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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव
शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)
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देखिये भारत की तस्वीर प्रश्न 15-17
Sneh Jain posted a blog entry in Apbhramsa - Language & Literature
मित्रों, जिस प्रकार नमि व विनमि के विजयार्ध पर्वत पर जाकर बसने के कारण विद्याधरवंश का उद्भव हुआ उसी प्रकार घर, परिवार, समाज, नगर व देश के उद्भव व विकास के भी कुछ इसी प्रकार के कारण रहे हैं। प्रश्न 15 ऋषभदेव का प्रथम आहार किसने, कहाँ और कब दिया ? उत्तर 15 हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने, हस्तिनापुर में, वैशाखशुक्ल तृतीया को दिया। प्रश्न 16 राजा श्रेयांस ने ऋषभदेव को आहार में क्या दिया ? उत्तर 16 इक्षु रस प्रश्न 17 ऋषभदेव को दिये गये आहार की तिथि, वैशाखशुक्ल तृतीया के दिन को क्या नाम दिया गया और क्यों ? उत्तर 17 अक्षय तृतीया, राजा श्रेयांस के दान को अक्षय दान मानने के कारण। -
देखिये भारत की तस्वीर प्रश्न 9-11
Sneh Jain posted a blog entry in Apbhramsa - Language & Literature
प्रश्न 11 नमि और विनमि कौन थे ? उत्तर 11 नमि और विनमि, ऋषभदेव के साले कच्छप और महाकच्छप के पुत्र थे। प्रश्न 12 राजा ऋषभ ने नमि और विनमि को कौन सा क्षेत्र प्रदान किया था ? उत्तर 12 विजयार्ध पर्वत की उत्तर और दक्षिण श्रेणी। प्रश्न 13 नमि व विनमि ने विजयार्ध पर्वत की उत्तर व दक्षिण श्रेणियाँ प्राप्त कर क्या किया ? उत्तर 13 नमि विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में तथा विनमि विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थायीरूप से रहने लगे और अपने आपको विद्याधर कहने लगे। आगे इस वंश में उत्पन्न हुए सभी राजा अपने आपको विद्याधर कहन लगे और इनका वंश विद्याधरवंश के नाम से विख्यात हुआ। प्रश्न 14 इस प्रकार विद्याधरवंश के प्रवत्र्तक कौन हुए ? उत्तर 14 नमि व विनमि (बन्धुओं जैन आगम में विद्याधरों के अनेक प्रसंग मिलते हैं। अब आप जान सकेंगे कि य विद्याधर नमि व विनमि के वंश से ही सम्बन्धित थे।) -
देखिये भारत की तस्वीर प्रश्न 9-11
Sneh Jain posted a blog entry in Apbhramsa - Language & Literature
प्रश्न 9 नाभिराज के पुत्र ऋषभ का देवताओं ने अभिषेक कहाँ किया ? उत्तर 9 सुमेरुपर्वत पर प्रश्न 10 राजा ऋषभ के लिए वैराग्य का क्या कारण बना ? उत्तर 10 नृत्य करती नीलांजना का प्राण त्यागना प्रश्न 11 ऋषभदेव ने संन्यास कहाँ लिया ? उत्तर 11 प्रयाग उपवन में -
समता भाव ही रत्नत्रय पालन का आधार है
Sneh Jain posted a blog entry in Apbhramsa - Language & Literature
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि समता भाव वाले के ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र पलते हैं। समता भाव से रहित के दर्शन, ज्ञान और चरित्र में से एक भी नहीं पलता। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 40. दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ। इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।। अर्थ - जो शान्त भाव को धारण करता है, उसके ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है।, अन्य (समभाव से रहितों) के (इन तीनों में से) एक भी नहीं है, जिनेन्ददेव इस प्रकार कहते हैं। शब्दार्थ - दंसण-दर्शन, णाणु -ज्ञान, चरित्तु-चारित्र, तसु -उसके, जो-जो, सम-भाउ-राग द्वेष से रहित तटस्थ भाव को, करेइ-धारण करता है, इयरहँ-अन्य के, एक्कु-एक, वि-भी, अत्थि -है, णवि-नहीं, जिणवरु -जिनेन्द्रदेव, एउ-इस प्रकार, भणेइ-कहते हैं।। -
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१३
Sneh Jain commented on Abhishek Jain's blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
aachary shantisagarji maharaj rag dvesh se pare sam bhav me stith rahte the. yahee karan tha ki sab sankat unse door bhag jate the. -
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र धारण करना तभी संभव है जब शान्त भाव हो। अत- दर्शन, ज्ञान और चारित्र के पालन से पहले भावों को शान्त रखने का अभ्यास करना चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 40. दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ। इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।। अर्थ - जो शान्त भाव को धारण करता है, उसके ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है।, अन्य (समभाव से रहितों) के (इन तीनों में से) एक भी नहीं है, जिनेन्ददेव इस प्रकार कहते हैं। शब्दार्थ - दंसणु-दर्शन, णाणु -ज्ञान, चरित्तु-चारित्र, तसु-उसके, जा-जो, सम-भाउ-राग द्वेषरूप तटस्थ भाव को, करेइ-धारण करता है, इयरहँ-अन्य के, एक्कु -एक, वि-भी, अत्थि-है, णवि -नहीं, जिणवरु-जिनवर, एउ-इस प्रकार, भणेइ-कहते हैं।
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देखिये भारत की तस्वीर प्रश्न 6 -8
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प्रश्न 6 कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर प्रजा ने राजा ऋषभ से क्या कहा \ उत्तर 6 प्रजा ने कहा] हे राजन! हम भूख की मार से मरे जा रहे हैं। इस समय खान पान व जीवन जीने के क्या उपाय है \ प्रश्न 7 प्रजा की करुण पुकार सुनकर राजा ऋषभ ने क्या कहा \ उत्तर 7 राजा ऋषभ ने उन्हें असि] मसि, कृषि, वाणिज्य और दूसरी अन्य विद्याओं की शिक्षा दी। प्रश्न 8 राजा ऋषभ का विवाह किससे हुआ \ उत्तर 8 नन्दा व सुनन्दा से -
प्रश्न 3 मरुदेवी ने रात मे देखे गये स्वप्न किसको बताये ? उत्तर महाराज नाभिराज को प्रश्न 4 स्वप्न सुनकर नाभिराज ने मरुदेवी को क्या कहा ? उत्तर - तुम्हारे त्रिभुवन-विभूषण पुत्र होगा प्रश्न 5 मरुदेवी के पुत्र का क्या नाम था ? उत्तर ऋषभ कुमार, आदि कुमार
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कर्मो का संवर व निर्जरा करनेवाले की पात्रता
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आचार्य योगिन्दु स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि कर्मों की निर्जरा व संवर करने वाला योग्य पात्र वही है जो आसक्ति को छोड़कर शान्त भाव धारण करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 39. कम्मु पुरक्किउ सो खवइ अहिणव पेसु ण देइ। संगु मुएविणु जो सयलु उवसम-भाउ करेइ।। अर्थ - वह (ही) पूर्व में कियेे कर्म को नष्ट करता है और नये (कर्म) के प्रवेश को (अपने में) स्थान नहीं देता, जो समस्त आसक्ति को छोड़कर शान्त भाव धारण करता है। शब्दार्थ - कम्मु-कर्म को, पुरक्किउ-पूर्व में किये गये, सो-वह, खवइ-नष्ट करता है, अहिणव -नये, पेसु-प्रवेश, ण-नहीं, देइ-देता, संगु-आसक्ति को, मुएविणु -छोड़कर, जो-जो, सयलु-समस्त, उवसम-भाउ -शान्त भाव को, करेइ-धारण करता है। -
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि संवर और निर्जरा करने का अभ्यास आत्मस्वरूप में लीन होकर ही किया जा सकता है। समस्त विकल्प इस आत्म विलीन अवस्था में ही नष्ट होते हैं। ध्यान के समय इसका अभ्यास करने के बाद व्यक्ति धीरे-धीरे प्रत्येक स्थिति में तटस्थ रहने का अभ्यासी हो जाता है और संसारी कार्य करता हुआ भी वह विकल्पों से दूर रहता है। इस प्रकार उसकी संवर व निर्जरा की अवधि धीरे-धीरे बढ़ती रहती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 38. अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु। संवर-णिज्जर जाणि तुहुँ सयल-वियप्प-विहीणु।। अर्थ - मुनि जितने समय आत्मस्वरूप में अत्यन्त विलीन रहता है (तबतक) समस्त विकल्पों से रहित उसके संवर और निर्जरा जान। शब्दार्थ - अच्छइ-रहता है, जित्तिउ-जितना, कालु -समय, मुणि-मुनि, अप्प-सरूवि-आत्मस्वरूप में, णिलीणु -अत्यन्त विलीन, संवर-णिज्जर- संवर और निर्जरा, जाणि -जान, तुहुँ - तू, सयल-वियप्प-विहीणु - समस्त विकल्पों से रहित।
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समभाव पूर्वक की गयी क्रिया ही संवर का कारण है
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि ज्ञानी (मुनि) के द्वारा समभावपूर्वक की गयी क्रिया ही उसके पुण्य और पाप के संवर का कारण होती है। देखिये इससे सम्बन्धित निम्न दोहा - 37. बिण्णि वि जेण सहंतु मुणि मणि सम-भाउ करेइ। पुण्णहँ पावहँ तेण जिय संवर-हेउ हवेइ।। अर्थ - (फिर) जिससे दोनों (सुख और दुःख) को ही सहता हुआ मुनि मन में सम भाव धारण करता है। इसलिए हे जीव! वह पुण्य और पाप के संवर (कर्म निरोध) का कारण होता है। शब्दार्थ - बिण्णि-दोनों को, वि-ही, जेण-जिससे, सहंतु -सहता हुआ, मुणि-मुनि, मणि-मन में, सम-भाउ-समभाव को, करेइ-धारण करता है, पुण्णहँ-पुण्य, पावहँ-पाप के, तेण -इसलिए, जिय-हे जीव! संवर-हेउ-संवर का कारण, हवेइ-होता है। -
ब्लागस मित्रों, जयजिनेन्द्र। परमात्मप्रकाश पर ब्लाँग लिखने से पूर्व मैंने (पउमचरिउ) जैन रामकथा के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण किया था। उसके माध्यम से हम यह जान चुके थे कि जैन रामकथा भारतीय समाज की एक जीती जागती तस्वीर है। उसमें हमने यह देखा कि हम अपने विवेक से या फिर हम दूसरों की प्रेरणा से जो कुछ कर रहे हैं उसी का परिणाम भुगत रहे हैं। पिछले आरम्भिक ब्लाँग में पात्रों के चरित्र चित्रण के बाद मुझे लगा कि क्यों न मैं इस महत्वपूर्ण ग्रंथ को जो भारतीय समाज की जीती जागती तस्वीर है अपने ब्लाग पाठक मित्रजनों के बीच रखूँ । इससे पाठक गण के साथ मेरे ज्ञान में भी वृद्धि होगी और सबके सुझाव से जीवन के तथ्यों और अधिक स्पष्ट हो सकेंगे। इन ब्लँाग को आपके समक्ष सहज बोधगम्य व रुचिकर बनाने हेतु प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत कर रही हूँ। आज से प्रतिदिन दो ब्लाँगस लिखे जायेंगे, एक परमात्मप्रकाश से सम्बन्धित यथावत तथा दूसरा प्रश्नोत्तर शैली में पउमचरिउ पर। आज आप देखिये पउमचरिउ के ब्लाँग के पूर्व की संक्षिप्त में प्रस्तावना। प्रस्तावना - यह स्वयंभू कृत पउमचरिउ ग्रंथ अपभ्रंश भाषा में 7-8 वीं ईंस्वी में रचित है। इस अपभ्रंश ग्रंथ का अनुवाद श्री देवेन्द्रकुमार जैन इन्दोर ने किया है तथा यह ग्रंथ भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित है। यह पउमचरिउ (जैन रामकथा ग्रंथ अपभ्रंश भाषा का प्रथम महाकाव्य है। हिन्दी भाषा एवं साहित्य के जाने माने समीक्षक राहुल सांकृत्यायन ने इस महत्वपूर्ण ग्रंथ के रचनाकार स्वयंभू के बारे में कहा है कि ‘ हमारे इस युग में नहीं, हिन्दी के पाँचों युगों के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, यह निसंकोच कहा जा सकता है कि उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि हैं।वस्तुतः वे भारत के एक दर्जन अमर कवियों में एक हैं। यह ग्रंथ अपनी कथावस्तु के नामों के अनुसार पाँच भागों (काण्डों) में विभक्त है। ये पाँच भाग हैं- 1 विद्याधर काण्ड 2. अयोध्या काण्ड 3 सुन्दर काण्ड 4. युद्ध काण्ड 5. उत्तर काण्ड । पउमचरिउ का प्रथम भाग विद्याधर काण्ड है। इस विद्याधर काण्ड में चार वंशों का कथन हुआ है। 1. इक्ष्वाकुवंश,, 2विद्याधर वंश, 3 राक्षसवंश, 4 वानरवंश। इसमें रामकथा के मुख्यपात्र राम का सम्बन्ध इक्ष्वाकुवंश से, रावण का राक्षसवंश से तथा हनुमान का वानरवंश से बताया गया है। इक्ष्वाकुवंश से विद्याधरवंश का तथा विद्याधरवंश से राक्षसवंश व वानरवंश का उद्भव हुआ। प्रथम काण्ड़ के बाद विद्याधरवंश का नाम समाप्त होकर मात्र तीन वंश के ही नाम रह गये और सभी वंश के राजा विद्याधर कहे जाने लगे। यही कारण है कि सभी वंशों के उद्भव का कथन करनेवाला यह प्रथम काण्ड विद्याधर काण्ड कहा गया। इस प्रथम काण्ड को समझने के बाद ही रामकथा के माध्यम से हम भारत की जीती जागती तस्वीर का सही मायने में आकलन कर सकेंगे। हम यह कार्य बहुत ही धीरे-धीरे प्रतिदिन एक या दो प्रश्नों के माध्यम से करेंगे। कल से इसका प्रथम प्रश्न ब्लाँग प्रारम्भ किया जायेगा। मेरा ईमेल है- snehtholia@yahoo.com । आप किसी भी जानकारी के लिए इस पर सम्पर्क कर सकते हैं।
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आचार्य योगीन्दु ज्ञानीव्यक्ति के विषय में कहते हैं कि वह दुःख और सुख को समता भाव से सहता है, जिसके कारण उसके कर्मों की निर्जरा होती है और वह आसक्ति से रहित कहा जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 36. दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाण-णिलीणु। कम्महँ णिज्जर-हेउ तउ वुच्चइ संग-विहीणु।।। अर्थ - दुःख और सुख को सहता हुआ ध्यान में पूर्णरूप से विलीन ज्ञानी जीव निर्जरा (कर्मों के क्षय) का कारण होता है, तब वह आसक्ति से रहित कहा जाता है। शब्दार्थ - दुक्खु-दुःख, वि-और, सुक्खु-सुख को, सहंतु-सहता हुआ, जिय-जीव, णाणिउ-ज्ञानी, झाण-णिलीणु-ध्यान में पूर्णरूप से विलीन, कम्महँ -कर्मों की, णिज्जर-हेउ-निर्जरा का कारण, तउ-तब, वुच्चइ-कहा जाता है, संग-विहीणु-आसक्ति से रहित।
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सद्बोधात्मक ज्ञान ही स्थिर ज्ञान है
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स्वदर्शन के बाद आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में स्पष्टरूप से कहते हैं कि जो ज्ञान सम्यक्दर्शन होने में कारण है तथा जो वस्तु के भेओ को स्पष्टतः जानता है वह सद्बोधात्मक ज्ञान ही स्थिर ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 35. दंसण-पुव्वु हवेइ फुडु जं जीवहँ विण्णाणु। वत्थु-विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु।। अर्थ -दर्शन का कारण (तथा) वस्तु के भेदों को जानता हुआ जो जीवों का स्पष्ट निश्चयात्मक (सद्बोधात्मक) ज्ञान है उसको (तू) अचल ज्ञान समझ। शब्दार्थ - दंसण-पुव्वु- दर्शन का कारण, हवेइ-है, फुडु -स्पष्ट, जं-जो, जीवहँ-जीवों का, विण्णाणु-निश्चयात्मक ज्ञान, वत्थु-विसेसु -वस्तु के भेद को, मुणंतु -जानता हुआ, जिय-हे जीव!, तं-उसको, मुणि - जान, अविचलु -स्थिर णाणु-ज्ञान। -
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि स्व दर्शन के बिना आत्मा का ध्यान संभव नहीं है, इसलिए सर्वप्रथम स्वदर्शन को जानना आवश्यक है। स्वदर्शन के विषय में वे कहते हैं कि जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण है, वह ही स्व दर्शन है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 34. सयल-पयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ। वत्थु-विसेस-विवज्जियउ तं णिय-दंसणु जोइ।। अर्थ - जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण (अधिगम) है, उसको (तू) निज (स्व) दर्शन जान। शब्दार्थ - सयल-पयत्थहँ - समस्त पदार्थों का, जं -जो, गहणु -ग्रहण, जीवहँ -जीवों का, अग्गिमु -मुख्य, होइ-है, वत्थु-विसेस-विवज्जियउ-पदार्थ के भेद रहित, तं -उसको, णिय-दंसणु-निज दर्शन, जोइ-समझ।
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आत्मा का ध्यान ही मोक्ष प्राप्ति का सही मार्ग है
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आचार्य योगीन्दु पुनः इसी बात को दृढता के साथ कहते हैं कि रत्नत्रययुक्त आचरण के साथ आत्मा का ध्यान करनेवाले ज्ञानी निश्चय से मुक्ति को प्राप्त होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 33. अप्पा गुणमउ णिम्मलउ अणुदिणु जे झायंति। ते पर णियमे ँ परम-मुणि लहु णिव्वाण लहंति।। अर्थ - जो प्रतिदिन विशुद्ध और गुणमय आत्मा का प्रतिदिन ध्यान करते हैं, मात्र वे (ही) श्रेष्ठ मुनि निश्चय से शीघ्र मुक्ति को प्राप्त करते हैं। शब्दार्थ - अप्पा- आत्मा का, गुणमउ-गुणमय, णिम्मलउ-विशुद्ध, अणुदिणु-प्रतिदिन, जे -जो, झायंति-ध्यान करते हैं, ते-वे, पर-मात्र, णियमे ँ-निश्चय से, परम-मुणि-श्रेष्ठ मुनि, लहु-शीघ्र, णिव्वाण -मुक्ति को, लहंति-प्राप्त करते हैं। -
रत्नत्रय मोक्षपद प्राप्ति का प्रथम सोपान
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आचार्य योगिन्दु यहाँ मोक्षपद अर्थात शाश्वत शान्तिपद प्राप्ति की सही राह बताते हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति विशुद्ध रत्नत्रय से ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति होना मानते हैं तथा मोक्षपद प्राप्ति के इच्छुक हैं वे ही अपनी आत्मा का ध्यान कर मोक्षपद प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार इस दोहे में योगिन्दुदेव ने मोक्षपद प्राप्ति का प्रथम सोपान रत्नत्रय को माना है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 32. जे रयण-त्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणंति। ते आराहय सिव-पयहँ णिय अप्पा झायंति।। अर्थ - जो ज्ञानी विशुद्ध रत्नत्रय को आत्मा बोलते हैं (और) मोक्षपद की आराधना करनेवाले हैं, वे (ही) अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं। शब्दार्थ - जे - जो, रयण-त्तउ-रत्नत्रय को, णिम्मलउ-निर्मल, णाणिय-ज्ञानी, अप्पु-आत्मा, भणंति-बोलते हैं, ते- वे, आराहय-आराधना करनेवाले, सिव-पयहँ-मोक्षपद की, णिय-अपनी, अप्पा- आत्मा का, झायंति-ध्यान करते हैं। -
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि सच्चे अर्थ में रत्नत्रय का आराधक वही है जिसका ध्येय मात्र एक गुणों का आवास आत्मा है। गुणनिधि आत्मा का ध्यान ही शुद्ध भावों का जनक है। व्यवहारिकरूप में भी यह देखा जाता है कि व्यक्ति का आन्तरिक विकास उसके शुद्ध भावों पर ही आधारित है जबकि बाहरी विकास मात्र दिखावे पर आधारित है। आन्तरिक विकास शाश्वत है जबकि बाहरी विकास क्षणिक और परिवर्तनशील है। आन्तरिक विकास से व्यक्ति सुख-दुःख से कम प्रभावित होता है जबकि बाहरी विकास जरा से दुःख में भी व्यक्ति को आहत कर देता है। इसीलिए रत्नत्रय के आराधकों का ध्येय आन्तरिक विकास का साधन मात्र एक आत्मा ही होती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 31. जो भत्तउ रयण-त्तयहँ तसु मुणि लक्खणु एउ। अप्पा मिल्लिवि गुण-णिलउ तासु वि अण्णु ण झेउ।। अर्थ -जो रत्नत्रय का शृद्धालु (आराधक) है उसका यह लक्षण जान। गुणों के आवास, आत्मा को छोड़कर उसका और दूसरा ध्येय नहीं है। शब्दार्थ - जो - जो, भत्तउ - आराधक, रयण-त्तयहँ - रत्नत्रय का, तसु- उसका, मुणि - जान, लक्खणु -लक्षण, एउ-यह, अप्पा-आत्मा को, मिल्लिवि - छोड़कर, गुण-णिलउ - गुणों के आवास, तासु- उसका, वि - और, अण्णु -दूसरा, ण-नहीं, झेउ-ध्येय।
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स्वकीय शुद्ध स्वभाव ही चारित्र है
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ज्ञान के विषय में संक्षेप में कथन करने के बाद आचार्य चारित्र के विषय में संक्षेप में कहते हैं कि स्वकीय शुद्ध भाव ही चारित्र है और यह चारित्र स्व और पर को समझन के बाद पर स्वभाव का त्याग करने पर फलित होता है। यह है आचार्य योगीन्दु की विचक्षणता। उन्होंने विशालकाय चारित्र को स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका दिया। स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका हुआ चारित्ररूपी महल का कथन कर शुद्ध चारित्र का निर्वाह बहुत आसान कर दिया। व्यक्ति प्रत्येक क्रिया अपने भाव से करता है। अतः शुद्धभावपूर्वक की गयी क्रिया शुद्ध ही होगी। अतः शुद्ध चारित्र का निर्वाह करने के लिए मात्र शुद्ध भावों का होना ही पर्याप्त है। अशुभ भाव से अशुभ क्रिया, शुभ भाव से शुभ क्रिया तथा वैसे ही शुद्ध भाव से शुद्ध क्रिया ही भाव व क्रिया की गणित है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 30. जाणवि मण्णवि अप्पु परु जो पर-भाउ चएइ। सो णिउ सुद्धउ भावडउ णाणिहिं चरणु हवेइ।। अर्थ - जो स्व और पर (स्वभाव) को जानकर,(तथा) समझकर पर स्वभाव का त्याग करता है, ज्ञानियों में वह स्वकीय शुद्ध स्वभाव ही चारित्र होता है। शब्दार्थ - जाणवि -जानकर, मण्णवि-समझकर, अप्पु-स्व, परु-पर को, जो-जो, पर-भाउ-पर भाव का, चएइ- त्याग करता है, सो - वह, णिउ-स्वकीय, सुद्धउ-विशुद्ध, भावडउ-स्वभाव, णाणिहिं-ज्ञानियों में चरणु-चारित्र, हवेइ-होता है। -
आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में कहते हैं कि जो द्रव्य जिस तरह स्थित है उसको जो उस ही प्रकार जानता है, आत्मा के जानने का वह सही स्वभाव ही ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 29. जं जह थक्कउ दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि। अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुणिज्जहि सो जि।।29।। अर्थ - जो द्रव्य जिस तरह स्थित है (और) उसको जो (आत्मा) उस ही प्रकार जानता है, (उस) आत्मा के उस स्वभाव (सहज गुण) को ही तू ज्ञान समझ। शब्दार्थ - जं - जो, जह-जिस प्रकार, थक्कउ-स्थित, दव्वु -द्रव्य, जिय-हे जीव!, तं-उसको, तह-उसी प्रकार, जाणइ-जानता है, जो-जो, जि-ही, अप्पहं - आत्मा के, केरउ-सम्बन्धवाची परसर्ग, भावडउ-स्वभाव, णाणु -ज्ञान, मुणिज्जहि-समझ, सो-उसको, जि-ही।
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आगे सम्यक्ज्ञान व चारित्र का कथन किये जाने की सूचना
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आचार्य योगिन्दु ने द्रव्यों के कथन के साथ पिछले दोहों में सम्यग्दर्शन के कथन को पूरा किया। अब वे सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए सम्यग्ज्ञान व चारित्र का कथन करेंगे। इसी सूचनात्मक कथन से सम्बन्धित देखिये इनका अग्रिम दोहा - 28. णियमे ँ कहियउ एहु मइँ ववहारेण वि दिट्ठि। एवहि ँ णाणु चरित्तु सुणि जे ँ पावहि परमेट्ठि।। अर्थ -. नियमपूर्वक मेरे द्वारा व्यवहार (नय) से यह ही (सम्यक्) दर्शन कहा गया। अब तू ज्ञान और चरित्र को सुन, जिससे तू परम पूज्य (सिद्धत्व) को प्राप्त करे। शब्दार्थ -णियमे ँ -नियमपूर्वक, कहियउ-कहा गया, एहु -यह, मइँ-मेरे द्वारा, ववहारेण-व्यवहार से, वि-ही, दिट्ठि-दर्शन, एवहि ँ - अब, णाणु -ज्ञान, चरित्तु -चरित्र को, सुणि -सुन, जे ँ - जिससे, पावहि - प्राप्त करे, परमेट्ठि- परमपूज्य । -
द्रव्यों का ज्ञान ही शान्ति का मार्ग है
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समस्त द्रव्यों के बारे में मूलभूत जानकारी देने के बाद आचार्य योगिन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव को समझकर ही दुःख व सुख के कारणों को समझा जा सकता है। तभी दुःख के कारणों से बचकर तथा सुख के कारणों में लगकर ही शान्ति के मार्ग से श्रेष्ठ लोक मोक्ष में जाया जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 27. दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ। होयवि मोक्खहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ पर-लोउ।। अर्थ - हे जीव! द्रव्यों के इस स्वभाव कोे दुःख का कारण जानकर मोक्ष के मार्ग में होकर शीघ्र परलोक जाया जाता है। शब्दार्थ - दुक्खहँ-दुःख का, कारणु-कारण, मुणिवि -जानकर, जिय-हे प्राणी! दव्वहँ - द्रव्य के, एहु-इस, सहाउ-स्वभाव को, होयवि-होकर, मोक्खहँ -मोक्ष के, मग्गि - मार्ग में, लहु -शीघ्र, गम्मिज्जइ-जाया जाता है, पर-लोउ-परलोक। -
संसार भ्रमण का कारण द्रव्य ही हैं
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द्रव्यों का संक्षिप्त में स्पष्टरूप से कथन करने के बाद आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जीवों की क्रिया का कारण ये द्रव्य ही हैं। इन द्रव्यों के फलस्वरूप ही जीव विभिन्न प्रकार के कर्म करते हैं। इन कर्म के कारण ही जीव चारों गतियों के दुःखों को सहन करते हुए संसार में भ्रमण करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित अग्रिम दोहा - 26. एयइँ दव्वइँ देहियहँ णिय-णिय-कज्जु जणंति। चउ-गइ-दुक्खु सहंत जिय ते ँ संसारु भमंति।।26।। अर्थ - ये द्रव्य जीवों के लिए अपने- अपने कार्य को उत्पन्न करते हैं। उस कारण से जीव चारों गतियों के दुःख को सहते हुए संसार में भ्रमण करते हैं। शब्दार्थ - एयइँ - ये, दव्वइँ-द्रव्य, देहियहँ-जीवों के लिए, णिय-णिय-कज्जु- अपने-अपने कार्य को, जणंति- उत्पन्न करते हैं, चउ-गइ-दुक्खु- चारों गतियों के दुःख को, सहंत-सहते हुए, जिय-जीव, ते ँ - उस कारण से, संसारु-संसार में, भमंति-भ्रमण करते हैं। -
आचार्य योगिन्दु इन द्रव्यों की स्थिति के विषय में कहते हैं कि ये सभी द्रव्य लोकाकाश को धारण कर यहाँ संसार में एक में मिले हुए अपने-अपने गुणों में रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 25. लोयागासु धरेवि जिय कहियइँ दव्वइँ जाइँ। एक्कहिं मिलियइँ इत्थु जगि सगुणहि णिवसहि ताइँ।। अर्थ - हे जीव! (ये) जो द्रव्य कहे गये हैं वे सब लोकाकाश को धारण कर यहाँ संसार में एक में मिले हुए निजी (आत्मीय)े गुणों में रहते हैं। शब्दार्थ - लोयागासु -लोकाकाश को, धरेवि-धारणकर, जिय-हे जीव! कहियइँ -कहे गये हैं, दव्वइँ -द्रव्य, जाइँ-जो, एक्कहिं-एक में, मिलियइँ -मिले हुए, इत्थु-यहाँ, जगि-संसार में, सगुणहि ँ-निजि गुणों में, णिवसहि ँ-रहते हैं, ताइँ - वे सब।
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आचार्य योगीन्दु द्रव्यों के प्रदेशों के विषय में कहते हैं कि धर्म, अधर्म और जीव असंख्य प्रदेशी हैं, आकाश अनन्त प्रदेशी है तथा पुद्गल बहु प्रदेशी है। काल का कोई प्रदेश नहीं है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में धर्म, अधर्म, जीव, आकाश और पुद्गल को सम्मिलित किया है, काल द्रव्य को नहीं किया। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 24. धम्माधम्मु वि एक्कु जिउ ए जि असंख्य-पदेस। गयणु अणंत-पएस मुणि बहु-विह पुग्गल-देस।। अर्थ - धर्म, अधर्म और एक जीव इन (तीनों) को ही तू असंख्य प्रदेश, आकाश को अनन्त प्रदेश और पुद्गल का प्रदेश बहुत प्रकार का जान। शब्दार्थ - धम्माधम्मु- धर्म और अधर्म, वि -समुच्चय बोधक, एक्कु-एक, जिउ-जीव, ए -इनको, जि-ही, असंख्य-पदेस- असंख्य प्रदेश, गयणु आकाश को, अणंत-पएस- अनन्त प्रदेश, मुणि- जान, बहु-विह-बहुत प्रकार, पुग्गल-देस- पुद्गल का प्रदेश।