अपवित्र मन से परमात्मा का दर्शन संभव नहीं है
आचार्य योगीन्दु की स्पष्ट उद्घोषणा है कि परमात्मा की खोज करने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यक्ता नहीं है।अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन हो सकते है, लेकिन इसके लिए मन की निर्मलता आवश्यक है। मलिन मन में परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। मन की मलिनता का कारण मात्र मन की आसक्ति है। जिसके मन आसक्ति से अपवित्र है उसमें परमात्मा का निवास नामुमकिन है। परमात्मा व आसक्ति का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। परमात्मा वे ही बने हैं जिन्होंने अपनी आसक्तिरूपी मलिनता का त्याग किया है। एक मन में आसक्ति व परमात्मा दोनों का एक साथ बसना संभव नहीं है। किसको प्राथमिकता दी जाये ये अपने मन की ही सोच है। आचार्य योगीन्दु इसे स्पष्ट करने के लिए कहते हैं कि जिसके हृदय में सुन्दर स्त्री है, उसके हृदय में परम आत्मा नहीं है। हे वत्स! एक तलवार की म्यान में दो तलवारें किस प्रकार ठहर सकती हैं। आसक्ति से रहित ज्ञानियों के निर्मल मन में ही परमात्मा निवास करता है।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आचार्य का सुंदर स्त्री से विरोध नहीं है स्त्री में आसक्ति के वे विरोधी हैं। क्योंकि आसक्ति व्यक्ति के विकास में बाधक है। वे पुरुष की स्त्री में ही नहीं बल्कि स्त्री की पुरुष में आसक्ति के भी विरोधी हैं। उनकी समभाव से सम्बन्धित गाथा इन सब बातों का खुलासा करती हैं। बिना आसक्ति के जीवन जीने की कला उन्होंने समभाव के आधार पर परमात्मप्रकाश में बतायी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
121 जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि।
एक्कहि ँ केम समंति वढ बे खंडा पडियारि।।
अर्थ - जिसके हृदय में मृग के समान नेत्रवाली (सुन्दर स्त्री) है, उसके (हृदय में) परम आत्मा नहीं है, (ऐसा तू) विचार कर। हे वत्स! एक तलवार की म्यान में दो तलवारें किस प्रकार ठहर सकती हैं।
शब्दार्थ - जसु -जिसके, हरिणच्छी-मृग के समान नेत्रवाली, हियवडए-हृदय में, तसु-उसके, णवि-नहीं, बंभु-परमात्मा, वियारि- विचार कर, एक्कहि ँ -एक, केम-किस प्रकार, समंति-ठहरती हैं, वढ-हे वत्स!, बे-दो, खंडा-तलवारें, पडियारि-तलवार की म्यान में।
122. णिय-मणि णिम्मलि णाणियहँ णिवसइ देउ अणाइ।
हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ।।
अर्थ -जिस प्रकार मानसरोवर में हंस लीन (रहता है) (उसी प्रकार) ज्ञानियों के निज निर्मल मन में अनादि परमात्मा निवास करता है। मेरे (मन में) ऐसा झलकता (मालूम पडता) है।
शब्दार्थ - णिय-मणि-निज मन में, णिम्मलि -निर्मल, णाणियहँ - ज्ञानियों के, णिवसइ -बसता है, देउ -परमात्मा, अणाइ-अनादि, हंसा-हंस, सरवरि-मानसरोवर में, लीणु-लीन, जिम-जिस प्रकार, महु-मेरे, एहउ-ऐसा, पडिहाइ-झलकता है।
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