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Sneh Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

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  1. अभी हमने राम कथा से सम्बन्धित इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ के परिवार के प्रमुख-प्रमुख पुरुषों का जीवन देखा। उनके जीवन चरित्र के आधार पर उनके जीवन में आये सुख-दःुख के कारणों पर कुछ प्रकाश पड़ा। इनके चरित्र से तादात्म स्थापित कर यदि हम देखें तो हम पायेंगे कि हमारे सुख-दुःख के भी यही कारण हैं। अब हम आगे प्रकाश डालते हैं, इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ के परिवार की प्रमुख महिलाओं के जीवन पर। सबसे पहले देखते हैं राजा दशरथ की सबसे बडी रानी कौशल्या जिनका जैन रामकथा में अपराजिता नाम मिलता है। अपराजिता रामकथा का एक एैसा पात्र है, जो अधिकांश भारतीय महिलाओं के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। उसका सारा जीवन मात्र अपने पति और पुत्र के लिए समर्पित है, उनका सुख-दुख ही उसका अपना सुख दुःख है। अपने पति की अनुचित बात का विरोध करने का भी उसमें साहस नहीं है, जो होना चाहिए। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वह अपने अनुभवों के आधार पर पुरुषों के विरोध करने के परिणाम से परिचित हो। खैर जो भी हो उनके सहज स्वभाव के कारण उनकी जिन्दगी भी एक सामान्य ही रहती है, जिसे हम उनके जीवन चरित्र के माध्यम से देखते हैं - वनवास अंगीकार कर राम जब अपनी माँ अपराजिता के पास आ रहे होते हैं तो दूर से ही उनके उद्विग्न चित्त को देखकर एक सहज माँ के रूप में अपराजिता ने कहा - तुम प्रतिदिन घोड़ांे और हाथियों पर चढ़ते थे, लोगों के द्वारा तुम्हारी स्तुति की जाती थी, दिन-रात तुम पर हजारों चमर ढोेरे जाते थे, आज तुम बिना जूतों के पैरों से चलकर कैसे आ रहे हो? आज तुम्हारी स्तुति भी नहीं की जा रही है। उसके बाद जैसे ही उसने राम के मुख से भरत के लिए राज्य व स्वयं का वनवास अंगीकार करना सुना तो वह अपराजिता रोती हुई धरती पर मूच्र्छित होकर गिर पड़़ीं। राम के द्वारा समझाने पर कठिनाई से धर्य को प्राप्त र्हुइं। ना उसने केकैयी पर क्रोध प्रकट किया न ही दशरथ पर। राम के वनवास गमन के पश्चात् 14 वर्ष के अन्तराल में अपराजिता राम के वियोग में क्षीण हो चुकी थीं। वे रात-दिन राम के आने का रास्ता देखा करती थीं। राम के विषय में पथिकों से पूछती रहती थीं। कभी घर आंगन में कौआ काँव-काँव कर उठता तो लगता कि राम मिलने वाले हैं। लंका से लौटकर सीता सहित राम व लक्ष्मण अयोध्या में प्रवेश कर माँ से मिले तब माँ ने उनको सुन्दर आशीर्वाद दिया कि जब तक महासमुद्र और पहाड़ हैं, जब तक यह धरती सचराचर जीवों को धारण करती है, जब तक सुमेरु पर्वत है जब तक आकाश में सूर्य और चन्द्रमा है, नदियां प्रवाहशील हैं तब तक हे पुत्र! तुम राज्यश्री का भोग करो और सीतादेवी को पटरानी बनाओ। बस इतना ही है एक सामान्य महिला का जीवन। यदि अपराजिता में केकैयी एवं दशरथ की अनुचित बात का सही तरीके से विरोध करने का साहस होता तो शायद रामकथा का रूप कुछ अन्य ही होता। आगे हम प्रकाश डालेंगे राजा दशरथ के परिवार की प्रमुख महिला केकैयी पर।
  2. राम-सीता के पुत्र लवण व अंकुश के चरित्र के माध्यम से हम यहाँ मात्र यही देखेंगे कि भारतीय संस्कृति में पुत्रों की माँ और पिता के जीवन में क्या भूमिका होती है ? और माँ के दुःखों का कारण क्या है ? इसको पढने के बाद शायद सभी इस पर गंभीरता से विचार करेंगे। राम के द्वारा गर्भवती सीता को निर्वासन दिया जाने के कारण लवण व अंकुश का जन्म तथा लालन-पालन वज्रजंघ राजा के पुण्डरीक नगर में हुआ। सभी कलाओं में निष्णता प्राप्त करने के बाद युवावस्था प्राप्त होने पर पराक्रमी लवण व अंकुश ने खस, सव्वर, बव्वर, टक्क, कीर, काबेर, कुरव, सौबीर, तुंग, अंग, बंग, कंबोज, भोट, जालंधर, यवन, यान, जाट, कुम्भीर आदि भूखण्डों को जिन्हें प्रबल राजा राम व लक्ष्मण भी नहीं जीत सके थे उनको अपने वश में कर लिया। एक दिन राजा वज्रजंघ ने लवण व अंकुश की विवाह योग्य अवस्था होना जानकर राजा पृथु के पास लवण व अंकुश के लिए उसकी कन्याओं को देने हेतु प्रस्ताव भेजा। प्रत्युत्तर में पृथु राजा ने यह कहलवाया कि ‘जिनके वंश का पता नहीं, जिनकी न कीर्ति है और न शील, ऐसे निर्लज्जों को अपनी लड़की कौन देगा।’ यह सुनकर वज्रजंघ के साथ लवण व अंकुश ने पृथु राजा पर आक्रमण कर दिया। युद्ध क्षेत्र में लव व कुश ने पृथुराज को ललकारते हुए कहा- अरे, कुल-शील विहीनों से क्यों पराजित होते हो और पृथुराज को युद्ध में पराजित कर दिया। पृथुराज ने लवण के लिए कनकमाला और अंकुश के लिए तरंगमाला प्रदान कर दोनों का विवाह करवा दिया। एक दिन नारद के मुख से राम द्वारा अपनी माँ सीता पर कलंक लगाकर अकारण वन में निर्वासन देने की समस्त वार्ता सुनकर लवण व अंकुश भड़क उठे। उन्होंने कहा- जिसने मेरी माँ पर कलंक लगाया है मैं उसके लिए दावानल हूँ। मैं उसे भस्म करके रहूँगा। अपने पुत्रों के साहस से भयभीत हुई माँ सीता ने राम व लक्ष्मण को उनके लिए अजेय बताकर उनसे युद्ध करने से रोका। तब अपनी माँ को अत्यन्त प्यार करनेवाले पुत्रों ने कहा, ‘क्या हमारी सेना में बल नहीं है? जिसने हमारी माँ को रुलाया है हम भी उसकी माँ को रुलाकर रहेंगे और युद्ध के लिए कूच कर दिया। लवण व अंकुश ने राम व लक्ष्मण के साथ भी बराबर की टक्कर से युद्ध किया। लक्ष्मण द्वारा छोडा गया चक्र लवण व अंकुश की तीन परिक्रमा कर वापस लौट आया। तदनन्तर नारद के मुख से लवण व अंकुश को अपना ही पुत्र होना जान राम व लक्ष्मण ने उन दोनों का मुख चूमकर वज्रजंघ को अपनी बाहों में भर लिया। अपने दोनों पुत्रों से मिलने के बाद सभी लोेगों के द्वारा सीता को भी अयोध्या बुलाया जाने का आग्रह किया जाने पर राम ने सीता को लाने की स्वीकृति दी। उसके बाद राम व सीता के मध्य हुई बातचीत के पश्चात् सीता ने राम की सन्तुष्टि के लिए अपनी तरफ से गर्वपूर्वक अपने सतीत्व को सिद्ध करने हेतु अग्नि में प्रवेश करने का प्रस्ताव रखा। उस समय सीता के गर्वीले वचनों को सुनकर सभी लोगों के साथ लवण व अंकुश ने भी सीता के पक्ष में रहकर उनकी बात का समर्थन किया और आग में प्रवेश करने बाद फूट-फूट कर रोये भी। र्य ही नहीं अफसोस होता है, जो अपने पिता की अनुपस्थिति में माँ के साथ रहकर सम्पूर्ण कलाओं में निष्णात हुए, उसके बाद पृथुराज को, तथा (अपरिचित अवस्था में) राम व लक्ष्मण को भी युद्ध में पराजित कर दिया, वे ही लवण अंकुश अपने पिता से परिचय होने पर अपनी माँ के लिए अपने पिता से लड़ नहीं सके और चुपचाप सब देखते रहे। यही कारण है माँ के दुःखों का, माँ भी नहीं समझपाती बदलते हुए अपने पुत्रों को। गंभीरता से विचार करें।
  3. लक्ष्मण प्रशंसा एक ऐसी चीज है जिससे बड़े-योगी भी नहीं बच पाते। निन्दा की आँच जिसे जला भी नहीं सकती, प्रशंसा की छाँव उसे छार-छार कर देती है। लक्ष्मण राजा दशरथ व उनकी रानी सुमित्रा के पुत्र तथा काव्य के नायक राम के छोटे भाई हंै। राम व लक्ष्मण के विषय में स्वयंभू कहते हैं - एक्कु पवणु अण्णेक्कु हुआसणु, एक पवन था, तो दूसरा आग। सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लक्ष्मण के जीवन से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ काव्य में इस प्रकार हैं- सुन्दर व आकर्षक तथा कला प्रिय लक्ष्मण के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि राम के साथ लक्ष्मण के वनवास जाने पर समस्त जन लक्ष्मण को याद कर दुःखी होता था। लक्ष्मण के वनवास गमन की बात सुनकर राजा महीधर की पुत्री वनमाला अत्यन्त व्याकुल हो उठी। उसने लक्ष्मण की तलाश में अशोकवन में प्रवेश किया। लक्ष्मण का स्मरण व आक्रन्दन करती हुई उसने अपने प्राण विसर्जन करने हेतु कपड़े का फंदा बनाया। तभी वहाँ लक्ष्मण ने आकर उसे रोक लिया और उन दोनों का विवाह हुआ। कूबरनगर के राजा बालिखिल्य की पुत्री कल्याणमाला भयवश पुरुष वेश में कूबरनगर के राजा के रूप में रह रही थी। उसने सरोवर के किनारे लक्ष्मण को जल आलाड़ित करते हुए देखा। लक्ष्मण को देखकर उसे लगा जैसे कामदेव ही अवतरित हुआ हो। उसके सौन्दर्य से आकर्षित हो वह उससे मिलने के लिए बेचैन हो उठी। उसे अपने पास बुलवाया और उसे अपने आधे आसन पर बिठाया। तदनन्तर कल्याणमाला की बात सुनकर लक्ष्मण ने उसको रुद्रभूति को मारने का वचन दिया और उसके पिता बालिखिल्य को रुद्रभूति से मुक्त करवाया।वनवासपर्यन्त मुनि को आहार दिया जाने के बाद कुसुमांजलि के बरसी रत्नावली से कलाप्रिय लक्ष्मण ने उनको इकट्ठा कर एक रथ का निर्माण कर लिया। लक्ष्मण का पूरा जीवन-काल राम के लिए समर्पित था। उनको राम से कुछ समय के लिए भी अलग नहीं देखा गया। उन्होंने राम के लिए अपना सब कुछ त्याग कर दिया। जिससे राम प्रेम करते थे लक्ष्मण का भी उस पर अनन्य प्रेम होता था। जो घटना राम के लिए अप्रिय थी उस पर लक्ष्मण भी भड़क उठते थे। राम से किसी भी कार्य की अनुमति मिलते ही वे एकाएक उसे शीघ्र पूरा कर दिखाते थे तथा उनके द्वारा किसी कार्य के लिए मना करने पर वे रुक भी जाते थे। पवन चलती है तो आग भड़क उठती है, पवन रुकती है तो आग भी थोड़ी शान्त हो जाती है। राम के प्रति इनका विरोध यदि कहीं देखा गया है तो मात्र सीता को लेकर। वहाँ भी आखिर में राम की बात सुन चुप हो गये। लक्ष्मण के राम व सीता के प्रति समर्पण से सम्बन्धित घटनाएँ इस प्रकार हैं - जैसे ही वनगमन हेतु राम ने राज्य द्वार पार किया वैसे ही लक्ष्मण अपने मन में क्रुद्ध हो उठा और बोला, राम के जीवित रहने पर दूसरा राजा कौन हो सकता है? आज भरत को पकड़कर राम को अपने हाथ से राज्य दूँगा। तभी राम ने लक्ष्मण को अपने साथ चलने के लिए कहा तो लक्ष्मण बिल्कुल शान्त हो गये। वज्रकर्ण व सिंहोदर में मित्रता होने पर उन दोनों ने लक्ष्मण के लिए 300 कन्याएँ दीं। तब लक्ष्मण ने कहा कि पहले मुझे दक्षिण देश जाकर राम के लिए रहने की व्यवस्था करनी है। बाद में पाणिग्रहण करूँगा। यह सुन वे कन्याएँ बहुत दुःखीहुईं। खरदूषण को युद्ध में धराशायी कर बीच में ही लक्ष्मण राम से मिलने पहुँच गया। वहाँ राम को सीता के शोक से परिपूर्ण देखकर लक्ष्मण ने विराधित से कहा- सीता का अपहरण कर लिया गया है। कहाँ खोजूँ, राम सीता के वियोग में मरते हैं और इनके मरने पर मैं मरता हूँ। वशास्थल नगर में भयंकर उपसर्ग होने के विषय में सुनकर सीता काँप गई। तब लक्ष्मण ने उनको धीरज बँधाते हुए कहा, जब तक हम दोनों के हाथों में समुद्रावर्त और वज्रावर्त धनुष है तब तक हे माँ, तुम्हें किससे आशंका है? आप विहार करें। वन में सीता के लिए दूध लाने का काम भी लक्ष्मण ही करते थे। सीता पर प्रजा द्वारा लगाये गये कलंक को राम के मुख से सुनकर लक्ष्मण एकदम उबल पड़ा। उसने अपनी सूर्यहास तलवार निकालकर कहा- सीतादेवी के प्रति जो दुष्ट सन्देह रखता है वह मेरे सामने आकर खड़ा हो, उसका सिर मैं अपने हाथों से खोट लूँंगा। तब राम ने लक्ष्मण को पकड़कर समझाया, जिससे लक्ष्मण शांत हो गये। क्षेमांजलि नगर में गोपालक ने लक्ष्मण को यह बताया कि राजा अरिदमन की पुत्री भटों का संहार करनेवाली है। वह शक्तियों को धारण करनेवाले पराक्रमी पुरुष को ही अपना पति स्वीकार करेगी। यह सुनकर पराक्रमी लक्ष्मण ने राजदरबार में पहुँचकर इस कार्य के लिए स्वयं को समर्थ बताया। तब अरिदमन के द्वारा किये प्रहार को लक्ष्मण ने रोक लिया। लक्ष्मण का पराक्रम सुन जितपद्मा ने झरोखे से उसको देखा और जैसे ही लक्ष्मण अरिदमन पर शक्ति छोड़ने को तैयार हुआ वैसे ही जितपद्मा ने आकर लक्ष्मण के गले में वरमाला डाल दी और पिता के जीवन की भीख माँगी। लक्ष्मण ने सिंहोदर को युद्ध में पराजित किया। रावण ने लक्ष्मण को खरदूषण की सेना को अवरुद्ध करते हुए देख उसकेे पराक्रम की सराहना की है कि - मृगसमूह से तो यह अकेला सिंह ही अच्छा है। एक अकेला जो चैदह हजार को रोक लेता है। वह युद्ध के मैदान में मुझे भी मार देगा। देखो प्रहार करता हुआ कैसे प्रवेश करता है। धनुष, सर और संधान दिखाई नहीं देता केेवल महीतल पर गिरते हुए धड़ दिखाई पड़ते हैं। तब अकेले लक्ष्मण ने खर व दूषण को युद्ध में मार गिराया। जाम्बवन्त के यह कहा जाने पर कि जो कोटिशिला को अच्छी तरह से हिला देगा वही रावण का प्रतिद्वन्द्वी और विद्याधरों का स्वामी होगा, लक्ष्मण ने पूजा अर्चना के साथ मंगलोच्चारण कर उस शिला को अच्छी तरह चालित कर दिया। वनवासपर्यन्त तीव्र प्यास लगने पर राम व सीता सहित लक्ष्मण किसी द्विज के घर से पानी पीकर बाहर निकल ही रहे थे कि बाहर से आयेे द्विज ने कुपित हो उनको अपशब्द कहे। उन शब्दों को सुनकर उग्र स्वभावी लक्ष्मण क्रुद्ध हो उठा और उसकोे उठाकर आकाश में घुमाकर धरती तल पर पटकने लगा। तभी राम ने उसे रोक लिया। सुग्रीव के द्वारा रावण के पराक्रम का कथन कर उसे जीतना कठिन बताया जाने पर लक्ष्मण कुपित हो उठा और बोला- अंग, अंगद, नील और आप सब अपनी भुजाओं को सहेजकर बैठे रहो, रावण के जीवन को नष्ट करनेवाला अकेला मैं लक्ष्मण ही पर्याप्त हूँ। रावण की शक्ति के आगे सीता की प्राप्ति की आशा छोड़ देने की बात सुनकर उग्र हुए लक्ष्मण ने कहा, जाओ मरो, यदि तुम में शक्ति नहीं है, मैं अकेला लक्ष्मण यह आशा पूरी करूँगा, कहाँ की विद्या और कहाँ की शक्ति, कल तुम उसका अन्त देखोगे। हे दशरथ नन्दन! मैंने प्रतिज्ञा की है, मैं अपने तीरों के समुद्र में उस दुष्ट को डुबोकर रहूँगा। राम के द्वारा रावण के पास भेजे जानेवाले संधि प्रस्ताव को सुनकर यशके लोभी लक्ष्मण ने राम पर क्रोधित होते हुए कहा, ‘जिसकी भुजाएँ और यश इतने ठोस हों, फिर आप इतने दीन शब्दों का प्रयोग क्यों कर रहे हो? हे देव, आपकी इन ओजहीन बातों से मैं दूर हूँ, आप तो केवल धनुष हाथ में लीजिए और उस पर शर संधान कीजिए। लक्ष्मण का ओजपूर्ण कथन सुनकर राम भी भड़क उठे और उन्होंने संधि की बात छोड़ दी। राम और रावण की सेना के मध्य हुए युद्ध में रावण अपनी शक्ति को विभीषण पर छोड़ने ही वाला था कि यश के लोभी लक्ष्मण ने अपना रथ उन दोनों के बीच में लाकर खड़ा
  4. लक्ष्मण प्रशंसा एक ऐसी चीज है जिससे बड़े-योगी भी नहीं बच पाते। निन्दा की आँच जिसे जला भी नहीं सकती, प्रशंसा की छाँव उसे छार-छार कर देती है। लक्ष्मण राजा दशरथ व उनकी रानी सुमित्रा के पुत्र तथा काव्य के नायक राम के छोटे भाई हंै। राम व लक्ष्मण के विषय में स्वयंभू कहते हैं - एक्कु पवणु अण्णेक्कु हुआसणु, एक पवन था, तो दूसरा आग। सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लक्ष्मण के जीवन से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ काव्य में इस प्रकार हैं- सुन्दर व आकर्षक तथा कला प्रिय लक्ष्मण के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि राम के साथ लक्ष्मण के वनवास जाने पर समस्त जन लक्ष्मण को याद कर दुःखी होता था। लक्ष्मण के वनवास गमन की बात सुनकर राजा महीधर की पुत्री वनमाला अत्यन्त व्याकुल हो उठी। उसने लक्ष्मण की तलाश में अशोकवन में प्रवेश किया। लक्ष्मण का स्मरण व आक्रन्दन करती हुई उसने अपने प्राण विसर्जन करने हेतु कपड़े का फंदा बनाया। तभी वहाँ लक्ष्मण ने आकर उसे रोक लिया और उन दोनों का विवाह हुआ। कूबरनगर के राजा बालिखिल्य की पुत्री कल्याणमाला भयवश पुरुष वेश में कूबरनगर के राजा के रूप में रह रही थी। उसने सरोवर के किनारे लक्ष्मण को जल आलाड़ित करते हुए देखा। लक्ष्मण को देखकर उसे लगा जैसे कामदेव ही अवतरित हुआ हो। उसके सौन्दर्य से आकर्षित हो वह उससे मिलने के लिए बेचैन हो उठी। उसे अपने पास बुलवाया और उसे अपने आधे आसन पर बिठाया। तदनन्तर कल्याणमाला की बात सुनकर लक्ष्मण ने उसको रुद्रभूति को मारने का वचन दिया और उसके पिता बालिखिल्य को रुद्रभूति से मुक्त करवाया।वनवासपर्यन्त मुनि को आहार दिया जाने के बाद कुसुमांजलि के बरसी रत्नावली से कलाप्रिय लक्ष्मण ने उनको इकट्ठा कर एक रथ का निर्माण कर लिया। लक्ष्मण का पूरा जीवन-काल राम के लिए समर्पित था। उनको राम से कुछ समय के लिए भी अलग नहीं देखा गया। उन्होंने राम के लिए अपना सब कुछ त्याग कर दिया। जिससे राम प्रेम करते थे लक्ष्मण का भी उस पर अनन्य प्रेम होता था। जो घटना राम के लिए अप्रिय थी उस पर लक्ष्मण भी भड़क उठते थे। राम से किसी भी कार्य की अनुमति मिलते ही वे एकाएक उसे शीघ्र पूरा कर दिखाते थे तथा उनके द्वारा किसी कार्य के लिए मना करने पर वे रुक भी जाते थे। पवन चलती है तो आग भड़क उठती है, पवन रुकती है तो आग भी थोड़ी शान्त हो जाती है। राम के प्रति इनका विरोध यदि कहीं देखा गया है तो मात्र सीता को लेकर। वहाँ भी आखिर में राम की बात सुन चुप हो गये। लक्ष्मण के राम व सीता के प्रति समर्पण से सम्बन्धित घटनाएँ इस प्रकार हैं - जैसे ही वनगमन हेतु राम ने राज्य द्वार पार किया वैसे ही लक्ष्मण अपने मन में क्रुद्ध हो उठा और बोला, राम के जीवित रहने पर दूसरा राजा कौन हो सकता है? आज भरत को पकड़कर राम को अपने हाथ से राज्य दूँगा। तभी राम ने लक्ष्मण को अपने साथ चलने के लिए कहा तो लक्ष्मण बिल्कुल शान्त हो गये। वज्रकर्ण व सिंहोदर में मित्रता होने पर उन दोनों ने लक्ष्मण के लिए 300 कन्याएँ दीं। तब लक्ष्मण ने कहा कि पहले मुझे दक्षिण देश जाकर राम के लिए रहने की व्यवस्था करनी है। बाद में पाणिग्रहण करूँगा। यह सुन वे कन्याएँ बहुत दुःखीहुईं। खरदूषण को युद्ध में धराशायी कर बीच में ही लक्ष्मण राम से मिलने पहुँच गया। वहाँ राम को सीता के शोक से परिपूर्ण देखकर लक्ष्मण ने विराधित से कहा- सीता का अपहरण कर लिया गया है। कहाँ खोजूँ, राम सीता के वियोग में मरते हैं और इनके मरने पर मैं मरता हूँ। वशास्थल नगर में भयंकर उपसर्ग होने के विषय में सुनकर सीता काँप गई। तब लक्ष्मण ने उनको धीरज बँधाते हुए कहा, जब तक हम दोनों के हाथों में समुद्रावर्त और वज्रावर्त धनुष है तब तक हे माँ, तुम्हें किससे आशंका है? आप विहार करें। वन में सीता के लिए दूध लाने का काम भी लक्ष्मण ही करते थे। सीता पर प्रजा द्वारा लगाये गये कलंक को राम के मुख से सुनकर लक्ष्मण एकदम उबल पड़ा। उसने अपनी सूर्यहास तलवार निकालकर कहा- सीतादेवी के प्रति जो दुष्ट सन्देह रखता है वह मेरे सामने आकर खड़ा हो, उसका सिर मैं अपने हाथों से खोट लूँंगा। तब राम ने लक्ष्मण को पकड़कर समझाया, जिससे लक्ष्मण शांत हो गये। क्षेमांजलि नगर में गोपालक ने लक्ष्मण को यह बताया कि राजा अरिदमन की पुत्री भटों का संहार करनेवाली है। वह शक्तियों को धारण करनेवाले पराक्रमी पुरुष को ही अपना पति स्वीकार करेगी। यह सुनकर पराक्रमी लक्ष्मण ने राजदरबार में पहुँचकर इस कार्य के लिए स्वयं को समर्थ बताया। तब अरिदमन के द्वारा किये प्रहार को लक्ष्मण ने रोक लिया। लक्ष्मण का पराक्रम सुन जितपद्मा ने झरोखे से उसको देखा और जैसे ही लक्ष्मण अरिदमन पर शक्ति छोड़ने को तैयार हुआ वैसे ही जितपद्मा ने आकर लक्ष्मण के गले में वरमाला डाल दी और पिता के जीवन की भीख माँगी। लक्ष्मण ने सिंहोदर को युद्ध में पराजित किया। रावण ने लक्ष्मण को खरदूषण की सेना को अवरुद्ध करते हुए देख उसकेे पराक्रम की सराहना की है कि - मृगसमूह से तो यह अकेला सिंह ही अच्छा है। एक अकेला जो चैदह हजार को रोक लेता है। वह युद्ध के मैदान में मुझे भी मार देगा। देखो प्रहार करता हुआ कैसे प्रवेश करता है। धनुष, सर और संधान दिखाई नहीं देता केेवल महीतल पर गिरते हुए धड़ दिखाई पड़ते हैं। तब अकेले लक्ष्मण ने खर व दूषण को युद्ध में मार गिराया। जाम्बवन्त के यह कहा जाने पर कि जो कोटिशिला को अच्छी तरह से हिला देगा वही रावण का प्रतिद्वन्द्वी और विद्याधरों का स्वामी होगा, लक्ष्मण ने पूजा अर्चना के साथ मंगलोच्चारण कर उस शिला को अच्छी तरह चालित कर दिया। वनवासपर्यन्त तीव्र प्यास लगने पर राम व सीता सहित लक्ष्मण किसी द्विज के घर से पानी पीकर बाहर निकल ही रहे थे कि बाहर से आयेे द्विज ने कुपित हो उनको अपशब्द कहे। उन शब्दों को सुनकर उग्र स्वभावी लक्ष्मण क्रुद्ध हो उठा और उसकोे उठाकर आकाश में घुमाकर धरती तल पर पटकने लगा। तभी राम ने उसे रोक लिया। सुग्रीव के द्वारा रावण के पराक्रम का कथन कर उसे जीतना कठिन बताया जाने पर लक्ष्मण कुपित हो उठा और बोला- अंग, अंगद, नील और आप सब अपनी भुजाओं को सहेजकर बैठे रहो, रावण के जीवन को नष्ट करनेवाला अकेला मैं लक्ष्मण ही पर्याप्त हूँ। रावण की शक्ति के आगे सीता की प्राप्ति की आशा छोड़ देने की बात सुनकर उग्र हुए लक्ष्मण ने कहा, जाओ मरो, यदि तुम में शक्ति नहीं है, मैं अकेला लक्ष्मण यह आशा पूरी करूँगा, कहाँ की विद्या और कहाँ की शक्ति, कल तुम उसका अन्त देखोगे। हे दशरथ नन्दन! मैंने प्रतिज्ञा की है, मैं अपने तीरों के समुद्र में उस दुष्ट को डुबोकर रहूँगा। राम के द्वारा रावण के पास भेजे जानेवाले संधि प्रस्ताव को सुनकर यशके लोभी लक्ष्मण ने राम पर क्रोधित होते हुए कहा, ‘जिसकी भुजाएँ और यश इतने ठोस हों, फिर आप इतने दीन शब्दों का प्रयोग क्यों कर रहे हो? हे देव, आपकी इन ओजहीन बातों से मैं दूर हूँ, आप तो केवल धनुष हाथ में लीजिए और उस पर शर संधान कीजिए। लक्ष्मण का ओजपूर्ण कथन सुनकर राम भी भड़क उठे और उन्होंने संधि की बात छोड़ दी। राम और रावण की सेना के मध्य हुए युद्ध में रावण अपनी शक्ति को विभीषण पर छोड़ने ही वाला था कि यश के लोभी लक्ष्मण ने अपना रथ उन दोनों के बीच में लाकर खड़ा
  5. भरत पूर्व में राम के कथानक के माध्यम से स्वयंभू यही संदेष देना चाहते है कि प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति को अपने जीवन में सर्वप्रथम अपनी प्राथमिकताएँ निर्धारित करना चाहिए। प्राथमिकता पूरी होने के बाद आगे बढना चाहिए। इससे जीवन बहुत कम संघर्ष के आगे बढता है। राम की सबसे पहली प्राथमिकता उसकी माँ कौषल्या तथा पत्नी सीता होती है। आज भी यदि प्रत्येक व्यक्ति इस प्राथमिकता पर विचार कर इसको क्रियान्वित करने का प्रयास करे, तो एक षान्त और सुखी भारत का सपना साकार हो सकता है। इसी प्रकार हम स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ के अन्य पात्रों के माध्यम से भी मानव मन के विभिन्न आयामों से परिचित होने का प्रयास करेगें। इस ही क्रम में आज राम के भाई भरत के कथानक पर विचार करते हैं। भरत दशरथ एवं कैकेयी के पुत्र तथा पउमचरिउ के नायक राम के छोेटे भाई हैं। पउमचरिउ के दूसरे विद्याधरकाण्ड की 24वीं संधि के 5वें कडवक में बाल्यवस्था में प्रव्रज्या लेने को तत्पर भरत को दशरथ द्वारा यह कहकर फटकारा गया है कि ‘ तो किं पहिलउ पट्टु पडिच्छिउ’ अर्थात् तोे पहले तुमने राज्य की इच्छा क्यों कि ? इससे प्रतीत होता है कि भरत ने कभी केकैयी व दशरथ के समक्ष राजपट्ट प्राप्त करने की क्षणिक इच्छा प्रकट की होगी या फिर दशरथ ने अपने बचाव के लिए यह युक्ति अपने मन से कही होगी। मात्र इसके अतिरिक्त भरत का चरित्र काव्य में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक आसन्न भव्य अर्थात् निकट मुक्तिगामी के रूप में ही उभरकर आया है। आसन्न भव्यता का ही परिणाम है कि अपने पारिवारिक मामलों में ये सत्यवादी एवं निर्भीक रहे हैं। नन्दावर्त के राजा अनन्तवीर्य ने भरत के साथ हुए युद्ध में पराजित होने के बाद प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। तभी आसन्न भव्य भरत अनन्तवीर्य के द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण किया जानकर उनके पास आये। वहाँ आकर उन्होंने अपनी निन्दा तथा अनन्तवीर्य मुनिवर की वन्दना करते हुए कहा कि हे देव, आपकी प्रतिज्ञा पूरी हुई जो आपने मुझे भी अपने चरणों में गिरा लिया। राम के लिए वनवास एवं स्वयं के लिए राज्य की बात सुनकर निर्भिक एवं कटु सत्यवादी भरत ने पिता को धिक्कारा। उन्होंने कहा, महामदान्ध आप भी कुछ नहीं समझते। क्या राम को छोड़कर मुझे राजपट्ट बाँधा जायेगा? सज्जन पुरुष भी चंचल चित्त होते हैं। वे मन में युक्त और अयुक्त का विचार नहीं करते। कामान्ध के लिए किसका सत्य। आप घर पर ही रहें। शत्रुघ्न, राम, मैं और लक्ष्मण वन के लिए जाते हैं। आप भी झूठे मत बनो और धरती का उपभोग करो। पुनः दशरथ द्वारा भरत को परम गृहस्थधर्म का पालन किया जाने के लिए कहने पर भरत ने प्रत्युत्तर में कहा कि यदि गृहवास में सुख है तो आप उसे तृण के समान समझकर किस कारण संन्यास ग्रहण कर रहे हो। राम ने भरत को पिता के वचन का पालन करने के लिय कहकर भरत के सिर पर राजपट्ट बांध दिया। तब पिता के समक्ष कटुवचन कहने वाले भरत भाई राम के प्रति सम्मान भाव होने के कारण कुछ नहीं बोल पाये। पुनः राम का वनवास के लिए गमन कर जाना सुनकर भरत मूच्र्छित हो गये। होश आने पर राम को खोजने निकल पडे़। लतागृह में सीता और लक्ष्मण सहित राम को देखकर वह उनके चरणों पर गिर पडे़। उनको प्रवास पर जाने से रोककर राज्य करने हेतु निवेदन करने लगे। इस पर राम ने भरत का आलिंगन कर उनके विनय की सराहना की। तब भरत बिना कुछ बोले वहाँ से चल दिये और मुनिवर से यह व्रत ले लिया कि राम को देखते ही मैं राज्य से निवृत्ति ले लूँगा। भरत भामण्डल से वनवास पर्यन्त लक्ष्मण का शक्ति से आहत होना जानकर मूच्र्छित होकर धरती पर गिर पडे़। होश में आते ही वे लक्ष्मण के स्वस्थ होने की औषधि कीे प्राप्ति के विषय में जानकर शीघ्र अपनी माँ कैकेयी को लेकर मामा द्रोणघन के पास पहुँचे। वहाँ जाकर विशल्या के स्नान जल के स्थान पर स्वयं विशल्या को ही भिजवा दिया जिससे लक्ष्मण जीवित हो उठे। अन्त में भरत ने त्रिजगभूषण महागज के जन्मान्तरों को मुनिराज से सुनकर हजारों सामन्तों के साथ संन्यास ग्रहण कर लिया। आगे लक्ष्मण से सम्बन्धित कथानक पर प्रकाश डाला जायेगा।
  6. इससे पूर्व हमने दशरथ के चरित्र चित्रण के माध्यम से देखा कि अज्ञान अवस्था में रागभाव से की गयी मात्र एक गलती घर-परिवारजनों के लिए कितना संकट उत्पन्न कर देती है ? एक राग के कारण दशरथ अपनी पहली पत्नी कौशल्या के प्रति इतना संवेदनहीन हो गये कि वे यह भी विचार नहीं कर पाये कि कैकेयी की बात मानने से कौशल्या के मन पर क्या असर होगा। सारा परिवार किस प्रकार छिन्न भिन्न हो जायेगा। रागवश मनुष्य की मति संवेदनहीन हो जाती है। अब आगे हम राम के चरित्र के माध्यम से देखेंगे कि वह एक संकट आगे पुनः कितने नये संकटों को जन्म देता है राम राम पउमचरिउ काव्य के नायक हैं। स्वयंभू ने पउमचरिउ काव्य की रचना अपने जिस उद्देश्य एवं विचारधारा को लेकर की है, उस विचारधारा एवं उद्देश्य को हम पउमचरिउ के नायक राम के चरित्र में स्पष्टरूप से देख सकते हैं। उस ही के आधार पर हम यह भी निर्णय कर सकते है कि स्वयंभू का अपने सांस्कृतिक परिवेश के मूल्य बोध और उसकी संभावनाओं के प्रति कितना गहरा परिचय था। इन ही मुख्य बिन्दु को आधार बनाकर पउमचरिउ में प्रारंभ से अंत तक वर्णित राम के चरित्र का आकलन करने का प्रयास करते हैं। राजा जनक के शबरों से घिर जाने पर दशरथ जनक की सहायता के लिये जाने हेतु तैयार हुए। तभी आदर्श पुत्र राम ने दशरथ को यह कहकर कि मेरे जीते जी आप क्यों जा रहे हैं ? मै शत्रु को मारूँगा और युद्ध के लिये कूच कर दिया। राम, लक्ष्मण को साथ लेकर शबरों व म्लेच्छों से घिरे राजा जनक के पास मिथिला नगरी जाते हैं तथा शत्रु सेना को पराजित कर जनक को म्लच्छों के मुक्त कर देते हैं। उसी समय राजा जनक राम के पराक्रम से प्रभावित होकर सीता का राम से विवाह करने का मन में विचार कर लेते हैं। समय आने पर राजा जनक सीता के लिए स्वयंवर रचाते हैं। राम और लक्ष्मण भी उस स्वयंवर में पहुचते हैं। विश्व के सभी नामी राजाओं के उस धनुष को उठाने में असफल होने के बाद राम ने वजा्रवर्त और समुद्रावर्त धनुषों को डोेरी पर चढ़ा लेते हैं। तब राम के पराक्रम से प्रभावित होकर जनक सीता का राम से विवाह कर देते हैं। केकैयी के द्वारा अपने लिए दिये गये वरदान स्वरूप दशरथ से राम के स्थान पर अपने पुत्र भरत के लिए राज्य मांगा गया। तब दशरथ को अपने वचन का पालन करने में लक्ष्मण से भयभीत होते देखकर राम ने नम्रतापूर्वक कहा -‘‘पुत्र का पुत्रत्व उसी में है कि वह कुल को संकट में नहीं डालता तथा अपने पिता की आज्ञा धारण करता है।गुणहीन और हृदय में पीड़ा पहुँचाने वाले ‘पुत्र’ शब्द की पूर्ति करने वाले पुत्र से क्या? लक्ष्मण हनन नहीं करेगा। आप तप साधंे एवं सत्य को प्रकाशित करें। भरत धरती का भोग करे, मैं वनवास के लिए जाता हूँ’। इस प्रकार पिता को भयमुक्त कर भरत के सिर पर पट्ट बाँध कर अपने लिए स्वयं वनवास अंगीकार कर राम ने पिता के प्रति आदर्श पुत्र का कर्त्तव्य निभाया। लंकानगरी में नारद से माता कौशल्या कीे क्षीण दशा होना जानकर राम दुःखी हो गये और बोले, मैंने यदि आज या कल में माँ के दर्शन नहीं किये तो माँ के प्राणपखेरु उड़ जायेंगे, अपनी माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्यारी होती है, और शीघ्र ही अयोध्या के लिए कूच कर दिया। राम का अपनीे पत्नी सीता के प्रति दृढ़ प्रेम था। सीता के प्रति इस दृढ़ प्रेम के कारण ही राम ने वनवास हेतु सीता का भी साथ चलने का मन देखकर उनको अपने साथ ले लिया तथा रावण से सीता को प्राप्त करने में सफल हो सके। सीता का हरण होने पर सीता के वियोग में दुःखी राम को मुनिराज ने बहुत समझाया। तब सीता के प्रेम में दृढ़ राम ने निरन्तर अश्रुधारा छोड़ते हुए कहा, ग्राम, श्रेष्ठनगर, महागज, आज्ञाकारी भृत्य आदि सब प्राप्त किये जा सकते हैं किन्तु ऐसा स्त्रीरत्न प्राप्त नहीं किया जा सकता। जाम्बवन्त ने राम के शोक को कम करने हेतु उनको 13 रूपवान कन्याएँ देने की बात कही। तब राम ने प्रत्युत्तर में कहा, ‘यदि रम्भा या तिलोत्तमा भी हों तो भीे सीता की तुलना में मेरे लिये कुछ भी नहीं है। रावण के दूत से सीता के बदले में राज्य और रत्नकोष लेने की बात सुनकर राम ने कहा कि निधियाँ एवं राज्य आदि सब कुछ वही ले ले हमें तो केवल सीतादेवी चाहिए। लवण व अंकुष के अयोध्यानगरी में प्रवेष करने पर राम के प्रमुख जनों ने सीता को अयोध्या लाने का प्रस्ताव रखा। उस प्रस्ताव को सुनकर राम ने कहा कि मैं सीतादेवी के सतीत्व को जानता हूँ किन्तु यह नहीं जानता कि नागरिकजनों ने मेरे घर पर यह कलंक क्यों लगाया। तब विभीषण के द्वारा त्रिजटा व हनुमान के द्वारा बुलाई गई लंकासुन्दरी से सीता के सतीत्व को जानकर राम प्रजा से निर्भीक हुए और सीता को लाने की स्वीकृति दी। राम का अपने भाइयों भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न पर अत्यन्त प्रेम था। वनवास हेतु निकले राम ने गम्भीर नदी को पार कर समूची सेना को भरत के अच्छे अनुचर बनने के लिए कहकर अयोध्या वापस लौटा दिया। वनवास के समय जब राम ने यह जाना कि अनन्तवीर्य ने भरत को युद्ध में मारने की प्रतिज्ञा की है, तब राम ने अनन्तवीर्य से युद्ध कर उसको पराजित किया। अनन्तवीर्य के तपश्चर्याग्रहण करने पर राम ने उसके पुत्र सहस्रार को भरत का सेवक बना दिया। इस तरह वनवास में रहते हुए भी राम ने भाई भरत का पूरा ध्यान रखा। वनवास के बाद लंकानगरी से अयोध्या में पहँुचते ही राम ने राज्य की इच्छा नहीं कर भरत को ही पूर्ववत राज्य करते रहने के लिए कहा। वनवास हेतु साथ चलने को तैयार लक्ष्मण को राम ने अपने साथ ले लिया। लक्ष्मण के सिंहनाद को सुनते ही राम अपशकुन होने पर भी उन सबकी उपेक्षा कर लक्ष्मण के पास युद्ध क्षेत्र में पहुँच गये। हनुमान ने राम से रावण को मारने की अनुमति मांगी किन्तु राम रावण को मारने का श्रेय अपने प्रिय भाई लक्ष्मण को ही दिलवाना चाहते थे। अतः अन्त में राम ने लक्ष्मण को ही रावण के साथ युद्ध काने का अवसर दिया। लक्ष्मण के शक्तिबाण लगने पर राम ने प्रतिज्ञा की कि कल कुमार के अन्त होने तक एक पल के लिए भी यदि दशानन जीवित रह गया तो मैं अपने आपको जलती ज्वाला में होम दूंगा। तब मुख्य-मुख्य लोगों को विषल्या का स्नान जल लाने भेजा। राम के राजगद्दी पर बैठकर शत्रुघ्न द्वारा राजा राम से मधुराज की मथुरा नगरी मांगी गयी। तब उसके लिए मथुरा पर राज्य करना कठिन जानकर भी उसकी सहायता कर मधु को जीतकर मथुरा नगरी प्राप्त करने की अनुमति दे दी । राम का हनुमान, सुग्रीव, जाम्बवन्त, नल, नील, अंगद आदि सहयोगी मित्रों के साथ अच्छा मैत्री सम्बन्ध था। किष्किन्धानरेश सुग्रीव, मायावी सुग्रीव से पराजित होकर सहायता के लिए राम की शरण में आये। तब राम ने सुग्रीव से कहा, मित्र! तुम तो मेरे पास आ गये पर मैं किसके पास जाऊँ ? जैसे तुम वैसे मैं भी स्त्री वियोग से दुःखी जंगल-जंगल में भटक रहा हूँ। इस पर सुग्रीव ने सातवें दिन सीतादेवी का वृत्तान्त लाने की प्रतिज्ञा की। तब राम ने भी मित्रता का हवाला देते हुए कहा-हे मित्र! मैंने भी यदि सात दिन में तुम्हारी स्त्री तारा को लाकर नहीं दिया तो सातवें दिन संन्यास ले लूंगा। तदनन्तर राम ने कपटी सुग्रीव को मार कर तारा सहित सुग्रीव को पुनः अपने नगर में प्रतिष्ठित करवाकर मित्रता का निर्वाह किया। सुग्रीव राजभोगों में आसक्त होकर राम के साथ किये गये संकल्प व उनके उपकार को भूल गया। तब राम ने लक्ष्मण को उसके संकल्प को याद दिलाने हेतु भेजा। यह सुनकर सुग्रीव लक्ष्मण से क्षमायाचना कर सीता की खोज करने निकल पड़ा। इस तरह राम ने सुग्रीव को भी मित्रता निभाना सिखाया। राम का अपने सहयोगि मित्रों पर अत्यन्त विश्वास था। वे उनसे परामर्श लेकर ही आगे बढ़ते थे। इन्होंने मित्र जाम्बवन्त से अपनी सेना के लोगों की बुद्धिमत्ता के विषय में जानकर ही अंगद को सन्धि का प्रस्ताव लेकर रावण के पास भेजा। लंका की ओर प्रस्थान करने पर मार्ग में राम ने सुग्रीव के परामर्श से ही नल व नील को सेतु व समुद्र से युद्ध करने का आदेश दिया। राम ने प्रथम बार हनुमान से मिलने पर तथा दूसरी बार सीता का वृत्तान्त लाकर देने पर दोनों ही अवसरों पर हनुमान को अपने आधे आसन पर बिठाकर मित्रवत प्रेम किया। राजगद्दी पर बैठकर राम ने लक्ष्मण के लिए तीन खण्ड धरती, चन्द्रोदर के लिए पाताललंका, सुग्रीव के लिए किष्किन्धानगर, महेन्द्र के लिए माहेन्द्रपुरी, हनुमान के लिए आदित्यनगर और अन्य दूसरों के लिए अन्य राज्य प्रदान कर सबके प्रति अपनी अच्छी मित्रता का निर्वाह किया। राम का गुणीजनों के प्रति अत्यन्त प्रेम था। राम ने जिन भक्त वज्रकर्ण राजा की उसके दृढ़ व्रत पालन में आये विघ्न से रक्षा की। रावण के पापाचरण से दुःखी होकर विभीषण राम की सेना में आकर मिल गया। तब राम ने उससे कहा, मैं तुम्हें शर्मिन्दा नहीं होने दूंगा, तुम समस्त लंका का भोग करोगे। रावण की मृत्यु के पश्चात् राम ने अपने दिये गये वचनानुसार विभीषण से यह कहकर, तुम्हारे घर में राज्यश्री तुम्हारी अपनी हो, जब तक आकाश में देवता, धरती पर सुमेरुपर्वत, समुद्र में पानी और इस धरती पर मेरी कीर्ति कायम रहती है तब तक तुम राज करो,अपने हाथों से विभीषण के राजपट्ट बाँंध दिया। राम ब्राह्मण, बालक, गाय, पशुु, तपस्वी और स्त्री इन छः को मान क्रिया छोड़कर बचानेे के पक्षधर थे। राम अपने शत्रु के प्रति भी द्वेषभाव से रहित थे। रावण की मृत्यु होने पर दुःखी विभीषण को राम ने धीरज बँधाते हुए कहा -रावण ने निरन्तर दान दिया है, याचकजनों की आशाा पूरी की है, निशाचर कुल का उद्धार किया है, सहस्रकिरण, नलकूबर और वरुण का प्रतिकार किया है, जिसकी संसार में प्रसिद्धि है, उसके लिए क्यों रोते हो? यह सुनकर विभीषण ने रावण की निन्दा की तो राम ने यह निन्दा का अवसर नहीं है, यह कहकर निन्दा करने से रोक दिया। उसके बाद राम ने रावण के परिजनों को लकड़िया निकालने का आदेश दिया और रावण की अर्थी उठवाकर सरोवर में स्नान कर रावण को पानी दिया। राम दुःखियों के प्रति करुणावान थे। वनवासपर्यन्त कूबरनगर के राजा बालिखिल्य को मुक्त करवा कर कल्याणमाला को निर्भय किया। जिनदेव, जिनवाणी, गुरु व संन्यास के प्रति इनकी अत्यन्त श्र्रद्धा थी। वनवास हेतु प्रस्थान करने पर राम ने सर्वप्रथम सिद्धकूट जिनालय पहुँचकर जिनदेव की भावपूर्वक वन्दना की। अवसर मिलते ही वे जिनदेव की वन्दना करते देखे गये हैं। वनवासपर्यन्त राम ने वंशस्थल नगर में विराजमान कुलभूषण व देशभूषण मुनि की असुरों द्वारा किये गये उपसर्ग से रक्षा की। उनसे धर्म व अधर्म का फल जानकर उनके द्वारा दिये गये व्रतों को स्वीकार किया। दण्डकारण्य में गुप्त व सुगुप्त मुनि को आहारचर्या हेतु निकला देख राम ने विनयपूर्वक उनका पड़गाहन किया। पादप्रक्षालन व पूजा वन्दना कर उनको आहार दिया। उनके आहारदान के फलस्वरूप पुण्य से दुन्दुभि, गंधपवन, रत्नावली, साधुकार एवं कुसुमांजलि ये पाँच आश्चर्य प्रकट हुए। सीता को रावण से बचाने के प्रयास में निर्दलित हुए जटायु को राम ने पंच णमोकार मंत्र का उच्चारण कर आठ मूलगुण दिये और सम्बोधन दिया। राम के द्वारा युद्ध में पराजित होने के बाद अनन्तवीर्य को तपश्चरण ग्रहण करने हेतु उद्यत देख राम के मन में उनके प्रति पूज्य भाव उत्पन्न हुआ। मन्दोदरी द्वारा परिग्रह का त्याग कर ‘पाणिपात्र’ आहार ग्रहण किया जाने की बात सुनकर राम रोमांचित हो उठे और उनकी प्रशंसा की। रावण से सीता को प्राप्त कर भरत के दीक्षा ग्रहण करने के बाद् राज पद पर आसीन होते ही राम ने आदर्श राजा के अनुरूप प्रमुख-प्रमुख लोगों को अपने-अपने राज्य का राजा बनाकर उनको राजा के कर्त्तव्यों से अवगत करवाया। उन्होंने कहा कि जो भी राजा हुआ है या होगा उससे मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि उसको दुनियाँ में किसी के प्रति कठोर नहीं होना चाहिए। न्याय से दसवाँ अंष लेकर प्रजा का पालन करना चाहिए। देवताओं, श्रमणों व ब्राह्मणों को कभी पीड़ा नहीं पहुँचायी जानी चाहिए। वही राजा अविचल रूप से राज्य करता है जो धरती का भली प्रकार पालन करता है तथा प्रजा से प्रेम करता है। इसके विपरीत जो राजा देवभाग का अपहरण करता है, दोहली भूमिदान का अन्त करता है वह विनाश को प्राप्त होता है। राजपद पर आसीन होने के कुछ समय बाद ही प्रजा ने राजा राम को सीता का आश्रय लेकर खोटी स्त्रियों का खुले आम दूसरे पुरुषों के साथ रमण करना बताया। प्रजा ने यह भी कहा कि आप स्वयं भी रावण के साथ रही सीता के अपराध पर विचार करें। यह सुनकर राम भयभीत हुए और विचार करने लगे-‘‘जनता यदि किसी कारण निरंकुश हो उठे तो वह हाथियों के समूह की तरह आचरण करती है। जो उसे भोजन और जल देता है वह उसी को जान से मार डालती है’’। इस तरह भय से ग्रस्त होने पर उन्हें लगा कि सीता चली जाय परन्तु प्रजा का विरोध करना ठीक नहीं। मेरा मन कहता है कि वह महासती है फिर भी रावण के घर में सीता के रहने के प्रवाद को कौन मिटा सकता है। प्रजा की इस बात का लक्ष्मण ने भी कड़ा विरोध किया और सीता के प्रति द्वेष भाव रखनेवाले को मारने हेतु उद्यत हुए। तभी राम ने लक्ष्मण को पकड़ लिया और कहा, ‘राजा लोग प्रजा को न्याय से अंगीकार करते हैं। वह भला बुरा कहे तब भी वे उसका पालन करते हैं। अतः रघुकुल में कलंक मत लगने दो। त्रिभुवन में कहीं अपयश का डंका न पिट जाये अतः सीता को कहीं भी वन में छोड़ आओ। इस तरह झूठे अपयश से आक्रान्त होकर राम ने अपनी प्रिय पत्नी तक को निर्वासन दे दिया। राम के प्रमुखजनों के अनुरोध पर सीता अयोध्या आयीं और जिस वन से उनको निर्वासन दिया गया था उस ही वन में जाकर ठहरीं। प्रातःकाल होने पर सीता उच्च आसन पर आसीन हो र्गइं। तब वहाँ आये राम ने अपने पुरुषत्व के गरुर के कारण अपनी पत्नी की कान्ति को सहन नहीं कर सके और पुरुषत्व के गरुर से भरकर उसका उपहास करते हुए कहा, स्त्री चाहे कितनी ही कुलीन और प्रशंसनीय हो वह बहुत निर्लज्ज होती है। अपने कुल में दाग लगाने से भी वह नहीं झिझकती। वह इससे भी नहीं डरती कि त्रिभुवन में उनके अपयश का डंका बज सकता है। धिक्कारने वाले पति को वह कैसे अपना मुख दिखाती है? यह सुनकर सीता ने राम की तीव्र भर्त्सना कर अपने सतीत्व की परीक्षा देने की घोषणा कर दी। तब पुरुषत्व के अहंकार से भरे राम ने भी सीता की अग्नि परीक्षा का समर्थन कर दिया। अग्नि परीक्षा हेतु लकड़ियों पर बैठकर सीता ने अग्नि का आह्वान किया। तब सीता के सतीत्व के प्रभाव से अग्नि भी ठंडी होकर विशाल कमल व सुन्दर सिंहासन सहित सरोवर में बदल गई। उसी समय समस्त जन समूह सिंहासन पर आसीन सीता के पास पहुँचा। तब राम ने भी उन सबके समक्ष सीता से क्षमायाचना की। उन्होंने कहा- अकारण दुष्ट चुगलखोरों के कहने में आकर मैंने जो तुम्हारी अवमानना की और जिसके कारण तुम्हें इतना दुःख सहना पड़ा, हे परमेश्वरी, तुम इसके लिए मुझे एक बार क्षमा कर दो और मेरे साथ चलकर राज्य करो। किन्तु विषय सुखों से उब चुकी सीता ने जब अपने सिर के केश उखाड़कर राम के सम्मुख डाल दिये। यह देख राम मूर्छित होकर धरती पर गिर पडे। मूर्छा चले जाने पर राम ने किसी से सीता का किसी मुनिराज के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करने के विषय में सुना तो गुस्से से भरकर वे मुनिराज के पास पहुँचे, किन्तु केवलज्ञान से युक्त मुनिराज को देखकर उनका गुस्सा दूर हो गया। मुनिराज के चरणों में प्रणाम कर उनके द्वारा कथित धर्म को सुना। इस प्रकार कवि स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ में रामकथा यही तक लिखी गयी है। आगे का रामकाव्य उनके पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखा गया है। यहाँ हम युग पुरुष राम के चरित्र के माध्यम से विचार करते हैं तो देखते हैं कि गुणों के पुंज राम कुछ मानवीय कमजोरियों के कारण कितने दुःखी दिखायी दिये हैं। सर्वप्रथम पिता दशरथ की गलत बात का सम्मान कर उन्होंने ना अपनी माँ कौशल्या के विषय में सोचा और ना ही अपनी पत्नी के विषय में सोचा की एक महिला का वनवास में रहना कितना कठिन है। पुनः प्रजा की गलत बात का सम्मान कर सीता को निर्वासन दे दिया। उससे भी आगे पुनः अपने पुरुषत्व के अहंकार से सीता को अग्निपरीक्षा हेतु विवश किया। अंत में भले ही उन्होंने अपनी गलतियों के प्रति क्षमा याचना की हो किन्तु इससे सीता को कितना दुःख उठाना पडा। स्वयंभू की सीता के प्रति यह संवेदनशीलता ही थी कि उन्होंने सीता के सम्मान में काव्य को यही विराम देना उचित समझा।
  7. 4. दशरथ - जैन दर्शन के अनुसार कारण और कार्य का अपूर्व सम्बन्ध है। हेतुना न बिना कार्यं भवतीति किमद्भुतम्। अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? इस ही आधार पर हम यहाँ भी देखेंगे कि किसी भी घटना का घटित होता कार्य और कारण के सम्बन्ध पर ही आश्रित है, अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इससे हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होने से रामकथा के सभी पात्रों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार संभव हो सकेगा तथा रामकथा को भी भलीर्भांति समझ सकेंगे। आगे हम पउमचरिउ के अनुसार रामकथा के सभी प्रमुख पात्रों की सम्पूर्ण जीवन यात्रा को देखने का प्रयास करते हैं। 1. अनुरागी - नारद ने विभीषण द्वारा दशरथ व जनक को मारने के लिए बनाई गई योेजना दशरथ को बतायी। यह सुनकर दशरथ जनक के साथ अयोध्या से निकलकर कौतुक नगर पहुँचे। वहाँँ शुुभमति राजा की कन्या कैकेयी का स्वयंवर रचाया जा रहा था।दशरथ भी उस स्वयंवर में पहुँचे। कैकेयी द्वारा दशरथ के गले में वरमाला डाल दी गई। इससे हरिवाहन राजा ने क्रुद्ध होकर दशरथ से युद्ध किया।दशरथ ने कैकेयी को धुरी पर सारथी बनाकर युद्ध में हरिवाहन को जीत लिया और कैकेयी से विवाह कर लिया। कैकेयी का इस प्रकार युद्ध में साथ देने के कार्य से प्रसन्न होकर दशरथ ने अनुरागपूर्वक बिना विचार किये कैकेयी से कुछ भी मांगने को कहा। प्रत्युत्तर में कैकेयी ने कहा- हे देव, आपने दे दिया, जब मैं मांगू तब आप अपने सत्य का पालन करना। 2. वैरागी चित्त - दशरथ कंचुकी के मुख से स्वयं अपनी वृद्धावस्था के विषय में सुनकर विचार करने लगे,सचमुच जीवन चंचल है, क्या किया जाये जिससे मोक्ष सिद्ध हो। किसी दिन कंचुकी के समान हमारी भी अवस्था होगी। सिंहासन और छत्र सब अस्थिर हैं। इन सबको राम के लिए समर्पित कर मैं तप करूंगा। इस प्रकार वे वैराग्य धारण कर स्थित हो गये। 3. भय - वैराग्य होने पर अगले दिन जैसे ही दशरथ ने राम को राज्य देने की घोषणा की वैसे ही कैकेयी ने दशरथ के पास जाकर अपनी धरोहर के रूप में रखा हुआ वर मांग लिया। दशरथ ने भी राज्य में झूठा सिद्ध होने के बचने के भय से राम को बुलाया। उसके बाद दशरथ ने लक्ष्मण के उग्र स्वभाव से भयभीत हो राम से यह कहते हुए कि लक्ष्मण, भरत को राज्य दिया जानकर लाखों का काम तमाम कर देगा, इससे मैं, भरत, कैकेयी, शत्रुघ्न और सुप्रभा भी नहीं बच पायेंगे, भरत के लिए राज्य देने का आदेश दिया। तब राम ने पिता को भय से मुक्त कर अपने लिए वनवास अंगीकार कर लिया। इस पर भरत ने पिता को धिक्कारा। भरत के कठोर वचन सुनकर अपयश से बचने के लिए दशरथ ने कहा- कैकेयी को जो सत्य वचन मैंने दिया है तुम मुझे उससे उऋण करो। भरत के लिए राज्य, राम के लिए प्रवास, मेरे लिए प्रव्रज्या अब यही ठीक है। राम के प्रस्थान करने पर दशरथ ने अपने आपको धिक्कारते हुए कहा, मैंने राम को वनवास क्यों दे दिया? मैंने महान कुलक्रम का उल्लंघन किया। पुनः यशलोभ व भय से ग्रसित दशरथ द्वन्द्व विचार करने लगे कि यदि मैं सत्य का पालन नहीं करता, तो मैं अपने नाम औेर गोत्र को कलंकित करता, अच्छा हुआ राम गये पर सत्य का नाश नहीं हुआ। यह विचार कर भरत को राजपट्ट बाँंधकर दशरथ प्रव्रज्या के लिए कूच कर गये। राजा दशरथ के कथानक के माध्यम से हम यहाँ देख सकते है कि दशरथ के राग और अपयश भय के कारण ही रामकथा का प्रादुर्भाव हुआ है। जैसे भाव, वैसी मति और वैसी ही गति । दशरथ की इन प्रवृत्तियों ने अपने सारे परिवार को संकट में डाल दिया। आज भी हम हमारे पास किसी भी रूप में घटी घटना को देखेंगे तो मूल में मानव की इन ही प्रवृत्तियों को पायेंगे। आगे हम रामकथा के नायक राम का चरित्र चित्रण करेंगे। यदि इन चरित्रों को पढने से किसी के भी मन को ठेस पहुँचे तो उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। मेरा उद्देश्य अपनी प्रवृत्तियों के परिमार्जन से सब को सुख पहुँचाना है, दुःख नहीं जयजिनेन्द्र।
  8. अब हम रामकथा को रामकथा के पात्रों के चरित्र चित्रण के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। पात्रों के चरित्र-चित्रण से राम काव्य की कथावस्तु तो स्पष्ट होगी ही, साथ ही मानव मन के विभिन्न आयाम भी प्रकट होंगे। इस संसार में रंक से लेकर राजा तक कोई भी मनुष्य पूर्णरूप से सुखी एवं षान्त नहीं है। प्रत्येक मनुष्य के विकास मार्ग को उसकी किसी न किसी मुख्य मानवीय कमजोरी ने अवरुद्ध कर रखा है। अज्ञानवष व्यक्ति अपनी कमजोरियों का अन्वेषण नहीं कर पाने के कारण उचित समय पर उनका परिमार्जन नहीं कर पाता,, जिससे वह अपने वर्तमान जीवन में संक्लेषपूर्वक मरण को प्राप्त कर आगे भी दुर्गति को प्राप्त होता है। स्वयंभू पर अपभ्रंष भाषा के प्रथम अध्यात्मग्रंथकार आचार्य योगिन्दु (छठी षती ई.) का पूर्ण प्रभाव है। पउमचरिउ का सम्पूर्ण अध्ययन कर चुकने के बाद प्रतीत होता है कि योगिन्दु और स्वयंभू संवेदना के स्तर पर एक कोटि के हैं। दोनों का ही समभाव की भूमि पर खड़ा होने से समान रूप से सन्तुलित व्यक्तित्व है। अपने इस ही व्यक्तित्व के कारण स्वयंभू ने जिस तरह से रामकाव्य के चरित्रों की अवतारणा की है, वह आज के युग में बहुत उपयोगी है। विभिन्न पात्रों के चरित्र से व्यक्ति तादात्म्य स्थापित कर अपने मन की कमजोर प्रवृत्तियों का अन्वेषण करना प्रारम्भ करता है। इसके बाद पष्चाताप कर उनका परिमार्जन कर इस जन्म में षान्तिपूर्वक मरण को प्राप्त कर आगे भी सुगति को प्राप्त हाता है। जैन दर्षन में मानव की आधारभूत कमजोरी ‘राग’ के रूप में देखी गयी है। आगे चलकर यह राग की जड़ ही अनेक बुराइयों की षाखा के रूप में पल्लवित होती देखी गयी है। वैसे भी सभी महापुरुषों ने अपने ध्यान की अनुभूति को राग नही करने में ही अभिव्यक्त किया है। पउमचरिउ में अन्त में ध्यान पूरा होने के बाद सर्वप्रथम राम इन्द्रपर्याय प्राप्त सीता के पूर्वभव जीव को राग छोड़ने का उपदेष देते देखे गये हैं। श्री कृष्ण भी गीता में ‘कर्म करो किन्तु फल की आषा मत करो’ कहकर इस राग को छोड़ने का ही संदेष देते हैं। अध्यात्म का कोई भी ग्रंथ राग के कथन से अछूता नहीं है। तो हम देखते हैं इक्ष्वाकुवंष व रामकथा के पात्रों के माध्यम से मानव मन के विभिन्न आयामों को एवं उनसे प्राप्त फलों को। 1. ऋषभदेव ऋषभदेव से ही इक्ष्वाकुवंष तथा विद्याधरवंष की स्थापना हुई है। इनके समय में कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के कारण जीवन जीने की समस्या उत्पन्न हुई। ऋषभदेव ने ही असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और अन्य दूसरी विद्याओं की षिक्षा देकर प्रजा को जीवन जीने का उपाय बताया। नन्दा व सुनन्दा से ऋषभदेव का विवाह हुआ तथा इनके भरत व बाहुबलि के समान सौ पुत्र हुए। सभी पुत्रों को षासन करने हेतु अलग-अलग नगर प्रदान कर तथा भरत को राज्य लक्ष्मी देकर ऋषभदेव संन्यास ग्रहण कर तप में लीन हो गये। तप करते हुए इनको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। कैलाष पर्वत पर प्रतिष्ठित होकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं निर्वाण से सम्बन्धित सभी कल्याणक महोत्सव देवों के द्वारा मनाये गये। 2. भरत भरत इक्ष्वाकुवंषी ऋषभदेव के पुत्र हैं। ऋषभदेव के संन्यास ग्रहण करने पर ये राज्यलक्ष्मी के अधिकारी बने। अनेक राजाओं को अपने अधीनस्थ बनाकर भरत जैसे ही अयोध्या में प्रवेष करते हैं, उनका चक्ररत्न अयोध्या नगर में प्रवेष नहीं कर सका। भरत ने मन्त्रियों से इसका कारण अपने छोटे भाई पोदनपुर के राजा बाहुबलि का अधीन नहीं होना जाना। उन्होंने बाहुबली के पास अपनी आज्ञा मनवाने हेतु दूत भेजा। बाहुबलि ने भरत के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब क्रोधित हुए भरत ने युद्ध के लिए कूच कर दिया। मंत्रियों के परामर्ष से हिंसक युद्ध को विराम दिया जाकर दोनों के मध्य दृष्टि, जल एवं मल्ल युद्ध प्रारम्भ हुआ। तीनों ही युद्ध में विजय के उत्कट आकांक्षी भरत बाहुबलि से पराजित हुए। विजयी बाहुबलि ने संन्यास ग्रहण कर लिया। लम्बे समय तक भी बाहुबलि को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होने पर भरत ने पिता ऋषभदेव से इसका कारण पूछा। तब ऋषभदेव ने बाहुबलि के मन में भरत की भूमि पर खडे़ होने का कषाय भाव होना बताया। यह जानकर भरत प्रेम व उपकार की भावना से भरकर षीघ्र बाहुबलि के पास गये। बाहुबलि के चरणों में गिरकर भरत ने कहा- यह धरती आपकी ही है। इस प्रकार उनके कषाय भाव को षान्त करने में सहयोग प्रदान कर उनके केवलज्ञान प्राप्ति में सहायक बने। अन्त में भरत ने अयोध्या में अर्ककीर्ति को प्रतिष्ठित कर वैराग्य धारण कर लिया। इस प्रकार चक्रवर्ती भरत का जीवन राग व वैराग्य दोनों से युक्त देखा जाता है। 3. बाहुबलि बाहुबलि इक्ष्वाकुवंषी ऋषभदेव के पुत्र एवं राजा भरत के छोटे भाई हैं। पिता ऋषभदेव द्वारा दिये गये पोदनपुर नगर को प्राप्त कर बाहुबलि पोदनपुर के राजा बने। इनका षान्त, स्वतन्त्रता प्रिय, पराक्रमी एवं निर्भीक व्यक्तित्व है।इनको स्वचेतना की किंचित भी परतन्त्रता मान्य नहीं है। दूत से भरत की अधीनता स्वीकार करने की बात सुन निर्भीक बाहुबली स्पष्ट रूप से कहते हैं - ‘‘प्रवास करते हुए परमजिनेष्वर ने जो कुछ भी विभाजन करके दिया है वही हमारा सुखनिधान षासन है। मैंने किसी के साथ कुछ भी बुरा नहीं किया। मैं अपनी ताकत से ही जीता हूँ भरत की ताकत से नहीं। एक चक्र से ही यह घमण्ड करता है कि मैंने समूची धरती अधीन करली है। मैं कल उसे ऐसा कर दूंगा जिससे उसका सारा दर्प चूर-चूर हो जायेगा’’। पराक्रमी बाहुबली भरत के साथ हुए दृष्टि, जल एवं मल्ल तीनों युद्धों में विजयी हुए। भरत के द्वारा चक्र छोड़ा जाने पर बाहुबलि सोचते हैं कि मैं उसको आज धरती पर गिरा दूँ। पुनः षान्त प्रकृति बाहुबलि ने यह विचार किया कि राज्य के लिए अनुचित किया जाता है। भाई, बाप और पुत्र को मार दिया जाता है। तब अपने आपको धिक्कार कर एवं दीक्षा ग्रहण कर मोक्षमार्ग की साधना में लीन हो गये। थोडे़ ही दिनों में वे घातिया कर्म का नाष कर सिद्ध हो गये। सच्चे अर्थ में यदि संसार से अन्याय को हटाना हो तथा स्वयं के व्यक्तित्व को विकसित करना हो तो बाहुबलि का चरित्र अनुकरणीय है। पिता ऋषभदेव से भी पहले बाहुबलि मोक्ष गये। इस ही कडी में आगे राम के पिता दषरथ के चरित्र चित्रण से कथन पुनः प्रारम्भ किया जायेगा। रामकथा का आरम्भ यही से होगा।
  9. पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड जैन रामकथा का प्रथम विद्याधरकाण्ड आगे की सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस विद्याधरकाण्ड का सही रूप से आकलन किया जाने पर ही अन्य रामकथाओं के सन्दर्भ में जैन रामकथा के वैषिष्ट्य को समझा जा सकता है। यह विद्याधरकाण्ड भारतदेष के षक्तिषाली विद्याधरो के कथन के माध्यम से भारतदेष की सभ्यता एवं संस्कृति का एक सुन्दर चित्रण है। इसमें भारतदेष में विभिन्न वंषों की उत्पत्ति एवं उन वंषों में रहे सम्बन्धों को बताया गया है। आगे की सम्पूर्ण रामकथा का सम्बन्ध भी इन्हीं वंषों से है। ये वंष हैं- इक्ष्वाकुवंष, विद्याधरवंष, राक्षसवंष, वानरवंष। इस अनन्त, निरपेक्ष, निराकार और शून्यरूप सम्पूर्ण अलोकाकाश के मध्य चौदह राजू प्रमाण त्रिलोक है। त्रिलोक में एक राजू प्रमाण तिर्यक्लोक है और तिर्यकलोक में एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है। उस जम्बूद्वीप के भीतर सुमेरुपर्वत है तथा सुमेरुपर्वत के दक्षिणभाग में भरतक्षेत्र स्थित है। इस भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी काल के बीतनेपर प्रतिश्रुत, सन्मतिवान्, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, चक्षुष्मान, यशस्वी, विमलवाहन, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित व अन्तिम 14वें कुलकर नाभिराज हुए।नाभिराज की पत्नी मरुदेवी से ऋषभजिन हुए। ऋषभदेव का अमरकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए बीसलाखपूर्व समय बीत गया। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से जीवन जीने के लिये खान-पान व पहिनने की समस्या होने पर ऋषभदेव ने लोगों को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और विविध प्रकार की दूसरी-दूसरी विद्याओं की शिक्षा दी। नन्दा, सुनन्दा इन दो देवियों से विवाह किया, जिनसे उनके भरत और बाहुबलि के समान प्रधान सौ पुत्र हुए। ऋषभदेव ने मनुष्यों को इक्षु रस संग्रह करने का उपदेश दिया था। तदर्थ हस्तिनापुर के राजा विमोह (श्रेयांस) ने ऋषभजिन को इक्षुरस का आहार दिया तभी से ऋषभदेव का वंश इक्ष्वाकुवंश के नाम से जाना जाने लगा। समय के अन्तराल से जब ऋषभदेव सन्यास ग्रहण कर स्थित थे तभी नमि (ऋषभदेव के साले कच्छ के पुत्र) व विनमि (ऋषभदेव के साले महाकच्छ के पुत्र) वहाँ आये और ऋषभदेव से बोले- आपने दूसरों को तो देश विभक्त करके दे दिया पर हमारे प्रति अनुदार क्यों हैं ? तभी धरणेन्द्र अवधिज्ञान से यह सब जानकर वहाँ आया और उन दोनों को दो विद्याएँ देकर कहा- तुम दोनो विजयार्ध पर्वत की उत्तर-दक्षिण श्रेणियों के प्रमुख राजा बन जाओ। तभी एक उत्तरश्रेणी व दूसरा दक्षिणश्रेणी में स्थित हो गया। इन नमि विनमि के वंश में उत्पन्न होने वाले राजा ही अपने आपको विद्याधर कहने लगे तथा इनका वंश भी विद्याधरवंश के नाम से जाना जाने लगा। आगे इक्ष्वाकु वंश में ऋषभदेव का निर्वाण होने तथा उनके पुत्र बाहुबलि को केवलज्ञान व भरत को वैराग्य होने पर अयोध्या में राजाओं की वंश परम्परा उच्छिन्न हो गयी। तत्पष्चात् इक्ष्वाकु वंश मे धरणीधर राजा हुए। धरणीधर के दो पुत्र थे 1. जितशत्रु 2. त्रिरथंजय। जितशत्रु से अजितजिन उत्पन्न हुए तथा त्रिरथंजय से जयसागर। जयसागर के सगर पुत्र हुआ। नमि विनमि से उद्भूत विद्याधरवंश में भी आगे सुलोचन, पूर्णघन (पूर्वमेघ) आदि राजा हुए। इस तरह प्रारम्भ में भारत में दो ही वंश थे-1. इक्ष्वाकुवंश 2. विद्याधरवंश। विधाधर वंश से अन्य वंशो की उत्पत्ति - कुछ समय पश्चात् विद्याधरवंशी राजा सुलोचन की कन्या तिलककेशा को विद्याधरवंशी राजा पूर्वमेध ने मांगा किन्तु सुलोचन के पुत्र सहस्रनयन ने अपनी बहिन तिलककेशा को अपने ही वंश के पूर्वमेध को न देकर इक्ष्वाकुवंशी सगर को दी। तब पूर्वमेघ ने क्रोधित होकर सुलोचन को मार डाला। तभी अपने पिता सुलोचन का बदला लेने के लिये सहस्रनयन ने पूर्वमेघ को मार दिया किन्तु पूर्वमेघ का पुत्र तोयदवाहन डरकर भाग निकला। तभी उसे भीम व सुभीम मिले। भीम और सुभीम ने तोयदवाहन को कहा कि इस वैताढय में बलशाली विद्याधर तुम्हारे शत्रु हैं तुम उनके साथ विश्वस्त होकर कैसे रहोगे? और कामुकविमान, हार, राक्षसविद्या व रहने के लिये समुद्र से घिरी हुई लंकानगरी उन्हें दे दी। तोयदवाहन ने लंकापुरी में प्रवेश किया और अविचलरूप से राज्य में इस प्रकार प्रतिष्ठित हो गया जैसे राक्षसवंश का पहला अंकुर फूटा हो। इस तोयदवाहन राजा के वंश में आगे उत्पन्न हुए सभी राक्षसवंशी कहलाने लगे। राक्षसवंश में 64 सिंहासन बीतने के पश्चात् कीर्तिधवल राजा हुए। इस प्रकार विद्याधरों के परस्पर संघर्ष से राक्षसवंश की उत्पत्ति हुई। विद्याधर वंश में आगे अतीन्द्र व पुष्पोत्तर राजा हुए। अतीन्द्र राजा के श्रीकण्ठ पुत्र व मनोहरदेवी पुत्री थी तथा पुष्पोत्तर राजा के पद्मोत्तर पुत्र तथा पद्मनाभा (कमलावती) पुत्री थी। राजा पुष्पोत्तर ने अपने पुत्र पद्मोत्तर के लिये राजा अतीन्द्र की पुत्री मनोहरदेवी की याचना की किन्तु श्रीकण्ठ ने अपनी बहिन पद्मोत्तर के लिये नही देकर लंका के राक्षसवंशीय राजा कीर्तिधवल को दी, जिससे पुष्पोत्तर बहुत कुपित हुआ। बाद में स्वयं श्रीकण्ठ पुष्पोत्तर राजा की पुत्री पद्मनाभा को लेकर अपने बहनोर्इ्र राक्षसवंशी कीर्तिधवल की शरण में गया। पुष्पोत्तर राजा भी श्रीकण्ठ का पीछा कर वहाँ पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर कीर्तिधवल के दूत ने उनको समझा बुझाकर दोनों का विवाह करवा दिया। बहुत दिनो के बाद श्रीकण्ठ को अपने पिता के पास जाने को व्याकुल देखकर कीर्तिधवल ने कहा- विजयार्ध पर्वत पर तुम्हारे बहुत से वैरी हैं और यहाँ तुम मेरे प्राणप्रिय मेरे अपने हो। मेरे पास अनेक बड़े बड़े द्वीप हैं इनमें से जो भी तुम्हंे अच्छा लगे वह ले लो और यही रहो। तब श्रीकण्ठ ने वानरद्वीप ले लिया। आगे इस श्रीकण्ठ के वंश मे ही अमरप्रभ राजा हुए। अमरप्रभ ने लंकानरेश राक्षसवंशी राजा की कन्या से विवाह किया। विवाह के अवसर पर किसी ने वानर के चित्र बना दिए जिससे वधू मूर्च्छित हो गयी। तभी अमरप्रभ राजा ने क्रुद्ध होकर चित्रकार को मारने के लिये कहा। तब लोगांे के यह समझाने पर कि इन्हीं वानरों के प्रसाद से यह राज्यश्री तुम्हारी आज्ञाकारी स्त्री के समान है, अमरप्रभ ने अपने पवित्र कुल के चिह्न के रूप में वानरों कोे पताकाओं ध्वजाओं व छत्रों पर चित्रित करवाया। तभी से इस वंश में उत्पन्न हुए सभी राजा वानरवंशी के नाम से विख्यात हुए। आगे चलकर ये इक्ष्वाकुवंश में भरत व बाहुबलि, विद्याधरवंश में इन्द्र, राक्षसवंश में रावण तथा वानरवंश में बाली प्रमुख राता हुए। वंश-विभाजन के बाद स्वयंभू ने पउमचरिउ में एक ही वंश के लोगों के बीच रहे परष्पर संबन्धों तथा विभिन्न वंशों के बीच रहे परस्पर सम्बन्धों को कुछ घटनाचक्रांे के माध्यम से चित्रित किया है, जो इस प्रकार है - इक्ष्वाकु वंश:- इक्ष्वाकु कुल के नायक ऋषभजिन को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उनके पुत्र भरत को ऋद्धि प्राप्त हुई। सबको अपने अधीन कर लेने के बाद भरत की अधीनता मात्र स्वाभिमानी बाहुबलि ने स्वीकार नही की। तब भरत ने अपनी आज्ञा मनवाने अपने दूत बाहुबलि के पास भेजे। दूत द्वारा बाहुबलि को भरत की सेवा अंगीकार करने के लिये कहने पर बाहुबलि ने गरजकर कहा -‘एक बाप की आज्ञा और एक उनकी धरती, दूसरी आज्ञा स्वीकार नहीं की जा सकती। प्रवास करते समय परम जिनेश्वर ने जो कुछ भी विभाजन करके दिया है वही हमारा सुख निधान शासन है-ना ही मैं लेता हूँ ना ही देता हूँ’। इससे भरत व बाहुबलि में युद्ध हुआ। युद्ध में बाहुबलि विजयी हुए। विद्याधर, राक्षस एवं वानर वंश इक्ष्वाकुवंशी राजा ऋषभदेव से ही आश्रय एवं विद्या ग्रहण कर अपने आपको विद्याधर कहलाने वाले ये विद्याधर प्रारम्भ में राक्षस एवं वानर वंश से अधिक शक्तिशाली थे। इसी कारण ये चाहते थे कि ये कमजोर राक्षस और वानर उनकेे अधीनस्थ रहकर उनके इच्छानुसार जीवें। अपनी शक्ति से ही इन्होंनें राक्षसवंषियों व वानरवंषियों के नगर लंका व किष्किन्धापुरी पर भी अपना आधिपत्य कर लिया। शुरु में तो विद्याधरों की शासन प्रवृति से राक्षस व वानरवंषी डर-डर कर जीयेेे तथा वानरों व राक्षसों ने मिलकर ही इन विद्याधरों से युद्ध किया। आगे जैसे ही राक्षसवंष में पराक्रमी राजा रावण हुआ उसने विद्याधरों से अपनी लंका पुनः ले ली तथा वानरों को भी उनकी किष्किन्धपुरी वापस दिलवा दी। इस तरह अब तक राक्षस व वानरवंश में मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से वानरवंश सदैव राक्षसवंश का सहयोगी था। किंतु जैसे ही आगे वानरवंश में बालि जैसा पराक्रमी शासक हुआ उसने अब तक की जो राक्षसों के अधीन रहने की परम्परा थी वह तोड़ दी और अपना अलग अस्तित्व कायम किया। शक्ति की हीनता व अधिकता के आधार पर उपरोक्त तीनों वंशो के परष्पर संबन्धों को पउमचरिउ में निम्न रूप में बताया गया है- 1. विद्याधर विद्यामन्दिर की कन्या श्रीमाला ने जब विद्यमान सभी विद्याधरों को छोडकर वानरवंशी किष्किन्ध को माला पहना दी तो विद्याधर विजयसिंह भड़क उठा और कहा - श्रेष्ठ विद्याधरों के मध्य वानरों को प्रवेश क्यों दिया गया? वर को मारकर वानरवंश की जड़ उखाड दो। यह सुनकर वानर अन्धक ने भी ललकारा - तुम विद्याधर और हम वानर यह कौनसा छल है ? 2. विद्याधर इन्द्र व राक्षस मालि के बीच हुए युद्ध में मालि को पराजित होते हुए देख इन्द्र अपने आपको देव सम्बोधित करते हुए मालि से कहता है - अरे मानव क्या देव के समान दानव (राक्षस) हो सकते हैं ? तब मालि ने कहा-तुम कौन से देव हो, तुमने तो केवल इन्द्रजाल सीखा है। 3. वानरवंशी बाली ने विशुद्धमति निर्ग्रन्थ मुनि को छोड़कर और किसी इन्द्र को नमस्कार न करने रूप सम्यग्दर्शन व्रत ले लिया। एक दिन रावण के दूत ने बालि के संसर्ग में रावण का जयघोष किया लेकिन बाली ने अपने व्रत के कारण उसके साथ जयकार नही किया और अन्यमनस्क होकर रह गया। इससे दूत ने बाली को यह कहकर अपमानित किया ‘जो कोई भी हो, जो नमस्कार करेगा, श्री उसी की होगी। या तो तुम इस नगर से चले जाओ, नहीं तो कल रावण से युद्ध के लिये तैयार रहो’। तब दोनो के बीच हुए युद्ध में बाली की शानदार विजय हुई। इस प्रकार विद्याधरकाण्ड में कवि स्वयंभू ने इस तथ्य को उजागर किया है कि तीन वंश- विद्याधर, राक्षस एवं वानर परस्पर चाहे कितना ही लड़े हों और इनमें कितना ही वैमनस्य रहा हो किन्तु इक्ष्वाकुवंश का इनसे किसी भी बात को लेकर आमना सामना नहीं हुआ बल्कि इन तीनों का इस वंश से आदरसम्मान का भाव ही रहा है। जैसे - एकबार पूजा में हुए विघ्न को लेकर रावण व सहस्रकिरण के मध्य हुए युद्ध में रावण ने सहस्रकिरण को बन्दी बना लिया। तब जंघाचरणमुनि ने अपने पुत्र सहस्रकिरण को मुक्त करने के लिये रावण को कहा तो रावण ने यह कहते हुए शीघ्र ही मुक्त कर दिया कि मेरा इनके साथ किस बात का क्रोध ? केवल पूजा को लेकर हमारा युद्ध हुआ था, ये आज भी मेरे प्रभु हैं।वैसे ही इक्ष्वाकुवंशी भी चाहे परष्पर कितना भी लडंे़ हो किन्तु इन्होंने इन तीनों वंषों के बीच कभी हस्तक्षेप नही किया साथ ही अपने मूल सिद्धान्तों का पालन करते हुए तथा अपनी बौद्धिक स्वतन्त्रता को कायम रखते हुए उदारवादी दृष्टिकोण से सम्पूर्ण मानव समाज के साथ रहते आये हैं। आज हम इक्ष्वाकुवंषियों के लिए भारतदेष में अपना सम्मान पूर्ववत बनाये रखने हेतु इस विद्याधरकाण्ड का अध्ययन बहुत आवष्यक है। जो भी पउमचरिउ के विद्याधरकाण्ड का विस्तृत रूप से अध्ययन करना चाहे, उनके लिए इक्ष्वाकु, विद्याधर, राक्षस एवं वानरवंष के राजाओं की वंशावली दी जा रही है। इससे विद्यााधरकाण्ड को समझने में आसानी रहेगी। इक्ष्वाकुवंश:- ऋषभजिन, भरत, बाहुबलि, धरणीधर, त्रिरथंजय, जितशत्रु , अजितनाथ जयसागर, सगर, भीम, भगीरथ, मुनि जंधाचरण, सहस्रकिरण, अणरण्य,अनन्तरथ, दशरथ, राम । विद्याद्यरवंशः- नमि, विनमि, पूर्णघन, मेघवाहन, सुलोचन, सहस्रनयन, विद्यामन्दिर, विजयसिंह, शनिवेग, भिन्दपाल, विद्युद्वाहन, सहस्त्रार, इन्द्र, यम, धनद,चन्द्रोदर, वैश्रवण, खरदूषण, विराधित, ज्वलनसिंह, महेन्द्र, प्रह्लाद। राक्षसवंश:- भीम, सुभीम, तोयदवाहन, महारक्ष, देवरक्ष, कीर्तिधवल, तडित्केश, सुकेश, श्रीमाली, सुमाली, माल्यवन्त, रत्नाश्रव, दशानन, भानुकर्ण, विभीषण,इन्द्रजीत, मेघवाहन, हस्त, प्रहस्त,अक्षयकुमार। वानरवंश:- श्रीकंठ, वज्रकंठ, इन्द्रायुध, इन्द्रमूर्ति,मेरु, समन्दर, पवनगति, रविप्रभ,अमरप्रभ, कपिध्वज, नयनानन्द, खेचरानन्द, गिरिनन्दन, उदधिरथ, प्रतिचन्द्र,किष्किन्ध, अन्धक, पवनंजय, हनुमान, ऋक्षुरज, सूररज, नील, नल, बाली,सुग्रीव, जाम्बवन्त, शशिकरण, अंग, अंगद पवनंजय, हनुमान । आगे रामकथा के पात्रों के जीवन के चित्रण के माध्यम से जैन रामकथा को समझने का प्रयास किया जायेगा।
  10. अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम ‘पउमचरिउ’ का नाम आता हैं। पउमचरिउ रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है। यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण होता है। पउमचरिउ की 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा तथा शेष 7 संधियाँ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखी गयी है। स्वयंभू कवि के पउमचरिउ का आधार आचार्य रविषेण का पद््मपुराण रहा है। उन्होंने लिखा है ‘रविसेणायरिय-पसाएं बुद्धिएॅ अवगाहिय कइराएं’ अर्थात् रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है। यहाँ स्वयंभू आचार्य रविषेण के पद्मपुराण के आधार को लेकर भी इसका अवनी बुद्धि से अवगाहन करने की बात करते हैं तो इसका आशय एकदम स्पष्ट होता है कि स्वयंभू रविषेणाचार्य की तरह पउमचरिउ को धर्म ग्रंथ न बनाकर एक विशुद्ध साहित्यिक कोटि का काव्य बनाना चाहते थे। तदर्थ उन्होंने पद्मपुराण के आधार को यथावत ग्रहण कर भी अपनी अनुभूति को अपनी शैली में अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। इसके लिए उन्होंने पद्मपुराण के कितने ही प्रसंगों को अपने काव्य में नहीं लिया तथा कितने ही प्रसंगों को नया आयाम दिया तथा उन प्रसंगों को भी अपनी शैली में अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। पउमचरिउ में स्वयं द्वारा रचित 83 संधियों में उन्होंने पद्मपुराण के सीता के दीक्षा ग्रहण करने तक के कथानक को ही अपने काव्य में ग्रहण किया है। सीता के दीक्षा के साथ अपने काव्य को विराम देने में ही स्वयंभू का सन्तुलित व्यक्तित्व उभरकर आया है। राम का क्षमा भाव धारण करना तथा सीता का राग भाव से निवृत्त होना ही स्वयंभू को पर्याप्त लगा था। शायद वे पूर्वभव व भविष्यत से अधिक वर्तमान भव के पक्षकार थे। उन्होंने वर्तमान जगत में सीता को राम से पहले वैराग्य भाव धारण करते देखा तो अपने सन्तुलित व्यक्तित्व के कारण सीता के सम्मान में अपने काव्य को वहीं विराम दे दिया। वैसे देखा जाय तो आगे का कथानक भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। काव्य की आगे की संधियों में राम अपनी मानवीय कमजोरियों को जीतकर शक्तिवान बने हैं तथा इन्द्र पद प्राप्त कर कमजोर बनी सीता को भी शक्ति प्रदान की है। इस आगे के कथानक को स्वयंभू पुत्र त्रिभुवन ने 7 संधियों में लिखकर पूरा किया। पउमचरिउ में पाँच काण्ड़ हैं - 1.विद्याद्यर काण्ड 2. अयोध्या काण्ड 3. सुन्दर काण्ड 4. युद्ध काण्ड 5. उत्तर काण्ड । विद्याधर काण्ड़ में विभिन्न वंशों का उद्भव तथा इन सभी वंशों में परस्पर रहे सम्बन्धों का कथन हुआ है। अयोध्या काण्ड़ में राम के जन्मस्थान अयोघ्या से लेकर वनवास के समय उनके किष्किन्धानगर पहँुचने तक का उल्लेख हुआ है। राम का विवाह एवं वनवास, राम-लक्ष्मण के पराक्रम, राम-लक्ष्मण के द्वारा दुःखियों की रक्षा से सम्बन्धित अवान्तर कथाएँ एवं सीता हरण इस काण्ड के मुख्य विषय रहे हैं। सुन्दर काण्ड़ हनुमान की विजयों का काण्ड़ है। इसमें हनुमान सीता का वृत्तान्त राम तक ले जाने में सफल हुए हैं। युद्धकाण्ड सीता की प्राप्ति को लेकर राम-रावण के बीच हुए युद्ध से सम्बन्धित है। युद्धकाण्ड़ का पूरा वातावरण वीरता का दृश्य उपस्थित करता है। अन्तिम उत्तरकाण्ड़ सम्पूर्ण पउमचरिउ का उपसंहार है। इसमें रावण की मृत्यु, राम का अयोध्यागमन, राम का राज्याभिषेक, सीता का निर्वासन, सीता की अग्निपरीक्षा, सीता की जिनदीक्षा का उल्लेख हुआ है। पउमचरिउ की अंतिम 7 संधियाँ जो स्वयंभूपुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित है उसमें शान्ति, वैराग्य एवं निर्वेद का कथन हुआ है। उपरोक्त पाँचों काण्ड़ों में प्रथम विद्याधरकाण्ड सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस काण्ड की विषयवस्तु को संक्षिप्त में समझे बिना जैनराम कथा के स्वरूप को सही रूप में नहीं समझा जा सकता है। अतः आगे विद्याधरकाण्ड के विषय में संक्षिप्त में बताया जायेगा। इसके बाद जैन रामकथा के मुख्य-मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डालकर अपभ्रंश के अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों की महत्वपूर्ण विषयवस्तु को भी बताने का प्रयास रहेगा।
  11. यंभू अविवाद्य रूप से अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि तथा प्रबन्धकाव्य के क्षेत्र में अपभ्रंश के आदि कवि हैं। इनकी महानता को स्वीकार करते हुए अपभ्रंश के दूसरे महाकवि पुष्पदन्त ने उनको व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण, चतुर्मुख आदि की श्रेणी में विराजमान किया है। स्वयंभू ‘महाकवि’, ‘कविराज’, ‘कविराज चक्रवर्ती’ जैसी उपाधियों से सम्मानित थे। जिस प्रकार सूर- सूर तुलसी-शशी जैसी उक्ति हिन्दी साहित्य की दो महान विभूतियों का यशोगान करती है उसी प्रकार अपभ्रंश साहित्य में ’सयम्भू-भाणु, पुफ्फयन्त-णिसिकन्त तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी। स्वयंभू, अपने पउमचरिउ(रामकाव्य) तथा रिट्टणेमिचरिउ(कृष्णकाव्य) के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक परम्परा पर विचार करके सम्पूर्ण समाज को उसके वास्तविक रूप के दर्शन कराने तथा सही मार्ग दिखलाने के दायित्व का निर्वाह करने में पूर्ण सफल रहे हैं। यही कारण है कि ‘राहुलसांकृत्यायन ने अपभ्रंशभाषा के काव्यों को आदिकालीन हिन्दीकाव्य के अन्तर्गत स्थान देते हुए कहा है- ‘‘हमारे इसी युग में नही, हिन्दी कविता के पाँचों युगों के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उनमें स्वयंभू सबसे बडे कवि थे। वस्तुतः वे भारत के एक दर्जन अमर कवियो में से एक थे’’। इनका समय ई. सन् 783 है। इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था। स्वयंभू का पारिवारिक जीवन सुख-सम्पन्न था। इनकी दोनों पत्नियाँ अमृताम्बा और आदित्याम्बा सुविज्ञ एवं काव्यकुशल थीं। उन्होंने पउमचरिउ काव्य के लेखन हेतु स्वयंभू को प्रोत्साहित कर सहयोग दिया।इनके पुत्र त्रिभुवन भी प्रतिभाशाली कवि थे।स्वयंभू पर सरस्वती व लक्ष्मी दोनों की ही असीम कृपा थी। गृहस्थ होने के कारण स्वयंभू धर्म, अर्थ, काम की यथोचित अभिलाषा रखते थे। उनका यह यथोचित संतुलित दृष्टिकोण धर्मशील गृहस्थ जीवन में उनके तृप्ति को प्राप्त होनेे के कारण ही विकसित हुआ होगा। वस्तुतः कवि की कृति ही उसके व्यक्तित्व की परिचायिका होती है। स्वयंभूू की कृतियों में भी इनका यह सन्तुलित व्यक्तित्व पूर्ण रूप से उभरकर आया है, जिसे हम इनके काव्य में देखेंगे। ख्यातिपराङमुखता, कृतज्ञता, विनम्रता, निर्भीकता, धर्मनिष्ठा, धार्मिक उदारता इनकी चारित्रिक विशेषताएँ हैं। आगे पउमचरिउ रामकाव्य पर प्रकाश डाला जायेगा।
  12. भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से परिष्कृत होती हुई सतत विकास की और प्रवाहमान है। विगत समय से लेकर वर्तमान पर्यन्त यदि हम भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करें तो हम देखते हैं कि पूर्वकाल में जहाँ तक इतिहास की दृष्टि जाती है वहाँ तक बराबर श्रमण व वैदिक परम्परा के स्रोत दृष्टिगोचर होते हैं। इससे जान पड़ता है कि इतिहासातीत काल से वैदिक व श्रमण परम्पराएँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से साथ-साथ विकसित होती चली आयीं हैं तथा भारतीय संस्कृति का निर्माण श्रमण और वैदिक परम्परा के मेल से ही हुआ है। इसमें श्रमण परम्परा का प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धारा ने तथा वैदिक परम्परा का प्रतिनिधित्व हिन्दू धारा ने किया है। इन दोनों परम्पराओं में जहाँ लोकजीवन व सामाजिक व्यवस्था की समान समस्याएँ रहीं हैं वहीं दोनों परम्पराओं का अलग-अलग निजि वैशिष्ट्य भी रहा है। इनमें जो समानता है वह भारतीय एकत्व धारा का बोधक है और जो वैषम्य है वह दोनों धाराओं के अपने-अपने वैशिष्ट्य का द्योतक होते हुए भी भारतीय संस्कृति की समृद्धि का बोध कराता है। इन दोनों परम्पराओं में अनेकता, विविधता तथा विचित्रता के बीच भी समन्वय की जो शान्त भावना काम करती रही ह,ै यही भारतीय संस्कृति की मानवजाति के लिए सबसे बड़ी देन है। अपने - अपने वैशिष्ट्य को सुरक्षित रखते हुए भी एक समन्वय के सूत्र में ग्रथित होने के कारण दोनों परम्पराओं में एक जीती-जागती समग्रता की भावना अद्यतन अक्षुण्ण बनी रही है। राजनीतिक एवं सामाजिक विपर्ययों एवं क्रान्तिकारी बाह्य परिवर्तनों के बीच भी समग्रता की इस भावना ने ही दोनों परम्पराओं से निर्मित इस भारतीय संस्कृति को विस्मृति के घनान्धकार में विलीन नहीं होने दिया जबकि भारतीय सभ्यता की समकालीन अन्य प्राचीन सभ्यताएँ नष्ट होकर इतिहास मात्र में अपने अस्तित्व होने भर की सूचना दे रहीं हैं। इस समन्वय के सूत्रधार हैं वैदिक व श्रमण परम्परा के ऋषि-मुनि। वैदिक व श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि तपस्वी ऋषि-मुनियों के प्रयास से ही भारतीय संस्कृति में सदैव अद्वैत की ध्वनि गूंज रही है। इन तपस्वी ऋषि-मुनियों ने इस महान वस्तु को पहले से ही पहचान रखा था। उनकी हमेशा से ही यह दिव्य देशना रही है कि संसार में न कोई ऊँच है, न कोई नीच, सभी में दिव्यता है। हमें एक दूसरे के दोषों को नहीं देखते हुए उनमें छिपे हुए गुण ही देखने चाहिए। यह भारतीय ऋषि-मुनियों की देशना का ही परिणाम है कि भारत भूमि में भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का समन्वय हुआ है। भारत के बाहर से आनेवाले द्रविड, आर्य, मंगौल, युनानी, युची, शक, आभीर, हूण और तुर्क, इनका कोई अलग अस्तित्व नहीं है, ये आर्य सभ्यता का ही एक हिस्सा बन चुके हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति इस देश में आकर बसनेवाली अनेक जातियों का ही सम्मिश्रण है। रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो महाकाव्य हैं। महाकाव्यों की रचना तभी संभव होती है जब संस्कृतियों की विशाल धाराएँ किसी संगम पर जाकर मिलनेवाली होती हैं। भारत में संस्कृति समन्वय की जो प्रक्रिया चल रही थी, ये दोनों काव्य भारतीय संस्कृति समन्वय की ही अभिव्यक्ति है। भारत में जो संस्कृति समन्वय हुआ रामकथा उसका उज्जवल प्रतीक है। रामकथा के इस समन्वयात्मक उपादेयता के कारण ही भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामकथाएँ लिखी गयी हैं। इनमें प्रत्येक रामकथा अपने-अपने क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय बनी। इस लोकप्रियता से भारतीय संस्कृति की एकरूपता अत्यन्त प्रबुद्ध हुई। प्रारंभ में संस्कृत, प्राकृत, पालि और अपभ्रंश भाषा में रामकथा पर काव्य लिखे गये। उसके बाद जब आधुनिक भाषाओं का काल आया तब इनमें भी रामकथा पर एक से एक उत्तम काव्य लिखे गये। आधुनिक भाषाओं में लिखे गये रामकाव्यों में से कुछ रामकाव्य है, कंबर कृत तमिल रामायण (12वींसदी), रंगनाथ कृत तेलुगु द्विपद रामायण (14वीं सदी) राम कृत रामचरितम् (मलयालम, 14वीं सदी), नरहरि कृत तोरवे रामायण (कन्नड, 16वीं सदी), दिवाकर प्रकाशभट्ट कृत रामावतार चरित्र (काश्मीरी, 18वीं सदी), माधव केदली कृत रामायण (असमिया, 14वीं सदी), कृतिवास कृत कृतिवास रामायण(बंगला, 15वीं सदी), गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस (हिन्दी, 16वीं सदी), उल्कलवाल्मीकि बलरामदास कृत बलरामदास रामायण (उडिया, 16वीं सदी), एकनाथ कृत भावार्थ रामायण (मराठी, 16वीं सदी), गिरधरदास कृत रामायण (गुजराती, 19वीं सदी), मुन्शी जगन्नाथ खुश्तर कृत रामायण खुश्तर (उर्दू, 19वीं सदी), मुल्ला मसीहा कृत रामायवामसीही (फारसी, 17वी सदी) उपरोक्त सभी रामकथाओं की रचना मुख्यतः तीन कथाओं को लेकर पूर्ण हुई है। पहली कथा अयोध्या के राजप्रसाद की है, दूसरी रावण की और तीसरी किष्किंधा के वानरों की। इन तीनों कथाओं के नायक हैं, क्रमशः राम, रावण और हनुमान, जो तत्कालीन प्रायः सम्पूर्ण भारत क्षेत्र के धर्म, दर्शन एवं संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तीनों के समन्वय का साकार रूप हमें रामकथा काव्य में दिखायी देता है। इस ही कारण एक ही कथा-सूत्र में अयोध्या, किष्किंधा और लंका इन तीनों के बँध जाने से सम्पूर्ण देश एक दिखता है। रामकथा के इस समन्वयात्मक उपादेयता के कारण ही भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामकथाएँ लिखी गयी हैं। इनमें प्रत्येक रामकथा अपने-अपने क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय बनी। इस लोकप्रियता से भारतीय संस्कृति की एकरूपता अत्यन्त प्रबुद्ध हुई। इससे यह बात सरलता से सिद्ध हो जाती है कि रामकथा ने इस देश की कितनी सेवा की है और कैसे इस कथा को लेकर सारा देश लगभग एक आदर्श (सांस्कृतिक-समन्वय) की ओर उन्मुख रहा है। इसके साथ यदि तिब्बत, सिंहल, खोतान, हिन्दचीन, श्याम, ब्रह्मदेश और हिन्देशिया में रचित रामकाव्यों की सारिणी मिला दें तो वास्तव में यह मानना पडे़गा कि रामकथा न केवल भारतीय अपितु एशियाई संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण तत्व है और राम एक महान संस्कृति प्रवर्तक हैं। अपभ्रंश साहित्य के प्रथम साहित्यकार स्वयंभू हैं तथा स्वयंभू द्वारा रचित ‘‘पउमचरिउ’’ अपभ्रंश साहित्य का प्रथम महाकाव्य है, जिसकी चर्चा आगे की जायेगी।
  13. आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश भारतदेश के भाषात्मक विकास को तीन स्तरों पर देखा जा सकता है। 1. प्रथम स्तर: कथ्य प्राकृत, छान्द्स एवं संस्कृत (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक) वैदिक साहित्य से पूर्व प्राकृत प्रादेशिक भाषाओं के रूप में बोलचाल की भाषा (कथ्य भाषा) के रूप से प्रचलित थी। प्राकृत के इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई औरा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस’ कहा गया, जो उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। आगे चलकर पाणिनी ने अपने समय तक चली आई छान्द्स की परम्परा को व्याकरण द्वारा नियन्त्रित एवं स्थिरता प्रदान कर लौकिक संस्कृत नाम दिया। इस तरह वैदिक भाषा (छान्द्स) और लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव वैदिक काल की प्राकृत से ही हुआ है, यही भारतीय भाषा के विकास का प्रथम स्तर है। 2. द्वितीय स्तरः प्राकृत साहित्य (ईसापूर्व 600 से ईसवी 200 तक) पाणिनी द्वारा छान्द्स (वैदिक) भाषा के आधार से जिस लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव हुआ, उसमें पाणिनी के बाद कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जबकि वैदिक युग की कथ्य रूप से प्रचलित प्रादेशिक प्राकृत भाषाओं में परवर्ती काल में अनेक परिवर्तन हुए। भारतीय भाषा के इस द्वितीय स्तर को तीन युगों में विभक्त किया गया है। प्रथमयुगः- (ई.पूर्व 600से र्इ्र. 200 तक) इसमें शिलालेखी प्राकृत, धम्मपद की प्राकृत, आर्ष-पालि, प्राचीन जैन सूत्रों की प्राकृत, अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, बोद्ध जातकों की भाषाएँ आती हैं। मध्य युगीनः-(200 ई. से 600 ई. तक) इसमें भाष और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, गीतिकाव्य और महाकाव्यों की प्राकृत, परवर्ती जैन काव्य साहित्य की प्राकृत, प्राकृत वैयाकरणों द्वारा निरूपित और अनुशासित प्राकृतें एवं वृहत्कथा की पैशाची प्राकृत है। तृतीय युगीनः-(600 से 1200 ई. तक) भिन्न भिन्न प्रदेशों की परवर्तीकाल की अपभ्रंश भाषाएँ। 3.तृतीय स्तरः अपभ्रंश साहित्य (1200 ईस्वी से आगे तक) पुनः अपभ्रंश भाषा के जन साधारण में अप्रचलित होने से ईस्वी की पंचम शताब्दी के पूर्व से लेकर दशम शताब्दी पर्यन्त भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों में कथ्यभाषाओं के रूप में प्रचलित जिस-जिस अपभ्रंश भाषा से भिन्न भिन्न प्रदेश की जो-जो आधुनिक आर्य कथ्य भाषा उत्पन्न हुई है उसका विवरण इस प्रकार है - मराठी-अपभ्रंश से - मराठी और कोंकणी भाषा।मागधी अपभ्रंश की पूर्व शाखा से - बंगला,उडिया और आसामी भाषा।मागधी-अपभ्रंश की बिहारी शाखा से - मैथिली,मगही,और भोजपुरिया।अर्ध मागधी-अपभ्रंश से - पूर्वीय हिन्दी भाषाएँ अर्थात अवधी,बघेली,छत्तीसगढी़।सौरसेनी अपभ्रंश से - बुन्देली,कन्नोजी,ब्रजभाषा,बाँगरू,हिन्दी ।नागर अपभ्रंश से - राजस्थानी,मालवा,मेवाड़ी,जयपुरी,मारवाड़ी तथा गुजराती।पाली से - सिंहली और मालदीवन ।टाक्की अथवा ढाक्की से- लहन्डी या पश्चिमीय पंजाबी ।ब्राचड अपभ्रंश से- सिन्धी भाषा ।पैशाची अपभ्रंश से - काश्मीरी भाषा ।इस प्रकार हम देखते है कि अपभ्रंश मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की अन्तिम अवस्था तथा प्राचीन और नवीन भारतीय आर्यभाषाओं के बीच का सेतुबन्ध है। इसका आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के साथ एक जननी का घनिष्ट सम्बन्ध है। मराठी, गुजराती,राजस्थानी, उड़िया, बंगाली,असमिया आदि सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के विकास में अपभ्रंश की महत्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दी भाषा तो इसकी साक्षात उत्तराधिकारिणी है।ईस्वी सन् की छठी शती से लेकर बारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश भारतीय विचार, भावना, साहित्य, धर्म, दर्शन तथा समाज की धड़कनों को जानने -बूझने की सशक्ततम माध्यम थी। योगिन्दु एवं स्वयंभू जैसे महाकवियों के हाथों अपभ्रंश साहित्य का बीजारोपण हुआ, पुष्पदन्त, धनपाल, रामसिंह, देवसेन, हरिभद्र, कनकामर, हेमचन्द्र, नयनन्दि, सोमप्रभ, जिनप्रभ, विनयचन्द्र, राजशेखर, अब्दुल रहमान, सरह और काण्ह जैसी प्रतिभाओं ने इसे प्रतिष्ठित किया, और अन्तिम दिनों में भी इस साहित्य को यशःकीर्ति और रइधू जैसे महाकवियों का संबल प्राप्त हुआ। इस भाषा में महाकाव्य, पुराणकाव्य, चरिउकाव्य, कथाकाव्य, धार्मिक तथा लौकिक खंडकाव्य, रहस्य-भक्ति-नीति तथा उपदेशमूलक मुक्तक काव्य आदि सभी रूपों में रचनाएँ हुईं। अपनी भावधारा और शैलीगत विशिष्टता के आधार पर अब वह किसी भी भाषा के समक्ष तुल्यात्मक मूल्याकंन के लिए शान से खड़ी हो सकती है। इसी से छठी से बारहवीं शताब्दी का समय अपभ्रंश का स्वर्णयुग कहा जाता है।
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