कर्मों की सर्वस्वता
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि इस जगत में कर्मों की ही वर्चस्वता है। हमारी समस्त इन्द्रियाँ, हमारा मन, हमारे समस्त विभाव, चारों गति में जन्म लेकर दुःख -सुख भोगना ये सब अपने शरा किये गये कर्मों के ही परिणाम हंै। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
63. पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल-विभाव।
जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव।। 63।।
अर्थ - हे जीव! पाँचों ही इन्द्रियाँ और मन, और भी समस्त विभाव और दूसरा चार गति का दुःख (ये सब) जीवों के कर्म से उत्पन्न किये गये हैं।
शब्दार्थ - पंच - पाँचों, वि - ही, इंदिय-इन्द्रियाँ, अण्णु - और, मणु -मन, अण्णु - और, वि - भी, सयल-विभाव-समस्त विभाव, जीवहँ - जीवों के, कम्मइँ - कर्म से, जणिय- उत्पन्न किये गये हैं, जिय - हे जीव!, अण्णु - दूसरा, वि - और, चउगइ-ताव - चार गति का दुःख।
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