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Sneh Jain

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  1. अब तक हमने जैन रामकथा के प्रमुख पात्रों के जीवन-कथन के माध्यम से रामकथा को समझने का प्रयास किया। पुनः इन रामकथा के पात्रों पर गहराई से विचार करे तो हम देखते हैं कि जैन रामकथाकारों का उद्देश्य रामकथा के माध्यम से जैनधर्म व जैन सिद्धान्तों की पुष्टि करना रहा है। जैनदर्शन के सभी अध्यात्मकारों ने संसार के प्राणियों के दुःख के मूल में राग को स्वीकार किया है। राग के ही इतर नाम है, आसक्ति, ममत्व, मुर्छा आदि। राग की चर्चा प्रायः सभी दर्शनकारों ने की है, चाहे वह पुराणकाव्य हो, या मुक्तक काव्य, कथाकाव्य, स्तुति, स्तोत्र, पूजा या धर्म काव्य की कोई भी विधा। जैनधर्म व दर्शन से सम्बन्धित कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है जिसमें राग की चर्चा न हो। इतना कुछ होने के बाद भी राग के स्वरूप को आसानी से समझपाना बहुत कठिन प्रतीत होता है। यदि ऐसा नहीं होता और राग के स्वरूप को सब समझ चुके होते तो यह भी निश्चित है कि आज संसार सुखमय होता। राम काव्य का अध्ययन करने के ऐसा लगा कि शायद रामकथाकारों को राम काव्य राग का स्पष्ट विवेचन करने के लिए अति उपयोगी प्रतीत हुआ होगा। मेरी भी इसमें पूरी सहमति है। मैं भी रामकाव्य के अध्ययन के पश्चात् इतना सा अवश्य अनुभव करने लगी हूँ प्रेम और राग के अन्तर को समझना बहुत आवश्यक है। प्रेम स्वर्ण के समान है तो राग काँच के समान, प्रेम स्वर्ण के समान तपकर निखरता है तो राग भोगों की ज्वाला में जलकर राख हो जाता है। प्रेम विवेकपूर्वक होता है और वात्सल्य में फलीभूत होता है, जबकि राग अज्ञानता पूर्वक लोभ से उत्पन्न हो शोक में फलीभूत होता है। अपभ्रंश भाषा में रचित पउमचरिउ (रामकथा) पर जब गहराई से विचार करते हैं तो कुछ मुख्य तथ्य उभरकर सामने आते हैं। उनमें सर्वप्रथम मुख्य तथ्य है कि स्वयंभू ने रामकथा में पद्मपुराण में वर्णित सम्पूर्ण कथा को अपने काव्य का विषय क्यों नहीं बनाया तथा उन्होंने सीता के संन्यास ग्रहण करने के साथ ही काव्य को विराम क्यों दे दिया ? दूसरा तथ्य है कि स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन को स्वयंभू का काव्य अधूरा क्यों प्रतीत हुआ जिससे उसने अपने पिता के काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया। इन दोनों तथ्यों के विषय में मेरा स्वयं का जितना चिन्तन है, मैं यहाँ स्पष्ट करना चाहती हूँ। पाठकगण भी इस विषय में अपने विचार अभिव्यक्त कर सकते हैं। उपरोक्त प्रथम तथ्य के विषय में मैं समझती हूँ कि हूँ कि अपभ्रंश भाषा का युग एक नयी चेतना लेकर आया था। अपभ्रंश भाषा में रचित नब्बे प्रतिशत साहित्य जैनधर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। इस युग में रचित जैन साहित्य झूठी धर्मांन्धता, संकीर्णता एवं कट्टर साम्प्रदायिकता से रहित था। अपभ्रंश युग के कवि यह भलीभाँति समझते थे कि सम्पूर्ण जीवन को विरक्तिमय बना देना प्रकृति का विरोध है और जिस धर्म ने ऐसा किया वह धाराशायी हुआ, परन्तु शृंगार में ही डूबकर गोते लगाते रहना भी जीवन का सब कुछ नहीं है। इसलिए अपभ्रंश कवियों ने शम या विरक्ति को जीवन का उद्देश्य मानते हुए प्रेय और श्रेय का अद्भुत् सम्मिश्रण किया है। अपभ्रंश कवि सदैव समभाव के पक्षधर रहे हैं। यही कारण नजर आता है कि अपभ्रंश कवि स्वयंभू ने सीता के संन्यास ग्रहण करने के साथ ही अपने काव्य को विराम दे दिया। स्वयंभू के लिए लिए सीता का संन्यास ग्रहण करना भी उतना ही महत्वपूर्ण था जितना कि राम का। सीता ने स्वयंवर में राम के गले में जब वरमाला डाली थी तब राम के साथ सुख भोगने के कितने अरमान उनके मन में रहे होंगे, और उसके बाद निर्वासन के समय सीता ने अपने पुत्र लवण व अंकुश का अपने घर व पति से दूर रहकर लालन-पालन किया उस समय भी सीता के मन में पुत्रों के प्रति कुछ अरमान अवश्य रहे होंगे। पुनः निर्वासन के बाद जब सीता राम से मिली तब राम का प्रथम दर्शन कर सीता ने यही विचार किया कि शायद अब मेरे दुःखों का अन्त हो गया है, किन्तु उसका परिणाम रहा अग्निपरीक्षा। इतना दुःख भोग चुकने के बाद सीता को संसार से विरक्ति हुई और उसने संसार से विरक्त हो संन्यास ग्रहण कर लिया तो इसमें आश्चर्य क्या है ? और क्या यह संसार के राग के प्रति सच्ची विरक्ति नहीं है ? राम का या किसी के भी संन्यास का कारण संसार के दुःखों से भयभीत होना ही तो रहा है। सीता की इस वैराग्य की अनुभूति को स्वयंभू ने भी अवश्य अनुभूत किया है। स्वयंभू की स्वसंवेदन दृष्टि सीता के महत्व को नकारकर आगे नहीं बढ़ सकती थी। लोक भी ‘जय सीयाराम’ के उद्बोधन में पहले सीता को ही स्थान देता है। त्रिभुवन ने आगे की संधियों में भी राम- लक्ष्मण व सीता के राग की प्रवृत्ति का ही अंकन किया है। लक्ष्मण का राम की मृत्यु का समाचार सुनते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाना, राम का लक्ष्मण की मृत देह को भी कन्धे पर छः मास तक ढोते रहना, सीता के जीव इन्द्र का मुनि पदधारी राम को रिझाना ये सब राग दशा का ही तो चित्रण है। त्रिभुवन ने भी अपने पिता के कथन की ही पुष्टि की है। इस प्रकार जैन रामकथाकारों ने संसार के दुःखों का मूल कारण राग को रामकथा के माध्यम से बहुत सुंदर रूप में प्रकट कर जन-जन के लिए राग से मुक्त हो सुख का मार्ग प्रशस्त किया है। रामकथा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है कि दशरथ व कैकेयी का भरत के लिए राज्य मांगने मात्र एक राग ने अयोध्या से लेकर किष्किंधनगर होते हुए लंका तक तहलका मचा दिया। आज भी हम यही देखते हैं कि राग से उत्पन्न एक छोटी सी गलती के हम कितने भयानक परिणाम भोगते हैं। अतः राग को समाप्त कर वात्सल्य के साथ जीवन यापन करते हुए स्व एवं पर के लिए शान्ति का संदेश देनेवाला यह अपभ्रंश भाषा का यह प्रथम महा काव्य जो प्रथमानुयोग की कोटि में आता है, सदा जयवन्त रहे। अपभ्रंश के प्रथम महाकाव्य ‘पउमचरिउ‘ का आज समापन हुआ। आगे आचार्य योगिन्दु जो अपभ्रंश की अध्यात्मधारा के प्रथम अध्यात्म ग्रंथकार है उनके द्वारा रचित परमात्मप्रकाश ग्रंथ को ब्लाग का विषय बनाया जायेगा। आशा ही नहीं पूरा विश्वास है आपको इसमें भी बहुत आनन्द आयेगा। जय जिनेन्द्र।
  2. यहाँ हम देखेंगे कि राग की परम्परा किस प्रकार आगे तक चलती रहती है। राम की पत्नी सीता ने संन्यास अंगीकार कर मरण कर इन्द्रपद पाया। इन्द्रपद के भव मेें राम का समागम होना जानकर पुनः राग भाव उत्पन्न हुआ। यह राग ऐसा ही है जो भव-भव तक पीछा नहीं छोड़ता और यही मनुष्य की अशान्ति का कारण है। सीता के जीव इन्द्र के माध्यम से हम राग के स्वरूप को देखेंगे। राम ने सुव्रतनामक चारण मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहणकर महाव्रत अंगीकार किये। बारह प्रकार का कठोर तप अंगीकार कर परीषह सहन का युक्तियों का पालन किया। छठे उपवास के बाद आहार करने के बाद बहुत दिनों तक धरती पर विहार किया और उसके बाद कोटिशिला प्रदेश में पहुँचे, और ध्यान में लीन हो गये। सीता का जीव जो संन्यासपूर्वक मरणकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ था उसने अपने अवधिज्ञान से राम का कोटिशिला में जाकर ध्यानस्थ होना तथा लक्ष्मण का नरक में जाना जान लिया और विचार करने लगा कि यह वही राम हैं जो मनुष्य जन्म में हमारा पति था। फिर सीता के जीव इन्द्र ने पुनः विचार किया कि क्षपकश्रेणी में स्थित इनके ध्यान में मैं किस प्रकार बाधा पहुँचाऊँ, जिससे इनका मन विचलित हो जाय और इन्हें उज्जवल धवल केवलज्ञान उत्पन्न न हो। तब ये मेरे मन चाहे मित्र, बहुत से रत्नों के स्वामी वैमानिक स्वर्ग के इन्द्र हो जायेंगे। तब मैं उनके साथ घूमूँगी, अभिनन्दन करूँगी और समस्त जिन भवनों की वंदना तथा नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा करूँगी। उसके बाद लक्ष्मण जो नरक में हैं, उसे सम्यक् बोध देकर अपने साथ ले आऊँगी, और अन्त में राम को अपना समस्त दुःख-सुख बताऊँगी। मन में ये सब बातें सोचकर वह इन्द्र आधे ही पल में ध्यानस्थ राम के पास कोटिशिला आ पहुँचा। वहाँ पहुँचकर इन्द्र ने कोटिशिला के चारों ओर सुन्दर उद्यान बना दिया। उस विजन एकान्त सुंदर महावन में इन्द्र सीता के रूप में राम के सम्मुख खड़ा हो गया और बोला, मैंने तुम्हारे विरह के वशीभूत हो तुम्हें याद करते करते तुमको खोजते- खोजते समस्त स्वर्ग प्रदेश छान मारा। बहुत समय के बाद अपने बचे हुए पुण्य के प्रताप से तुम्हें देख सकी हूँ। मैं वही सीता देवी हूँ और तुम वही राम हो। अब मैं तुम्हारा वियोग एक क्षण के लिए भी नहीं सहन कर सकती। हे राम, चार कषाय, और बाईस परीषह असह्य होते हैं। मेरे लिए तुमने समुद्रवज्रावर्त धनुष को चढ़ाया था, हनुमान को लंका भी मुझे ही खोजने भेजा था, मेरे ही कारण तुमने रावण को मारा था। हे राम अब तुम मेरे साथ अनन्त समय तक राज्य करो। इन्द्र का इतना कहने पर भी राम का मन विचलित नहीं हुआ। ध्यान में दृढ़ता से स्थित हुए राम ने चार घातिया कर्मों का नाश कर परम उज्जवल ज्ञान प्राप्त कर लिया। देवों ने आकर उनें केवलज्ञान की अर्चा की। तब सीता के जीव इन्द्र ने भी अपना सिर झुकाकर निवेदन किया कि हे त्रिभुवन से वन्दित! अविनय के कारण जो भारी अपराध किया है, उसके लिए मेरा अपराध क्षमा कर दो। यह है राग का दृश्य । सीता का जीव इन्द्र राग शमन कर गणधर होगा।
  3. अज्ञान जनित राग ही मनुष्य के दुःख व अशान्ति का कारण है। रामकथा के माध्यम से जैन कवियों ने इसको बहुत ही सुंदर ढंग से समझाने का प्रयास किया है। बडे़- बड़े महापुरुष भी इस राग (आसक्ति) से चिपके रहते हैं। जब यह राग समाप्त हो जाता है तो वे सुख व शान्ति प्राप्त कर लेते हैं। आसक्ति का त्याग ही सुख व शान्ति का मार्ग है। इससे पूर्व हमने लक्ष्मण के मन की आसक्ति का एक रूवरूप देखा। यहाँ रामकथा के नायक ‘राम’ के मन की आसक्ति का संक्षेप में कथन किया जा रहा है। अन्त में आसक्तिका त्याग कर राम ने निर्वाण पद को प्राप्त किया। राम ने सहसा लक्ष्मण की मृत्यु का समाचार सुना तो वे लक्ष्मण के पास वहाँ आकर बैठ गये। कान्तिशूून्य मृत लक्ष्मण को उन्होंने देखा तो लक्ष्मण के प्रति अत्यन्त मोह होने के कारण लक्ष्मण की मृत्यु पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने मन में सोचा शायद यह मुझसे नाराज है, इसीलिए उठकर खड़ा नहीं हुआ। तब राम ने उसका मुख चूमकर कहा, हे लक्ष्मण! क्या तुम मुझसे बात नहीं करोगे, बताओ आज इतने कठोर क्यों हो? लक्षणों से तो लगता है कि तुम मर गये। फिर उन्होंने उसका सारा शरीर देखा और उसे मृत जान उसी क्षण मूच्र्छित हो गये। मूच्र्छा दूर होने पर लक्ष्मण के कार्यों का स्मरण कर करुण विलाप करने लगे। लक्ष्मण प्राण छोड़ चुके थे परन्तु राम तब भी राग छोड़ने को तैयार नहीं थे। तदनन्तर विभीषण व अन्य सामन्तों ने भी संसार की नश्वरता का कथन कर राम को समझाने का प्रयास किया और कुमार लक्ष्मण का दाह संस्कार करने हेतु कहा। लक्ष्मण के दाह संस्कार की बात सुनकर राम भड़ककर बोले- अपने स्वजनों के साथ तुम जलो, तुम्हारे माँ-बाप जलें, मेरा भाई तो चिरंजीवी है। लक्ष्मण को लेकर मैं वहाँ चला जाता हूँ जहाँ दुष्टों के वचन सुनने में नहीं आवें। यह कहकर राम लक्ष्मण को कन्धे पर लेकर वहाँ से चले गये। वहाँ जाकर स्नानगृह में प्रवेश कर लक्ष्मण को स्नान कराया, रत्नों के आभूषणों से अलंकृत किया और उसको भोजन कराने लगे। लक्ष्मण का शव ढोते-ढोते लक्ष्मण के राग में राम का आधा वर्ष बीत गया। अन्त में बोध को प्राप्त होने से अपने राग को दूर कर लक्ष्मण का दाह संस्कार किया। अन्त में संन्यास अंगीकार कर निर्वाण पद को प्राप्त हुए। राम के समान ही प्रत्येक प्राणी अपनी आसक्ति से ही दुःखी व अशान्त है, तथा राम के समान ही प्रत्येक व्यक्ति अपनी आसक्ति का निवारण कर शान्ति को प्राप्त कर सकता है। जैन रामकथा के पीछे रामकथाकारों का प्रमुख उद्देश्य संसार के प्रत्येक प्राणी को सुख प्रदान करना ही रहा है।
  4. जैनधर्म एवं दर्शन में समस्त दोषों का आधार आसक्ति के मूल में देखा गया है। आसक्ति अज्ञान जनित है। आसक्ति से उत्पन्न दुष्परिणामों को भुगतने पर ही सही ज्ञान का होना प्रारम्भ होता है। राम-लक्ष्मण व सीता के दुःखों के मूल में भी यही आसक्ति विद्यमान थी। पउमचरिउ के अन्त में भी इन पात्रों में विद्यमान आसक्ति के चरमरूप का कथन किया गया है जो प्रत्येक व्यक्ति की आसक्तियों को भी भली भाँति उदघाटित करती है। यहाँ सर्वप्रथम लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति का कथन किया जा रहा है। लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति - एक दिन सहस्त्रनयन इन्द्र अपने प्रमुख-प्रमुख देवों के साथ चर्चा करते हुए बोला कि लक्ष्मण का राम के प्रति इतना राग है कि एक भी क्षण वह राम के वियोग को नहीं सहन कर सकता। अपने प्राणों से भी अधिक वह उसको चाहता है। मैं इतना जानता हूँ कि राम की मृत्यु का नाम लेने मात्र से लक्ष्मण निश्चित रूप से जीवित नहीं रह सकेगा। इन्द्र को यह कहते सुनकर वहाँ स्थित रत्नचूड और अमृतचूलनामक देवों ने परष्पर विचारकर कहा कि चलो लक्ष्मण के पास चलकर यह कहते है कि राम मर गया, और देखते है कि यह सुनकर लक्ष्मण पर क्या प्रभाव पडता है ? यह कहकर दोनों ने वहाँ से प्रस्थान किया और अयोध्यानगरी पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मायामयी करुण शब्द किया ‘ हा रामचन्द्र मर गये’। यह शब्द जब लक्ष्मण ने सुना तो वह इनता ही कह पाया था कि ‘अरे राम के क्या हो गया , और वह इस प्रकार आधा ही बोल पाया था कि इन शब्दों के साथ उसके प्राण पखेरू उड़ गये। लक्ष्मण के मृत्यु का कारण लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति को उद्घाटित करती है।
  5. पउमचरिउ में वर्णित मुख्य पात्रों का पूर्वभव व भविष्य कथन जैनधर्म के कर्मसिद्धान्त पर प्रकाश डालता है। हम इस पर थोड़ा ध्यान से विचार करें तो हम समझ सकेंगे कि राम,रावण, सीता व लक्ष्मण का सम्बन्ध एक जन्म का नहीं है। उनका यह सम्बन्ध पूर्व भवों से उनके कर्मों के आधार पर चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त को इससे भलीभाँति समझा जा सकता है। i पूर्वभव कथन राम - वणिकपुत्र धनदत्त, स्वर्ग में देव, पंकजरुचि नामक वणिकपुत्र, ईशान स्वर्ग में देव, कनकप्रभनामक राजपुत्र, महेन्द्रस्वर्ग में देव, श्रीचन्द्र राजपुत्र, ब्रह्मलोक स्वर्ग में इन्द्र, दशरथ पुत्र राम, उसी भव में सिद्धत्व प्राप्त करना। लक्ष्मण - वणिकपुत्र वसुदत्त, हिरण, महिष, वराह, बैल, श्रीभूति पुराहित, स्वर्ग में देव, दशरथपुत्र लक्ष्मण। रावण - वणिकपुत्र श्रीकान्त, हिरण, महिष वराह, बैल, प्रभासाकुन्द राजपुत्र, सनत्कुमारदेव, रत्नाश्रवपुत्र रावण। सीता - गुणवती, तिर्यंचगति, वेदवतीनामक पुत्री, जनकनन्दिनी सीता। सुग्रीव - बैल, वृषभध्वज राजपुत्र, ईशानस्वर्ग में देव, किष्किंधानरेश सुग्रीव,। भामंडल - गुणवती का भाई गुणवान। विभीषण - पंडित यज्ञबलि। भविष्य कथन दशरथ - तेरहवें स्वर्ग में अपराजिता, कैकेयी, सुप्रभा - देवगति। लवण व अंकुश - सिद्धगति भामण्डल - भोगभूमि में जन्म लेना। सीता - चक्रवर्ती, वैजयन्त स्वर्ग में देव, तीर्थंकर रावण का गणधर रावण - सुंदर नामक गृहस्थ का अरहदासनामक पुत्र, सीता के जीव चक्रवर्ती का इन्द्ररथ नामक पुत्र, देव योनियों में भ्रमण, तीर्थंकर। लक्ष्मण - सुंदर गृहस्थ का ऋषिदासनामक पुत्र, सीता के जीव चक्रवर्ती का अंभोजरथ नामक पुत्र, पुष्करद्वीप के शतपत्रध्वज नगर का चक्रवर्ती, तीर्थंर, निर्वाण
  6. पउमचरिउ नामक काव्य के ये एक महत्वपूर्ण पात्र हैं। देखा जाय तो इनका पउमचरिउ में वर्णित किसी भी वंश से विशेषरूप से सम्बन्ध नहीं है और वैसे सभी के साथ सम्बन्ध है। भ्रमणशील प्रवृत्ति के कारण इनको अपने चारों तरफ की पूर्ण जानकारी भी रहती है। जो इनके साथ खुश है उसका ये पूरा साथ देते हैं और उसका बिगड़ा काम भी बनाने में सहयोग प्रदान करते हैं किन्तु इनकी जिससे इनकी नाराजगी है उससे प्रतिशोध लिए बिना भी नहीं रहते। अपनी विस्तृत जानकारी के कारण ये अपने सभी कार्यों में सफल होते देखे गये है। यहाँ हम पउमचरिउ में नारद से सम्बन्धित प्राप्त कथानक के आधार पर हम देखेंगे कि किन-किन का उन्होंने सहयोग किया और किन-किन पात्रों के विरोधी रहे। पउमचरिउ काव्य में इनकी अद्भुत भूमिका रही है, जिसका निम्नरूप में कथन किया जा रहा है - विद्याधरवंशी इन्द्र ने चित्रांग दूत को रावण के पास संधि करने का प्रस्ताव लेकर भेजा। चित्रांग दूत रावण के पास पहुँचे उससे पूर्व ही नारद रावण के पास पहुँच गये। उन्होंने इन्द्र का रहस्य बताकर उसे समझाया कि ‘अपने स्कन्धावार को सुरक्षित रखो, इन्द्र का दूत आयेगा तथा नरवरों और सुग्रीव आदि विद्याधरों में फूट डालेगा। उसके साथ मधुर वचनों में इस प्रकार बात करना जिससे संधि न हो, अभी तो इन्द्र शक्ति में तुमसे हीन है, बाद में उसको जीतना कठिन हो जायेगा।’ अन्त में नारद ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि मरुयज्ञ में जो तुमने विघ्नों से मेरी रक्षा की उसी उपकार के कारण मैंने यह परम रहस्य तुमको बताया है’ और वहाँ से प्रस्थान कर दिया। नारद के सहयोग से रावण ने इन्द्र पर विजय प्राप्त की। एक दिन सीता दर्पण में प्रतिबिम्ब के रूप में पीछे खड़े मुनिवेष में नारद को देखकर भयभीत हो उठी। उसे भयभीत देखकर उसकी सखियों ने कोलाहल किया। इससे सीता के अनुचरों ने नारद को धक्के मारकर बाहर निकाल दिया। तभी अपने अपमान से दुःखी हो नारद प्रतिशोध की भावना से सीता का चित्र लिखकर ले गये और उसको भामण्डल को दिखाया। यह भामण्डल सीता का ही भाई था जो किसी देव के द्वारा अपहरण कर ले जाया गया था। देव के द्वारा उसे फैंक दिया जाने के कारण विद्याधर चन्द्रगति ने उसको वहाँ से उठाकर उसका लालन पालन किया। उस चित्र को देखकर भामंडल कामावस्था को प्राप्त हुआ। भामण्डल की यह अवस्था देखकर विद्याधर चन्द्रगति ने राजा जनक से भामंडल के लिए सीता की याचना की तथा सीता के लिए स्वयंवर रखने का प्रस्ताव रखा। उस स्वयंवर में राम विजयी हुए। विभीषण ने सागरबुद्धि भट्टारक से यह भविष्यवाणी सुनी कि राजा जनक की पुत्री सीता के कारण दशरथ पुत्र राम एवं लक्ष्मण द्वारा रावण युद्ध में मारा जायेगा। यह सुनकर विभीषण भड़क उठा और दशरथ व जनक को मारने के लिए उद्यत हुआ। इससे पूर्व ही नारद ने जनक व दशरथ के पास पहुँचकर विभीषण का रहस्य बता दिया। उन्होंने कहा- आज विभीषण तुम्हारे ऊपर आयेगा और तुम दोनों के सिर तोड़ेगा। यह जानकर दशरथ व जनक अपनी लेपमयी मूर्तियाँ स्थापित करवाकर वहाँ से निकल गये। विभीषण के अनुचरों ने उन मूर्तियों का सिर उड़ाकर विभीषण को दिखाया जिससे जनक व दशरथ को मरा हुआ जान विभीषण सन्तुष्ट हुए। इस प्रकार नारद के कारण राजा जनक व दशरथ उस समय विभीषण से अपनी रक्षा करने में सफल हुए। अयोध्या में राम के वियोग में दुःखी कौशल्या को नारद ने लंका में स्थित, राम-लक्ष्मण व सीता के कुशल होना बताकर शीघ्र ही उनसे मिलाने का आश्वासन दिया और तेज गति से वे लंकानगरी पहुँच गये। वहाँ राम से जाकर उन्होंने उनकी माँ का उनके वियोग में दुःखी होना बताया। माँ का दुःखी होना जानते ही राम ने विभीषण को कहा कि यदि मैंने आज या कल में माँ के दर्शन नहीं किये तो निश्चय से उनके प्राण निकल जायेंगे। अपनी माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्यारी होती है। तब विभीषण के अनुरोध पर सौलहवें दिन उन्होंने अयोध्या के लिए प्रस्थान कर दिया। इस प्रकार नारद ने माँ-बेटे को मिलाने में सहयोग किया। सीता के निर्वासन काल में राम से दूर अकेले सीता के साथ रह रहे लवण व अंकुश को उनके पिता राम से मिलवाने की भावना से नारद ने सीता हरण, सीता पर कलंक लगाकर अकारण निर्वासन दिया जाना तथा लवण व अंकुश के जन्म होने तक की समस्त घटनाओं को बताया। यह सुनकर लवण व अंकुश क्रोधित होकर राम व लक्ष्मण से युद्ध में भिड़ गये। वे परस्पर एक दूसरे के तीरों को निष्फल कर रहे थे। तभी नारद ने वहाँ आकर लवण व अंकुश को उनका ही पुत्र होना बताया। यह जानकर राम व लक्ष्मण ने युद्ध छोड़कर अपने हथियार डाल दिये और अपने पुत्रों का सिर चूम लिया। दोनों पुत्र भी पिता के चरणों में गिर पडे़। इस प्रकार नारद के सहयोग ये ही पिता व पुत्रों का मिलन हुआ। स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ के कथानक से सम्बन्धित सभी मुख्य पात्रों के चित्रण के द्वारा हम मानव-जीवन की विभिन्न घटनाओं के कारण और परिणामों से परिचित हुए हैं। पउमचरिउ के आगे के भाग को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूरा किया। स्वयंभू ने आचार्य रविषेण के पद्मपुराण के वही तक के अंश को अपने काव्य का विषय बनाया था जहाँ तक सीता ने संन्यास लिया था। लगता है त्रिभुवन को राम के संन्यास अंगीकार के अभाव में स्वयंभू का काम कुछ अधूरा प्रतीत हुआ और उसने राम के संन्यास का विधिवत कथन कर स्वयंभू के काम को पूरा किया। आगे स्वयंभू पुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित पउमचरिउ की अन्तिम सात संधियों के आधार पर तीन-चार ब्लाँग और दिये जायेंगे जिससे रामकथा से पूर्णरूप से परिचित हुआ जा सके। उसके बाद अपभ्रंश का प्रथम रोचक अध्यात्म ग्रंथ परमात्मप्रकाश को लिया जायेगा।
  7. इस अनादिनिधन संसार में सभी जीव दो स्तर पर जीवन यापन करते हैं- प्राकृतिक और अर्जित। प्रथम प्राकृतिक स्तर पर सभी जीव प्रायः समान स्थिति लिए होते हैं, जैसे - सभी जीवों का जन्म लेकर मरना, सभी के लिए बाल्य, युवा, वृद्धावस्था का समानरूप से होना, सभी स्त्री जाति व पुरुष जाति के जीवों की अपनी जाति के अनुसार शारीरिक संरचना समान होना, सूर्य, चन्द्रमा, नदी, तालाब वृक्ष आदि की सुविधाएँ सभी को समान रूप से मिलना। दूसरे अर्जित स्तर पर अर्जन करना प्रत्येक व्यक्ति की निजि सम्पदा है, जो सभी व्यक्तियों को एक दूसरे से पृथकता प्रदान करता है। यह अर्जित स्तर ही व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का आधार है। जितना जितना व्यक्ति जिस-जिस क्षेत्र में अपने विवेक और पुरुषार्थ से जो कुछ अर्जित कर पाता है वही उसका विकास है। व्यक्ति के उपरोक्त दो स्तरों के समान प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का संबन्ध भी उसके भाव व क्रिया से जुड़ा होता है। यहाँ भी भावों के स्तर पर प्रायः सब समान और सीमित होते हैं किन्तु क्रिया विभिन्नता और व्यापकता लिए होती है। जैसे - किसी समान प्रसंग को लेकर हँसना, समान प्रसंग उपस्थित होने पर क्रोधित होना, दीन-हीन व्यक्ति को देखकर समान करुणा का भाव उत्पन्न होना, किसी अद्भुत वस्तु को देखकर समानरूप से आश्चर्य का भाव उत्पन्न होना, किसी घृणित वस्तु को देखकर समानरूप से जुगुप्सा का भाव उत्पन्न होना, समान संबन्धों के मिलने-बिछुड़ने पर समानरूप से प्रेम व वियोग भाव उत्पन्न होना आदि आदि। हम देखते है कि भाव एक होता है किन्तु उसको अभिव्यक्त करने की क्रिया विभिन्नरूपों में होती है। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्तियों के भाव समान होते हैं तभी उनकी क्रिया समान हो पाती है। समभाव का जीवन में बहुत महत्व है। दो व्यक्ति परष्पर समान रूप से प्रेम करे तब ही वह सफल प्रेम के रूप में परिणत होता है। स्वयं में समभाव तथा पारष्परिक समभाव ही सुख-शान्ति प्राप्त होने का मूल मन्त्र है। हम यहाँ हनुमान व लंकासुंदरी के जीवन की घटना के माध्यम से सौहार्द की भावना को अनुभव करने का प्रयास करते हैं। लंकासुंदरी लंकासम्राट रावण के अनुचर वज्रायुध की पुत्री है। पउमचरिउ काव्य में हनुमान व लंकासुंदरी का प्रसंग बहुत कम होने पर भी सहृदय लोगों को सौहार्द की अनुभूति कराने में सक्षम है। सौहार्द उत्पन्न होनें में अमीरी-गरीबी, ऊँचा-नीचा, छोटे-बडे़ का कोई स्थान नहीं है, उसमें तो मात्र भावों की समानता ही कारण है। समभाव से उत्पन्न सौहार्द के कारण ही लंकासुन्दरी ने रावण के अनुचर की पुत्री होते हुए भी रावण के विरोधी, हनुमान का साथ दिया और दोनों विवाहसूत्र में बँध गये। उसके बाद अयोध्या पहुँचकर राम के विरुद्ध सीता के सतीत्व का समर्थन किया। लंकासुंदरी से सम्बन्धित यह सुन्दर प्रसंग निम्न प्रकार है। राम के लिए सीता की खोज में निकले हनुमान ने लंकानगरी में प्रवेश कर आशाली विद्या को युद्ध में परास्त कर रावण के अनुचर वज्रायुध को मार गिराया। तब लंकासुंदरी अपने पिता वज्रायुघ का बदला लेने हेतु हनुमान से युद्ध करने के लिए तत्पर हुई और युद्ध में हनुमान के विरुद्ध बराबर की भागीदारी की। उसके छोड़े गये तीरों के जाल से आकाश आच्छादित हो गया। लंकासुंदरी ने थर्राता हुआ अपना खुरपा फंैका जिससे हनुमान के धनुष की डोरी कट गई। तब हनुमान ने दूसरा धनुष लेकर उससे लंकासुंदरी को ढक दिया। लंकासुंदरी ने भी हनुमान के तीर समूह को काट दिया और उसका कवच भेद दिया। पुनः उस लंकासुंदरी ने हनुमान पर उल्का अस्त्र तथा गदा मारी जिसे हनुमान ने खंडित कर दिया। हनुमान ने लंकासुंदरी को कन्या के निर्बल होने की संज्ञा दी तथा उसके साथ युद्ध करने के लिए मना कर वहाँ से हट जाने के लिए कहा। यह सुनकर लंकासुंदरी ने अपने तर्क से कन्या के पराक्रम को प्रतिष्ठित कर हनुमान को इस प्रकार की बात करने के लिए मूर्ख बताया। उसने कहा- क्या आग की चिनगारी पेड़ को नहीं जला देती? क्या विषद्रुम लता से आदमी नहीं मरता? क्या नर्वदा नदी के द्वारा विंध्याचल खंडित नहीं होता? क्या सिंहनी गज को नहीं मार देती? यदि तुम्हारे मन में इतना अभिमान है तो तुमने आशाली विद्या के साथ युद्ध क्यों किया? हनुमान के युद्ध में अजेय होने पर लंकासुंदरी ने अपने मन में हनुमान के गुणों की सराहना की। उसने कहा- वीर हनुमान! साधु साधु। तुम्हारा शरीर और वक्ष विजयलक्ष्मी से अंकित है। हे अस्खलित मान! युद्ध में मैं तुमसे पराजित हुई, अच्छा हो यदि आप मुझसे पाणिग्रहण कर लें। तब उसने तीर पर अपना नाम अंकित कर हनुमान की तरफ छोड़ा। हनुमान ने भी उन अक्षरों को पढ़कर प्रत्युत्तर में अपना स्नेह प्रकट करने हेतु अपना नाम लिखकर बाण छोड़ा। तदनन्तर दोनों का विवाह हो गया। लंका में रह रही सीता के लिए गुणानुरागी लंकासुंदरी ने अपने घर से रुचिकर भोजन भेजा। अयोध्या जाकर लंकासुंदरी ने गर्वीले स्वर में सीता के सतीत्व की पुष्टि की। इस प्रकार हनुमान व लंकासुंदरी में परष्पर सौहार्द उत्पन्न होने का कारण दोनों में बराबर का साहस, दोनों का बराबर का गुणानुरागी होना, दोनों में बराबर का प्रेम होना रहा है। यदि हम अपने जीवन में सौहार्द चाहते हैं तो हमें अपनी संगति का चयन समभाव को देख-परखकर ही करना चाहिए।
  8. सभी ब्लाग पाठकों से मेरा अनुरोध है, वे ब्लाग के विषय में अपने विचारों से मुझे अवश्य अवगत करवाये। लेखक को लगना चाहिए कि क्या पाठकों की उसमें रुचि है ? इससे लेखक में उत्साह भी बढता है साथ ही वह पाठको की रुचि के अनुरूप परिवर्तन की बात भी सोचता है। आशा है आप सब शीध्र ही अपने सुझावों से अवगत करवाकर मुझे आगे भी लिखने में प्रोत्साहित करेंगे। रामकथा पर आधारित मात्र दो ब्लाग और हैं, इसके बाद विषय बदला जायेगा।
  9. प्रायः यह कहा जाता है, पढ़ने में आता है, या देखा भी जाता है कि मनुष्य के वातावरण का उस पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। यह भी कहा जाता है कि 50 प्रतिशत गुण-दोष व्यक्ति में वंशानुगत होते हैं तथा प्रारम्भ में जो संस्कार उसको मिले वे आखिरी तक उस पर अपना प्रभाव बनाये रखते हैं। ये सब कथन काफी हद तक सही भी हैं। लेकिन जब हम रामकाव्य के पात्रों के जीवन को देखते हैं तो एक बात साफ उभरकर आती है कि कितना ही उपरोक्त कथन सही हो लेकिन जब व्यक्ति का स्वबोध जाग्रत होता है तो उपरोक्त सब बाते पीछे धरी रह जाती है और स्वबोध प्राप्त व्यक्ति अपनी नयी राह बनाकर आगे चल पडता है। इसके विपरीत स्वबोध के अभाव में व्यक्ति अपने विकास को अवरुद्ध कर पतन की ओर मुड़ जाता है। रामकथा के पात्रों के माध्यम से इस तथ्य को बहुत स्पष्टरूप से समझा जा सकता है। इक्ष्वाकुवंश में बाहुबलि व राम, वानरवंश में बालि, तथा राक्षसवंश में विभीषण, ये ऐसे ही स्वबोध को प्राप्त विशिष्ट चरित्र हैं जो स्वबोध के कारण अपने वातावरण से दूर विशिष्ट मार्ग पर चल पडे़ हैं। इसके विपरीत जिनको स्वबोध नहीं हो पाता वे किस तरह पतन की ओर मुड़ जाते हैं यह हम रावण की बहन चन्द्रनखा के माध्यम से उसके जीवन की एक घटना के आधार से देखने का प्रयास करते हैं। एक दिन चन्द्रनखा का पुत्र शम्बूक चन्द्रहास खड्ग को सिद्ध करने की साधना करने हेतु गया। शम्बूक की साधना पूर्ण होने ही वाली थी कि उसके पूर्व ही वन भ्रमण करते हुए लक्ष्मण ने खेल ही खेल में शम्बूक का वंशस्थल आहत कर उसके खड्ग को प्राप्त कर लिया। उसके कुछ ही समय बाद चन्द्रनखा अपने पुत्र शम्बूक लिए खड्ग की प्राप्ति हो जाने का विचार कर प्रसन्न होती हुई उसके पास पहुँची। वहाँ पहुँचकर उसने पुत्र का मुकुट, कुण्डलों से सुशोभित सिर व छिन्न-भिन्न वंशस्थल देखा और धाड़ मारकर रोने लगी। तब उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जिसने मेरे पुत्र को मारा है यदि मैंने उसके जीवन का अपहरण नहीं किया तो मैं अग्नि में प्रवेश कर लूंगी। फिर जैसे ही उसने पीछे मुड़कर देखा वैसे ही उसे पीछे राम व लक्ष्मण दिखाई दिये। लक्ष्मण के हाथ में तलवार देखने पर उसने यह जान लिया कि इस ही ने मेरे पुत्र की हत्या की है परन्तु उनको देखते ही उसका पुत्र शोक चला गया और वह काम से पीड़ित हो उठी। तब शीघ्र ही अपना सुन्दर कन्या रूप बनाकर उनके पास पहुँची और एक क्षण में धाड़़ मारकर रोने लगी। उस ही वन में भ्रमण कर रहे राम ने चन्द्रनखा से उसके रोने का कारण पूछा। तब चन्द्रनखा ने कहा- हे राजन! मैं वन में दिशा भूल गयी हूँ। मेरे पुण्य से तुम मुझे मिल गये। यदि हमारे ऊपर तुम्हारा मन है तो दोनों में से एक मुझसे विवाह कर लें। राम व लक्ष्मण ने चन्द्रनखा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर पर उसने किलकारियाँ भरकर सैकड़ों ज्वालाएँ छोड़ीं। यह देखकर राम ने लक्ष्मण से कहा- हे लक्ष्मण! इस के चरित को देखो। उसके बाद चन्द्रनखा अपनी आँखें लाल कर, अपने ही नखों से अपने ही शरीर को विदारित कर घाड़़ मारती हुई अपने घर खरदूषण के पास पहुँची। वहाँ पहुँचकर रोती हुई उसने कहा- हे राजन! मेेरा जनप्रिय पुत्र शम्बुकुमार राम व लक्ष्मण के द्वारा मृत्यु को प्राप्त हो गया। राम व लक्ष्मण ने मुझे नखों से विदीर्ण किया है। फिर भी मैं किसी तरह उनसे बच गयी। खरदूषण अपनी पत्नी चन्द्रनखा के मुख से राम व लक्ष्मण द्वारा पुत्र शम्बूक को आहत किया जाना तथा चन्द्रनखा के शील को कलंकित किया जानकर क्रोधित हुआ शीघ्र जाकर लक्ष्मण से युद्ध में भिड़ गया। उस यद्ध में खरदूषण मारा गया। उस युद्ध में ही खरदूषण का साथ देने आये रावण ने सीता का हरण किया। सीता के हरण के परिणाम स्वरूप लंकानगरी तहस नहस हुई और अन्त में रावण भी मारा गया। चन्द्रनखा के जीवन से सम्बन्धित यह एक छोटा सा कथानक स्वबोध के अभाव में चन्द्रनखा के जीवन में घटित बहुत ही दर्द भरे परिणाम को बताता है। इसमें हमने देखा कि चन्द्रनखा यदि अपने पुत्र के शोक में ही स्थिर रहती और उस का पुत्र प्रेम कामासक्ति में परिवर्तन नहीं हुआ होता तो वह अपने पति को नहीं खोती। जितना और जिस तरह का क्रोध खरदूषण को चन्द्रनखा के शील को नष्ट हुआ जानकर उत्पन्न हुआ उस तरह का क्रोध पुत्र के मृत्यु को प्राप्त हुआ सुनकर नहीं होता। दुःख तो पुत्र की मृत्यु का भी कम नहीं था लेकिन उसमें खरदूषण की प्रतिक्रिया कुछ दूसरे की प्रकार की होती। वह पुत्र के शोक से अभिभूत हुआ लक्ष्मण-राम से मिलता और हो सकता है राम और लक्ष्मण उसके दुःख में शामिल होकर उससे क्षमायाचना कर उसके दुःख को हल्का करने का प्रयास करते। फिर खरदूषण का लक्ष्मण से युद्ध नहीं होता तो रावण वहाँ आता ही क्यों ? ना फिर सीता का हरण हो पाता और ना हीं चन्द्रनखा के स्वजनों का नाश। चन्द्रनखा इस प्रकार दीन-हीन दशा को प्राप्त नहीं होती। स्वबोध के अभाव में दुराचरण अंगीकार करने के फलस्वरूप ही चन्द्रनखा इस दशा को प्राप्त हुई। अतः चन्द्रनखा के जीवन से यह सिद्ध होता है कि चरित्र का सम्बन्ध स्वबोध पर आधारित है।
  10. यह संसार एक इन्द्रिय प्राणी से लेकर पाँच इन्द्रिय प्राणियों से खचाखच भरा हुआ है। इन सब प्राणियों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। मनुष्य की भी दो जातिया हैं - एक स्त्री और दूसरा पुरुष। सारा संसार मात्र इस स्त्री व पुरुष की क्रिया से नियन्त्रित है।संसार का अच्छा या बुरा स्वरूप इन दो जातियों पर ही टिका हुआ है। संसार में जब-जब भी दुःख व अशान्ति ने जन्म लिया तब- तब ही इन दोनों जातियों में उत्पन्न हुए करुणावान प्राणियों में ज्ञान का उद्भव हुआ और उन्होंने उस करुणा से उत्पन्न ज्ञान के सहारे सुख व शान्ति का मार्ग खोजने का प्रयास किया। इस प्रयास में उनको बहुत साधना, तपस्या ध्यान, चिंतन मनन करना पड़ा। इन करुणावान ज्ञानी प्राणियों को हम साधु-साध्वी व विद्वान- विदूषी के रूप में विभक्त कर सकते हैं। इन सभी ने अपनी साधना के आधार पर संसार के दुःखों का मूल कारण मनुष्य के अज्ञान में पाया। उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य अपनी अज्ञानता से जनित राग व भय के वश होकर अपनी क्रिया को सही दिशा नहीं दे पाने के कारण ही दुःखी और अशान्त बना रहता है। भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत विद्यमान सभी धर्म सम्प्रदाय के साधु-साघ्वी, विद्वान-विदूषियों ने दुःख के कारणों का अनुसंधान कर उनका निराकरण करने हेतु सूत्र खोजें हैं। भारतीय संस्कृति की जैनधारा की दिगम्बर आम्नाय के आध्यात्मिक संत आचार्य रविषेण ने पùपुराण में संसार के दुःखों का मूल कारण अज्ञान जनित राग-द्वेष अवस्था में देखा है। पùपुराण को आधार बनाकर ही दिगम्बर सम्प्रदाय के ही प्रमुख विद्वान, अपभ्रंश भाषा के प्रथम काव्यकार स्वयंभू ने अपभ्रंश भाषा में पउमचरिउ काव्य की रचना की है।स्वयंभू ने भी संसार के दुःखों का मूल कारण अज्ञानता में ही स्वीकार किया है। मनुष्य अज्ञानता के कारण ही हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं आवश्यक्ता से अधिक परिग्रह जैसे पापों में लगा रहता है, परिणामस्वरूप दुःख भोगता रहता है। यहाँ पउमचरिउ (रामकथा) के प्रतिनायक लंका सम्राट रावण की पत्नी के जीवन में व्याप्त दुखों के माध्यम से संसार के दुःखों का कारण मनुष्य की पाप वृत्ति पर प्रकाश डाला जा रहा है। इसके माध्यम से हम देखेंगे कि एक मनुष्य अज्ञानतावश पाप के परिणाम को नहीं समझपाने के कारण अपने विद्यमान सुखों को नहीं भोग पाता और अपनी जिन्दगी को अशान्त बना लेता है। पउमचरिउ में प्राप्त मन्दोदरी के संक्षिप्त जीवन कथन के आधार पर हम देख सकेंगे कि लंका सम्राट रावण की पत्नी सर्वसुविधा सम्पन्न होते हुए भी अज्ञानता से जनित राग व भय के कारण ही दुःखी व अशान्त हुई है। रावण के प्रति राग होने के कारण मन्दोदरी रावण के द्वारा किये गये अति घिनौने पाप का भी दृढ़ता से विरोध नहीं कर सकी। रावण के डराने पर भयभीत हुई मन्दोदरी भी भय के वश रावण का सीता से दूतकर्म कर पाप कर्म की भागीदार बनी, तथा उसने निर्भीक सीता को भी डराने का काम किया। राग में आसक्ति होने से उसने हनुमान जैसे गुणवान की भी निंदा की तथा अंग व अंगद जो रावण के पाप के विरोधी थे उनका भी विरोध किया। मन्दोदरी ने रावण को समझाने में भले ही कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु राग व भयवश उसने बीच-बीच में रावण का पक्ष भी लिया, जिससे रावण का मनोबल भी बढ़ता गया। यदि मन्दोदरी पाप के प्रति रावण का कट्टरता से विरोध करती और मात्र पाप के प्रसंग में वह रावण के राग और भय से आक्रान्त नहीं होती तो उसे सीता का भी सहयोग मिल जाता। दोनों का साथ रावण को पाप से विमुख करने में निश्चित रूप से समर्थ होता। लंका सम्राट रावण की पत्नी मन्दोदरी को जन्मजात सौन्दर्यवती होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह श्रेष्ठ हथिनी की तरह लीला के साथ चलनेवाली, कोयल की तरह मधुर बोलनेवाली, हरिणी की तरह बड़ी-बड़ी आँखों वाली और चन्द्रमा के समान मुखवाली, कलहंसिनी की तरह स्थिर और मन्द गमन करनेवाली, स्त्री रूप से लक्ष्मी को उत्पीड़ित करनेवाली तथा अभिमानिनी, ज्ञानवाली व जिनशासन में लगी हुई थी। रावण के राग में आसक्त हुई उसने रावण की व्याकुलता का कारण सीता के प्रति आसक्ति को नहीं समझकर खरदूषण व शम्बूककुमार की मृत्यु को समझ लिया। उसे इस बात का पता तब लगा जब रावण ने स्वयं उसे कहा कि उसे खरदूषण का दुःख नहीं है उसे तो केवल इस बात का दाह है कि सीता उसे नहीं चाहती। मन्दोदरी को रावण की सीता के प्रति आसक्ति का पता लगते ही उसने रावण को हिंसा असत्य, चोरी, कुशील व परिग्रह रूप पापों से प्राप्त कुफल को समझाने की कोशिश की तथा अपने यश को यथावत बनाये रखने का परामर्श भी दिया। उसने कहा कि स्त्री का सुख वैसा ही है जैसा सुख असिपंजर में तथा सिंह की दाढ़ के भीतर है, यदि फिर भी तुम परस्त्री की इच्छा करते हो तो मुझसे क्यों पूछते हो। उसने व्यंग्योक्ति के आधार पर भी समझाने का प्रयास किया कि बलवान राजा के द्वारा किया गया कोई भी कार्य असुंदर नहीं कहलाता। उसने रावण को समझाने में तनिक भी कमी नहीं रखी। पुनः उसने कहा, सीता को आज ही वापस कर दो और अपने वंश को राम के दावानल में मत फँूको। तुमने इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण और मेघवाहन को बंधन में डलवा दिया। तुम स्वजनों से विहीन राज्य का क्या करोगे। अभी भी सीता को सौंप देने पर तुम्हारा राज्य भी बच जायेगा तथा भाई-बंधु भी तुम्हारे सामने रहेंगे। मन्दोदरी द्वारा रावण को समझाया जाने पर रावण ने उसकी परवाह नहीं करते हुए उसको धन व जीवन का लोभ देकर डराया तथा उसे जानकी से अपना दूतकर्म करने के लिए प्रेरित किया। तब अपने ऐश्वर्य व जीवन को समाप्त हुआ जान भयभीत हुई मन्दोदरी रावण का आदेश मानकर रावण की दूती बनकर सीता के पास गयी और सीता से कहा - तुम्हारा ही एक जीवन सफल है, रावण जहाँ तुम्हारी आज्ञा की इच्छा रखता है वहाँ तुम्हारे पास क्या नहीं है? तुम लंकेश्वर की महादेवी बन जाओ और समस्त धरती का भोग करो। यह सुनकर सीता ने मन्दोदरी की भत्र्सना की तो मन्दोदरी का मन काँप गया। सीता की भत्र्सना से भयभीत हुई मन्दोदरी ने सीता को भीयह कहकर भयभीत किया कि यदि तुम लंकाराज को किसी भी तरह नहीं चाहती तो तुम करपत्रों से तिल-तिल काटी जाओगी और निशाचरों को सौंप दी जाओगी। पुनः मन्दोदरी ने सीता को चूड़ा, कंठी, कटिसूत्र आदि आभूषण देते हुए कहा कि तुम रावण को चाहो और महादेवी पट्ठ तथा इन प्रसाधनों को स्वीकार करो, मैं इतनी अभ्यर्थना करती हूँ। मन्दोदरी रावण के प्रति राग होने के कारण लंका में आये हनुमान को राम के पक्ष में मिला देखकर उस पर क्रुद्ध हो उठी और बोली, तुमको हमारा एक भी उपकार याद नहीं रहा जो इस प्रकार रावण को छोड़कर राम से मिल गये। जिस रावण से तुम सदैव सम्मानित होते आये हो आज यहीं तुम चोरों की तरह बाँंध लिए जाओेगे। जब हनुमान ने राम की प्रशंसा व रावण की निंदा की तो रावण की निंदा से कुपित हुई मन्दोदरी ने हनुमान को बँधवाने की प्रतिज्ञा की। तब वहाँ से जाकर मन्दोदरी ने रावण से जाकर कहा, हनुमान ने आपके द्वारा किये गये उपकारों में से एक को भी नहीं माना, और वह हमारे शत्रुओं का अनुचर बन गया है। अंग व अंगद ने रावण को ध्यान से डिगाने हेतु मन्दोदरी को खींचकर बाहर निकाल लिया। तब भी मन्दोदरी ने अंग व अंगद को ललकारा कि तुम्हारा यह पाप कल अवश्य फल लायेगा। दशानन कल तुम्हारी समूची सेना को नष्ट कर देगा।
  11. रावण का दूसरा पुत्र अक्षयकुमार भी बहुत पराक्रमी एवं विद्याधारी था। अक्षय कुमार व हनुमान के मध्य हुए युद्ध में प्रारम्भ में हनुमान भी उसे नहीं जीत सका। हनुमान ने भी प्रारंभ में उसकी स्फूर्ति की प्रशंसा करते हुए कहा कि देवता भी जिसकी गति का पार नहीं पा सकते उसके साथ मैं कैसे युद्ध करूँ। अक्षयकुमार ने अपनी अक्षयविद्या से अनन्त सेना उत्पन्न कर दी, किन्तु अन्त में वह हनुमान के शस्त्रों से मारा गया। अक्षयकुमार की एक छोटी सी घटना के माध्यम से हम यह देखेंगे कि अक्षयकुमार के समान इस संसार में कितने लोग होंगे जो पाप कर्म में लिप्त होकर भी किस प्रकार गुणीजनों का उपहास उड़ाते हैं और अन्त में धाराशायी होते हैं। लंका में प्रवेश कर हनुमान ने नन्दनवन के उद्यानों एवं रावण की सेना को तहस- नहस कर दिया। तब रावण के पुत्र अक्षयकुमार ने आकर हनुमान को ललकारा- अरे हनुमान! जिनवर के वचन को तुमने कुछ भी नहीं समझा और जिससे श्रावक का नाम विख्यात होता है उन अणुव्रत, गुणव्रत और परधनव्रत में से तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। जिसने इतने जीवों का संहार किया है कि पता नहीं वह कहाँ जाकर विश्राम पायेगा। मैंने इस समय छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं को मारने से निवृत्ति ग्रहण कर ली है। केवल एक तुम्हारे जैसे लोगों के साथ युद्ध करना नहीं छोड़ा। इस प्रकार अपने पिता रावण के पाप कर्म का साथ देकर भी अपने तर्क से अपने आपको महान सिद्ध करने के रूप में इसका पाखण्डी रूप उभरकर आया है।
  12. हम सब भली भाँति समझते है कि मनुष्य जीवन में संगति और आस-पास के वातावरण का बहुत महत्व है। यह भी सच है कि मनुष्य की संगति और उसके वातावरण का सम्बन्ध उसके जन्म लेने से है, जिस पर कि उसका प्रत्यक्ष रूप से कोई अधिकार नहीं। जहाँ मनुष्य जन्म लेगा प्रारम्भ में वही स्थान उसका वातावरण होगा और वहाँ पर निवास करने वालों के साथ उसकी संगति होगी। यही कारण है कि बच्चे पर अधिकांश प्रभाव उसके माता-पिता, भाई- बहिन और यदि संयुक्त परिवार हो तो दादा-दादी और चाचा- चाची का होता है। कईं बार तो बच्चा जिसके सम्पर्क में ज्यादा आता है वह बिल्कुल उसकी अनुकृति ही प्रतीत होता है। क्रिया-कलाप व भावनाओं के स्तर पर वह उनसे बहुत मेल खाता है। आगे चलकर जैसे ही उसका मानसिक विकास होने लगता है, उसका ज्ञान विकसित होने से अपनी निजी क्षमता पल्लवित होने लगती है वैसे वैसे ही वह वह अपने वातावरण से पृथक रूप लने लगता है। यही कारण है कि प्रारम्भिक स्तर पर समान होते हुए भी सभी बचपन के सम्बन्ध आगे चलकर भिन्न-भिन्न रूपों में निजि वैशिष्टता को प्राप्त करते हैं। यहाँ हम देखते है कि एक और राक्षसवंशी लंका सम्राट रावण का भाई विभीषण और दूसरी और रावण का पुत्र इन्द्रजीत। एक ही वातावरण में साथ साथ रहने पर भी अपने निजि ज्ञान के वैशिष्टय के कारण दोनों की मानसिकता में बहुत भेद है। यही कारण है कि विभीषण रावण को राम के लिए सीता को सौपने का आग्रह करता है जबकि इन्द्रजीत रावण सीता राम को लौटा दे इसके पक्ष में नहीं है। यह सही है कि व्यक्ति किसी दूसरे के सहयोग से ही आगे बढता है। जिस समय विभीषण रावण को राम के लिए सीता को सौपने हेतु अपनी विभिन्न युक्तियों से समझा रहा था उस समय यदि बीच में इन्द्रजीत का प्रवेश नहीं हुआ होता तो शायद रावण सीता को राम के लिए सौपने का निर्णय ले लेता और युद्ध नहीं होने से वह मृत्यु को भी प्राप्त नहीं होता और लोक में अपयश का पात्र भी नहीं बनता। मात्र इन्द्रजीत के प्रोत्साहन से रावण ने सीता का राम के लिए नहीं सौपकर युद्ध किया, युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा लोक में अपयश पाया। अब हम पउमचरिउ ग्रंथ के आधार पर हम यह देखते है कि रावण को राम के लिए सीता को नहीं लौटाने देने में इन्द्रजीत की क्या भूमिका थी ? रावण पुत्र इन्द्रजीत बहुत ही पराक्रमी था। सीता हरण से पूर्व राक्षसवंश व विद्याधरवंश के मध्य हुए युद्ध में विद्याधरवंशी जयन्त ने राक्षसवंशी श्रीमालि को मार गिराया, तब अकेले इन्द्रजीत ने भीषण युद्ध कर जयवन्त पर विजय प्राप्त कर ली। सीता हरण के बाद विभीषण ने रावण को उसके वैभव व मान सम्मान को यथावत बना रहने देने तथा परस्त्री रमण के कुफल से बचाने हेतु सीता को राम के लिए सौंप देने का उचित अवसर बताया। तभी इन्द्रजीत ने विभीषण के कथन को अनुचित ठहराकर और अपने द्वारा पूर्व में किये गये साहसी कार्यों का स्मरण दिलाकर अपने आपको हनुमान से युद्ध करने में समर्थ बताया और हनुमान से युद्ध कर उसे नागपाश से बाँध लिया। इस प्रकार उसने रावण को अपने पक्ष में कर लिया। पुनः हंसद्वीप में राम की सेना को आया जानकर विभीषण रावण को आगामी आपदाओं से अवगत करवाकर उसे समझाने का पूरा प्रयास कर रहा था। तभी इन्द्रजीत अपने मन में भड़क उठा और कहा- तुम्हारा कहा हुआ रावण के लिए किसी भी तरह प्रिय नहीं हो सकता। यदि सीता उसे सांैप दी गई तो मैं अपना इन्द्रजीत नाम छोड़ दूंगा। इस तरह उसने विभीषण द्वारा रावण को समझाने के प्रयास को विफल कर दिया। आगे जब राम, सुग्रीव, हनुमान आदि ने अंगद के साथ रावण के पास संधि करने का संदेश भिजवाया तो उस संदेश को सुनकर इन्द्रजीत ने कहा, यदि राम सीता में आसक्ति छोड़ दे तो ही संधि हो सकती है अन्यथा नहीं। इस प्रकार इन्द्रजीत रावण को राम के लिए सीता को नहीं सांैपने देने में रावण का पक्षधर रह रावण के लिए अहितकारी सिद्ध हुआ। अन्त में इन्द्रजीत ने रावण की मृत्यु होने पर संसार की अनित्यता को जानकर दीक्षा ग्रहण कर ली। अतः संगति सदा विेवेकी की ही हितकारी है और अविवेकी की अनर्थकारी। आशा है इस इस से विवेकपूर्ण व्यक्तियों की संगति के महत्व को समझ सकेंगे।
  13. व्यक्ति और समाज का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, तथा व्यक्तियों से मिलकर ही समाज का निर्माण होता है। इस तरह व्यक्ति समाज की एक इकाई है। इस प्रत्येक इकाई का अपना निजी महत्व है। मनुष्य के अकेले जन्म लेने और अकेले मरण को प्राप्त होने से व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्ता का आकलन किया जा सकता है। संसार में भाँति भाँति के मनुष्य हैं, उन सबकी भिन्न- भिन्न विशेषताएँ हैं। अपने आसपास के वातावरण, संगति तथा अपनी बदलती शारीरिक अवस्था के प्रभाव से व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निरन्तर परिवर्तनशील है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सुख शान्ति चाहता है, किन्तु उसका अज्ञान व अज्ञानजनित भय उसके विकास में अवरोध बन जाता है। इस अज्ञान व भय के कारण वह गलत कार्य का विरोध नहीं कर पाता। फलतः उसका जीवन सुख-शान्ति से परे दुःखमय हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने सद्ज्ञान से ही सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता है और सद्ज्ञान से ही व्यक्ति की सद्गुणों पर शृद्धा होती है तथा सद्गुण से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास संभव है। यहाँ हम रामकथा के प्रतिनायक रावण के छोटे भाई विभीषण के जीवन चरित्र के माध्यम से देखेंगे कि जब तक रावण गुणवान था तब तक विभीषण का रावण के प्रति पूर्ण सम्मानभाव ही नहीं बहुत प्रेम भाव था और उसके प्रति अत्यन्त गौरवान्वित था। यहाँ तक की रावण का जरा सा भी अहित हुआ जान विभीषण हर संभव उनकी रक्षा करने में तत्पर रहता था। उस ही विभीषण ने रावण के चरित्रहीन होने पर रावण को बहुत समझाया। बहुत समझाने पर भी नहीं समझने पर अपनी गुणानुराग प्रवृत्ति के कारण चरित्रहीन रावण का साथ छोड़ गुणवान राम के पक्ष में हो गया। अपने सभी सम्बन्धियों का विरोध सहकर विपक्षी से मिलना आसान नहीं होता, किन्तु यह उसकी गुणानुराग रूप एक अद्भुत आत्मशक्ति ही थी जिससे साहस पाकर वह ऐसा कर पाने में सफल हो सका। इस ही साहस के कारण उसने अन्त समय संन्यास धारण कर अपना जीवन कृतार्थ किया। आगे विभीषण के जीवन की घटनाओं के माध्यम से उसकी गुणानुरागता को निम्न रूप में दिखाया जा रहा है, जो सभी के लिए उपादेय है। विभीषण ने सागरबुद्धि भट्टारक से दशरथ के पुत्र राम व लक्ष्मण द्वारा राजा जनक की कन्या सीता के कारण रावण का युद्ध में मारा जाना सुना, तो वह क्रोधित हो उठा और यह कहते हुए कि जब तक रावण तक मृत्यु नहीं पहुँचती तब तक मैं जनक और दशरथ का सिर तोड़ देता हूँ, उनको मारने के लिए चल पड़ा। दशरथ व जनक को भी यह सूचना मिल चुकी थी, इससे उन्होंने अपनी लेपमयी मूर्तियाँ स्थापित करवा दी। विभीषण ने दशरथ व जनक द्वारा निर्मित लेपमयी मूर्तियों का सिर उड़ाकर अपना काम पूरा होना जान लिया। विभीषण अपने बडे़ भाई रावण का बहुत सम्मान करते थे और उनके प्रति गौरवान्वित थे। एक दिन माँ केकशी के द्वारा रावण सेे यह पूछा जाने पर कि तुम्हारे मौैसेरे भाई वैश्रवण ने अपने शत्रुओं से मिलकर अपनी लंकानगरी का अपहरण कर लिया है, हम पुनः कब इस लंकानगरी को प्राप्त कर सकेंगे? तभी रावण के प्रति आश्वस्त विभीषण ने कहा कि रावण के आगे वैश्रवण का क्या ? थोड़े ही दिनों में तुम यम, स्कन्ध, कुबेर पुरन्दर, रवि, वरुण, पवन और चन्द्रमा आदि विद्याधरों को प्रतिदिन रावण के घर में सेवा करते हुए देखोगी। विभीषण ने रावण द्वारा लंका में हरणकर लायी सीता के मुख से राम व लक्ष्मण का जीवित होना जाना तो उसे सागरबुद्धि भट्टारक के कथनानुसार राम, लक्ष्मण के हाथों रावण की मृत्यु होने का समय आने पर विश्वास होने लगा। थोड़ी देर बाद ही उसने हनुमान से भी रावण द्वारा किये सीताहरण के विषय में जाना। तब विभीषण ने रावण को समझाने का भरपूर प्रयास किया। उसने कहा, उत्तम पुरुषों के लिए यह अच्छी बात नहीं, इससे तुम्हारा विनाश तो होगा ही और लोक द्वारा धिक्कारा जाकर लज्जित भी होओगे। रावण के नहीं मानने पर भी रावण की रक्षा के लिए चारों दिशाओं और नगर में आशाली विद्या घुमवाकर नगर को सुरक्षित करवा दिया। पुनः विभीषण ने रावण के चरित्र से डिगने पर उसकी तीव्र भत्र्सना की। उन्होंने कहा, कभी तुम तेजस्वी सूर्य थे परन्तु इस समय तुम एक टिमटिमाते जुगनू से अधिक महत्व नहीं रखते। जिसने पहाड़ के समान अपना चरित्र खण्डित कर लिया वह जीकर क्या करेगा। विभीषण के द्वारा बार-बार समझाया जाने पर भी रावण के नहीं समझने पर उसने हनुमान को कहा - आपके ही समान मैंने भी उसे सौ बार समझाया तो भी महा आसक्त वह नहीं समझता। मैं जो कुछ भी कहता हूँ उसे वह विपरीत लेता है। यदि अब वह अपने आपको इस कर्म से विरत नहीं करेगा तो युद्ध प्रारम्भ होते ही मैं राम का सहायक बन जाऊँगा। इस प्रकार गुणानुरागी विभीषण ने पापकर्म में आसक्त अपने ही भाई रावण को छोड़ने का निर्णय लिया और कुछ समय बाद ही राम की सेना में जाकर मिल गया। गुणानुरागी विभीषण ने राम के पास आकर कहा- आदरणीय राम! आप सुभटों में सिंह हैं, आपने बड़े-बडे़ युद्धों का निर्वाह किया है। जिस प्रकार परलोक में अरहन्तनाथ मेरे स्वामी हैं उसी तरह इस लोक के मेरे स्वामी आप हैं। लंका में विभीषण के व्यवहार से आस्वस्त हुई सीता भी विभीषण के विषय में यही कहती है कि ‘दुर्जनों के बीच में यह सज्जन, नीम के बीच में यह चन्दन और संकट आ पड़ने पर साधर्मीजन वत्सल यह कौन है? रावण की मृत्यु होने पर भी करुण विलाप करते हुए विभीषण राम को यही कहता है कि रावण ने अपयश से दुनियाँ को भर दिया, इसने तप नहीं किया, मोक्ष नहीं साधा, भगवान की चर्चा नहीं की, मद का निवारण नहीं किया और तिनके के समान अपने को तुच्छ बना लिया। इतना ही नहीं विभीषण ने अयोध्या में भी सीता के सतीत्व की पुष्टि करने हेतु सीता के साथ लंका में रही त्रिजटा को बुलवाया। त्रिजटा ने वहाँ आकर सीता के सतीत्व की दृढ़ पुष्टि की। इसके बाद राम से स्वीकृति प्राप्त कर सुग्रीव आदि प्रमुखजनों के साथ विभीषण सीता को अयोध्या ले आये। इस प्रकार गुणानुरागी विभीषण ने सीता के प्रति भी अपना कत्र्तव्य पूरा किया। अन्त में विभीषण ने अपनी गुणानुराग प्रवृत्ति के कारण ही राम के दीक्षा ग्रहण करने पर त्रिजटा के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।
  14. अब तक हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश एवं वानरवंश के पात्रों के माध्यम से रामकथा के संदेश को समझने की कोशिश की। अब राक्षसवंश के प्रमुख पात्र रावण के माध्यम से शीलाचार के महत्व को भी समझने का प्रयास करते हैं। जिस प्रकार रामकाव्य के नायक श्री राम का चरित्र मात्र सीता के परिप्रेक्ष में उनके राजगद्दी पर बैठने से पूर्व तथा राजगद्दी पर बैठने के बाद भिन्नता लिए हुए है वैसे ही रावण का चरित्र भी सीता हरण से पूर्व तथा सीता हरण के बाद का भिन्नता लिए हुए हैं। शीलपूर्वक आचरण को भलीभाँति सरलतापूर्वक समझने हेतु रावण के समस्त जीवन को दो भागों में विभक्त करते हैं। 1. सीताहरण से पूर्व 2. सीताहरण के बाद। इसके माध्यम से हम यह आकलन कर पायेंगे कि शीलाचरण का पालन करते हुए जो रावण एक पराक्रमी सम्राट, करुणावान, धर्मानुरागी, संयमी लोकप्रिय तथा अपनी गलती पर पश्चाताप करनेवाला था वही रावण परस्त्री में आसक्त होकर अपने शीलाचार का उल्लंघन कर विपरीतबुद्धि से दयनीय अवस्था एवं लोकभय से आक्रान्त होकर लोक में निन्दा को प्राप्त हुआ। आशा है यह लेख सभी को अपने व्यक्तित्व के परिष्कार में मार्गदर्शन देगा। 1. सीताहरण से पूर्व रावण जन्म से ही विशाल वक्षस्थल वाला वह रावण ऐसा लगता था जैसे स्वर्ग से कोई देव उतरकर आया हो। कभी गजों के दाँतों को उखाड़ता हुआ, कभी साँंप के मुखों को करतल से छूता हुआ वह बालक बाल्यकाल में अनेक क्रीड़ाएँ किया करता था। बाल्यावस्था में ही रावण ने खेलते हुए भंडार में प्रवेश कर राक्षसवंश के स्थापक तोयदवाहन के हार को लेकर अपने गले में पहन लिया। उसमें उसके दस मुख दिखाई दिये। तभी लोगों ने उसका नाम दसानन रखा। इस कारण यह दसानन के नाम से जाना जाने लगा। रावण ने एक हजार विद्याएँ सिद्ध की हुई जिससे रावण को विद्याधर भी कहा गया। रावण ने स्वयंप्रभ नामक नगर एवं सहस्रकूट चैत्यगृह बनाया तथा चन्द्रहास खड्ग सिद्ध की। रावण ने करुणापूर्वक 6000 गन्धर्व कुमारियों को सुरसुन्दर से मुक्त करवाया तथा यम द्वारा सुभटों को बन्दी बनाकर नरक के समान यातना दिये जाने पर रावण ने उनको मुक्त करवाया। विद्याधर वैश्रवण का मद दूर कर उसे मारकर उसके पुष्पक विमान को प्राप्त किया। भद्र्रहस्ति को सिद्ध कर उसका नाम त्रिजगभूषण रखा। अपने आपको देव कहे जानेवाले विद्याधरवंशी सहस्रार के पुत्र इन्द्र को जो अपने आपको पृथ्वी का इन्द्र कहता था, पराक्रमी रावण ने युद्ध में विरथ कर पकड़ लिया। धर्मानुरागी रावण प्रतिदिन पूजा अर्चना तथा भक्ति किया करता था। विद्याधर इन्द्र से युद्ध करने हेतु प्रस्थान करते समय मार्ग में नर्मदा नदी के पास बालू की सुन्दर वेदी बनाकर, जिनवर की प्रतिमा स्थापित कर रावण ने उनका घी, दूध व दही से अभिषेक किया। मुनियों के प्रति उसके मन में सम्मान का भाव था। रावण ने राजा सहस्रकिरण को युद्ध में पराजित कर पकड़ लिया था। जंघाचरण मुनि द्वारा उसको मुक्त करने के लिए कहा जाने पर उसने ससम्मान उनको मुक्त कर दिया। बालि के समक्ष अपनी निन्दा करने के पश्चात् रावण ने जिनालय में जाकर पूजा एवं भावों से परिपूर्ण संगीतमय भक्ति की, जिसको सुनकर धरणेन्द्र ने उसको अमोघविजय विद्या प्रदान की। दुर्लंघ्यनगर के राजा नलकूबर ने रावण का युद्ध करने आया जानकर अपने नगर को आशाली विद्या से सुरक्षित करवा दिया। रावण के उस नगर में प्रवेश करने पर रावण के यश को सुनकर नलकूबर की पत्नी उपरम्भा उस पर आसक्त हुई। उसने अपनी सखी के साथ रावण के पास उपरम्भा को चाहने एवं बदले में आशालीविद्या, सुदर्शन चक्र व इन्द्रायुध को लेने का प्रस्ताव भेजा। सखी के प्रस्ताव को सुनकर रावण ने आश्चर्यपूर्वक कहा- अहो दुर्महिला का साहस, जो महिला कर सकती है वह मनुष्य नहीं कर सकता। तभी विभीषण ने उसको समझाया कि अभी यहाँ भेद का दूसरा अवसर नहीं है। किसी प्रकार विद्या मिल जाये फिर उपरम्भा को मत छूना। तब रावण ने दूती से आशाली विद्या माँंग ली। युद्ध में विभीषण के द्वारा नलकूबर के पकडे़ जाने पर संयमी दशानन ने उपरम्भा को नहीं चाहा तथा नलकूबर से अपनी आज्ञा मनवाकर उपरम्भा के साथ उसको राज्य भोगने दिया। विद्याधरवंशी इन्द्र के गुप्तचर ने रावण के गुणों का कथन इस प्रकार किया है - रावण युद्ध में अचिन्त्य है। वह मंत्र और प्रभुशक्ति से युक्त चारों विद्याओं में कुशल है। 6 प्रकार के बल व 7 प्रकार के व्यसनों से मुक्त है। प्रचुरबुद्धि, शक्ति, सामथ्र्य और समय से गम्भीर है। 6 प्रकार के महाशत्रुओं का विनाश करनेवाला, 18 प्रकार के तीर्थों का पालन करनेवाला है। उसके शासनकाल में सभी स्वामी से सम्मानित हैं। उनमें कोई क्रुद्ध, भीरु व अपमानित नहीं है। नीति के बिना वह एक भी कदम नहीं चलता। दिन और रात को 16 भागों में विभक्त कर अपनी क्रियाएँ करता है। अपने एकाधिकार के आकांक्षी रावण ने बालि को अपना अहंकार दूर कर अधीनता स्वीकार कर राज्य का भोग करने हेतु कहा किन्तु बाली का अपने प्रति उपेक्षा भाव जानकर उससे युद्ध किया, जिसमें रावण पराजित हुआ।तदनन्तर बालि ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। एक दिन आकाश मार्ग से जाते हुए रावण का पुष्पक विमान मुनि बाली की तप शक्ति से रुक गया। तब क्राेिधत हुए रावण अपनी विद्याओं के चिन्तन से कैलाश पर्वत को उखाड़ लिया। पहाड़ के हिलते ही चारों समुद्रों में भयंकर उथलपुथल मची। तभी धरणेन्द्र अवधिज्ञान से यह सब होना जानकर वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जैसे ही बालिमुनि को प्रणाम किया वैसे ही कैलाशापर्वत नीचा हुआ। रावण के पर्वत के नीचे दबने से उसके मँुह से रक्त की धारा बह निकली। रावण के क्रन्दन करने पर समस्त अन्तःपुर सहित मन्दोदरी ने आकर धरणेन्द्र से अपने पति के प्राणों की भीख माँंगी। मन्दोदरी के करुण वचन सुनकर धरणेन्द्र ने धरती को ऊपर उठा दिया जिससे रावण बच गया। तब रावण ने तपश्चरण में लीन बालि के पास जाकर क्षमा याचना की। मुनि अनन्तवीर ने रावण को मोहान्धकार से छूटने हेतु कोई एक व्रत ग्रहण करने के लिए कहा तो रावण ने व्रत ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ बताया। तब मुनि के बहुत कहने पर रावण ने बहुत सोचने के बाद एक व्रत ग्रहण किया कि ‘जो सुन्दरी मुझे नहीं चाहेगी उस परस्त्री को बलपूर्वक ग्रहण नहीं करूँगा।’ उसके बाद रावण अपने भानजे शम्बुकुमार का वध होना सुन अपने बहनोई खरदूषण का युद्ध में साथ देने गया। जैसे ही रावण दण्डकारण्य में पहुँचा, वहाँ उसे सीता दिखाई दी। उसके सौन्दर्य पर आसक्त हो रावण ने यह मान लिया कि जब तक मैं इसे नहीं पा लेता तब तक मेरे इस शरीर को सुख कहाँ। काम के तीरों से आहत वह काम की दसों अवस्थाओं को प्राप्त हुआ। तदनन्तर रावण ने अवलोकिनी विद्या से सीता का अपहरण करने का उपाय पूछा। विद्या ने उसे सीता की प्राप्ति होना बहुत कठिन बताया तथा उसके दुष्परिणामों से भी अवगत कराया। किन्तु रावण के दृढ़ संकल्प को देखकर अवलोकिनी विद्या ने उसे सीता को हरण करने का उपाय बताया। उस उपाय से रावण ने सीता का हरण कर लंका की ओर प्रस्थान किया। 2. सीताहरण के बाद रावण - रावण लंका की ओर जाते हुए मार्ग में सीता के सामने एक दयनीय रूप में गिड़गिड़ाया - हे पगली, तुम मुझे क्यों नहीं चाहती, क्या मैं असुन्दर हूँ और उसका आलिंगन करना चाहा, किन्तु सीता के कठोर वचनों से दुःखी होकर रावण ने सोचा, यदि मैं इसे मार डालता हूँ तो मैं इसे देख नहीं सकूँंगा, अवश्य ही किसी दिन यह मुझे चाहेगी। रावण ने सीताहरण से पूर्व अपने पराक्रम से इन्द्र जैसे पराक्रमी राजा को भी अपने वश में किया था, तथा वानरवंशी राजाओं
  15. रामकथाके माध्यम से हम अब तक इक्ष्वाकु, विद्याधर, वानर व राक्षसवंश से परिचित हो चुके हैं। उसमें हमने देखा कि सभी वानरवशी राजा पहले राक्षसवंश के साथ थे तथा दोनों में परष्पर मैत्री सम्बन्ध रहा है किन्तु रावण द्वारा सीता का हरण किये बाद वानरवंश इक्ष्वाकुवंशी राम के साथ हो गया। अब हमें यह देखना है कि इन वानरवंशियों में मात्र एक राजा था जिसकी रावण से शत्रुता हुई वह राजा था बालि। सब के साथ रहकर भी अकेला बालि किस प्रकार स्वबोध में पूर्णता को प्राप्त था, यह हम देखते है पउमचरिउ में वर्णित बालि के जीवन कथन में। काव्य में बालि की शक्ति के विषय में इस प्रकार उल्लेख मिला है -उसके पास जो कंठा है वह त्रिभुवन में किसी दूसरे आदमी के पास नहीं है। सूर्य अपना रथ और घोड़े जोतकर एक योजन भी नहीं जा पाता जब तक वह मेरु की प्रदक्षिणा देकर और जिनवर की वन्दना करके वापस आ जाता है। उसके पास जो सेना है वह इन्द्र के पास भी नहीं है। अमर्ष से भरकर वह सुमेरुपर्वत को चलायमान कर सकता है। उसकी तुलना में दूसरे राजा तृण के समान हैं। कैलाश पर्वत पर जाकर उसने निर्ग्रन्थ मुनि को छोड़कर किसी और को नमस्कार नहीं करने का व्रत ले लिया है। उसे दृढ़ देखकर उसके पिता सूर्यरज ने भी प्रव्रज्या ग्रहण कर ली कि इस कारण कहीं रावण से मेरा युद्ध नहीं हो जाये।’ अपने व्रत का निर्वाह करने के कारण एक दिन बाली ने रावण की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया, इससे बाली व रावण के मध्य युद्ध हुआ। उसे युद्ध में बालि ने रावण को पराजित कर दिया। उसके बाद बालि ने सुग्रीव को कहा- ‘मेरा सिर त्रिलोकाधिपति को प्रणाम करने के बाद अब यह किसी दूसरे को नमस्कार नहीं करता, अब तुम स्वतन्त्र होकर राज्यश्री का उपभोग करो।’ यह कहकर बालि ने गगनचन्द नामक गुरु से तपश्चरण ग्रहण कर तथा अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों को धारण कर अष्टापद शिखर पर चढ़कर आतापिनी शिला पर स्थित हो गये। अचानक उधर से ही गुजर रहे रावण का पुष्पक विमान बालि मुनि की तपस्या के तेज से रुक गया। तब क्रोधित होकर रावण ने बालि मुनि को ललकारा कि मुनि अवस्था में भी तुम क्रोधाग्नि की ज्वाला में जल रहे हो और उसके बाद रावण ने कैलाश पर्वत को उखाड़कर समुद्र में फेंक दिया, जिससे पृथ्वी पर भयंकर उपद्रव हो उठा। तभी बालीमुनि पर उपसर्ग हुआ जानकर पाताललोक का नागराज वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जैसे ही बालिमुनि की प्रदक्षिणा कर उनको प्रणाम किया वैसे ही कैलाश पर्वत नीचा हो गया और रावण के दसों मुख से रक्त की धारा बह निकली। पीड़ित दशानन के हाहाकार से समस्त अन्तःपुर हाहाकार कर उठा। मन्दोदरी के द्वारा नागराज धरणेन्द्र से पति के प्राणों की भीख माँगने पर नागराज ने धरती उठा ली। तब रावण ने बालि मुनि के पास जाकर उनकी वन्दना की और अपने द्वारा किये गये उपसर्ग के प्रति बालि मुनि से क्षमायाचना की। इस प्रकार हम देखते हैं कि वानरवंश में बालि ही एक ऐसा पात्र था जिसे स्वचेतना की किंचित भी परतन्त्रता मान्य नहीं है और अपनी इस ही विशिष्टता के कारण उसने रावण को भी क्षमायाचना करने हेतु विवश किया।
  16. हम पुनः वंदन करते हंै, आचार्य रविषेण, आचार्य विमलसूरि, कवि स्वयंभू, तुलसीदास आदि अन्य सभी रामकाव्यकारों को जिन्होंने राम काव्य की रचना कर मानव के कल्याण हेतु मार्ग प्रदर्शित किया। आगे हम रामकाव्य के जाम्बवन्त पात्र का कथन करते हैं, जिसने राम को सीता की प्राप्ति में सहयोग दिया। काव्य के प्रारम्भिक काण्डों में जाम्बवन्त के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। मात्र 67वीं संधि के 14वें कडवक में सुग्रीव द्वारा की गई व्यूह रचना में जाम्बवन्त का उल्लेख इस प्रकार मिलता है- जो बुद्धि में सबसे बड़ा था और जिसकी पताका में भयंकर रीछ अंकित था, पेड़ांे के अस्त्र लिए वह जम्बू (जाम्बवन्त) सातवें दरवाजे पर स्थित हो गया। इससे लगता है कि यह भी वानरवंशियों के समान किसी ऐसे समुदाय से सम्बन्धित था जिनका रीछ से कोई न कोई सम्बन्ध रहा हो साथ ही वानरवंशियों के आसपास ही इनका निवास होना चाहिए। इनकी विशाल बुद्धि के कारण ही अपने आस पास की सम्पूर्ण जानकारी इनके पास होती है। किष्किन्धानरेश सुग्रीव, माया सुग्रीव से पराजित होकर सहायतार्थ राम के पास आते हैं, तब जाम्बवन्त ही सुग्रीव के विषय में समस्त वृत्तान्त बताकर राम को आश्वस्त करते हैं तथा जब सुग्रीव को राम, लक्ष्मण व रावण के चरित्र के विषय में सन्देह उत्पन्न होता है तब जाम्बवन्त ही रावण की अपेक्षा राम व लक्ष्मण के चरित्र को श्रेष्ठ बताकर सुग्रीव की भ्रान्ति का निराकरण करते हैं। उसके बाद ही सुग्रीव, रावण को छोड़कर राम की शरण लेने का निश्चय करते हैं। सुग्रीव के द्वारा सीतादेवी की खोज करने में समर्थ व्यक्ति के विषय में पूछा जाने पर जाम्बवन्त ने ही सुग्रीव को हनुमान का नाम सुझाया। उसने कहा, ‘हनुमान को छोड़कर यह काम कौन कर सकता है ? हनुमान के मिलने से अशेेष जग मिल जायेगा, जयलक्ष्मी के साथ विजय उसी की होगी जिसके पक्ष में हनुमान होगा, शायद खरदूषण व शम्बूक के मारे जाने के क्रोध को लेकर हनुमान रावण से मिल जाये, यदि जानते हो तो उसे लाने का उपाय सोचो।’ जाम्बवन्त के इस परामर्श को सुनकर सुग्रीव ने दूत को हनुमान के पास भेजा। इसप्रकार जाम्बवन्त के कारण ही हनुमान राम को मिल सके। रावण से युद्ध करने के लिए प्रस्थान करते समय राम को मार्ग में गन्धोदक, चन्दन, नग्नसाधु, सफेद गज, अनुकूल पवन आदि शुभ शकुन दिखाई दिये। इनको देखकर जाम्बवन्त ने राम को उनका गमन सफल होना बताया। राम ने जाम्बवन्त से अपनी सेना के प्रमुख लोगों के कार्यक्षेत्र के विषय में पूछा। तब जाम्बवन्त ने आज्ञापालन में सुसेन, विनय में कुन्द, पंचांग मंत्र में मतिसमुद्र, दूतकार्य में अंग व अंगद, प्रस्थान के समय नल और नील, युद्ध करने में लक्ष्मण व हनुमान तथा विजयकाल में राम व लक्ष्मण को समर्थ बताया। यह सुनकर राम ने दूत का कार्यभार अंगद को सांैपते हुए उसे रावण के पास संधि करने का प्रस्ताव लेकर भेजा। राम व रावण के बीच निरन्तर चल रहे युद्ध में जाम्बवन्त ने देवताओं के लिए भी अभेद्य पंचव्यूह की रचना की। इस प्रकार हमने इसमें देखा कि सफलता की प्राप्ति हेतु कितने प्रकार के सहयोग की आवश्यक्ता होती है तथा विभिन्न प्रकार के सहयोग से ही कार्य सिद्धि संभव है। जाम्बवन्त का भी राम को सीता की प्राप्ति कराने में अद्भुत् योगदान रहा है।
  17. मैं’ अहंकार की प्रबलता का द्योतक है, अहंकार जीवन के पतन का कारण है, समर्पण अहंकार के पतन का कारण है तथा अहंकार व समर्पण रहित जीवन निर्विकल्प शान्ति का कारण है। भरत चक्रवर्ती अहंकार के कारण चक्रवर्ती होकर भी अपने ही भाई बाहुबलि से पराजित हुए तथा उस भाई के आगे ही समर्पित होकर निर्विकल्प शान्ति प्राप्त की। बाहुबलि ने भरत के आगे समर्पण नहीं कर अपने ही भाई से युद्ध किया उसके बाद संसार सुखों को तुच्छ समझकर उनके प्रति समर्पित हो प्रव्रज्या ग्रहण कर निर्विकल्प शान्ति की प्राप्ति की। हनुमान ने अपने आपको राम के आगे समर्पित कर सुख की प्राप्ति की और अन्त में वैराग्य धारण कर निर्वाण प्राप्त किया। इन सब जीवन चरित्रों में हम अहंकार और समर्पण भाव को ही मुख्यरूप से देखते हैं। अतः अहंकार और समर्पण को अच्छी तरह समझना आवश्यक है। ‘मैं’ अपनों में सबसे श्रेष्ठ हूँ, ‘मैंने’ ही यह किया है, ‘मैं’ नहीं होता तो ऐसा नहीं हो सकता था, अमुक व्यक्ति मेरे अधीनस्थ रहे, आदि आदि अहंकार के द्योतक हैं उसी प्रकार स्वयं में सामथ्र्य की कमी होने के कारण तथा अनुचित कार्य के लिए किया गया समर्पण भी दासता /गुलामी का द्योतक है। समर्पण सद्भाव से सही जगह पर किया गया ही कार्यकारी होता है। ऐसा समर्पण करनेवाला ही आगे वैराग्य के मार्ग पर अग्रसर हो मोक्षगामी होता है। हनुमान का समर्पण सेसा ही निस्वार्थ भाव से सही जगह किया गया उच्चकोटि का समर्पण है जिसे हम उनके जीवन के कथन में देखने का प्रयास करते हैं। हनुमान पवनंजय एवं अंजना के पुत्र थे। गर्भवती अंजना को उसकी सास केतूमति ने कलंक लगाकर घर से निकाल दिया। तब अंजना ने वन की पर्यकगुफा में इनको जन्म दिया। तभी आकाश मार्ग से जाते हुए हनुरूह द्वीप के राजा प्रतिसूर्य ने वहाँ आकर अंजना का समस्त वृत्तान्त जाना और अपने को अंजना का मामा होना बताकर अंजना व उसके पुत्र को विमान में अपने नगर ले जाने लगे। तभी मार्ग में वह बालक विमान से नीचे शिलातल पर गिर पड़ा, जिससे वह शिला चूर-चूर हो गई किन्तु वह बालक उस पर सुख से पड़ा रहा। प्रतिसूर्य राजा ने वहाँ से उसे लेकर और अपने नगर ले जाकर उसका जन्म-महोत्सव मनाया। तब वह बालक सुन्दर होने के कारण सुन्दर, उसके द्वारा शिलातल को चूर्ण किया जाने के कारण श्रीशैल तथा हनुरूहद्वीप में उसका लालन पालन होने के कारण हनुवन्त नाम से जाना गया। रावण और वरुणविद्याधर के मध्य हुए युद्ध में हनुमान रावण के पक्ष में रहकर विद्याधरों से लड़ा तथा रावण को वरुण से मुक्त करवाकर वरुण को पकड़ लिया। तब हनुमान के पराक्रम से प्रसन्न होकर सुग्रीव ने अपनी कन्या पद्मरागा, खर ने अपनी कन्या अनंगकुसुम तथा नल व नील ने अपनी कन्या श्रीमालिनी हनुमान को दी। सुग्रीव ने हनुमान को राम के पक्ष में करने के लिए हनुमान के पास दूत भेजा और अपना स्मरण करना बताया।दूत के मुख से हनुमान ने चन्द्रनखा का खोटा आचरण सुना तो वे लज्जित होकर मुख नीचा करके रह गये। पुनः जब लक्ष्मण द्वारा कोटिशिला को चलायमान किया जाना तथा राम द्वारा माया सुग्रीव का वध होना जाना तो गुणानुरागी हनुमान प्रसन्न हो उठे। दूत से सुग्रीव द्वारा स्मरण किया जानकर हनुमान ने ससैन्य सुग्रीव से मिलने के लिए उस ही समय प्रस्थान कर दिया। हनुमान किष्किन्धापुर में आकर राम से मिले तब राम ने कहा, पवनपुत्र के मिलने पर हमें त्रिलोक ही मिल गया। यह सुनकर सहज स्वभावी हनुमान ने कहा, आपके अनेकों सुभट प्रधानों में मेरी क्या गिनती? तब भी आदेश दीजिए युद्ध में किसके अहंकार को नष्ट कर लोक में आपके यश का डंका बजाऊँ। तभी जाम्बवन्त ने हनुमान को सीता की खोज कर राम का मनोरथ पूरा करने के लिए कहा।हनुमान राम का सन्देश व अँगूठी लेकर सीता की खोज के लिए चल पडे़। इस प्रकार हनुमान जो पहले रावण के सद्गुणों के प्रति समर्पित था वहीं हनुमान अब रावण को चरित्रहीन होना जान राम के प्रति समर्पित हो गया। उसके बाद सीता की खोज में निकले हनुमान ने अवलोकिनी विद्या से अपनी माँ अंजना को प्रसवकाल में राजा महेन्द्र द्वारा भीषण वन में छुड़वाया जाना सुना। यह सुनकर हनुमान क्रुद्ध होकर महेन्द्रराज से युद्ध में भिड़ गये। युद्ध में महेन्द्रराज का मानमर्दन करने के पश्चात् विनयवान हनुमान ने अपने को उनका नाती बताकर उनसे क्षमायाचना कर ली। हनुमान ने वन में अंगारक द्वारा लगाई गई आग को अपनी विद्या से शान्त कर कन्याओं व मुनियों की रक्षा की। उसके बाद हनुमान ने लंकानगरी में प्रवेश करके लंका की रक्षा में नियुक्त आशााली विद्या को परास्त किया। वज्रायुध को युद्ध में मार गिराया तभी वज्रायुध की पत्नी लंकासुन्दरी ने आकर हनुमान को युद्ध करने के लिए ललकारा। लंकासुन्दरी ने हनुमान पर तीरों के साथ अनेक आयुध छोडे़। वे सभी तीर हनुमान के ऊपर असफल हो गये जिससे पराक्रमी हनुमान युद्ध में अजेय हो गया। युद्ध में हनुमान के अजेय होने पर लंकासुन्दरी हनुमान पर आसक्त हो गई। उसने हनुमान से पाणिग्रहण करने के भाव से एक तीर पर अपना नाम अंकित कर उसके पास भेजा। लंकासुन्दरी के अक्षरों को देखकर सहृदयी हनुमान का हृदय व्याकुल हो उठा तथा प्रत्युत्तर में स्नेह प्रकट करने हेतु तीर पर अपना नाम लिखकर लंकासुन्दरी के पास भेजा। बाण देखकर परस्पर आसक्त हो दोनों ने वहीं विवाह कर लिया। लंका में प्रवेश कर हनुमान ने लंका के उद्यान के अनेक वृक्षों को तहस-नहस कर चारों दिशाओं के चारों उद्यानपालों को मार गिराया। लंका में सीता के मन में हनुमान के प्रति सन्देह होने पर हनुमान ने रामके वनवास से लेकर लंकासुन्दरी को अपने वश में करने तक की समस्त घटना सीता को बताई और अपने आपको राम के दूत के रूप में सीता को पूरी तरह आश्वस्त किया तथा अचिरा के द्वारा विभीषण के घर से तथा इरा के द्वारा लंकासुन्दरी के घर से भोजन मँगवाकर 21 दिन से भूखी सीता को भोजन करवाया। तब हनुमान ने विभीषण को रावण द्वारा सीता का हरण किया जाने की सूचना दी। यह जानकर विभीषण ने रावण के कामासक्ति से विरत नहीं होने पर स्वयं का राम के पक्ष में मिलने हेतु कहा। रावण द्वारा निष्काषित विभीषण राम से आकर मिले तब हनुमान ने विभीषण को सज्जन, विनीत, सत्यवादी व जिनधर्मवत्सल बताकर उनके प्रति राम को आश्वस्त किया। उसके बाद हनुमान ने रावण को परस्त्री भोग के दुःखद परिणाम बताकर तथा जैनधर्म की मूल 12 अनुप्रेक्षाओं एवं 10 धर्म का हृदयस्पर्शी कथन कर राम के लिए सीता को सौंपने हेतु समझाने का अन्तिम प्रयास किया। हनुमान का यह मर्मज्ञ कथन रावण के मन में गड़ गया। तब वह परद्रव्य व परस्त्री में किसी भी तरह का सुख नहीं होना विचारकर सीता को राम के लिए सौंप देने का विचार करने लगा। राम व रावण की सेनाओं के मध्य चल रहे भीषण युद्ध में राम की सेना को नष्ट होती देख हनुमान ने सुग्रीव को राम व लक्ष्मण के पास भिजवाया तथा स्वयं शत्रुसेना से युद्ध में भिड़ गये। हनुमान ने युद्ध में वज्रोदर व मालि को मार गिराया। युद्ध में रावण की शक्ति द्वारा लक्ष्मण के आहत होने पर हनुमान ने सूर्योदय से पूर्व औषधि के रूप में विशल्या का गंधजल लाकर लक्ष्मण को जीवन दान दिया। राम ने रावण से युद्ध कर सीता को पुनः लोक अपवाद के कारण अपने राज्य से निष्काषित कर दिया। तब हनुमान ने सीता के साथ लंका में रही लंकासुंदरी को सीता के सतीत्व की पुष्टि करने हेतु बुलवाया। लंकासुंदरी ने वहाँ आकर सीत
  18. आगम के अनुसार पुण्य से सुख की प्राप्ति तथा पाप से दुःख की प्राप्ति निश्चित है। इसका सीधा सा मतलब है जो क्रिया स्वयं को तथा दूसरे को सुख दे वह क्रिया पुण्य देने वाली है किन्तु इसके विपरीत जो क्रिया स्वयं के साथ दूसरे के लिए भी दुखदायी हो वह क्रिया पाप देनेवाली है। आगम में पाँच पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) तथा चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) को जो मानव का अहित करनेवाली है उनको अशुभ क्रिया के अन्तर्गत रखा गया है और क्षमा, विनय, सहजता, सत्य, निर्मल, संयम, तप, त्याग, सीमित परिग्रह, शीलव्रत का पालन को शुभ क्रिया में स्थान दिया गया है। रावण ने राम की पत्नी का अपहरण कर स्वयं के शीलव्रत को दूषित किया, राम के गृहस्थधर्म के आधार को उनसे अलग कर उनके लिए दुःख उत्पन्न किया। वानरवंशी राजा सुग्रीव व हनुमान आदि नेे जब रावण द्वारा सीता का हरण किया जाना सुना तो उनके मन में एक विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी। अब तक जो वानरवंशी राजा, राक्षसवंशी रावण आदि के पक्ष में रहकर विद्याधरों से युद्ध करते आये थे तथा विद्याधरों से डरे हुए वानरवंशियों की रावण आदि राक्षसवंशी राजाओं ने सदैव सहायता कर रक्षा की थी, अब उन वानरवंशियों के लिए राम के लिए रावण से लडना कितना कठिन काम था। लेकिन हनुमान आदि वानरवंशियों ने सद्चरित्र के आधार पर निर्णय कर रावण के विरुद्ध नल, नील, अंग, अंगद आदि की सेना सहित राम का सहयोग करना उचित समझा। यही है चारित्र की महत्ता। चारित्रवान ही चारित्र की रक्षा कर सकता है तथा चारित्रवानों के संगठन से ही बुराई का विनाश सम्भव है। आगे हम देखते हैं, किस प्रकार नल, नील, अंग व अंगद ने राम को सहयोग प्रदान किया। नल व नील वानरवंशी ऋक्षुरज के तथा अंग व अंगद सुग्रीव के पुत्र थे। सुग्रीव के आदेश पर नल, नील, अंग व अंगद ने अपने अपने सैन्य सहित सीता की तलाश करने हेतु पश्चिम की ओर प्रस्थान किया। सीता के विषय में जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् जब राम रावण से युद्ध करने निकले तब भी ये सब अपने अपने सैन्य सहित उनके साथ गये। मार्ग में वेलन्धरनगर पहुँचने पर वहाँ के सेतु और समुद्र नामक दो विद्याधर राम की सेना से युद्ध करने के लिए स्थित हो गये। तब नल ने समुद्र को और नील ने सेतु को युद्ध में पराजित कर राम के चरणों में लाकर रख दिया। राम व रावण की सेना के मध्य हुए युद्ध में नल हस्त से और नील प्रहस्त से भिड़ गया। नल ने हस्त को घायल कर दिया तथा नील ने प्रहस्त को मार गिराया। राम जब लंका से सीता को प्राप्त कर अयोध्या लौटकर आये तब भामण्डल, किष्किन्धाराज, विभीषण आदि के साथ नल व नील ने भी राम का राज्याभिषेक किया। राम के द्वारा अंग व अंगद को दूत का कार्यभार सौंपने पर दोनों ने दूत के कत्र्तव्य का सफलतापूर्वक निर्वाह किया तथा रावण के साथ हुए युद्ध में भी दोनों ने राम का पूरा साथ दिया। अंगद ने हनुमान को कुम्भकर्ण से मुक्त करवाया। लक्ष्मण की औेषधि रूप में विशल्या का गन्धजल लाने के लिए अंगद हनुमान का सहायक बनकर अयोध्या गया। रावण द्वारा बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने हेतु साधना किया जाने पर राम की सेना में सर्वनाश का भय उत्पन्न हुआ। तभी अंग और अंगद ने रावण के पास पहुँचकर उसमें क्षोभ उत्पन्न करने का प्रयास किया। तब उसके हाथ से अक्षमाला छीनकर उसको झूठे तप व ध्यान से लोगों को भ्रमित करनेे के लिए फटकारा तथा दूसरों की स्त्री का अपहरण करने से शान्ति मिलना असम्भव बताया। राम जब लंका से सीता को प्राप्त कर अयोध्या लौटकर आये तब भामण्डल, किष्किन्धाराज, विभीषण आदि के साथ अंग व अंगद ने भी राम का राज्याभिषेक किया। इस प्रकार सब के सहयोग से ही राम सीता को प्राप्त कर सके।
  19. हम सर्वप्रथम वंदन करते हैं, हमारे धर्माचार्यों एवं साधु सन्तो को, उसके बाद पुनः वंदन करते हैं ज्ञान के धनी विद्वानों को। धर्माचार्यों एवं विद्वानों ने ही निरन्तर साधना से ज्ञान अर्जित कर उस ज्ञान को सबके लिए समर्पित कर दिया। आज हम उस ज्ञान से किंचित मात्र भी कुछ ग्रहण कर सके हैं तो यह उनकी साधना का ही फल है। जैन रामकथा लिखने का श्रेय भी धर्माचार्यों व विद्वान को ही जाता है। प्राकृतभाषा में पउमचरियं की रचना आचार्य विमलसूरि द्वारा, संस्कृतभाषा में पद्मपुराण की रचना आचार्य रविषेण द्वारा तथा अपभ्रंशभाषा में पउमचरिउ की रचना विद्वान कवि स्वयंभू द्वारा की गयी है। इन तीनों रामकथाओं की कथावस्तु का आधार समान ही है मात्र भेद है तो एक गृहस्थ और मुनि की दृष्टि का। यही कारण है कि आचार्य रविषेण व आचार्य विमलसूरी की रामकथा बहुत कुछ साम्य रखती है जबकि स्वयंभू का पउमचरिउ पद्मपुराण के आधार से लिखा होने पर भी अभिव्यक्ति में पार्थक्य लिए हुए है। विमलसूरि रविषेण धर्माचार्य हैं तथा स्वयंभू एक गृहस्थ विद्वान हैं। धर्माचार्यों से विद्वानों ने सीखा और विद्वानों से हम सामान्यजन कुछ सीख पाते हैं। आगे हम स्वयंभू के पउमचरिउ में राम के सहयोगी सुग्रीव पर प्रकाश डालते हैं। राजा सहस्रगति ने किंिष्कधानरेश सुग्रीव का मायावी रूप धारण कर किष्ंिकधानरेश सुग्रीव की पत्नी का अपहरण कर लिया। फलस्वरूप दोनों में युद्ध हुआ। तब मायावी सुग्रीव से पराजित होकर सुग्रीव राम की सहायता लेने गये। वहाँ पहुँचकर सुग्रीव ने जाम्बवन्त के मुख से रावण लक्ष्मण में से लक्ष्मण का चरित्र अच्छा होना जाना तथा लक्ष्मण को कोटिशिला को संचलित करते देखा। तब विवेकपूर्ण परीक्षा करके ही सुग्रीव ने अपना सारा दुःख राम को बताया। सुग्रीव का पूरा वृत्तान्त सुनकर राम ने भी उसको अपना पत्नीहरण का दुःख बताया। तब दोनों ने सात दिन के अन्दर एक दूसरे की पत्नी को ढूंढ निकालने की प्रतिज्ञा की। राम ने उस प्रतिज्ञा को सातवें दिन पूरा कर दिखाया किन्तु सुग्रीव राजभोगों में आसक्त होकर राम के साथ किये गये संकल्प व उपकार को भूल गये। तब राम ने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास उसके द्वारा सीता को लाने हेतु किये गये संकल्प को याद दिलाने के लिए भेजा। लक्ष्मण की बात सुनकर सुग्रीव का हृदय विदीर्ण हो गया। वे उनके चरणों में गिर पडे़ और अपनी निन्दा कर क्षमायाचना की। उसके बाद सुग्रीव अपनी सेना लेकर सीता की खोज करने निकल पडे़। मार्ग में उन्हें रत्नकेशी से रावण द्वारा सीता का हरण किया जाने की जानकारी मिली।तब सुग्रीव उसे राम के पास ले आये। रत्नकेशी के मुख से सीता के विषय में जानकर राम रावण से सीता को प्राप्त करने की तैयारी में लग गये। सर्वप्रथम सुग्रीव ने हनुमान को रावण के पक्ष से हटाकर राम के पक्ष में करने हेतु दूत को उसके पास यह कहकर भेजा कि ‘खरदूषण व शम्बूककुमार अपने खोटे आचरणों से मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, इसमें राम व लक्ष्मण का दोष नहीं है। चन्द्रनखा के कुत्सित आचरण ने ही खरदूषण को मरवाया है।’ साथ ही कोटिशिला का उद्धार, माया सुग्रीव का मरण व राम को आठवां नारायण होने की बात भी हनुमान को बताने के लिए कहा। दूत ने वहाँ जाकर हनुमान को सुग्रीव द्वारा कहा हुआ सारा वृत्तान्त सुनाया। यह सब जानकर पुलकित बाहु हनुमान वहाँ से प्रस्थान कर राम के पास पहुँचे। इस प्रकार सुग्रीव के कारण ही हनुमान राम के पक्ष में हुए। ससैन्य राम के वेलंधर नगर पहुँचते ही वहाँ के सेतु और समुद्र दो विद्याधर सामने आकर स्थित हो गये तथा उनको लंका के सम्मुख आगे बढ़ने से रोकने लगे। तब सुग्रीव ने राम को उन विद्याधरों का रावण का अनुचर होना तथा नल व नील को ही उनका प्रतिद्वन्द्वी होना बताया। यह सुनकर राम ने नल व नील को सेतु व समुद्र से लड़ने का आदेश दिया। शीघ्र्र ही नल ने समुद्र को व नील ने सेतु को पराजित कर राम के चरणों पर लाकर रख दिया। दोनों विद्याधरों ने राम की अधीनता स्वीकार कर ली। रावण के साथ युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व सुग्रीव ने ऐसा व्यूह बनाया कि उसमें सुराख भी न मिल सके। वह व्यूह सबके लिए अत्यन्त भयानक एवं दुष्प्रवेश्य था। उन्होंने चारों दिशाओं में सात-सात कुल 28द्वार बनाये। प्रत्येक द्वार पर राम के एक-एक प्रमुख योद्धा को नियुक्त किया। उसके बाद युद्ध में सुग्रीव ने राम की सेना के योद्धाओं को धराशायी होते देखा तो वे युद्धक्षेत्र में आकर रावण की सेना से भिड़ गये। सुग्रीव के द्वारा प्रतिबोधन अस्त्र छोड़ा जाने पर राम की सोयी हुई सेना जागकर पुनः शत्रु सेना के सम्मुख दौड़ने लगी। इस प्रकार सुग्रीव ने युद्ध में राम का पूरा सहयोग किया। तदनन्तर राम लंका से सीता को प्राप्त कर अयोध्या लौटकर आये तब भामण्डल व विभीषण के साथ सुग्रीव ने राम का राज्याभिषेक किया। इस प्रकार जैसे राम ने सुग्रीव को उसकी पत्नी सुतारा को प्राप्त करवाया सुग्रीव ने भी राम को सीता की प्राप्ति में अपना पूरा सहयोग दिया। सुग्रीव जैसे विवेकी सहयोगी का राम को सीता की प्राप्ति कराने में अद्भुत् योेगदान रहा है। यहाँ हमने देखा कि सहयोग की भावना तभी कामयाब होती है जब सहयोग लेनेवाला व सहयोग देनेवाला दोनों ही पक्ष समान स्तर पर प्रबल होते हैं। यदि प्रबल नहीं भी हो तो प्रबल बनाया भी जा सकता है, जैसे राम ने राजभोगों में आसक्त हुए सुग्रीव को जगाकर बनाया। सहयोग ही किसी भी काम की सिद्धि का आवश्यक तत्त्व है।
  20. आगम में धर्म दो प्रकार का बताया गया है- 1 गृहस्थ धर्म 2. मुनि धर्म। गृहस्थ धर्म का उद्भव युवक -युवती का विवाह सूत्र में बंधकर पति-पत्नि का सम्बन्ध जुडने से प्रारम्भ होता है। इसीलिए विवाह को एक पवित्र व धार्मिक संस्कार की संज्ञा दी है। जबकि मुनि धर्म अंगीकार करने में युवती का कोई स्थान नहीं वहाँ मोक्षरूा लक्ष्मी की ही चाह रहती है। गृहस्थ धर्मं का भली भाँति निर्वाह पति-पत्नि दोनों के चारित्र पर निर्भर है। दोनों का चारित्र एक दूसरे की सुरक्षा, एक दूसरे को सद्मार्ग में चलने पर सहयोग करने पर ही फलता -फूलता है। राम और सीता ने भी वैवाहिक जीवन में राम के राज्यपद प्राप्त करने से पूर्व तक अपने गृहस्थ धर्म का भली भाँति निर्वाह किया। राम के द्वारा वनवास अंगीकार करने पर वनवास पर्यन्त राम का सहयोग करने के कारण सीता ने भी राम के साथ वनवास अंगीकार किया। दोनों ने वनवास पर्यन्त एक दूसरे की इच्छा का पूरा ध्यान रखा। अकस्मात् राम लक्ष्मण की सहायता के लिए सीता को अकेला छोडकर कुछ समय के लिए चले गये तब सीता का हरण हो गया। सीता के हरण होने पर राम ‘हा सीता’ ‘हा सीता’ कहते हुए मुच्र्छित हो जाते और करुण विलाप करते हुए भ्रमण करते। सीता के वियोग में करुण विलाप करते राम को मार्ग में आये मुनिराज ने भी सीता के वियोग में अति दुःख करने से रोका और बहुत समझाया। तब भी सीता के प्रेम मे दृढ राम ने निरन्तर अश्रुधारा छोड़ते हुए कहा- हे मुनिराज! ग्राम, श्रेष्ठ नगर, महागज, आज्ञाकारी भृत्य, आदि सब कुछ प्राप्त किये जा सकते हैं, किन्तु एैसा स्त्रीरत्न प्राप्त नही किया जा सकता है।जाम्बवन्त के द्वारा राम के शोक को कम करने हेतु 13 रूपवान कन्याएँ देने की बात कही। तब भी राम ने प्रत्युत्तर में कहा कि यदि रंभा या तिलोत्तमा भी हो तो सीता की तुलना में मेरे लिए कुछ भी नहीं है। ऐेसा था राम का सीता के प्रति प्रेम और इस ही प्रेम की रक्षा सीता ने लंका में रहते हुए रावण से की थी। यही कारण था कि वानरवंशी राजाओं ने परस्त्री हरण करनेवाले का साथ छोड़कर अपनी पत्नी के प्रति धर्म निर्वाह करनेवाले राम का साथ दिया। इस इसवह को पढकर हमें भी किसी का सहयोग करने से पूर्व भलीभाँति विचार करना चाहिए कि जिसका हम सहयोग करने जा रहे हैं, वह सहयोग देने का पात्र है भी या नहीं। यदि हमने ऐसा करना प्रारंभ कर दिया तो निश्चित मानिए कि आपके सहयोग मात्र से निश्चित रूप से सदैव सत्य की ही विजय होगी, और विश्व में सत्य का ही डंका बजेगा। क्योंकि असहायहो णत्थि सिद्धि अर्थात असहाय की सिद्धि नहीं होती, और जब आप गलत को सहयोग नहीं करेंगे तो गलत कार्य की सिद्धि होगी ही नहीं और विश्व से बुराइयों का नाश होता चला जायेगा। मेरा अनुरोध है, आप इस को पढकर इस पर अमल करना अवश्य प्रारंभ करे ।
  21. पूर्व में विद्याधरकाण्ड के blog में विभिन्न वंशों के उद्भव के विषय में विस्तारपूर्वक विवेचना की गयी थी। वहाँ हमने देखा कि इक्ष्वाकुवंश का सम्बन्ध अयोध्या से तथा वानरवंश का सम्बन्ध किष्किंधनगर से एवं राक्षसवंश का सम्बन्ध लंका से रहा है। राम अयोध्या से चलकर किष्किंधनगर होते हुए लंका पहुँचे हैं। अतः हम इन तीनों वंशों के पात्रों के जीवन चरित्र से अयोध्या - उत्तर भारत, किष्किंधनगर- मध्य भारत तथा लंका - दक्षिण भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में भी कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। चारित्र कथन में हम सर्व प्रथम हम रामकाव्य में प्राप्त इक्ष्वाकुवंश के मुख्य पात्रों के जीवन से परिचित हुए। उनके माध्यम से हमें उत्तर भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में कुछ जाना तथा रामकथा के नायक और नायिका राम और सीता के जीवन से बहुत कुछ सीखा। अब हम रामकथा में प्राप्त वानरवंश के प्रमुख पात्रों का कथन करेंगे और यह देखेंगे कि रामकथा में इस वानरवंश की क्या भूमिका रही है ? हमने पिछले विद्याधरकाण्ड के इसवह में वानरवंश के विषय में विस्तार से कथन किया है। वानरवंश भारत के मध्य में था। वानरवंशियों ने प्रारम्भ में दक्षिण भारत में स्थित राक्षसवंश का साथ दिया।आगे ये ही वानरवंश जब राम का रावण से युद्ध हुआ तब राम के पक्ष में रहकर रावण से लडा और इनके सहयोग से ही राम रावण से सीता को प्राप्त करने में सफल हुए। अब हम आगे के इसblog में वानरवंश के प्रमुख पात्रों के जीवन का कथन करेंगे और उसके माध्यम से यह देखेंगे कि जीवन में सहयोग का कितना महत्व है ? असहायहो णत्थि सिद्धि अर्थात् असहाय की कभी भी सिद्धि नहीं होती है। क्या राम वानरवंशियों के सहयोग के बिना रावण से सीता को प्राप्त कर सकते थे ? कभी नहीं। प्रमुख पात्रों के जीवन से हम यह सीख सकेंगे कि सहयोग क्यों आवश्यक है, कहाँ आवश्यक है? तथा सहयोग किस तरह लिया और दिया जाना चाहिए ? तथा सहयोग लेने व देने से पूर्व किस तरह पात्र और अपात्र के विषय में विचार करना चाहिए? यह सब हम वानरवंशियों के प्रमुख पात्रों - जाम्बवन्त, सुग्रीव, नल और नील, अंग और अंगद तथा हनुमान के माध्यम से देख सकेंगे। आगे के इसवह में इनके जीवन चरित्र के कथन के माध्यम से हम जीवन में सहयोग के फल से अवगत हो सकेंगे।
  22. यहाँ विशल्या के पूर्वभव तथा वर्तमान भव के जीवन से संयम व तप के फल के महत्व को बताया गया है। यहाँ विशल्या के दोनों भवों के आधार पर हम यह देखेंगे कि संयम व तप का फल किस प्रकार मिलता है तथा संयम रहित जीवन क्या फल देता है ? विशल्या अपने पूर्वभव में पुंडरीकिणी नगर के चक्रवर्ती राजा आनन्द की अनंगसरा नामक कन्या थी। अति सुन्दर होने के कारण वह पुर्णवसु विद्याधर के द्वारा हरण कर ले जाई गयी और मार्ग में वह पर्णलध्वी विद्या के सहारे हिंसक जानवरों से युक्त भयानक श्वापद नामक अटवी में उतर गयी। वहाँ उसने संयमपूर्वक अपना समय व्यतीत किया तथा चारों प्रकार का आहार त्याग कर संल्लेखना धारण कर ली। उसी समय एक विशाल अजगर ने अनंगसरा का आधा शरीर निगल लिया। तीर्थ वन्दना कर लौट रहे सौदास विद्याधर ने जब अजगर के मुख से आधा शरीर बाहर निकला हुआ देखा तो वहाँ आकर उसको बचाने के लिए उस अजगर के दो टुकड़े करने हेतु उद्यत हुआ। तभी उस अनंगसरा ने तपस्वियों की रक्षा के लिए प्राणवध अनुचित बताकर उस अजगर को मारने से रोका और निराहार तपश्चरण कर अंहिसापूर्वक उसने अजगर को अपना शरीर अर्पित कर दिया। यह अनंगसरा ही अहिंसापूर्वक मरण के प्रभाव से कैकेयी के भाई द्रोण की पुत्री विशल्या हुई। सीता के स्वयंवर के अवसर पर ही द्रोण ने भी विशल्या को लक्ष्मण के लिए देने का संकल्प कर लिया था, किन्तु लक्ष्मण का राम के साथ वनवास में रहने के कारण उनका संकल्प पूरा नहीं हो सका। तब विशल्या ने अविवाहित रहकर ही संयम का पालन किया। यह उसके संयम का प्रभाव ही था कि उसका न्हवनजल लोगों की व्याधि का हरण करनेवाला था। विशल्या के सुगन्धित न्हवन जल से रावण की शक्ति से आहत हुए लक्ष्मण की पूरी देह को मल दिया गया तथा अन्य सभीे राजाओं को भी वह गंधजल बाँट दिया गया जिससे लक्ष्मण सहित राम की सेना फिर से नयी हो गई। इस अहिंसात्मक शक्ति के आगे रावण की अमोघ शक्ति भी नहीं ठहर सकी। यहाँ हम लक्ष्मण व विशल्या के जीवन की तुलना कर सकते हैं कि संयमहीनता के कारण लक्ष्मण का जीवन निरन्तर दुःखों से भरा हुआ है और अन्त में जैन रामकाव्यकारों ने उनका नरक में जाना भी बताया है जबकि विशल्या का संयमपूर्ण जीवन दूसरों की व्याधि को हरनेवाला है।
  23. मनुष्य का सारा जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का ही खेल है और यही कारण है कि सभी धर्म ग्रंथों में भी प्र्रवृत्ति और निवृत्ति का ही कथन है। राम और सीता के जीवन में निवृत्ति का स्वरूप कैसा था इसको समझने से पहले संक्षेप में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अर्थ समझना आवश्यक है। प्रवृत्ति - ज्ञाता के पाने या छोड़ने की इच्छा सहित चेष्टा का नाम प्रवृत्ति है। छोडने की इच्छा से प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का अंश देखा जाता है। निवृत्ति - बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषा को प्राप्त चित्त का त्याग करना निवृत्ति है। अर्थात् अभिलाषाओं का त्याग ही निवृत्ति है। स्वयंभू कवि ने अपने द्वारा रचित पउमचरिउ काव्य में राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन का ही उल्लेख किया है, स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने उस काव्य की आगे की 7 संधियाँ और लिखकर उस काव्य को राम के निवृत्तिपूर्ण जीवन के साथ समाप्त किया है। यदि हमें राम के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति को देखना है तो हमें सम्पूर्ण पउमचरिउ काव्य का अध्ययन करना होगा, जबकि सीता के प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक जीवन को स्वयंभू द्वारा रचित काव्य में ही देखना सम्भव है। यहाँ दोनों का ही दोनों प्रकार का जीवन निम्न प्रकार से बताया जा रहा है - राम का प्रवृत्तिपूर्ण जीवन - राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन का पीछे लिखे गये राम के इसवह में विस्तार के साथ विवेचन किया गया है।उसमें बताया गया है कि राम की प्रवृत्ति उनके एक आदर्शपुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, गुणिजनों के प्रति उनके प्रेम, द्रोह भाव से रहित होने, दुःखियों के प्रति करुणावान होने, जिनदेव व गुरु के प्रति श्रृद्धावान होने में देखी गयी है। पत्नी के प्रति भी उनका इतना प्रेम दिखाया गया है कि वे उनको वनवास में भी अपने साथ रखते हैं और उनको विभिन्न क्रीड़ाओं से आनन्दित रखते हैं। रावण के द्वारा हरण करने पर वे उसे प्राप्त कर ही दम लेते हैं। किन्तु अचानक परिस्थिति बदल जाने पर सीता पर लोक के द्वारा अपवाद लगाया जाने पर अपने राजपद की मर्यादा, लोकभय आदि कारणों से सीता के प्रति राम की प्रवृत्ति परिवर्तित हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप सीता को निर्वासन का दुःख भोगना पडता है। निर्वासन की समाप्ति के बाद भी राम की अहंकारपूर्ण कलुषित प्रवृत्ति ही सीता को अग्निपरीक्षा हेतु विवश करती है। त्रिभुवन द्वारा रचित आगे के काव्य में राम का लक्ष्मण के प्रति अतिमोह का कथन और उसके बाद राम के निवृत्तिपूर्ण जीवन का निम्नरूप में कथन हुआ है। राम का निवृत्तिपूर्ण जीवन - देवों के उद्बोधन से राम का मोह ढीला पड गया और उनकी आँखे खुली। वेे विचार करने लगे कि संसार में अणरण्य, दशरथ, भरत, सीतादेवी, हनुमान आदि धन्य हैं जिन्होंने अपना परलोक साधा, मैं ही एक ऐसा हूँ जो यौवन बीतने और लक्ष्मण जैसे भाई के मरने पर भी आत्मा के घात पर तुला हुआ हूँ। सुन्दर स्त्रियाँ, चमरांे सहित छत्र, बन्धु-बान्धव ये सब उपलब्ध हो सकते हैं परन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। यह सोचते हुए राम को बोध प्राप्त हो गया। तब शोक का परिहार कर राम ने लक्ष्मण का सरयू नदी के किनारे दाह संस्कार कर दिया। उसके पश्चात् उन्होंने लवण के पुत्र के सिर पर राजपट्ट बाँधकर सुव्रत मुनि के पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। राम ने दीक्षा ग्रहण कर बारह प्रकार का तप अंगीकार किया। छः उपवास करने के पश्चात् स्यंदनस्थली नगर के राजा प्रतिनन्दीश्वर ने राम को पारणा करवाया। पारणा कर राजा को अनेक व्रत प्रदान कर राम भ्रमण करते हुए कोटिशिला प्रदेश में पहुँचे और ध्यान में लीन हो गये। तभी सीतादेवी का आगामी भव का जीव स्वयंप्रभदेव राग के वशीभूत होकर मुनीन्द्र राम के पास उनको ध्यान से डिगाने हेतु आया। उसने नाना प्रकार से ध्यान में लीन राम को रिझाने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु मुनिवर राम का मन नहीं डिगा। माघ माह के शुक्ल पक्ष में बारहवीं की रात के चैथे प्रहर में मुनीन्द्र राम ने चार घातिया कर्मों का नाश कर परम उज्ज्वल ज्ञान प्राप्त कर लिया। उसके बाद स्वयंप्रभ देव को संबोधन दिया- तुम राग को छोड़ो, जिनभगवान ने जिस मोक्ष का प्रतिपादन किया है वह विरक्त को ही होता है। सरागी व्यक्ति का कर्मबन्ध और भी पक्का होता है। अन्त में मुनीन्द्र राम ने निर्वाण प्राप्त कर लिया। यह है राम का प्रवृत्ति व निवृत्तिपरक जीवन का दृश्य। उसमें स्वयंभू ने मात्र राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन को ही दिखाया है, निवृत्तिपरक नहीं। निवृत्तिपरक जीवन का कथन स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने ही किया है। हो सकता है स्वयंभू को सीता का स्वयंप्रभ देव बताकर सीता को पुनः नीचे गिराना स्वयंभू को अच्छा नहीं लगा हो। खैर जो भी हो, निवृत्तिपरक और प्रवृत्तिपरक जीवन को राम के जीवन से समझना आसान है। सीता का प्रवृत्तिपूर्ण जीवन - इससे पूर्व के इसवह में हमने सीता को उनके वनवासकान हरणकाल में विभिन्न प्रवृत्तियों सहित देखा। वहाँ आप पुनः देखें। वनवासकाल से लेकर अग्निपरीक्षा तक का जीवन उनका प्रवृत्तिपरक जीवन है। अग्निपरीक्षा के बाद का जीवन उनका निवृत्तिपरक जीवन रहा है। यही से सीता का मन परिवर्तित हो चुका । राम से क्षमा मांगने पर सीता ने कहा,- हे राम! आप व्यर्थ में विषाद न करें। मैं विषय-भोगों से ऊब चुकी हूँ। तभी सीताने सिर के केश उखाड़कर राम के समक्ष डाल दिये और सर्वभूषण मुनि के पास दीक्षा धारण करली। इस प्रकार राम और सीता दोनों के परष्पर आक्रोश तथा साथ ही परष्पर क्षमा भाव के साथ दोनों के प्रवृत्ति व निवृत्ति परक जीवन के माध्यम से निवृत्ति व प्रवृत्तिपरकता को आसानी से ह्नदयंगम किया जा सकता है।
  24. सीता पउमचरिउ काव्य के नायक राम की पत्नी के रूप में पउमचरिउकाव्य की प्रमुख नायिका हैं। यह नायिका भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। सीता के जीवन चरित्र के माध्यम से स्त्री के मन के विभिन्न आयाम प्रकट होंगे जिससे स्त्री की मूल प्रकृति को समझने में आसानी होगी। ब्लाग 5 में राम के जीवन चरित्र के माध्यम से हम पुरुष के मूल स्वभाव से परिचित हुए थे। देखा जाय तो अच्छा जीवन जीने के लिए सर्वप्रथम स्त्री और पुरुष दोनों के मूल स्वभाव की जानकारी आवश्यक है। रामकाव्यकारों का रामकथा को लिखने का सर्वप्रमुख उद्देश्य भी यही प्रतीत होता है। जैन रामकथाकारों ने राग तथा क्रोध, मान आदि कषायों को मनुष्य के दुःखों का कारण माना है और इनके अभाव में ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता बतायी है। सीता पुरुष के स्वभाव से एकदम अनभिज्ञ थी, बस पति को परमेश्वर मानकर उनके पीछे-पीछे चलती रही, पति में अति राग के कारण उनमें पति की अनुचित बात का विरोध करने का विवके व सामथ्र्य ही उत्पन्न नहीं हुआ। फलस्वरूप राम का राजतिलक होने से पूर्व ही सीता का राम के साथ वनवास जीवन प्रारम्भ हो गया, वनवास काल में सीता का हरण हुआ, राम ने राजगद्दी पर बैठते ही प्रजा के भय से सीता को गर्भकाल में ही निर्वासन दे दिया और अन्त में राम के कहने पर अग्निपरीक्षा भी स्वीकार कर ली। अग्निपरीक्षा में सफल होने पर राम ने जब सीता से अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना की तो सीता ने उनको क्षमा भी नहीं किया तथा संसार के दुःखों से भयभीत हो शाश्वत सुख हेतु दीक्षा ग्रहण कर ली। यहाँ हम सीता के जीवन-काल को तीन भागों 1. वनवासकाल 2. हरणकाल 3. निर्वासनकाल में घटी घटनाओं को देखेंगे जिससे हमें स्त्री के मूल स्वभाव पर प्रकाश पड सकेगा। 1. वनवासकाल वनवास काल में सीता ने मुनिवर के आगमन पर भक्तिपूर्वक स्तुति की तथा राम के सुघोष वीणा बजाने पर चैसठ भुजाओं का प्रदर्शन कर भक्तिभावपूर्वक नृत्य किया। राम के साथ मुनिराज की आहार चर्या पूरी की। सीतादेवी ने दुःखी खगेश्वर जटायु कोे अपने वात्सल्य भाव से आशीर्वचन दिया। वंशस्थल को आहत कर लौटे हुए लक्ष्मण को देखकर सीता ने भय से काँपते हुए कहा- लता मंडप में बैठे हुए और वन में प्रवेश करने के बाद भी सुख नहीं है। लक्ष्मण जहाँ भी जाते हैं वहाँ कुछ न कुछ विनाश करते रहते हैं। रावण की बहन चन्द्रनखा ने राम और लक्ष्मण पर आसक्त होकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने के लिये रोना शुरू किया। तब सीता उसके माया भाव को नहीं समझती हुई सहजता से बोली, राम ! देखो यह कन्या क्यों रोती है ? समय से छिपा हुआ दःुख ही इसे उद्वेलित कर रहा है। 2. हरण-काल लंकानगरी में हनुमान से राम की वार्ता जानकर सीता पहले तो सहज भाव से प्रसन्न हुई किन्तु बाद में सतर्क होकर सोचने लगी - यह राम का ही दूत है या कोई दूसरा ही आया है, यहाँ तो बहुत से विद्याधर हैं, मैं तो सभी में सद्भाव देख लेती हूँ। जैसे पहले चन्द्रनखा विवाह का प्रस्ताव लेकर आयी और बाद में किलकारी मारकर हमारे ऊपर ही दौड़ी। तब विद्याधर ने सिंहनाद कर मेरा अपहरण करके मुझे राम से अलग कर दिया। लगता है यह भी किसी छल से मेरा मन थाहना चाहता है। लक्ष्मण के शक्ति से आहत होने तथा इससे राम के दुःखी होने का समाचार सुनकर सीता ने दहाड़ मारकर रोते हुए अपने कठोर भाग्य को कोसा - अपने भाई और स्वजनों से दूर, दुःखों की पात्र, सब प्रकार की शोभा से शून्य मुझ जैसी दुःखों की भाजन इस संसार में कोई भी स्त्री न हो। सीता को हरणकर ले जाते हुए रावण ने समुद्र के मध्य सीता से कहा- हे पगली! तुम मुझे क्यों नहीं चाहती? महादेवी के पट्ट की इच्छा क्यों नहीं करती? और उसका आलिंगन करना चाहा। तब सीता ने उसके इस आचरण की तीव्र भत्र्सना की। इस भत्र्सना रूपी अस्त्र ने ही रावण को स्वयं के द्वारा गृहीत व्रत का स्मरण दिलाया। उस व्रत को स्मरण कर रावण ने कहा- मुझे भी अपने व्रत का पालन करना चाहिए, बलपूर्वक दूसरे की स्त्री को ग्रहण नहीं करना चाहिए। तब सीता ने पति के समाचार नहीं मिलने तक नन्दन वन में ही रहने के लिये कहा तो रावण ने उसकी बात मान ली। पुनः रावण सीता के समक्ष याचक बनकर गिड़गिड़ाया- हे देवी! हे सुर सुन्दरी! मैं किससे हीन हूँ, क्या मैं कुरूप हूँ या अर्थ रहित हूँ ? बताओ, किस कारण से तुम मुझे नहीं चाहती ? तब सीता ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, हे रावण! तुम हट जाओ। तुम मेरे पिता के समान हो। परस्त्री को ग्रहण करने में कौन सी शुद्धि होती है। तुम्हारे अपयश का डंका बजे और जब तक लंकानगरी नाश को प्राप्त नहीं हो उससे पहलेही हे नराधिप, तुम राघव चन्द्र के पैर पकड़ लो। रावण ने यह सोचकर कि शायद यह भय के वश मुझे चाहने लगे उसको भयभीत करने के लिये भयंकर उपसर्ग करने शुरु किये। उस भयानक उपसर्ग को देखने से उत्पन्न हुए रौेद्र भाव को दूर कर तथा अपने मन को धर्म ध्यान से आपूरित कर सीता ने प्रतिज्ञा ले ली कि जब तक मैं गम्भीर उपसर्ग से मुक्त नहीं होती तब तक मेरे चार प्रकार के आहार से निवृत्ति है। इस तरह धर्मपूर्वक सीता ने भयानक उपसर्ग को भी सहन कर लिया। पुनः रावण ने सीता को वश में करने के लिये अपनी ऋद्धि के प्रभाव से उसे पुष्पक विमान पर चढ़ाकर बाजार की शोभा दिखायी। चूड़ा, कण्ठा, करघनी आदि महादेवी का प्रसाधन स्वीकार करने के लिये कहा। तब सीता ने उन सभी ऋद्धियों का तिरस्कार कर कहा- तुम अपनी यह ऋद्धि मुझे क्यों दिखाते हो? यह सब अपने लोगों के मध्य दिखाओ। उस स्वर्ग से भी क्या, जहाँ चाऱित्र का खंडन है। मेरे लिये तो शील का मंडन ही पर्याप्त है। सीतादेवी की इस अलोभ प्रवृत्ति ने ही रावण को अपनी निन्दा करने को विवश कर दिया और उसने कहा - मैं किस कर्म के द्वारा क्षुब्ध हूँ जो सब जानता हुआ भी इतना मोहित हूँ। मुझे धिक्कार है कि मैंने इसकी अभिलाषा की। तभी स्वयं को धिक्कारते हुए वह सीता को छोड़कर वहाँ से चला गया। पुनः रावण अपने आपको चन्दन से अलंकृत कर, अमूल्य वस्त्र धारण कर तथा त्रिजगभूषण हाथी पर बैठकर सीता के पास पहुँचा। वहाँ अपने पराक्रम का बखान करता हुआ राम व उनके प्रमुखजनों को मारने की धमकी देने लगा। उसने कहा- तुम जो अभी तक बची हुई हो वह मात्र मेरे संकल्प के कारण। तब रावण ने अपनी विद्या से राम आदि कोे मरते हुए दिखाकर तथा नाना रूपों का प्रदर्शन कर सीता को भयभीत करना प्रारम्भ किया। तब शीलरूप चारित्र का निर्वाह करते हुए सीतादेवी ने कहा- हे दशमुख! राम के मरने के बाद मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती । जहाँ दीपक होगा वहीं उसकी शिखा होगी, जहाँ चाँद होगा वहीं चाँंदनी होगी और जहाँ राम हांेगे सीता भी वहीं होगी । यह कहते-कहते सीता मूच्र्छित हो गयी। सीता के इस दृढ़ शीलव्रत ने ही रावण को दूर हटने व अपनी निन्दा करने को विवश किया। उसने कहा- कल मैं युद्ध में राम व लक्ष्मण को बन्दी बनाऊंगा और उन्हें सीतादेवी को सौंप दूँगा। मन्दोदरी रावण की दूती बनकर सीता के पास गयी। वहाँ जाकर मन्दोदरी ने रावण के वैभव का तरह-तरह से बखान करने के बाद कहा -तुम लंकेश्वर दशानन की महादेवी बन जाओ। इस पर क्रुद्ध होकर सीता ने निष्ठुर वचन में कहा -‘‘उत्तम स्त्रियों के लिये यह उपयुक्त नहीं है,
  25. इससे पूर्व हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश के प्रमुख पात्रों के जीवन चरित्र को देखने का प्रयास किया तथा उसके माध्यम से मानव मन के विभिन्न आयाम भी हमारे समक्ष उभरकर आये। हमने उसमें मुख्य बात यह देखी कि मानव का मन विभिन्न भावों से पूरित तो है ही साथ ही निरन्तर परिवर्तनशील भी है। यह मन ही तो है जो अपनी मति को संचालित करता है, और फिर जैसी मनुष्य की गति होती है, वैसी ही उसकी मति होती है। इसीलिए संतों एवं धर्माचार्यों ने इन्द्रियों एवं मति को नियन्त्रण करने हेतु कहा है। इस ही कडी में पउमचरिउ के आधार पर हम राजा दशरथ की पत्नी कैकेयी के जीवन चरित्र से यह देखेंगे कि संवेदनाहीन कुशाग्र बुद्धि किसी तरह भी कार्यकारी नहीं हो सकती, संवेदना के साथ ही कुशाग्र बुद्धि की उपयोगिता है। विचार करते हैं । कैकेयी के द्वारा अपने स्वयंवर में आये हुए अनेक राजाओं में से इक्ष्वाकुवंशी दशरथ के गले में वरमाला डालने पर वहाँ उपस्थित हरिवाहन उसके विरुद्ध हो गया तथा दशरथ से युद्ध में भिड गया। तब रथ चलाने में कुशाग्र कैकेयी ने ही दशरथ के रथ का सारथि के रूप में कुशलता से संचालन किया। शत्रुसेना को जीत लेने के बाद दशरथ ने कैकेयी से विवाह कर लिया। रथ के कुशल संचालन से प्रभावित होकर दशरथ ने उससे कोई भी वरदान माँगने हेतु कहा। तब कुशाग्र्र मेघा कैकेयी ने तुरन्त कहा, हे देव! ठीक है, ‘आपने दे दिया’‘ अब समय आने पर मेरे माँगने पर देकर अपने सत्य का पालन करना। दशरथ ने राम को राज्य देकर अपना प्रव्रज्या ग्रहण करन का निश्चय किया। तभी दशरथ का प्रव्रज्या ग्रहण करना एवं राम को राज्य दिया जाना जानकर कुशाग्रमेघा कैकेयी दशरथ के पास गयी। उसने दशरथ के पास धरोहर रूप में रखवाया वर अपने पुत्र भरत के लिए राज्य के रूप में माँग लिया। रागवश संवेदना से रहित हुई कैकेयी ने उस समय न अपने से बडी माँ सदृश कौशल्या का लिहाज किया न अपने से छोटी पुत्रवधू सीता का लिहाज किया। एक महिला होकर भी उसने यह विचार नहीं किया कि एक युवावस्था को प्राप्त महिला का वनमें रहना कितना कठिन होता है । उसी समय दशरथ ने राम को बुलाकर भरत के लिए राज्य अर्पित करने तथा भरत को बुलाकर राज्य लेने के लिए अनुरोध किया। राज्य लेने की बात सुनकर भरत ने दशरथ और कैकेयी दोनों को धिक्कारते हुए कहा कि मैं नहीं जानता था कि महिलाओं का ऐसा स्वभाव होता है कि वे यौवन के मद में पाप को भी नहीं गिनती और महामदान्ध तुम भी कुछ नहीं समझते, क्या राम को छोडकर मुझे राजपट्ट बाँधा जायेगा, कामान्ध का कैसा सत्य, सज्जन पुरुष भी चंचल चित्त होने से युक्त और अयुक्त का विचार नहीं करते। जब अपने लिए वनवास अंगीकार कर राम ने वन की ओर प्रस्थान किया। राम के कुछ दूर चले जाने पर दुःखी हुए भरत राम को वापस लाने के लिए उनके पीछ-पीछे वन में गये। तभी कैकेयी मन में आशंकित हुई कि कहीं भरत के अनुरोध पर राम कहीं वापस नहीं लौट आवे, भरत के पीछे-पीछे गयी। वहाँ राम ने कैकेयी की शंका का विचार कर और उसका निवारण किया तथा उसके साथ भरत को अयोध्या भेज दिया। हाँ, अन्त में वनवास में लक्ष्मण रावण की शक्ति से आहत होना सुनते ही कैकेयी रो पडीं और जैसे ही उसने भामण्डल से लक्ष्मण के जीवित होने के लिए विशल्या के स्नानजल के विषय में सुना तो वह शीघ्र ही भरत के साथ कौतुकमंगल नगर पहुँच गयीं। वहाँ उन्होंने अपने भाई द्रोणघन से लक्ष्मण को जीवित करने हेतु विशल्या सुन्दरी को तुरंत भेजने हेतु कहा। विशल्या के जल से ही लक्ष्मण स्वस्थ हुए। अन्त में पुत्र भरत के दीक्षा ग्रहण किये जाने पर कैकेयी ने भी सैकड़ांे युवतियों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। इस प्रकार हमने कैकेयी के जीवन से समझा कि कैकेयी किस प्रकार पुत्र भरत के प्रति राग के कारण संवेदनहीन हुई और उस ही पुत्र भरत ने अपनी माँ को किस प्रकार धिक्कारा। हाँ बाद में अवश्य उसने लक्ष्मण के स्वरूथ होने में मदद की तथा अन्त में दीक्षा ग्रहण की। कैकेयी के राग ने कैकेयी को इतना अपयश से भर दिया कि कैकेयी का नाम सुनते ही उसके प्रति बुरा भाव उत्पन्न होता है तथा अपनी सन्तान का कैकेयी नाम रखना भी कोई पसन्द नहीं करता। आशा है राग के दुष्परिणाम को समझने के लिए यह ब्लाग सभी के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।
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