मोक्ष की श्रेष्ठता के प्रमाण
चारों पुरुषार्थों में मोक्ष पुरुषार्थ को श्रेष्ठ बताने के बाद आचार्य उसकी श्रेष्ठता को प्रमाणिकरूप से सिद्ध करते हैं। वे इसके लिए प्रमाण देते हुए कहते हैं कि यदि चारों पुरुषार्थों में मोक्ष श्रेष्ठ नहीं होता, तब जितेन्द्रदेव धर्म, अर्थ, काम जो अशान्ति के कारण है उनको छोड़कर मोक्ष पद अर्थात् शान्ति के स्थान सिद्धालय में क्यों जाते हैं ? और भी यदि मोक्ष अर्थात् मुक्ति में सुख नहीं है और बंधन में सुख है तो बंधन में बंधे पशु बंधन से मुक्त होना क्यों चाहते हैं ? अर्थात् प्रत्येक जीव के लिए सच्चा सुख शान्ति और बंधन से मुक्ति ही है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
4. जइ जिय उत्तमु होइ णवि एयहँ सयलहँ सोइ।
तो किं तिण्णि वि परिहरवि जिण वच्चहि ँ पर-लोइ।
अर्थ -हे जीव! यदि इन सबसे वह (मोक्ष) ही श्रेष्ठ नहीं होता, तब जितेन्द्रदेव तीनों (धर्म, अर्थ, काम) को छोड़कर मोक्ष मोक्ष में ही क्यों जाते हैं ?
शब्दार्थ --यदि, जिय-हे जीव!, उत्तमु-श्रेष्ठ, होइ-होता, णवि-नहीं, एयहँ-इन, सयलहँ-सबसे, सोइ-वह ही, तो-तब, किं-क्यों, तिण्णि-तीनों को, वि -ही, परिहरवि-छोड़कर, जिण-जिनेन्द्रदेव, वच्चहि ँ-जाते हैं, पर-लोइ- मोक्ष में।
5. उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ।
तो किं इच्छहि ँ बंधणहिँ बद्धा पसुय वि सोइ।।
अर्थ -यदि (मोक्ष) श्रेष्ठ सुख नहीं देता तो मोक्ष श्रेष्ठ ही नहीं होता, तब बंधनों से बंधे पशु भी उस (मुक्ति) की ही इच्छा क्यों करते हैं ?
शब्दार्थ - उत्तमु-श्रेष्ठ, सुक्खु-सुख, ण-नहीं, देइ-देता है, जइ-यदि, उत्तमु-श्रेष्ठ, मुक्खु-मोक्ष, ण-नहीं, होइ-हो सकता है, तो-फिर, किं -क्यों, इच्छहि ँ-इच्छा करते हैं, बंधणहिँ -बंधनों से, बद्धा-बंधे हुए, पसुय -पशु ,वि-ही, सोइ-’उसकी ही।
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