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कर्म के बिना आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है (भारतीय संस्कृति का कर्म सिद्धान्त)


Sneh Jain

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आत्मा का कर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बताने के बाद आचार्य योगिन्दु आगे कहते हैं कि कर्म के बिना आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्म के अभाव में आत्मा की अस्तित्वहीनता के विषय में कहा है कि आत्मा आत्मा ही है उसका कर्म को छोड़कर अन्य के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीें है। कर्म के आश्रय के अभाव में आत्मा उत्पन्न होता है, मरता है, बंध को प्राप्त होता है, मुक्ति को प्राप्त होता है और ना ही उसके जन्म, बुढापा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण आदि कोई एक भी संज्ञा होती है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहे -

67.   अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि होइ।

     परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमे पभणहिं जोइ।। 67।।

अर्थ -आत्मा, आत्मा ही है, पर, पर ही है, आत्मा पर कभी नहीं होता है, और पर भी कभी भी आत्मा नहीं (होता), योगी निश्चयपूर्वक (ऐसा) कहते हैं।

शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा, अप्पु - आत्मा, जि - ही, परु - पर जि-ही, परु-पर अप्पा-आत्मा, परु-पर, जि -कभी नहीं, होइ-होता है, परु-पर, जि-भी, कयाइ-कभी भी, वि-और, अप्पु - आत्मा, णवि-नहीं, णियमे - निश्चयपूर्वक, पभणहिं -कहते हैं, जोइ-योगी

68.   वि उपज्जइ वि मरइ बंधु मोक्खु करेइ

      जिउ परमत्थे जोइया जिणवरु  एउँ   भणेइ ।। 68।।

अर्थ - हे योगी! वास्तविकरूप से यह आत्मा ही उत्पन्न होता है, ही मरता है, बंध और मुक्ति को प्राप्त करता है, जिनेन्द्रदेव यह कहते हैं।

शब्दार्थ - -, वि-ही, उपज्जइ-उत्पन्न होता है, -, वि-ही, मरइ-मरता है, बंधु-बंध, -, मोक्खु-मुक्ति को, करेइ-प्राप्त करता है, जिउ-आत्मा, परमत्थे - वास्तविकरूप से, जोइया-हे योगी!,  जिणवरु -जिनेन्द्रदेव, एउ-यह, भणेइ - कहते हैं।

69.   अत्थि   उब्भउ जर-मरणु रोय वि लिंग वि वण्ण।

      णियमिं अप्पु वियाणि तुहुँ जीवहँ एक्क वि सण्ण ।। 69।।

अर्थ - आत्मा के जन्म, बुढ़ापा और मरण, रोग, लिंग वर्ण तथा एक भी संज्ञा नहीं है, तू निश्चय से (इस प्रकार) आत्मा को जान।

शब्दार्थ - अत्थि - है, -नहीं, उब्भउ-जन्म, जर-मरणु- बुढापा और मरण, रोय-रोग, वि-तथा, लिंग-लिंग, वि-भी, वण्ण-वर्ण, णियमिं - निश्चय से, अप्पु-आत्मा को, वियाणि - जान, तुहुँ -तू, जीवहँ- जीव के, एक्क-एक, वि-भी, सण्ण-संज्ञा

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