोक्ष, वि-भी, करहि ँ -उत्पन्न कर सकते है, कि-क्या, तासु-उसके लिए
  19. बन्धुओं! मुझे कईं बार ऐसा लगता है कि कहीं आप आत्मा ही आत्मा की बात सुनते सुनते ऊब तो नहीं गये हो। लेकिन आगे चलकर आप आत्मा के इस सर्वांगीण विवेचन के उपरान्त ही आत्मशान्ति का सही अर्थ समझ सकेंगे। आचार्य योगिन्दु के अनुसार जब तक आत्मा से भलीभाँति परिचित नहीं हुआ जा सकता, तब तक आत्मशान्ति का सही मायने में अर्थ भी नहीं समझा जा सकता। आत्मा से सम्बन्धित चर्चा कुछ ही शेष है, फिर आत्मशान्ति हेतु मोक्ष अधिकार प्रारंभ होनेवाला है। आत्माधिकार को समझने के बाद मोक्ष अधिकार हमारे लिए सहज बोधगम्य हो सकेगा। आगे के दोहों में आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अर्थ -हे योगी! मात्र आत्मा ही सम्यक दर्शन और तीन लोक का सार है। एक निर्मल आत्मा का ध्यान करने से एक क्षण में परम-पद की प्राप्ति हो जाती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 96. अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु। एक्कु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयहँ सारु।। अर्थ -हे योगी! मात्र आत्मा ही (सम्यक्) दर्शन है, (आत्मा) से भिन्न सब व्यवहार है, एक आत्मा का ही ध्यान किया जाता है जो तीन लोक का सार है। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, दंसणु-दर्शन, केवलु-मात्र, वि-ही, अण्णु-अन्य, सव्वु-सब, ववहारु-व्यवहार, एक्कु -एक, जि-ही, जोइय-हे योगी!, झाइयइ-ध्यान किया जाता है, जो-जो, तइलोयहँ-तीनलोक का सारु-सार 97. अप्पा झायहि णिम्मलउ किं बहुएँ अण्णेण। जो झायंतहँ परम-पउ लब्भइ एक्क-खणेण।। अर्थ -. (तू) निर्मल आत्मा का ही ध्यान कर, बहुत अन्य (बातों से) क्या ? जो परम-पद है (वह) ध्यान करते हुओं के द्वारा एक क्षण में प्राप्त किया जाता है। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा का, झायहि-ध्यान कर, णिम्मलउ-निर्मल, किं-क्या, बहुएँ -बहुत, अण्णेण-अन्य से, जो-जो, झायंतहँ-ध्यान करतेहुओं के लिए, परम-पउ-परत पद, लब्भइ-प्राप्त किया जाता है, एक्क-खणेण-एक क्षण में
  20. आत्मा ही सब कुछ है इसी बात को आगे बढाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा सब कुछ तब ही है जब उसका स्वरूप निर्मल हो। आत्मा को निर्मल बनाना ही व्यक्ति का उद्देश्य होना चाहिए। तीर्थ, गुरु, देव एवं शास्त्र का आश्रय व्यक्ति आत्मा को निर्मल बनाने के लिए ही लेता है। यदि इनका आश्रय लेकर आत्मा निर्मल हो जाती है तो उसके बाद उन सब साधनों की कोई आवश्यक्ता नहीं है, लेकिन इनका निरन्तर आश्रय लेने पर भी यदि आत्मा निर्मलता की और नहीं बढ़ सकी तो उनके लिए ये सभी आश्रय व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 95. अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि। अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा विमलु मुएवि।। अर्थ -हे जीव! तू निर्मल आत्मा को छोड़कर अन्य तीर्थ को मत जा, अन्य गुरु का भी आश्रय मत ले, अन्य देव का भी ध्यान मत कर। शब्दार्थ - अण्णु- अन्य, जि-पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय, तित्थु -तीर्थ, म-मत, जाहि-जा, जिय-हे प्राणी, अण्णु - अन्य, जि-भी, गुरुउ-गुरु का, म-मत, सेवि-आश्रय ले, अण्णु-अन्य, जि-भी, देउ-देव का, म-मत, चिंति-ध्यान कर, तुहुँ-तू, अप्पा-आत्मा, विमलु-निर्मल, मुएवि-छोड़कर।
  21. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा के साथ ही सब उपयोगी है, आत्मा के अभाव मे सब निरर्थक है। वे आगे के दोहे में आत्मा की महत्ता को बताते हुए कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर न कोई दर्शन है, न ज्ञान है, न, चारित्र है। 94. अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु। अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु।। अर्थ -हे प्राणी! आत्मा को छोड़कर निश्चय ही (आत्मा) से भिन्न (कोई) दर्शन नहीं है, (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई) ज्ञान नहीं है, (तथा) (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई) चारित्र नहीं है, (ऐसा तू) समझ। शब्दार्थ - अण्णु-से भिन्न, जि-निश्चय ही, दंसणु -दर्शन, अत्थि-है, ण वि-नहीं, अण्ण्-से भिन्न, जि-निश्चय ही, अत्थि-है, ण-नहीं, णाणु-ज्ञान, अण्णु-से भिन्न, जि-निश्चय ही, चरणु-चारित्र, ण-नहीं, अत्थि-है, जिय-हे प्राणी!, मेल्लिवि-छोड़कर, अप्पा-आत्मा को, जाणु-जानो।
  22. आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा के साथ ही सब उपयोगी है, आत्मा के अभाव मे सब निरर्थक है। वे आगे के दोहे में आत्मा की महत्ता को बताते हुए कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर न कोई दर्शन है, न ज्ञान है, न, चारित्र है। 94. अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु। अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु।। अर्थ -हे प्राणी! आत्मा को छोड़कर निश्चय ही (आत्मा) से भिन्न (कोई) दर्शन नहीं है, (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई) ज्ञान नहीं है, (तथा) (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई) चारित्र नहीं है, (ऐसा तू) समझ। शब्दार्थ - अण्णु-से भिन्न, जि-निश्चय ही, दंसणु -दर्शन, अत्थि-है, ण वि-नहीं, अण्ण्-से भिन्न, जि-निश्चय ही, अत्थि-है, ण-नहीं, णाणु-ज्ञान, अण्णु-से भिन्न, जि-निश्चय ही, चरणु-चारित्र, ण-नहीं, अत्थि-है, जिय-हे प्राणी!, मेल्लिवि-छोड़कर, अप्पा-आत्मा को, जाणु-जानो।
  23. आचार्य योगीन्दु आगे कहते हैं कि आत्मा का मूल स्वभाव संयम, शील, तप, दर्शन और ज्ञान है। इन मूल स्वभाव की प्राप्ति ही आत्मा की प्राप्ति का साधन है। मूल स्वभाव के नष्ट होने पर विकारी भाव आत्मा की प्राप्ति में बाधक हो जाते हैं। देखिये इससे सयम्बन्धित आगे का दोहा - 93. अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु । अप्पा सासय- मोक्ख-पउ जाणंतउ अप्पाणु।। 93।। अर्थ - आत्मा संयम (है), शील (है), तप (है), आत्मा दर्शन (है), ज्ञान (है), आत्मा स्वयं को जानता हुआ शाश्वत सुख का स्थान है। शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा, संजमु-संयम, सीलु-शील, तउ-तप, अप्पा-आत्मा, दंसणु-सत्य तत्त्व पर श्रृद्धा, णाणु-ज्ञान, अप्पा-आत्मा, सासय- मोक्ख-पउ-शाश्वत मोक्ष का स्थान, जाणंतउ-जानता हुआ, अप्पाणु-स्वयं को
  24. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध मात्र उसके चेतन स्वभाव से है, द्रव्यों से नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 92. पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ। एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयण-भाउ।। अर्थ -आत्मा चेतन स्वभाव को छोडकर पुण्य और पाप, और काल, आकाश, धर्म, अधर्म और शरीर (इनमें से) एक भी नहीं है। शब्दार्थ - पुण्णु-पुण्य, वि-और, पाउ-पाप, वि-और, कालु-काल, णहु-आकाश, धम्माधम्मु-धर्म और अधर्म, वि-और, काउ-शरीर, एक्कु-एक, वि-भी, अप्पा -आत्मा, होइ-है, णवि-नहीं, मेल्लिवि-छोड़कर, चेयण-भाउ-चेतन स्वभाव को।
  25. आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि उसकी लघुता व महानता का सम्बन्ध उसकी आत्मा से नहीं बल्कि उसके कर्मों से है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 91 अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु। तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि कम्म-विसेस।। 91।। अर्थ - आत्मा बुद्धिमान (तथा) मूर्ख नहीं है, धनवान नहीं है, धनरहित (दरिद्र) नहीं है, जवान, बूढा (और) बालक नहीं है, (ये सब) (आत्मा) से भिन्न कर्म के भेद ही हैं। शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, पंडिउ-विद्वान, मुक्खु-मूर्ख, णवि-नहीं, णवि-नहीं, ईसरु-धनवान, णवि-नहीं, णीसु-धन रहित, तरुणउ-जवान, बूढउ-बूढा, बालु-बालक, णवि-नहीं, अण्णु-से भिन्न, वि-ही, कम्म-विसेस-कर्म के भेद
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