दुःःख और सुख का कत्र्ता मात्र कर्म ही है
आज हम 3 गाथाओं में कर्म की महत्ता का कथन करते है। आचार्य योगिन्दु कहते हैं जीवों का बहुत प्रकार का दुःख और सुख, बन्ध और मोक्ष भी कर्म ही करता है तथा तीनों लोकों में भी कर्म ही आत्मा को भ्रमण कराता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे की 3 गाथाएँ -
64. दुक्खु वि सुक्खु वि बहु-विहउ जीवहँ कम्मु जणेइ ।
अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ।।64।।
अर्थ - जीवों का बहुत प्रकार का दुःख और सुख कर्म ही उत्पन्न करता है। आत्मा मात्र देेखता और जानता है, इस प्रकार निश्चय (नय) कहता है।
शब्दार्थ - दुक्खु- दुःख, वि-और, सुक्खु-सुख, वि-ही, बहु-विहउ-बहुत प्रकार का, जीवहँ-जीवों का, कम्मु - कर्म, जणेइ-उत्पन्न करता है, अप्पा-आत्मा, देक्खइ-देखता है, मुणइ-जानता है, पर-मात्र, णिच्छउ -निश्चय एउँ-इस प्रकार, भणेइ-कहता है।
65. बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ ।
अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ।।
अर्थ - हे प्राणी! जीवों का कर्म ही बन्ध, मोक्ष आदि सबको उत्पन्न करता है तथा आत्मा कुछ भी नहीं करती, इस प्रकार निश्चय(नय) कहता है।
शब्दार्थ - बंधु - बंध, वि-आदि, मोक्खु-मोक्ष, वि-ही सयलु-सबको, जिय-हे प्राणी, जीवहँ-जीव का, कम्मु-कर्म, जणेइ-उत्पन्न करता है, अप्पा-आत्मा, किंपि -कुछ भी, वि-तथा, कुणइ-करती, णवि -नहीं, णिच्छउ-निश्चय, एउँ-इस प्रकार, भणेइ-कहता है।
66. अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ ।
भुवणत्तयहँ वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ।। 66।।
अर्थ -आत्मा न जाती है न आती है, आत्मा (तो) लंगडे (के समान) अनुकरण करती है, तीनों लोकों मे आत्मा को कर्म ही लाता है (और) कर्म ही ले जाता है।
शब्दार्थ - अप्पा -आत्मा, पंगुह-लंगड़े अणुहरइ-अनुकरण करती है, अप्पु -आत्मा, ण- न, जाइ-जाता है, ण-न, एइ-आता है, भुवणत्तयहँ-तीनों लोकों, वि-ही, मज्झि-में, जिय-आत्मा को, विहि-कर्म, आणइ-लाता है, विहि-कर्म, णेइ-ले जाता है।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.