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?मूलगुण-उत्तरगुण समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - २५५


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५५   ?


         "मूलगुण-उत्तरगुण समाधान"


          सन् १९४७ में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का चातुर्मास सोलापूर में था। वहाँ वे चार मास से अधिक रहे, तब तर्कशास्त्रियों को आचार्यश्री की वृत्ति में आगम के आगम के अपलाप का खतरा नजर आया, अतः आगम के प्रमाणों का स्वपक्ष पोषण संग्रह प्रकाशित किया गया। उसे देखकर मैंने सोलापुर के दशलक्षण पर्व में महराज से उपरोक्त विषय की चर्चा की।

             उत्तर में महराज ने कहा - "हम सरीखे वृद्ध मुनियों के एक स्थान पर रहने के विषय में समय की कोई बाधा नहीं है।" फिर उन्होंने हम से भी पूंछा "यह चर्चा मूलगुण संबंधी है या उत्तर गुण संबंधी?"

       मैंने कहा- "महराज यह तो उत्तर गुण की बात है।"

      महराज बोले- "मूलगुणों को निर्दोष पालना हमारा कर्तव्य है। उत्तरगुणों की पूर्णता एकदम से नहीं होती है। उसमें दोष लगा करते हैं। पुलाक मुनि को क्वचित् कदाचित मूलगुण तक में विरधना हो जाती है।"

        उत्तर सुनकर मैं चुप हो गया। उस समय समझ आया कि कई अविवेकी लोग ऐसी कल्पनाएं वर्तमान मुनि पर लादते हैं और यह नहीं जानते कि आगम परम्परा क्या कहती है।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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