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?संघ विहार(शिखरजी यात्रा) - अमृत माँ जिनवाणी से - २५०


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

      कल से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को जानने के क्रम में एक नया अध्याय प्रारम्भ हो चुका है। मैं शिखरजी की यात्रा को एक नया अध्याय इसलिए मानता हूँ क्योंकि यही से इन सदी के प्रथम आचार्य के मंगल चरण उत्तर भारत में पड़कर वहाँ के लोगों को धर्मामृत का पान कराने वाले थे।

          यह वर्णन उस समय पूज्यश्री ने जो ससंघ वंदना हेतु यात्रा की थी उसका उल्लेख है, आप यह सोच सकते हैं कि उससे हमारा क्या संबंध। यहाँ मेरे मानना है कि इस प्रसंगों के माध्यम से पूज्यश्री की मंगल यात्रा को नजदीक से अनुभव करने का लाभ मिलेगा, निश्चित ही सभी रुचिवान पाठक श्रृंखला के क्रम से ऐसा अनुभव करेंगे कि वे स्वयं ही पूज्यश्री के संघ के साथ चल रहे हों।

        प्रस्तुत सारा वर्णन "चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ" से ही प्रस्तुत किया जाता है। नियमित चल रही इस श्रृंखला से आपके अंदर हुई आपकी विशेष यथार्थ  अनुभूतियों को आप सांझा कर सकते है जिससे प्रसंग श्रृंखला प्रस्तुतीकरण की उपयोगता का अनुभव होता रहे।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५०   ?


       "संघ विहार (शिखरजी की यात्रा)"


            कल के प्रसंग से पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की सन् १९२७ की शिखरजी यात्रा का उल्लेख प्रारम्भ हुआ था। कल शिखरजी विहार की विज्ञप्ति का उल्लेख प्रारम्भ हुआ था। आज आगे...

१. यह संघ दक्षिण महाराष्ट्र से श्री शिखरजी पर्यन्त पैदल रास्ते से जायेगा।

२. संघ के साथ आने वाले धर्म बांधवों की सर्व प्रकार की व्यवस्था की जाएगी। किसी को किसी प्रकार का कष्ट ना हो ऐसी सावधानी रखी जाएगी।

३. संघ रक्षण के लिए पोलिस का इंतजाम साथ में किया गया है।

४. संघ के साथ में श्री जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा का समवशरण रहेगा।

५. संघ में धर्मोपदेश तथा धर्मचर्चा का योग रहे, इसलिए विद्वान पंडितों की योजना की गई है।

६. संघ में औषधि द्वारा रोग चिकित्सा का इंतजाम रहेगा।

७. संघ में भोजन सामान का इंतजाम रहेगा जिससे कि अतिथियों के योग्य शुद्ध समान भी मिल सके।

८. संघ में जो जितने दिन पर्यन्त चाहेंगे, रह सकेंगे। जो पूरी यात्रा करना चाहेंगे, उनका खास इंतजाम किया जाएगा। गरीब बांधवों की भी सर्व प्रकार की तजबीज रहेगी।

          इसलिए सर्व बांधवों को चाहिए कि वे इस मौके को जाने न दे। पुनः ऐसा लाभ ना मिलेगा। संघ के साथ यात्रा करने वाले श्रावकों को धर्मोपदेश, सुपात्रदान, तीर्थवंदना, आदि अपूर्व लाभ होंगे। त्यागी ब्रम्हचारी जनों को विशेषता से सूचित किया जाता है कि वे संघ में आकर शामिल हों, जिससे संघ की शोभा बढे। इसी प्रकार विद्वानों को भी संघ के साथ शामिल होना चाहिए। यही हमारी प्रार्थना है।"

-समाज सेवक पूनमचंद घासीलाल जौहरी,
जौहरी बाजार, बम्बई नं. २


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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