मोक्ष प्राप्ति के निमित्तों की परिभाषा और उनका फल
आचार्य योगिन्दु आगे मोक्षमार्ग के इन निमित्तों को समझाते हैं और इन निमित्तों को जानकर उनको पूरी तरह समझने से उनसे मिलने वाले फल को बताते हैं। वे कहते हैं कि जो स्व से स्व को देखता है, वह दर्शन है और जो स्व से स्व को जानता है, वह ज्ञान है (और) (स्व के) अनुकूल आचरण करता है, वह चारित्र है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सही ज्ञान होने पर ही पूरी तरह से पवित्र हुआ जा सकता है और अन्ततः वही मोक्ष है।
देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
13. पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पिं अप्पउ जो जि।
दंसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहँ कारणु सो जि।।
अर्थ - हे जीव! जो स्व से स्व को देखता है, जानता है, (और) (स्व के) अनुकूल आचरण करता है, वह दर्शन, ज्ञान (और) चारित्र ही मोक्ष का कारण है।
शब्दार्थ - पेच्छइ - देखता है, जाणइ-जानता है, अणुचरइ-अनुकूल आचरण करता है, अप्पिं-स्व से, अप्पउ -स्व को, जो-जो, जि- (पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय) दंसणु- दर्शन, णाणु-ज्ञान, चरित्तु -चारित्र, जिउ -हे जीव!, मोक्खहँ -मोक्ष का, कारणु -कारण, सो -वह, जि-ही।
14. जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु।
तं परियाणहि जीव तुहुँ जे ँ परु होहि पवित्तु।।14।।
अर्थ - हे जीव! व्यवहार नय जिस दर्शन, ज्ञान और चारित्र का निर्देश करता है, उसको तू जान, जिससे तू पूरी तरह से पवित्र होवे।
शब्दार्थ - जं - जिस, बोल्लइ-निर्देश करता है, ववहारु-णउ- व्यवहार नय, दंसणु- दर्शन, णाणु-ज्ञान, चरित्तु-चरित्र का, तं - उसको, परियाणहि-पूरी तरह से जान, जीव-हे जीव! तुहुँ - तू, जे ँ-जिससे, परु-पूरी तरह से, होहि-होवे, पवित्तु-पवित्र।
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