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Sneh Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. हम पूर्व में भी इस बात की चर्चा कर चुके हैं कि अदृश्य वस्तु को बोधगम्य बनाने हेतु उसका बार-बार कथन करना आवश्यक है। यहाँ आगे के दोहे में परम आत्मा से सम्बन्धित पूर्व कथन को ही पुष्ट किया गया है। 37. जो परमत्थे ँ णिक्कलु वि कम्म-विभिण्णउ जो जि । मूढा सयलु भणंति फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ।। अर्थ - जो वास्तविकरूप से शरीर रहित है और निश्चय ही कर्मों से जुदा है, वह ही परम- आत्मा है, (किन्तु) मूर्ख (उसको) शरीरस्वरूप ही कहते हैं, (तुम) (इस बात को) स्पष्टरूप से समझो। शब्दार्थ - जो-जो, परमत्थे ँ-वास्तविकरूप से, णिक्कलु -शरीर रहित, वि-और, ,कम्म-विभिण्णउ- कर्मों से जुदा,जो-जो, जि-वास्तव में, मूढा-मूर्ख, सयलु-शरीरस्वरूप, भणंति-कहते हैं, फुडु-स्पष्टरूप से, मुणि-समझो, परमप्पउ-परम आत्मा, सो-वह, जि -ही।
  2. परमात्मप्रकाश के आगे के दोहे में आचार्य योगीन्दु आत्मा व परम आत्मा की चर्चा करते हुए पुनः कहते हैं कि आत्मा व परम आत्मा मूल रूप में समान ही है मूल रूप में उनमें कोई भेद नहीं है। आत्मा और परमात्मा में भेद हुआ है तो मात्र कर्म के कारण। कर्मां से बँधी हुई आत्मा ही बहिरात्मा होती है तथा कर्म बन्धन से रहित आत्मा ही परम आत्मा होती है। आत्मा जितनी जितनी आसक्ति से कर्मों से बँधती है उतनी उतनी ही वह अपने परमात्म स्वरूप से दूर रहती है और जितनी-जितनी आत्मा आसक्ति रहित होती है उतनी उतनी वह अपने परमात्म स्वरूप के निकट होती जाती है। देखिये इसी से सम्बन्धित दोहा- 36. कम्म-णिबद्धु वि जोइया देहि वसंतु वि जो जि । होइ ण सयलु कया वि फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ।। अर्थ - हे योगी! जो आत्मा, देह में बसता हुई भी कभी भी कर्म से बँधा हुआ और बिल्कुल देह सम नहीं होता, वह (आत्मा) ही सुविदित परम- आत्मा है, (ऐसा तुम) जानो। शब्दार्थ - कम्म-णिबद्धु- कर्मों से बँधा हुआ, वि-और, जोइया-हे योगी!, देहि-देह में वसंतु-बसता हुआ, वि-भी, जो-जो, जि-बिल्कुल, होइ-होता है, ण-नहीं, सयलु -देह सम, कया वि-कभी भी, फुडु-सुविदितु मुणि-जानो, परमप्पउ-परम-आत्मा, सो-वह, जि-ही।
  3. आचार्य योगिन्दु आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति में समभाव की प्राप्ति का होना आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार समभाव की प्राप्ति ही परम आत्मा की उपलब्धि का सबसे बड़ा सत्य है। समभावरूप सत्य की उपलब्धि के पश्चात् जिस परम आनन्द की प्राप्ति होती है वही परम आत्मा का शिव और सुन्दर पक्ष है। समभाव की प्राप्ति के अभाव में परम आत्मा की प्राप्ति संभव नहीं है। व्यवहारिक जगत में भी सुख और शान्ति मन में समभाव होने पर ही संभव है। राग और द्वेषरूप विषमता ही संसार के दुःखों का मूल है। आगे का दोहा इस ही कथन से सम्बन्धित है - 35 जो सम-भाव -परिट्ठियहं जोइहँ कोइ फुरेइ। परमाणंदु जणंतु फुडु सो परमप्पु हवेइ ।। अर्थ - समता भाव में सम्पूर्णरूप से स्थित योगियों के (हृदय में) परम- आनन्द को स्पष्टरूप से उत्पन्न करता हुआ जो कुछ प्रकट होता है, वह परम- आत्मा है। शब्दार्थ - जो-जो, सम-भाव -परिट्ठियहं-समभाव में पूर्णरूप से स्थित, जोइहँ-योगियों के, कोइ-कुछ, फुरेइ-प्रकट होता है, परमाणंदु-परम-आनन्द को, जणंतु-उत्पन्न करता हुआ, फुडु - स्पष्टरूप से, सो-वह, परमप्पु-परम-आत्मा, हवेइ-है।
  4. आचार्य योगिन्दु ने जिस जिस तरह से आत्मा की अनुभूति की उन सब अनुभूतियों को जन कल्याणार्थ अभिव्यक्त भी किया। यहाँ आत्मा की अद्भुतता बताते हुए कहते हैं कि आत्मा निश्चितरूपसे देह में ही स्थित होती है फिर भी वह देह को स्पर्श नहीं करती और न ही वह देह के द्वारा स्पर्श की जाती है। अर्थात् देह में स्थित होने पर भी आत्मा का देह से पार्थक्य भाव है। यही कारण है कि जीव विभिन्न शरीर से जुदा होकर विभिन्न विभिन्न पर्यायों को प्राप्त होता रहता है। देखिये इस ही कथन से सम्बन्धित आगे का दोहा- 34. देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमे ँ देहु वि जो जि । देहे ँ छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ।। अर्थ - जो देह में रहता हुआ भी नियम से देह को बिल्कुल ही नहीं छूता है (तथा) जो देह के द्वारा भी नहीं छूआ जाता, वह ही परम- आत्मा है, (ऐसा) (तू) समझ। शब्दार्थ - देहे-देह में, वसंतु-रहता हुआ, वि-भी, णवि-नहीं, छिवइ-छूता है, णियमे ँ-नियम से, देहु-देह को, वि-ही, जो-जो, जि-बिल्कुल, देहे ँ-देह के द्वारा, छिप्पइ-छूआ जाता, जो-जो, वि-भी, णवि-नहीं, मुणि-समझो, परमप्पउ-परम आत्मा, सो-वह, जि-ही।
  5. यह हम सब भली भाँति समझते है कि जो वस्तु दृश्य होती है, उसको समझाने के लिए उसका बार-बार करने की आवश्यक्ता नहीं पडती, किन्तु अदृश्य वस्तु को बोध गम्य बनाने हेतु उसका विभिन्न तरीके से बार बार कथन करने की आवश्यक्ता होती है। चूंकि आत्मा भी अदृश्य है, अतः आचार्य योगिन्दु को प्रत्येक जीव के सहज बोधगम्य हेतु उसका विभिन्न तरीकों से बार- बार कथन करना पड़ा है। आगे के दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः कहते है कि हमें परमात्मा की खोज करने हेतु बाहर भटकने की आवश्यक्ता नहीं है। हमारी देह के भीतर ही जो अनादि, अनन्त और केवलज्ञानरूपी कमल है वह ही परमात्मा है। अर्थात् आत्मा कर्मों के आवरण से परे होकर जब शुद्ध ज्ञानमय हो जाती है, आत्मा का वह स्वरूप ही परमात्मा है। देखिये इस से सम्बन्धित दोहा - 33 देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ -अणंतु। केवल-णाण-फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु।। अर्थ - जो देहरूपी मंदिर में अनादि, अनन्त (और) चमकता हुआ केवलज्ञानरूपी कमल बसता है, वह निःस्सन्देह दिव्य परम- आत्मा है। शब्दार्थ - देहादेउलि-देहरूपी मंदिर में, जो-जो, वसइ-बसता है, देउ-दिव्य, अणाइ -अणंतु - शाश्वत, अनन्त, केवल-णाण-फुरंत-तणु- केवलज्ञानरूपी कमल चमकता हुआ, सो-वह, परमप्पु-परमात्मा, णिभंतु-निःस्सन्देह।
  6. बन्धुओं किसी धर्मानुरागी को अपभ्रंश में आचार्य वंदना का स्वरूप देखना था इसलिए ब्लाँग के क्रम में कुछ परिवर्तन हो गया । अब आगे हम पुनः अपने विषय पर चलते हैं - आत्मा का लक्षण बताने के बाद आचार्य कहते हैं कि इन उपरोक्त लक्षणों से युक्त आत्मा का ध्यान करनेवाला योग्य अर्थात् उचित पात्र वही है, जिसका मन संसार में फँसानेवाले कर्म बंधनों तथा देह से सम्बन्धित भोगों से हट चुका है। ऐसे व्यक्ति का ध्यान ही सफल ध्यान है और उस ध्यान के फल से ही उसको संसार के दुःखों से मुक्ति मिलती है, उसका संसार में आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। देखिये इसी कथन से सम्बन्धित आगे का दोहा - 32. भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ । तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ।। अर्थ -संसार, शरीर और भोगों से विरक्त जो मन, आत्मा का ध्यान करता है, उसकी घनी लौकिक (संसाररूपी) बेल नष्ट हो जाती है। शब्दार्थ - भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु - संसार, शरीर और भोगों से उदासीन हुआ मन, जो - जो, अप्पा - आत्मा का, झाएइ - ध्यान करता है, तासु - उसकी, गुरुक्की - घनी, वेल्लडी-बेल, संसारिणि - लौकिक, तुट्टेइ - नष्ट हो जाती है।
  7. अपभ्रंष भाषा के कवि स्वयंभू अपनी पउमचरिउ काव्य रचना प्रारम्भ करने से पूर्व आदि देव ऋषभदेव को नमस्कार कर अपने काव्य की सफलता की कामना करते हैं। उसके बाद आचार्यों की वंदना करते हैं - णमह णव-कमल-कोमल-मणहर-वर-वहल-कन्ति-सोहिल्लं। उसहस्स पाय-कमलं स-सुरासर-वन्दियं सिरसा।। दीहर-समास-णालं सद्द-दलं अत्थ-केसरुग्घवियं। बुह-महुयर-पीय रसं सयम्भु-कव्वुप्पलं जयउ।। पहिलउ जयकारेवि परम-मुणि। मुणि-वयणे जाहँ सिद्धन्त-झुणिं। झुणि जाहँ अणिट्ठिय रत्तिदिणु। जिणु हियए ण फिट्टइ एक्कु खणु।। खणु खणु वि जाहँ ण विचलइ मणु। मणु मग्गइ जाहँ मोक्ख-गमणु गमणु वि जहिं णउ जम्मणु मरणु। मरणु वि कह होइ मुणिवरहँ। मुणिवर जे लग्गा जिणवरहँ।। जिणवर जें लीय माण परहो। परु केव ढुक्कु जें परियणहो।। परियणु मणे मण्णिउ जेहिं तिणु। तिण-समउ णाहिं लहु णरय-रिणु।। रिणु केम होइ भव-भय-रहिय। भव-रहिय धम्म-संजम-सहिय।। जे काय-वाय-मणे णिच्छिरिय जे काम-कोह-दुण्णय-तरिय। ते एक्क-मणेण हउं वंदउं गुरु परमायरिय।। अर्थ - जो नवकमलों की कोमल सुंदर और अत्यन्त सघन कान्ति की तरह षोभित हैं और जो सुर तथा असुरों के द्वारा वन्दित हैं, ऐसे ऋषभ भगवान् के चरणकमलों को षिर से नमन करो। जिसमें लम्बे-लम्बे समासों के मृणाल हैं, जिसमें षब्द रूपी दल हैं, जो अर्थरूपी पराग से परिपूर्ण है, और जिसका बुधजन रूपी भ्रमर रसपान करते हैं, स्वयंभू का ऐसा काव्य रूपी कमल जयषील हो। पहले परममुनि का जय करता हूँ, जिन परममुनि की सिद्धान्त-वाणीमुनियों के मुख में रहती है, और जिनकी ध्वनि रात-दिन निस्सीम रहती है (कभी समाप्त नहीं होती), जिनके हृदय से जिनेन्द्र भगवान एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते। एक क्षण के लिए भी जिनका मन विचलित नहीं होता, मन भी ऐसा कि जो मोक्ष गमन की याचना करता है, गमन भी ऐसा कि जिसमें जन्म और मरण नहीं है। मृत्यु भी मुनिवरों की कहाँ होती है, उन मुनिवरों की जो जिनवर की सेवा में लगे हुए हैं। जिनवर भी वे, जो दूसरो का मान ले लेते हैं (अर्थात् जिनके सम्मुख किसी का मान नहीं ठहरता), जो परिजनों के पास भी पर के समान जाते हैं (अतः उनके लिए न तो कोई पर है, और न स्व), जो स्वजनों को अपने में तृण के समान समझते हैं, जिनके पास नरक का ऋण तिनके के बराबर भी नहीं है। जो संसार के भय से रहित हैं, उन्हें भय हो भी कैसे सकता है? वे भय से रहित और धर्म एवं संयम से सहित हैं। जो मन-वचन और काय से कपट रहित हैं, जो काम और क्रोध के पाप से तर चुके हैं, ऐसे परमाचार्य गुरुओं को मैं एकमन से वंदना करता हूँ। पंचमहव्वयतुंगा, तक्कालिय-सपरसमय-सुदधारा। णाणागुणगणभरिया, आइरिया मम पसीदंतु।।
  8. आचार्य योगीन्दु सभी जीवों को सुख और शान्ति के मार्ग पर अग्रसर करना चाहते हैं, और यह सुख-शान्ति का मार्ग बिना आत्मा को पहचाने सम्भव नहीं है। अतः आत्मा पर श्रृद्धान कराने के लिए विभिन्न- विभिन्न युक्तियों से आत्मा के विषय में बताते हैं। इस 31वें दोहे में आत्मा का लक्षण बताया गया है - 31 अमणु अणिंदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु । अप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ।। अर्थ - आत्मा, मन रहित, इन्द्रिय रहित, मूर्ति (आकार) रहित, ज्ञानमय (और) चेतना मात्र है, (यह) इन्द्रियों का विषय नहीं है। (आत्मा का) यह लक्षण बताया गया है। शब्दार्थ - अमणु-मन रहित, अणिंदिउ-इंद्रिय रहित, णाणमउ-ज्ञान सहित, मुत्ति-विरहिउ-मूर्ति रहित, चिमित्तु-चेतना मात्र, अप्पा- आत्मा, इंदिय-विसउ- इन्द्रियों का विषय, णवि-नहीं, लक्खणु-लक्षण, एहु- यह, णिरुत्त-बताया गया है।
  9. आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ हैं। वे जितना स्वयं तथा पर के मन को समझते हैं उतना ही वे प्रत्येक मानव को कि वह स्वयं व पर के मन को समझ सके, यह समझाने की योग्यता रखते हैं। परमात्मप्रकाश में यह बात हम निरन्तर देखते हैं। वे प्रत्येक बात को हर पक्ष के साथ दोहराते हैं ताकि विविध आयामों के साथ मूल तथ्य स्पष्ट हो सके। आगे के दोहे में वे आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध होने की पुष्टि जीव-अजीव में भेद होने किन्तु शुद्ध आत्मा व संसारी आत्मा के मूल रूप में समानता होने से करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि जीव व अजीव अर्थात् देह व आत्मा में भेद है, किन्तु सभी आत्माएँ मूल रूप में समान हैं। देखिये परमात्मप्रकाश का आगे का दोहा - 30. जीवाजीव म एक्कु करि लक्खण-भेएँ भेउ । जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ।। अर्थ - (तू) जीव और अजीव को एक मत कर। (इन दोनों में) लक्षण के भेद से (पूर्ण) भेद (है)। जो (अपने से) भिन्न (रागादिभाव) है, वह भिन्न (ही) है तथा (शुद्ध) आत्मा (और) (संसारी) आत्मा (मूल में) समान (है), (ऐसा) मैं कहता हूँ , तू समझ। शब्दार्थ - जीवाजीव- जीव और अजीव को, म-मत, एक्कु-एक, करि-कर, लक्खण-लक्षण के, भेएं-भेद से, भेउ- भेद, जो-जो, परु-भिन्न, सो-वह, परु-भिन्न, भणमि-कहता हूँ, मुणि-समझ, अप्पा-आत्मा, अप्पु-आत्मा, अभेउ-समान।
  10. आचार्य योगिन्दु आत्मा और परम आत्मा के दृढ सम्बन्ध को पुनः बताते हैं कि संसारी आत्मा और परम आत्मा मूल रूप में समान ही है, अर्थात् कर्म बन्धन से रहित दोनों का स्वरूप एक ही है। इनमें असमानता है तो मात्र भेद व अभेद दृष्टि का। भेद दृष्टि से यह आत्मा देह में विराजमान है तथा अभेद दृष्टि से यह आत्मा सिद्धालय में विराजमान है। वे बार बार यही बात दोहराते हैं कि बस तू मात्र इस बात को अच्छी तरह से समझ ले, अन्य बातों में समय व्यर्थ मत कर। आगे के दोहे में यही बात कही गयी है - 29. देहादेहहि ँ जो वसइ भेयाभेय-णएण । सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ किं अण्णे ँ बहुएण ।। अर्थ - जो भेद और अभेद दृष्टि से (क्रमशः) देह में और बिना देह (सिद्धालय) में रहता है, वह (परम) आत्मा है। हे जीव! तू (इस बात को) समझ, दूसरी बहुत (बात) से क्या (लाभ है) ? शब्दार्थ - देहादेहहि ँ - देह में और बिना देह में, जो- जो, वसइ- रहता है, भेयाभेय-णएण- भेद और अभेद दृष्टि से, सो- वह, अप्पा- परम आत्मा, मुणि - समझ, जीव-हे जीव! तुहुं- तू, किं-क्या, अण्णें-दूसरी, बहुएण-बहुत से।
  11. अगले दोहे में आचार्य परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध बताते हैं कि जब व्यक्ति इन्द्रिय सुख-दुःखों से तथा मन के संकल्प-विकल्पों से परे हो जाता है, तब ही उसके देह में बसती हुई आत्मा शुद्ध अर्थात परम आत्मा में परिवर्तित हो जाती है। तब सिद्धालय में स्थित और स्व देह में स्थित शुद्धात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता। आचार्य के अनुसार बस यही बात समझने योग्य है। इसी को उन्होंने अपने दोहे में कहा है- 28. जित्थु ण इंदिय-सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु । सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारु ।। अर्थ - जहाँ इन्द्रिय सुख-दुःख नहीं हैं, जहाँ (संकल्प-विकल्परूप ) मन का व्यापार नहीं है, वह (परम) आत्मा है। हे जीव! तू (इस बात को) समझ और दूसरी (बात) को पूरी तरह से छोड़। शब्दार्थ - जित्थु-जहाँ, ण-नहीं, इंदिय-सुह-दुहइं- इन्द्रिय सुख-दुख, जित्थु - जहाँ, ण-नहीं, मण-वावारु- मन का व्यापार, सो-उसको, अप्पा-आत्मा मुणि- समझ, जीव-हे जीव!, तुहुं - तू, अण्णु-दूसरी, परिं-पूरी तरह से, अवहारु-छोड़। नोट- इस दोहे में ‘सो’ प्रथमा विभक्ति का वह अर्थ में रूप है, किन्तु आर्ष प्राकृत में प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग बहुलता से मिलता है। अतः यहाँ वह के स्थान पर उसको अर्थ किया गया है।
  12. पुनः आगे के दोहे में परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार परम आत्मा का ध्यान करने से पूर्व में किये गये कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार अपनी देह में स्थित शुद्ध आत्मा का ध्यान करने से भी पूर्व में किये कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। देह में स्थित शुद्धात्मा व सिद्धालय में स्थित शुद्धात्मा में कोई भेद नहीं है। शुद्धात्मा का ध्यान तभी संभव है जब देह व आत्मा के भेद को समझा जाये। 27. जे ँँ दिट्ठे ँ तुट्टंति लहु कम्मइँ पुव्व-कियाइँ । सो परु जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइँ ।। अर्थ - जिस (आत्मा) के अनुभव किये गए होने के कारण पूर्व में किये गए कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, वह (ही) परम (आत्मा) है। हे योगी! (तू) देह में बसती हुई भी (उसको) क्यों नहीं जानता है ? जे ँ- जिस, दिट्ठे ँ-अनुभव किये गये होने से, तुट्टन्ति-नष्ट हो जाते हैं, लहु-शीघ्र, कम्मइं-कर्म, पुव्व-कियाइँ-पूर्व में किये गये, सो-वह, परु-परम, जाणहि-जानता है, जोइया- हे योगी!, देहि-देह में, वसंतु-बसती हुई, ण-नहीं, काइं-क्यों
  13. बन्धुओं ! एक बार पुनः मैं तीनों प्रकार की आत्मा के स्वरूप को संक्षिप्त में आपके समक्ष रख देना चाहती हूँ जिससे हम परमात्मप्रकाश के आगे के विषय को अच्छी तरह से समझ सकें। आत्मा का मूर्छित स्वरूप वह है जिसमें देह को ही आत्मा जाना जाता है। आत्मा का जागृत स्वरूप वह है जिसमें देह और आत्मा की भिन्नता का बोध होने के पश्चात् परम एकाग्र ध्यान में स्थित होकर परम आत्मा का अनुभव किया जाता है। आत्मा का श्रेष्ठ (परमात्म) स्वरूप वह है, जो कर्म बंधनों व पर द्रव्यों से रहित है, रंग, गंध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मरण, क्रोध, मोह, मद, माया, मान, स्थान, ध्यान, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मुद्रा, पुण्य, पाप, हर्ष, शोक आदि सभी दोषों से रहित होने के कारण निरंजन स्वरूप है। आत्मा का वह श्रेष्ठ स्वरूप, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ने तथा पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करने के कारण शान्त स्वरूप है, तथा केवलदर्शन, केवलज्ञान, केवल सुख स्वभाव, अनुपम शक्ति सहित है। परमात्म प्रकाश के आगे के दोहों में बताया गया है कि उपरोक्त परम आत्मा के स्परूप से आत्मा का क्या सम्बन्ध है ? इसमें बताया गया है कि जो तेरे शरीर में स्थित शुद्ध आत्मा है वही शुद्ध स्वरूप आत्मा तो सिद्धालय में स्थित है, उन दोनों के शुद्ध स्वरूप में कोई भेद नहीं है। भेद तो मात्र कर्मों से बंधी व कर्म बंधन से रहित शुद्ध आत्मा का है। शरीर की शुद्ध आत्मा ही अन्त में सिद्धालय में जाकर स्थित होती है। 26 जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि ँ णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ ।। अर्थ - जैसी निर्मल, ज्ञानमय परम-आत्मा सिद्धशिला (मोक्ष) में रहती है, वैसी ही परम- आत्मा (विभिन्न) देहों में रहती है, तू (इसमें) भेद मत कर। शब्दार्थ - जेहउ-जैसी, णिम्मलु-निर्मल, णाणमउ-ज्ञानमय, सिद्धिंिहं-मोक्ष में, णिवसइ-रहती है, देउ- परम आत्मा, तेहउ-वैसी ही, णिवसइ- रहती है, बंभु- आत्मा, परु-परम, देहहं-देहों में, मं-मत, करि-कर, भेउ-भेद।
  14. अभी इससे पूर्व के ब्लाँग में हमने अपभ्रंश भाषा के प्रमुख अध्यात्मकार आचार्य योगिन्दु कृत परमात्मप्रकाश में रचित परम आत्मा के स्वरूप से सम्बन्धित दोहों को अर्थ सहित देखा। अब हम इस ब्लाँग में उन ही दोहों का शब्दार्थ के द्वारा अध्ययन करेंगे - 15. अप्पा-आत्मा, लद्धउ-प्राप्त किया गया है, णाणमउ- ज्ञानमय, कम्म-विमुक्कें- कर्म बंधन से रहित हुए, जेण-जिसके द्वारा, मेल्लिवि-छोड़कर, सयलु- समस्त, वि-ही, दव्वु-द्रव्य, परु-पर, सो-वह, परु-सर्वोच्च, मुणहि-समझो, मणेण-अन्तःकरण से। 16. तिहुयण-वंदिउ- तीन लोक के द्वारा वंदना किये गये, सिद्धि-गउ- सिद्धि को प्राप्त, हरि-हर- हरि हर, झायहिं-ध्यान करते हैं,जो- जो, जि-इस प्रकार, लक्खु-लक्ष्य को, अलक्खें-अदृश्य में, धरिवि-रखकर, थिरु-स्थिर, मुणि- समझ, परमप्पउ- परम आत्मा, सो-वह, जि-ही। 17. णिच्चु-नित्य, णिरंजणु-निरंजन, णाणमउ- ज्ञान-मय, परमाणंद-सहाव - परमआनन्द स्वभाव, जो-जो, एहउ-ऐसी, सो-वह, संतु-शान्त, सिउ-मंगलमय, तासु- उसके, मुणिज्जहि-समझ, भाउ-स्वभाव को। 18. जो-जो, णिय-भाउ - निज स्वभाव को, ण - न, परिहरइ-छोड़ता है, जो-जो, पर-भाउ - पर स्वभाव को, ण - न, लेइ-ग्रहण करता है, जाणइ-जानता है, सयलु-सयल को, वि-ही, णिच्चु-निरंतर, पर-किन्तु, सो-वह, सिउ-मंगल, संतु-शांत, हवेइ-होता है। 19. जासु-जिसका, ण-न, वण्णु-रंग, ण-न, गंधु-गंध, रसु-रस,, जासु-जिसका, ण-नहीं, सद्दु-शब्द, ण-न, फासु-स्पर्श, जासु-जिसका, ण-न, जम्मणु-जन्म, मरणु-मरण, णवि-न,ही, णाउ-नाम, णिरंजणु-निरंजन, तासु-उसका। 20. जासु-जिसके, ण-न, कोहु-क्रोध, ण-न, मोहु-मोह, मउ-मद, जासु-जिसके, ण-न, माय-माया, ण-न, माणु-मान, जासु-जिसके लिए, ण-न, ठाणु-स्थान, ण- न, झाणु-ध्यान, जिय-हे जीव!, सो-वह, जि-ही, णिरंजणु-निरंजन, जाणु-समझ। 21. अत्थि-है, ण-न, पुण्णु-पुण्य, ण-न, पाउ-पाप, जसु-जिसके, अत्थि-है, ण-न, हरिसु-हर्ष, विसाउ-शोक, अत्थि-है, ण-न, एक्कु-एक, वि-भी, दोसु-दोष, जसु-जिसके, सो-वह, जि-ही, णिरंजणु-निरंजन, भाउ-अवस्था। 22. जासु-जिसके लिए, ण-नहीं, धारणु-अवलम्बन, धेउ-ध्येय, ण-न, वि-ही, जासु-जिसके लिए, ण-न, जंतु-यन्त्र, ण-न, मंतु-मन्त्र, जासु-जिसके लिए, ण-न, मंडलु-आसन, मुद्द-चिन्ह, ण-न, वि-ही, सो-वह, मुणि-समझ, देउ-परमेश्वर, अणंत-शाश्वत। 23. वेयहिं-वेदों के द्वारा, सत्थहिं-जैन शास्त्रों के द्वारा, इंदियहिं- इन्द्रियों के द्वारा, जो-जो, जिय-हे जीव!, मुणहु-बोध के लिए, ण-नहीं, जाइ-समर्थ होती, णिम्मल-झाणहं-निर्मल ध्यान का, जो-जो, विसउ-विषय, सो-वह, परमप्पु-परम आत्मा, अणाइ-शाश्वत। 24. केवल-दंसण-णाणमउ- केवल दर्शन और केवल ज्ञानमय, केवल-सुक्ख-सहाउ- केवल सुख स्वभाव, केवल-वीरिउ- अनुपम शक्ति, सो- वह, मुणहि- समझ, जो-जो, जि-ही, परावरु- अत्यन्त उत्तम, भाउ-अवस्था। 25. एयहिं- इन सब, जुत्तउ- युक्त, लक्खणहिं-लक्षणों से, जो-जो, परु-परम, णिक्कलु-निःशरीर, देउ- परमेश्वर, सो-वह, तहिं-उसी, णिवसइ-रहता है, परम-पइ- सर्वोच्च स्थान पर, जो-जो, तइलोयहँ-, तीन लोक का, झेउ- ध्येय।
  15. बन्धुओं, आत्मा की मूर्छित अवस्था एवं जागृत अवस्था के लक्षण से संक्षिप्त में अवगत करवाने के बाद आचार्य योगिन्दु हमें परमआत्मा के स्वरूप का विस्तार से कथन कर रहे हैं। पुनः मैं आपको एक बार आत्मा के 3 प्रकार को दोहरा देती हूँ। 1. मूर्छित आत्मा (बहिरात्मा)- जो देह को ही आत्मा मानता है। 2.जागृत आत्मा - यहाँ सण्णाणें शब्द ध्यान देने योग्य है। इसमें संवेदना एवं ज्ञान (विवेक) दोनों का समावेश है, जो हितकारी उत्कृष्ट ज्ञान की और संकेत करता है। आगे परम आत्मा के लक्षण के साथ परमआत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। यहाँ पर आपका यह प्रश्न हो सकता है कि आचार्यश्री ने मूर्छित एवं जागृत आत्म अवस्था का तो बहुत संक्षेप में उल्लेख किया किन्तु परम आत्मा का एक साथ विस्तार क्यों ? बन्धुओं, यही तो इनकी विचक्षणता है। इन्होंने हमको सर्वप्रथम मूर्छित एवं जागृत आत्मस्वभाव से परिचय करवाया तभी तो हम परम आत्मा को समझने लायक बन सकेंगे। आगे परमात्मप्रकाश में परमात्म अवस्था का 15-25, 11 दोहों में कथन किया गया है। इन दोहों के माध्यम से जब हम परमात्मस्वरूप से अवगत होंगे उसके बाद आत्मा व परमात्मा के सम्बन्ध की चर्चा होगी। उसके बाद मूछ्र्रित व जागृत अवस्था का परम आत्मा के समान विस्तार से कथन होगा। इतना सुंदर विवेचन मैंने भी पहली बार ही देखा है और जिसे आपके समक्ष प्रस्तुत करने का साहस किया है। देखते हैं आगे दोहे संख्या 15-25 दोहों में परम आत्मा का स्वरूप। आज के बलाँग में हम परम आत्मा से सम्बन्धित 15-25 मात्र दोहों का ही आनन्द लेंगे और परमात्मा के स्वरूप को समझकर अनुभव करने का प्रयास करेंगे। । अगले ब्लाँग में हम परमात्मा से सम्बन्धित दोहे को प्रत्येक शब्द के अर्थ के अनुसार देखेंगे। 15. अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्के ँ जेण। मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण।। 16. तिहुयण-वंदिउ सिद्धि-गउ हरि-हर झायहिँ जो जि। लक्खु अलक्खे ँ धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि।। 17. णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ। जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ।। 18.. जो णिय-भाउ ण परिहरइ जो पर-भाउ ण लेइ। जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ।। .19. जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सद्दुु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु ।। 20. जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ।। 21. अत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अत्थि ण हरिसु विसाउ । अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ।। 22. जासु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु । जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउँ अणंतु ।। 23. वेयहि ँ सत्थहि ँ इंदियहिं ँ जो जिय मुणहु ण जाइ । णिम्मल-झाणहँ जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ।। 24 केवल-दंसण -णाणमउ केवल-सुक्ख सहाउ । केवल-वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ।। 25 एयहि ँ जुत्तउ लक्खणहिँ जो परु णिक्कलु देउ । सो तहिंँ णिवसइ परम-पइ जो तइलोयहँ झेउ।। हिन्दी अनुवाद - 15. कर्म बन्धन से रहित हुए जिसके द्वारा समस्त पर द्रव्य को छोड़कर, ज्ञानमय आत्मा प्राप्त किया गया है, वह ही परम-आत्मा (सर्वोच्च) है। (यह) अन्तःकरण से समझ। 16. जो तीन लोक के द्वारा वन्दित हैं, मुक्ति को प्राप्त हैं (और) हरि, हर (आदि भी) (उस) अदृश्य में अपने लक्ष्य को स्थिर रखकर (उसका) ध्यान करते हैं, वह ही परम-आत्मा है, (ऐसा तू ) समझ । 17. नित्य,निर´्जन, ज्ञानमय व परम आनन्द स्वभावमय ऐसी जो (आत्मा) है,ै, वह शान्त और मङ्गलमय है, तू उस (परम आत्मा ) के इस स्वभाव को समझ । 18. जो (आत्मा) न निज स्वभाव को छोड़ता है, ,जो न पर स्वभाव को ग्रहण करता है, किन्तु सबको निरन्तर जानता है, वह ही मङ्गल तथा शान्त (स्वरूप) होता है। 19. जिस (आत्मा)का न (कोई) रंग है न गन्ध (और) रस है, जिसका न (कोई) शब्द है, न स्पर्श है (तथा) जिसका न जन्म और न ही मरण है, उस (आत्मा) का नाम निर´्जन है। 20. जिस (आत्मा) के न क्रोध (है) न मोह (और) मद (है) जिसके न माया न मान है, जिसके लिए न (कोई) स्थान (देश) और न ध्यान (आवश्यक) है, हे जीव! वह ही (आत्मा का ) निर´्जन (स्वरूप है), ( ऐसा तू) समझ। 21. जिस (आत्मा) के न पुण्य है, न पाप है, जिसके न हर्ष (और) न विषाद है (तथा) जिसके एक भी दोष नहीं है, वह ही (आत्मा की ) निर´्जन अवस्था है। 22. जिसके लिए (ध्यान हेतु) न अवलम्बन (और) न ही (कोई) ध्येय (आवश्यक) है, जिसके लिए न (कोई) यंत्र (और) न मन्त्र (आवश्यक) है (तथा) जिसके लिए न (कोई) आसन, न ही (किसी तरह का) (कोई) चिन्ह (आवश्यक) है, वह शाश्वत परमेश्वर है, (ऐसा) (तू) समझ। 23. जो आत्मा, वेदों के द्वारा, जैन शास्त्रों के द्वारा तथा इन्द्रियों के द्वारा बोध के लिए समर्थ नहीं होती और जो निर्मल ध्यान का विषय है, वह ही शाश्वत परम- आत्मा है। 24 जो केवल दर्शन और केवलज्ञानमय, शुद्ध सुख स्वभाव (तथा) अनुपम शक्ति (सहित) है, वह ही अत्यन्त उत्तम (सर्वोच्च) अवस्था है, (ऐसा) (तू) समझ । 25. इन सब लक्षणों से युक्त जो निःशरीर परम परमेश्वर (है) वह उसी सर्वोच्च स्थान पर (परम पद पर) रहता है जो तीन लोक का ध्येय है।
  16. आचार्य योगिन्दु मानव-मन के गूढ़ रहस्यों से भली भाँति अनभिज्ञ हैं, इसीलिए उनको रहस्यवादी कवि तथा इनके परमात्मप्रकाश को रहस्यवादी धारा के काव्य की संज्ञा दी गयी है। सभी जीवों के प्रति इनकी संवेदनात्मक दृष्टि ने ही इनको परमात्मप्रकाश लिखने को प्रेरित किया तथा इस संवेदनात्मक दृष्टि ने ही इनको उन्नत अध्यात्मकारों की श्रेणी में विराजमान किया है। इन्होंने मानव को मूर्छित अवस्था से हटाने के लिए बहुत ही सरल शैली अपनायी है जिससे प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति आत्मा का अनुभव कर अपनी इस मूर्छित अवस्था का त्याग कर सके। सर्व प्रथम इन्होंने आत्मा की मूर्छित अवस्था का मात्र 9 शब्दों में लक्षण बताया। अब आगे जागृत अवस्था को प्राप्त हुए प्राणी का लक्षण बताते है कि जो प्राणी देह की आसक्ति से परे होता है वही व्यक्ति जागृत आत्मा होता है और वही देह से भिन्न ज्ञानमय परमआत्मा का अनुभव कर सकता है। देखें, परमात्मप्रकाश का 14वाँ दोहा, ज्ञानी का लक्षण - 14. देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ।। अर्थ -जो परम समाधि में स्थित हुआ, देह से भिन्न, ज्ञानमय परमआत्मा को देखता है, वह ही अन्तरात्मा (जागृत) होता है। शब्दार्थ - देह-विभिण्णउ- देह से भिन्न, णाणमउ-ज्ञानमय, जो-जो, परमप्पु-परमआत्मा को, णिएइ-देखता है, परमःसमाहि-परिट्ठियउ- परम समाधि में स्थित हुआ, पंडिउ- पंडित/जागृत/अन्तरात्मा, सो-वह, जि-ही, हवेइ-होता है।
  17. आचार्य योगिन्दु एक शुद्ध कोटि के अध्यात्मकार हैं। वे देह के आश्रित भेदों से प्राणियों के भेद को प्रमुखता नहीं देते। समस्त जगत की मानव जाति को वे आत्म अवस्था की तीन कोटियों में विभाजित कर देखते हैं। उनके अनुसार आत्मा के तीन भेद हैं- मूढ, विचक्षण, परमब्रह्म। शब्दकोश में इनके अर्थ इस प्रकार मिलते हैं -1. मूढ - मूर्ख, मन्दबुद्धि, जड़, अज्ञानी, नासमझ आदि,। 2. विचक्षण-स्पष्टदर्शी, विद्वान, पण्डित, दक्ष, विशेषज्ञ, कुशल आदि। 3. परमब्रह्म- परमात्मा। ब्रह्मदेव ने मूच्र्छित आत्मा को बहिरात्मा, विचक्षण आत्मा को अन्तरात्मा तथा परम आत्मा को शुद्ध आत्मा नाम दिया है। इन तीन प्रकार की आत्मा का नामोल्लेख करने के बाद आचार्य यागिन्दु मूढ आत्मा का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि जो देह को ही आत्मा मानता है, वह ही मूर्ख आत्मा होता है। बात छोटी सी है कि जो देह को ही आत्मा मानता है वह मूर्छित होता है किन्तु इसका विश्लेषण किया जाये तो इससे पोथियाँ भरी जा सकती है। देह में आसक्ति ही उपभोगतावादी संस्कृति का बढावा तथा सुसंस्कृति की अवनति का कारण है, जिसे आज हम देख रहे है, अनुभव कर रहे हैं, और भुगत रहे हैं। देखते हैं, दोहा संख्या 13 13. मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ। देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ।। अर्थ - आत्मा तीन प्रकार की होती है - मूच्र्छित (बहिरात्मा), जागृत (अन्तरात्मा) और परम-आत्मा (शुद्ध आत्मा)। जो देह को ही आत्मा मानता है, वह मनुष्य बहिरात्मा (मूच्र्छित) होता है। शब्दार्थ - मूढु - मूर्छित, वियक्खणु- जागृत, बंभुपरु- परमआत्मा, अप्पा-आत्मा, तिविहु-तीन प्रकार की, हवेइ- होती है, देहु- देह को, जि-ही, अप्पा-आत्मा, जो-जो, मुणइ-मानता है, सो-वह, जणु-मनुष्य, मूढु-अज्ञानी (मूर्छित), हवेइ- होता है।
  18. आचार्य योगीन्दु तीन प्रकार की आत्मा का आगे विस्तार से कथन करने से पूर्व ही भट्टप्रभाकर के माध्यम से हम सबको यह प्रमुख बात बता देना चाहते हैं कि उन तीन प्रकार की आत्मा के विषय में जानकर हमको क्या करना है ? वे कहते हैं कि मैं जो तुम्हारे लिए तीन प्रकार की आत्मा के विषय में कथन करूँगा, उसमें से तुम आत्मा की मूच्र्छित अवस्था को छोड़ देना तथा आत्मा की जो ज्ञानमय परमात्म स्वभाव अवस्था है, उसको तुम अपनी स्वसंवेदनात्मक ज्ञानमय आत्म अवस्था से जानना। इस प्रकार तीन प्रकार के आत्मस्वभाव का कथन कर उसमें से ग्रहण करने व त्यागने योग्य स्वभाव का भी कथन मात्र एक दोहे में कर दिया है। इनका एक-एक दोहा गागर में सागर भरने की योग्यता रखता है। देखने में इनके दोहे छोटे लगते हैं परन्तु हृदय के मर्मस्थल को जाग्रत करने में तत्पर रहते हैं। परमात्मप्रकाश के प्रथम त्रिविधात्माधिकार का 12वाँ दोहा इसी से सम्बन्धित है- 12. अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ। मुणि सण्णाणेँ णाणमउ जो परमप्प-सहाउ।। अर्थ - तीन प्रकार की आत्मा को जानकर (तू) शीघ्र (आत्मा की) मूच्र्छित अवस्था को छोड़, (और) जो ज्ञानमय परमात्म स्वभाव (है) (उसको) स्वबोध (स्वसंवेदनात्मक ज्ञान) के द्वारा जान । शब्दार्थ - अप्पा- आत्मा को, तिविहु-तीन प्रकार की, मुणेवि-जानकर, लहु-शीघ्र, मूढउ-मूच्र्छित, मेल्लहि-छोड़, भाउ-अवस्था, मुणि-जान, सण्णाणें-स्वबोध के द्वारा, णाणमउ-ज्ञानमय, जो- जो, परमप्प-सहाउ- परम आत्म स्वभाव।
  19. भट्टप्रभाकर के प्रश्न के उत्तर में आचार्य योगिन्दु बिना किसी भूमिका के सीधे सीधे 11वें दोहे से आत्मा के प्रकार (अप्पा तिविहु कहेवि) के कथन करने की बात से अपने ग्रंथ का शुभारंभ करने की बात करते हैं। वे कहते हैं कि मैं तीन प्रकार की आत्मा का कथन करने के लिए उद्यत हुआ हूँ, तू पंच गुरुओं को भाव पूर्वक चित्त में धारणकर उसे सुन। यही कारण है कि परमात्मप्रकाश के टीकाकार पूज्य ब्रह्मदेव ने इस ग्रंथ को तीन भागों में विभाजित कर इस ग्रंथ के प्रथम भाग को त्रिविधात्माधिकार नाम दिया। 11वें दोहे के माध्यम से अपभ्रंश भाषा और उसमें निहित कथन का आनन्द लीजिए - 11. पुणु पुणु पणविवि पंच-गुरु भावे ँ चित्ति धरेवि। भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि ।। अर्थ - हे भट्टप्रभाकर! मैं तीन प्रकार की आत्मा को कहने के लिए (उद्यत) हुआ हूँ, तू पाँच गुरुओं को बार-बार प्रणाम करके (और) (उनको) अंतरङ्ग बहुमानपूर्वक हृदय में धारण करके अन्तर्भाव (पूर्वक) सुन। शब्दार्थ - पुणु पुणु- बार-बार, पणविवि-प्रणाम कर, पंच-गुरु - पाँच गुरुओं को, भावें- अन्तरंग बहुमानपूर्वक, चित्ति-हृदय में, धरेवि-धारणकर, भट्टपहायर- हे भट्टप्रभाकर! णिसुणि- अन्तर्भावपूर्वक सुन, तुहुं- तू, अप्पा- आत्मा को, तिविहु- तीन प्रकार की, कहेवि- कहने के लिए। बन्धुओं! इस ग्रंथराज के मात्र 1 दोहे की हम प्रतिदिन विवेचना करेंगे। आप अपने परिचित जनों तथा विशेषकर अपभ्रंश और प्राकृत भाषा प्रे्रमियों को भी इस ग्रंथ को इन ब्लाग के माध्यम से पढने हेतु प्रेरित करें। आपकी रुचि को देखते हुए धीरे-धीरे दोहों की संख्या बढा दी जायेगी। प्रारम्भ में हम आपकी सुविधा के लिए एक ही दोहा लेंगे।
  20. पंच परमेष्ठि को नमन करने के बाद भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से चारो गतियों के दुःखों से मुक्त करनेवाले परम आत्मा का कथन करने हेतु निवेदन करता है। इसका आगे के तीन दोहों में निम्न प्रकार से कथन है - 8. भाविं पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ। भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ।। अर्थ - (इस प्रकार) अपने भावों को निर्मल करके (तथा) पंच गुरुओं को भावपूर्वक प्रणाम करके भट्टप्रभाकर के द्वारा श्री योगीन्दु मुनिराज से (यह) प्रार्थना की गयी - शब्दार्थ - भाविं-भावपूर्वक, पणविवि-प्रणाम करके, पंच-गुरु - पाँचों गुरुओं को, सिरि-जोइन्दु-जिणाउ- श्री योगिन्दु मुनिराज से, भट्टपहायरि-भट्टप्रभाकर के द्वारा, विण्णविउ-प्रार्थना की गयी, विमलु-निर्मल, करेविणु-करके, भाउ-भाव को। 9. गउ संसारि वसंताहँं सामिय कालु अणंतु। पर मइँं किं पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु।। अर्थ -. हे स्वामि! (इस) संसार में रहते हुए अनन्त समय व्यतीत गया, परन्तु मेरे द्वारा कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया गया, (किन्तु) विपुल दुःख ही प्राप्त किया गया है । शब्दार्थ - गउ-व्यतीत हो गया, संसारि-संसार में, वसंताहं-रहते हुए का, सामिय-हे स्वामी! कालु-समय, अणंतु-अनन्त, पर-परन्तु, मइं-मेरे द्वारा, किंपि-कुछ भी, ण-नहीं, पत्तु-प्राप्त किया गया, सुहु-सुख, दुक्खु-दुःख, जि-ही, पत्तु-प्राप्त किया गया, महंतु-विपुल। 10. चउ-गइ-दुक्खहँ तत्ताहँ जो परमप्पउ कोइ। चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि ।। अर्थ - चारों गतियों के दुःखों से दुःखी (जीवों) के लिए चारों गतियों के दुःख का विनाश करनेवाला जो कोई (अंतरंग स्थित) परम आत्मा है, वह (उसके विषय में) ही कृपापूर्वक कहो। शब्दार्थ - चउ-गइ-दुक्खहं- चारों गतियों के दुःखों से, तत्ताहं - दुःखी के लिए, जो- जो, परमप्पउ-परम आत्मा, कोइ-कोई, चउ-गइ-दुक्ख-विणासयर- चारों गतियों के दुःख का विनाश करनेवाला, कहहु-कहो, पसाए-कृपा पूर्वक, वि - ही। भट्टप्रभाकर की विनम्र प्रार्थना को सुनकर आचार्य योगिन्दु अपने ग्रंथ का शुभारंभ किस प्रकार करते हैं, देखिये आगे के ब्लाँग में।
  21. परमात्मप्रकाश के विषय में स्पष्ट करने हेतु मैं पुनः दोहरा रही हूँ कि परमात्मप्रकाश के रचियता छठी शताब्दी के आचार्य योगिन्दु अपभ्रंश भाषा के प्रथम अध्यात्म ग्रंथ रचनाकार हैं। इनका मैं ज्यादा गुणगान करना नहीं चाहती और वह इसलिए कि मैं चाहती हूँ कि आप उनका गुणगान करें। जब आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ को पूरा समझ लेंगे तो बंधुओं मेरा यह पूरा विश्वास है कि परमात्मप्रकाश के प्रति जो मेरी भावना है एक दिन वहीं भावना आप लोगों की भी होगी, और तभी मैं अपने मकसद में कामयाब हो सकूँगी। मेरा मकसद है कि ‘कबीरवाणी’ की तरह परमात्मप्रकाश का वाचन भी एक दिन ‘योगिन्दुवाणी’ के नाम से होने लगे। इसके लिए मेरा आपसे निवेदन है मैं प्रतिदिन परमात्मप्रकाश के जिन दोहों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ आप उनको एक बार अवश्य गाने का प्रयास करें। इसकी राग दोहे की राग है जो बहुत आसान है। पूजन में जिस प्रकार विनय पाठ ‘इह विधि ठाड़ो होय के’ बोला जाता है उस ही राग में आप इसका भी गायन कर सकते हैं। आशा है आप का मेरे मकसद को पूरा करने में बहुत बड़ा योगदान होगा। यही हमारी आचार्य योगिन्दु के प्रति सच्ची शृद्धांजलि होगी। मैं पुनः बतादूँ कि परमात्मप्रकाश एक प्रश्नोत्तर शैली में लिखी एक विशुद्ध कोटि की अध्यात्म रचना है। अपने काव्य को प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत करने हेतु ही शायद आचार्य योगिन्दु ने भट्टप्रभाकर नामक किसी प्रश्नकार पात्र की कल्पना की होगी। जैन परम्परानुसार प्रारम्भ में मंगलाचरण कर भट्टप्रभाकर प्रश्न पूछते हैं और योगिन्दु उनके प्रश्नों का उत्तर देते हैं। एक प्रश्न का उत्तर समाप्त होता है पुनः प्रश्नोत्तर का क्रम चलता है और इसी क्रम में परमात्मप्रकाश ग्रंथ की रचना पूर्ण होती है। आज के इस ब्लाँग में हम परमात्मप्रकाश के प्रारंम्भिक मंगलाचरण के शेष चार दोहों को पूरा करते हैं। प्रारम्भिक तीन दोहें को हम पूर्व में कर चुके हैं। 4. ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे णिव्वाणि वसंति। णाणिं तिहुयणि गरुया वि भव-सायरि ण पडंति।। अर्थ - पुनः उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो मोक्ष में रहते हैं, ज्ञान से तीन लोक में गुरु हैं और संसाररूपी समुद्र में नहीं पड़ते हैं। शब्दार्थ - ते- उन, पुणु-पुनः, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गण - सिद्ध समूहों को, जे-जो, णिव्वाणि-मोक्ष में, वसंति-रहते हैं, णाणिं-ज्ञानी होने के कारण, तिहुयणि-तीन लोक में, गरुया-गुरु, भव-सायरि-संसाररूपी समुद्र में, ण-अव्यय, पडंति-पडते हैं। 5. ते पुणु वंदउँं सिद्ध-गण जे अप्पाणि वसंत। लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहिँ विमलु णियंत।। अर्थ - 5. पुनः उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो आत्मा (स्व) में रहते हुए भी इस समस्त लोक और अलोक को विशुद्धरूप से देखते हुए विद्यमान हैं। शब्दार्थ - ते-उन, पुणु-पुनः, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गण- सिद्ध समूहों को, जे- जो, अप्पाणि-आत्मा में, वसंत-रहते हुए, लोयालोउ-लोक और अलोक को, वि - भी, सयलु-समस्त, इहु-इस, अच्छहिं-विद्यमान हैं, विमलु-विशुद्धरूप से, णियंत- देखते हुए। 6. केवल-दंसण-णाणमय केवल-सुक्ख-सहाव। जिणवर वंदउँं भत्तियए जेहिँ पयासिय भाव।। अर्थ - (अब मैं) केवलदर्शन, केवलज्ञानमय और केवलसुखस्वभाव अरिहन्तों को भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ, जिनके द्वारा (समस्त) पदार्थ प्रकट किये गये हैं। शब्दार्थ - केवल-दंसण-णाणमय- केवलदर्शन और केवलज्ञानमय, केवल-सुक्ख सहाव- केवल सुख स्वभाव, जिणवर- अर्हन्देवों को, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, भत्तियए-भक्तिपूर्वक, जेहिं-जिनके द्वारा, पयासिय-प्रकट किये गये हैं, भाव-पदार्थ। 7. जे परमप्पु णियंति मुणि परम-समाहि धरेवि। परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि।। अर्थ - . जो तीनों मुनि (आचार्य, उपाध्याय, साधु) परम आनन्द की (प्राप्ति) के प्रयोजन से परम समाधि को धारण करके (स्वयं में) परम आत्मा को देखते हैं, उन को भी नमस्कार करता हूँ। शब्दार्थ - जे- जो, परमप्पु-परमात्मा को, णियंति-देखते हैं, मुणि-साधु, परम-समाहि -परम समाधि,धरेवि-धारणकर, परमाणंदह- परमआनन्द के, कारणिण-प्रयोजन से, तिण्णि वि -तीनों, ते- उनको, वि-भी, णवेवि-प्रणाम करके। इस प्रकार 1 - 5 दोहों में त्रिकालिक सिद्ध परमेष्ठि को छठे दोहे में अर्हन्त परमेष्ठि को तथा सातवें दोहे में आचार्य, उपााध्याय व साधु परमेष्ठि को एक साथ वंदन किया गया है। प्रारंभिक मंगलाचरण के बाद आगे के ब्लाग में भट्टप्रभाकर के द्वारा आचार्य योगिन्दु के समक्ष रखे गये प्रश्न के विषय को समझेंगे। विशेष जानकारी के लिए आप सम्पर्क कर सकते हैं - 09166088994 परमात्मप्रकाश के विषय में स्पष्ट करने हेतु मैं पुनः दोहरा रही हूँ कि परमात्मप्रकाश के रचियता छठी शताब्दी के आचार्य योगिन्दु अपभ्रंश भाषा के प्रथम अध्यात्म ग्रंथ रचनाकार हैं। इनका मैं ज्यादा गुणगान करना नहीं चाहती और वह इसलिए कि मैं चाहती हूँ कि आप उनका गुणगान करें। जब आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ को पूरा समझ लेंगे तो बंधुओं मेरा यह पूरा विश्वास है कि परमात्मप्रकाश के प्रति जो मेरी भावना है एक दिन वहीं भावना आप लोगों की भी होगी, और तभी मैं अपने मकसद में कामयाब हो सकूँगी। मेरा मकसद है कि ‘कबीरवाणी’ की तरह परमात्मप्रकाश का वाचन भी एक दिन ‘योगिन्दुवाणी’ के नाम से होने लगे। इसके लिए मेरा आपसे निवेदन है मैं प्रतिदिन परमात्मप्रकाश के जिन दोहों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ आप उनको एक बार अवश्य गाने का प्रयास करें। इसकी राग दोहे की राग है जो बहुत आसान है। पूजन में जिस प्रकार विनय पाठ ‘इह विधि ठाड़ो होय के’ बोला जाता है उस ही राग में आप इसका भी गायन कर सकते हैं। आशा है आप का मेरे मकसद को पूरा करने में बहुत बड़ा योगदान होगा। यही हमारी आचार्य योगिन्दु के प्रति सच्ची शृद्धांजलि होगी। मैं पुनः बतादूँ कि परमात्मप्रकाश एक प्रश्नोत्तर शैली में लिखी एक विशुद्ध कोटि की अध्यात्म रचना है। अपने काव्य को प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत करने हेतु ही शायद आचार्य योगिन्दु ने भट्टप्रभाकर नामक किसी प्रश्नकार पात्र की कल्पना की होगी। जैन परम्परानुसार प्रारम्भ में मंगलाचरण कर भट्टप्रभाकर प्रश्न पूछते हैं और योगिन्दु उनके प्रश्नों का उत्तर देते हैं। एक प्रश्न का उत्तर समाप्त होता है पुनः प्रश्नोत्तर का क्रम चलता है और इसी क्रम में परमात्मप्रकाश ग्रंथ की रचना पूर्ण होती है। आज के इस ब्लाँग में हम परमात्मप्रकाश के प्रारंम्भिक मंगलाचरण के शेष चार दोहों को पूरा करते हैं। प्रारम्भिक तीन दोहें को हम पूर्व में कर चुके हैं। 4. ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे णिव्वाणि वसंति। णाणिं तिहुयणि गरुया वि भव-सायरि ण पडंति।। अर्थ - पुनः उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो मोक्ष में रहते हैं, ज्ञान से तीन लोक में गुरु हैं और संसाररूपी समुद्र में नहीं पड़ते हैं। शब्दार्थ - ते- उन, पुणु-पुनः, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गण - सिद्ध समूहों को, जे-जो, णिव्वाणि-मोक्ष में, वसंति-रहते हैं, णाणिं-ज्ञानी होने के कारण, तिहुयणि-तीन लोक में, गरुया-गुरु, भव-सायरि-संसाररूपी समुद्र में, ण-अव्यय, पडंति-पडते हैं। 5. ते पुणु वंदउँं सिद्ध-गण जे अप्पाणि वसंत। लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहिँ विमलु णियंत।। अर्थ - 5. पुनः उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो आत्मा (स्व) में रहते हुए भी इस समस्त लोक और अलोक को विशुद्धरूप से देखते हुए विद्यमान हैं। शब्दार्थ - ते-उन, पुणु-पुनः, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गण- सिद्ध समूहों को, जे- जो, अप्पाणि-आत्मा में, वसंत-रहते हुए, लोयालोउ-लोक और अलोक को, वि - भी, सयलु-समस्त, इहु-इस, अच्छहिं-विद्यमान हैं, विमलु-विशुद्धरूप से, णियंत- देखते हुए। 6. केवल-दंसण-णाणमय केवल-सुक्ख-सहाव। जिणवर वंदउँं भत्तियए जेहिँ पयासिय भाव।। अर्थ - (अब मैं) केवलदर्शन, केवलज्ञानमय और केवलसुखस्वभाव अरिहन्तों को
  22. मंगलाचरण के रूप में परमात्मप्रकाश के प्रथम दोहे में सिद्धालय में विराजमान सिद्ध परमेष्ठि को वंदन करने के बाद दोहा 2 और 3 में भविष्य में होनेवाले एवं वर्तमान में विद्यमान सिद्ध परमेष्ठि को नमन किया गया है। (परमात्मप्रकाश, दोहा संख्या 2,3) 2. ते वंदउँ सिरि-सिद्ध-गण होसहिँ जे वि अणंत। सिवमय-णिरुवम-णाणमय परम-समाहि भजंत।। अर्थ - . और भी उन मंगलमय, अनुपम, ज्ञानयुक्त, अनन्त श्री सिद्ध समूहों को नमस्कार करता हूँ जो (आगामी काल में) परम समाधि को अनुभव करते हुए (सिद्ध) होंगे। शब्दार्थ - ते-उन, वंदउं- नमस्कार करता हूँ, सिरि-सिद्ध-गण - श्री सिद्ध समूहों को, होसहिं- होंगे, जे-जो, वि-और भी, अणंत- अनन्त, सिवमय -णिरुवम-णाणमय - मंगलमय,अनुपम,ज्ञानमय परम-समाहि -परम समाधि को, भजंत- अनुभव करते हुए। 3. ते हउँ वंदउँ सिद्ध-गण अच्छहिँं जे वि हवंत। परम-समाहि-महग्गियएँ कम्ंिमंधणइँ हुणंत।। अर्थ - और भी उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो (सिद्ध) परमसमाधिरूप उत्तम अग्नि में कर्मोंरूपी ईंधन को होम करते हुए (तथा) (सिद्धत्व को) प्राप्त करते हुए विद्यमान हैं। शब्दार्थ - ते-उन, हउं-मैं, वंदउं- प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गण - सिद्ध समूहों को, अच्छहिं - विद्यमान हैं, जे - जो, वि-और भी, हवंत-प्राप्त करते हुए, परम-समाहि-महग्गियएं- परमसमाधि की उत्तम अग्नि में, कम्मिधणइं-कर्मोंरूपी ईधन को, हुणंत- होम करते हुए।
  23. भट्टप्रभाकर द्वारा ग्रंथ के प्रारम्भिक 5 दोहों में त्रिकालिक सिद्धों की वंदना, 6ठे दोहें में अरिहन्त परमेष्ठि की वंदना, 7वें दोहें में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठि को नमन कर 8-10 दोहें में आचार्य योगिन्दु से परमआत्मा के विषय में कथन करने की प्रार्थना की गई है। यहाँ सि़द्ध परमेष्ठि की वंदना के साथ प्रथम गाथा से ग्रंथ का शुभारंभ किया जा रहा है। 1. जे जाया झाणग्गियए ँ कम्म-कलंक डहेवि। णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि।। अर्थ - जो ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी दोषों को जलाकर, नित्य (शाश्वत), निरंजन (सभी दोषों से रहित), (और) ज्ञानमय हुए हैं, उन परम आत्माओं को नमस्कार करके शब्दार्थ - जे-जो, जाया-हुए हैं, झाणग्गियएँ -ध्यानरूपी अग्नि से, कम्म-कलंक - कर्मरूपी दोषों को, डहेवि- जलाकर, णिच्च-णिरंजण-णाणमय - नित्य, निरंजन, ज्ञानमय ते-उन, परमप्प- परम-आत्माओं को, णमेवि- नमस्कार करके
  24. मोक्ष अधिकार समाप्त हुआ है। मोक्ष अधिकार के अन्तिम 107दोहे में ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में लिखा है के इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्ष फल और मोक्ष इन तीनों को कहनेवाले दूसरे महाधिकार में चार अन्तरस्थलों का इकतालीस दोहों का महास्थल समाप्त हुआ। 3. महाधिकार तीसरे महाधिकार के प्रारम्भिक एक सौ आठवें दोहे में ब्रह्मदेव ने लिखा है कि आगे ‘पर जाणंतु वि’ एक सौ सात दोहा पर्यन्त तीसरा महाधिकार कहते हैं और उसी में ग्रंथ को समाप्त करते हैं। यहाँ ब्रह्मदेव ने पूर्व के दो अधिकारों के समान तीसरे अधिकार का नाम नहीं दिया। इस अधिकार की रचना मुख्यरूप साधु के लिए ही की गई है। मोक्ष के कथन के पश्चात् आगे के समस्त दोहे साधु के जीवन से ही सम्बन्धित रखते हैं। आज हमने आचार्य योगिन्दु एवं परमात्मप्रकाश के विषय में जानकारी प्राप्त की। आगे के ब्लाँग में हम परमात्मप्रकाश के मंगलाचरण से ग्रंथराज का शुभारंभ करेंगे।
  25. प्रिय पाठकगण, आज से हम एक ऐसे ग्रंथराज को अपने ब्लाँग का विषय बना रहे हैं जो अपने आप में अद्वितीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ आपको आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा बहुत ही रोचक एवं सहजरूप से करायेगा, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। इस ग्रंथ में कुल तीनसौ पैतालीस दोहे हैं। प्रारंभिक मंगलाचरण के बाद हम प्रतिदिन एक दोहे को अपने ब्लाँग का विषय बनायेंगे। आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ का आनन्द लेने के साथ साथ अपभ्रंश भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर सकें, ऐसा मेरा प्रयास यहाँ रहेगा। ग्रंथ की विषयवस्तु प्रारंभ करने से पूर्व आज हम आचार्य योगिन्दु एवं उनके द्वारा रचित परमात्मप्रकाश के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त करते हैं। आचार्य योगीन्दु योगीन्दु जैन परम्परा में दिगम्बर आम्नाय के मान्य आचार्य एवं अपभ्रंश भाषा में रचित साहित्य की मुक्तक विधा के आद्य रचनाकार हैं। जिस प्रकार प्राकृत भाषा के ज्ञात आध्यात्मिक रचनाकारों में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है उसी प्रकार अपभ्रंश वाङ्मय के अध्यात्म निरूपण में आचार्य योगीन्दु का स्थान शीर्ष पर है। आध्यात्मिक परम्परा जो आचार्य कुन्दकुन्द से चली आ रही थी उसकी बागडोर आचार्य योगिन्दु ने सम्हाली, जो नाथों और सिद्धों से गुजरती हुई मुनि रामसिंह, कबीर, बनारसीदास आदि आत्म साधकों तक पहुँची। योेगिन्दु का समय - शतसहस्त्र जीवों के अन्धकारपूर्ण जीवन को अपने अन्तस् के आलोक से आलोकित करनेवाले अध्यात्मवेत्ता योगीन्दु के जीवन के सन्दर्भ में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनके ग्रन्थों में भी उनके नाम, जीवन, तथा स्थान के विषय में कोई निर्देश नहीं है। योगीन्दु द्वारा रचित परमात्म प्रकाश में मात्र उनका नाम जोइन्दु तथा उनके शिष्य का नाम भट्टप्रभाकर का उल्लेख भर मिलता है। श्री गांधी एवं डाॅ. ए.एन. उपाध्ये योगीन्दु को प्राकृत वैयाकरणकार चण्ड से भी अधिक पुराना सिद्ध करते है, क्योंकि चन्ड ने अपने प्राकृत वैयाकरण में प्राकृत लक्षण के सन्दर्भ में परमात्मप्रकाश का 85 वाँ दोहा उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है- काल लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोह गलेइ। तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमें अप्पु मुणेइ।। आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने प्राकृत व्याकरण में योगीन्दु के परमात्मप्रकाश के कुछ दोहों का उल्लेख किया है। रामसिंह के पाहुडदोहा पर योगीन्दु के परमात्मप्रकाश का बहुत प्रभाव है। बौद्ध-सिद्ध सन्तों पर भी यागीन्दु की रचनाओं का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है। उनका साहित्य योगीन्दु के विचारों का अनुकरण करता प्रतीत होता है। राहुल सांकृत्यायन ने इन सिद्धों का समय संवत् 817 तथा विनयतोष भट्टाचार्य ने 690 संवत्ं निश्चित किया है। अतः योगीन्दु का समय सिद्धों से पूर्व होने के कारण इनका काल छठी-सातवीं शताब्दी निधारित किया जा सकता है। रचनाएँ - यागीन्दु द्वारा रचित परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश), योगसार (अपभ्रंश), दोहापाहुड (अपभ्रंश), नौकार श्रावकाचार (अपभ्रंश), अध्यात्म संदोह (संस्कृत), सुभाषित तन्त्र (संस्कृत), तत्वार्थ टीका (संस्कृत), अमुताशीति (संस्कृत), निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएँ मानी जाती हैं, किन्तु उन पर विद्वानों में मतभेद हैं। इनमें से परमात्मप्रकाश तथा योगसार इन दो रचनाओं को ही निर्विवाद रूप से योगीन्दु की रचना स्वीकार किया गया है। परमात्मप्रकाश- परमात्मप्रकाश रहस्यवादी धारा का महत्वपूर्ण आध्यात्मिक काव्य है। यह सम्पूर्ण काव्य प्रश्नोत्तर शैली की एक क्रमबद्ध रचना है। योगीन्दु के प्रबुद्ध शिष्य भट्टप्रभाकर गुरु से प्रश्न पूछते हैं और योगीन्दु उनके प्रश्नों का समाधान करते हैं। ब्रह्मदेव की टीका के अनुसार यह ग्रंथ मुख्य रूप से तीनो महाधिकारों में विभक्त है।1. त्रिविधात्मा अधिकार 2. मोक्ष अधिकार। 3. महाधिकार। त्रिविधात्मा अधिकार में 126, मोक्ष अधिकार में 107 तथा अन्तिम तीसरे महाधिकार में 112 दोहे है। त्रिविधात्माधिकार के दोहे का क्रम 1 से प्रारम्भ होकर 126 तक है। मोक्ष अधिकार में दोहों का क्रम पुनः 1 से प्रारम्भ होकर 107 तक है। तीसरे महाधिकार में दोहों का क्रम मोक्ष अधिकार के 107 दोहों के बाद 108 दोहे से प्रारम्भ होकर 229 दोहे तक है। इस प्रकार इस ग्रंथ में कुल 345 दोहे हैं। इन तीनों अधिकारों की कथावस्तु संक्षेप में निम्न प्रकार है - त्रिविधात्माधिकार - परमात्म प्रकाश के प्रथम त्रिविधात्माधिकार का प्रारम्भ भट्ट प्रभाकर द्वारा पंचपरमेेष्ठि वंदन से होता है। वंदना के तुरन्त बाद ही भट्ट प्रभाकर ने आचार्य योगिन्द्रदेव से संसारी जीवों के चतुर्गति के दुःखों के निवारण हेतु आत्मा के श्रेष्ठ स्वरूप परम-आत्मा के विषय में बताने हेतु प्रार्थना की है। भट्ट प्रभाकर की विनम्र प्रार्थना को सुनकर श्रीयोगीन्दाचार्य ने 11-15 (5) दोहों में सर्वप्रथम आत्मा के तीन प्रकार का उल्लेख कर उनको संक्षेप में परिभाषित किया है। उसके बाद भट्टप्रभाकर के प्रश्न के उत्तर में 16-49 (34) दोहों में आत्मा के उत्कृष्ट स्वरूप परम-आत्मा का विस्तारपूर्वक कथन किया है। परम- आत्मा के विषय में जानने के बाद भट्टप्रभाकर योगीन्दु आचार्य से पुनः प्रश्न करते है कि कुछ लोग जीव को सर्वव्यापक, कुछ अचेतन, कुछ देहके समान तथा कुछ शून्य कहते हैं, (आखिर जीव का सत्य स्वरूप क्या है ?) भट्टप्रभाकर के द्वारा पूछे गये प्रश्न के प्रत्युत्तर में आचार्य यागीन्दु ने आत्मा का विस्तृत रूप में विवेचन किया है। प्रारम्भ में 50-58 (9) दोहों में आत्मा के स्वरूप को संक्षेप में सरलता से समझाया है। पुनः आत्मा के स्वरूप को और स्पष्ट करने हेतु 59-103 दोहों में जीव व कर्म का सम्बन्ध तथा जीव व अजीव में भेद, आत्मा के मूर्ख एवं संयत स्वरूप का कथन कर योगीन्दुदेव ने भट्टप्रभाकर के आत्मा से सम्बन्धित प्रश्न का समाधान किया है। आत्मा के विषय में सुनने के बाद दोहा सं. 104 में पुनः भट्टप्रभाकर आचार्य योगीन्दु से आत्मा को जाननेवाले परमज्ञान को कहने हेतु पुनः प्रार्थना करते हैं। तब योगीन्दुदेव 105-125 दोहों में परमज्ञान का स्वरूप, परमात्मा का ध्यान एवं उसका फल तथा निर्मल मन में ही परमात्मा का निवास होने का कथन करते हैं। त्रिविधात्मा अधिकार के अन्तिम 126वें दोहे में योगीन्दु विषय-कषायों में जाते हुए मन को परमात्मा में रखने को ही मोक्ष (परमशान्ति) बताते हैं और यही त्रिविधात्माधिकार समाप्त हो जाता है। इस मोक्ष की बात सुनकर भट्टप्रभाकर पुनः आचार्य योगिन्दु से मोक्ष के विषय में कथन करने की प्रार्थना करते हैं और यही से दूसरे मोक्ष अधिकार का प्रारंभ होता है। 2. मोक्ष अधिकार योगीन्दु आचार्य के द्वारा तीन प्रकार की आत्मा तथा परमात्मा विषयक दिये गये उपदेश को सुनकर भट्टप्रभाकर ने पुनः प्रश्न किया कि हे गुरु! मुझे मोक्ष, मोक्ष का कारण और मोक्ष का फल बताइए जिससे मैं परमार्थ को जान सकूँ। तब योगिन्दु आचार्य ने मोक्ष, मोक्ष का कारण तथा मोक्ष का फल समझाया जो परमात्मप्रकाश का द्वितीय मोक्षाधिकार कहलाया। मोक्ष अधिकार मोक्ष की श्रेष्ठता एवं मोक्ष के स्वरूप के कथन से प्रारम्भ हुआ है। आगे मोक्ष के हेतु, दर्शन, ज्ञान और चारित्र को बहुत ही सरल रूप से समझाया गया है तथा समभाव प्राप्ति को ही मोक्ष का फल कहा है। समभाव का कथन पूरा हो चुकने के बाद ही
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