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आचार्य योगिन्दु कृत परमात्मप्रकाश


Sneh Jain

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प्रिय पाठकगण, आज से हम एक ऐसे ग्रंथराज को अपने ब्लाँग का विषय बना रहे हैं जो अपने आप में अद्वितीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ आपको आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा बहुत ही रोचक एवं सहजरूप से करायेगा, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। इस ग्रंथ में कुल तीनसौ पैतालीस दोहे हैं। प्रारंभिक मंगलाचरण के बाद हम प्रतिदिन एक दोहे को अपने ब्लाँग का विषय बनायेंगे। आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ का आनन्द लेने के साथ साथ अपभ्रंश भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर सकें, ऐसा मेरा प्रयास यहाँ रहेगा। ग्रंथ की विषयवस्तु प्रारंभ करने से पूर्व आज हम आचार्य योगिन्दु एवं उनके द्वारा रचित परमात्मप्रकाश के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त करते हैं।

आचार्य योगीन्दु

योगीन्दु जैन परम्परा में दिगम्बर आम्नाय के मान्य आचार्य एवं अपभ्रंश भाषा में रचित साहित्य की मुक्तक विधा के आद्य रचनाकार हैं। जिस प्रकार प्राकृत भाषा के ज्ञात आध्यात्मिक रचनाकारों में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है उसी प्रकार अपभ्रंश वाङ्मय के अध्यात्म निरूपण में आचार्य योगीन्दु का स्थान शीर्ष पर है। आध्यात्मिक परम्परा जो आचार्य कुन्दकुन्द से चली रही थी उसकी बागडोर आचार्य योगिन्दु ने सम्हाली, जो नाथों और सिद्धों से गुजरती हुई मुनि रामसिंह, कबीर, बनारसीदास आदि आत्म साधकों तक पहुँची।

योेगिन्दु का समय -

शतसहस्त्र जीवों के अन्धकारपूर्ण जीवन को अपने अन्तस् के आलोक से आलोकित करनेवाले अध्यात्मवेत्ता योगीन्दु के जीवन के सन्दर्भ में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनके ग्रन्थों में भी उनके नाम, जीवन, तथा स्थान के विषय में कोई निर्देश नहीं है। योगीन्दु द्वारा रचित परमात्म प्रकाश में मात्र उनका नाम जोइन्दु तथा उनके शिष्य का नाम भट्टप्रभाकर का उल्लेख भर मिलता है। श्री गांधी एवं डाॅ. .एन. उपाध्ये योगीन्दु को प्राकृत वैयाकरणकार चण्ड से भी अधिक पुराना सिद्ध करते है, क्योंकि चन्ड ने अपने प्राकृत वैयाकरण में प्राकृत लक्षण के सन्दर्भ में परमात्मप्रकाश का 85 वाँ दोहा उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है- काल लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोह गलेइ। तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमें अप्पु मुणेइ।। आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने प्राकृत व्याकरण में योगीन्दु के परमात्मप्रकाश के कुछ दोहों का उल्लेख किया है। रामसिंह के पाहुडदोहा पर योगीन्दु के परमात्मप्रकाश का बहुत प्रभाव है। बौद्ध-सिद्ध सन्तों पर भी यागीन्दु की रचनाओं का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है। उनका साहित्य योगीन्दु के विचारों का अनुकरण करता प्रतीत होता है। राहुल सांकृत्यायन ने इन सिद्धों का समय संवत् 817 तथा विनयतोष भट्टाचार्य ने 690 संवत्ं निश्चित किया है। अतः योगीन्दु का समय सिद्धों से पूर्व होने के कारण इनका काल छठी-सातवीं शताब्दी निधारित किया जा सकता है।

रचनाएँ - यागीन्दु द्वारा रचित परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश), योगसार (अपभ्रंश), दोहापाहुड (अपभ्रंश), नौकार श्रावकाचार (अपभ्रंश), अध्यात्म संदोह (संस्कृत), सुभाषित तन्त्र (संस्कृत), तत्वार्थ टीका (संस्कृत), अमुताशीति (संस्कृत), निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएँ मानी जाती हैं, किन्तु उन पर विद्वानों में मतभेद हैं। इनमें से परमात्मप्रकाश तथा योगसार इन दो रचनाओं को ही निर्विवाद रूप से योगीन्दु की रचना स्वीकार किया गया है।

परमात्मप्रकाश-

परमात्मप्रकाश रहस्यवादी धारा का महत्वपूर्ण आध्यात्मिक काव्य है। यह सम्पूर्ण काव्य प्रश्नोत्तर शैली की एक क्रमबद्ध रचना है। योगीन्दु के प्रबुद्ध शिष्य भट्टप्रभाकर गुरु से प्रश्न पूछते हैं और योगीन्दु उनके प्रश्नों का समाधान करते हैं। ब्रह्मदेव की टीका के अनुसार यह ग्रंथ मुख्य रूप से तीनो महाधिकारों में विभक्त है।1. त्रिविधात्मा अधिकार 2. मोक्ष अधिकार।  3. महाधिकार। त्रिविधात्मा अधिकार में 126, मोक्ष अधिकार में 107 तथा अन्तिम तीसरे महाधिकार में 112 दोहे है। त्रिविधात्माधिकार के दोहे का क्रम 1 से प्रारम्भ होकर 126 तक है। मोक्ष अधिकार में दोहों का क्रम पुनः 1 से प्रारम्भ होकर 107 तक है। तीसरे महाधिकार में दोहों का क्रम मोक्ष अधिकार के 107 दोहों के बाद 108 दोहे से प्रारम्भ होकर 229 दोहे तक है। इस प्रकार इस ग्रंथ में कुल 345 दोहे हैं। इन तीनों अधिकारों  की कथावस्तु संक्षेप में निम्न प्रकार है -

त्रिविधात्माधिकार -

परमात्म प्रकाश के प्रथम त्रिविधात्माधिकार का प्रारम्भ भट्ट प्रभाकर द्वारा पंचपरमेेष्ठि वंदन से होता है। वंदना के तुरन्त बाद ही भट्ट प्रभाकर ने आचार्य योगिन्द्रदेव से संसारी जीवों के चतुर्गति के दुःखों के निवारण हेतु आत्मा के श्रेष्ठ स्वरूप परम-आत्मा के विषय में बताने हेतु  प्रार्थना की है। भट्ट प्रभाकर की विनम्र प्रार्थना को सुनकर श्रीयोगीन्दाचार्य ने 11-15 (5) दोहों में सर्वप्रथम आत्मा के तीन प्रकार का उल्लेख कर उनको संक्षेप में परिभाषित किया है। उसके बाद भट्टप्रभाकर के प्रश्न के उत्तर में 16-49 (34) दोहों में आत्मा के उत्कृष्ट स्वरूप परम-आत्मा का विस्तारपूर्वक कथन किया है। 

परम- आत्मा के विषय में जानने के बाद भट्टप्रभाकर योगीन्दु आचार्य से पुनः प्रश्न करते है कि  कुछ लोग जीव को सर्वव्यापक, कुछ अचेतन, कुछ देहके समान तथा कुछ शून्य कहते हैं, (आखिर जीव का सत्य स्वरूप क्या है ?) भट्टप्रभाकर के द्वारा पूछे गये प्रश्न के प्रत्युत्तर में आचार्य यागीन्दु ने आत्मा का विस्तृत रूप में विवेचन किया है। प्रारम्भ में  50-58 (9) दोहों में आत्मा के स्वरूप को संक्षेप में सरलता से समझाया है। पुनः आत्मा के स्वरूप को और स्पष्ट करने हेतु 59-103 दोहों में जीव कर्म का सम्बन्ध तथा जीव अजीव में भेद, आत्मा के मूर्ख एवं संयत स्वरूप का कथन कर योगीन्दुदेव ने भट्टप्रभाकर के आत्मा से सम्बन्धित प्रश्न का समाधान किया है।

आत्मा के विषय में सुनने के बाद दोहा सं. 104 में  पुनः भट्टप्रभाकर आचार्य योगीन्दु से आत्मा को जाननेवाले परमज्ञान को कहने हेतु पुनः प्रार्थना करते हैं। तब योगीन्दुदेव 105-125 दोहों में परमज्ञान का स्वरूप, परमात्मा का ध्यान एवं उसका फल तथा निर्मल मन में ही परमात्मा का निवास होने का कथन करते हैं। त्रिविधात्मा अधिकार के अन्तिम 126वें दोहे में योगीन्दु  विषय-कषायों में जाते हुए मन को परमात्मा में रखने को ही मोक्ष (परमशान्ति) बताते हैं और यही त्रिविधात्माधिकार समाप्त हो जाता है। इस मोक्ष की बात सुनकर भट्टप्रभाकर पुनः आचार्य योगिन्दु से मोक्ष के विषय में कथन करने की प्रार्थना करते हैं और यही से दूसरे मोक्ष अधिकार का प्रारंभ होता है। 

2. मोक्ष अधिकार

योगीन्दु आचार्य के द्वारा तीन प्रकार की आत्मा तथा परमात्मा विषयक दिये गये उपदेश को सुनकर भट्टप्रभाकर ने पुनः प्रश्न किया कि हे गुरु! मुझे मोक्ष, मोक्ष का कारण और मोक्ष का फल बताइए जिससे मैं परमार्थ को जान सकूँ। तब योगिन्दु आचार्य ने मोक्ष, मोक्ष का कारण तथा मोक्ष का फल समझाया जो परमात्मप्रकाश का द्वितीय मोक्षाधिकार कहलाया। मोक्ष अधिकार मोक्ष की श्रेष्ठता एवं मोक्ष के स्वरूप के कथन से प्रारम्भ हुआ है। आगे मोक्ष के हेतु, दर्शन, ज्ञान और चारित्र को बहुत ही सरल रूप से समझाया गया है तथा समभाव प्राप्ति को ही मोक्ष का फल कहा है। समभाव का कथन पूरा हो चुकने के बाद ही

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