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?शिखरजी की वंदना का विचार - अमृत माँ जिनवाणी से - २४८


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४८   ?


           "शिखरजी वंदना का विचार"


          सन् १९२७ में कुम्भोज बाहुबली में चातुर्मास के उपरांत  बम्बई के धर्मात्मा तथा उदीयमान पुण्यशाली सेठ पूनमचंद घासीलालजी जबेरी के मन में आचार्यश्री शान्तिसागर महराज के संघ को पूर्ण वैभव के साथ सम्मेदशिखरजी की वंदनार्थ ले जाने की मंगल भावना उत्पन्न हुई।

         उन्होंने गुरुचरणों में प्रार्थना की। आचार्यश्री ने संघ को शिखरजी जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी। वैसे पहले भी महराज की सेवा में शिखरजी चलने की प्रार्थना की गई थी, किन्तु प्रतीत होता है कि काललब्धि उस समय नहीं आई थी और यही पुण्य निश्चय की मंगल बेला थी, इससे आचार्य महराज की अनुज्ञा प्राप्त हो गई।

          यह निश्चय जिसे भी ज्ञात हुआ, उसे आनंद और आश्चर्य दोनो प्राप्त हुआ। आनंद होना तो स्वाभाविक है, कारण धार्मिक समुदाय शिखरजी के आध्यात्मिक महत्व को सदा से मानता चला आ रहा है, तथा आगामी निर्वाण की महत्ता शिखरजी को ही प्राप्त होगी।

          यह हुंडावसर्पिणी काल का प्रभाव है जो चार तीर्थंकर दूसरे स्थान से मुक्त हुए।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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