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?महराज की आगमसम्मत प्रवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २५४


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

        आज के इस प्रसंग से बहुत गंभीर चर्चा सामने आती है। आज भी कुछ श्रावक करणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदि के ग्रंथों का अध्यन कर लेने के बाद चारित्र शून्य होते हुए भी निर्मल चारित्र के धारण साधु परमेष्ठीयों की आलोचना का कार्य करते हैं।

          कल के प्रसंग में अजैन लोगों का पूज्य मुनिसंघ के प्रति कथन देखा था कि जन्म जन्मान्तर के पुण्य के फलस्वरूप ही दिगम्बर मुनियों के दर्शन वंदन का सानिध्य मिलता है।

          कुछ लोगों के तीव्र अशुभ कर्मों का उदय होता है कि वह मुनियों आलोचना में संलग्न रहते हैं। यहाँ एक बात यह भी देखने को मिलती है कि ऐसे लोगों के संपर्क में अच्छे-२ विवेकवान लोग भी भ्रमित हो जाते हैं।

         और तो और चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक पंडित सुमेरचंदजी दिवाकर, ग्रंथ को पढ़कर जिनकी प्रतिभा तथा मुनिभक्ति का पता चलता है वह लिखते हैं कि वह भी कुछ विद्वानों के संपर्क के भ्रमित हो गए थे, बाद में पूज्य शान्तिसागरजी महराज के संपर्क में वह गलत धारणा छूटी।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५४   ?


     "महराज की आगम सम्मत प्रवृत्ति"


            कोई-कोई यह सोचते हैं कि साधु को बहुत धीरे-धीरे चलना चाहिए। इस विषय में एक बार मैंने आचार्य महराज से पूंछा था कि "महराज जल्दी चलने से क्या साधु को दूषण नहीं आता है?" महराज ने कहा- "यत्नाचार पूर्वक चलने से दूषण नहीं आता है" वे आचारांग की आज्ञा के विरुद्ध बिल्कुल भी प्रवृत्ति नहीं करते थे।

          दुर्भाग्य की बात यह है कि उत्तरप्रांत में बहुत समय से मुनियों की परमपरा का लोप सा हो गया था, अतः मुनि जीवन संबंधी आगम का अभ्यास भी शून्य सम हो गया, ऐसी स्थिति में अपनी कल्पना के ताने बाने बुनने वाले करणानुयोग, द्रव्यानुयोग शास्त्रों का अभ्यास करने वाले श्रावक मुनि जीवन के विषय में अपनी विवेक-विहीन आलोचना का चाकू चलाया करते हैं।

          ऐसे ही कुछ विद्वानो के संपर्क में आकर हमारा भी मन भ्रांत हो गया था, और हमने भी लगभग आठ माह तक आचार्य महराज सदृश रत्नमूर्ति को काँचतुल्य सामान्य वस्तु समझा था। पुण्योदय से जब गुरुदेव के निकट संपर्क में आने का सुयोग मिला तब अज्ञान तथा अनुभव शून्यता जनित कुकल्पनाएं दूर हुई।

         दुख तो इस बात का है कि तर्क व्याकरण आदि अन्य विषयों की पंडिताई प्राप्त व्यक्ति चारित्र के विषय में अपने को विशेषज्ञ मान उस चरित्र की आराधना में जीवन व्यतीत करने वाले श्रेष्ठ संतो के गुरु बनने का उपहास पूर्ण कार्य करते हैं।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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