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पिछले ब्लाॅग की अशुद्धि का शुद्धिकरण


Sneh Jain

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क्षमा करें, पिछले ब्लाॅग में कुछ व्यस्तता के कारण दोहे के शब्दार्थ में गलती हो गयी। 71वें दोहे के शब्दार्थ के स्थान पर 72 वें दोहे के शब्दार्थ दे दिये गये। अतः पुनः शुद्धि के साथ उसी दोहे को दोहराया जा रहा है।     

शरीर के प्रति अभय विषयक कथन

इस संसार के प्रत्येक प्राणी को जितना दुःख है वह शरीर से सम्बन्धित ही है। जिस समय व्यक्ति का मरण होता है उस समय आत्मा के अभाव में देह की समस्त क्रियाओं का निरोध होने से व्यक्ति के देह से सम्बन्धित सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए आचार्य योगिन्दु शरीर से अधिक आत्मा के महत्व का कथन कर प्रत्येक जीव को शरीर के प्रति अभय प्रदान करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 

71.  देहहँ पेक्खिवि जर-मरणु मा भउ जीव करेहि

     जो अजरामर बंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि।।  

अर्थ -  हे जीव! देह के बुढापा मरण को देखकर भय मत कर। जो अजर-अमर परम आत्मा है, वह ही आत्मा है, (ऐसा) (तू) समझ।

शब्दार्थ - देहहँ -देहों के, पेक्खिवि-देखकर, जर-मरणु- बुढ़ापा मरण को, मा -मत, भउ-भय, जीव-हे जीव!, करेहि-कर, जो-जोे, अजरामर-अजर-अमर, बंभु- आत्मा, परु-परम, सो-वह, अप्पाणु-आत्मा, मुणेहि-समझ।  

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