देह में ही परमात्मा का निवास
यह हम सब भली भाँति समझते है कि जो वस्तु दृश्य होती है, उसको समझाने के लिए उसका बार-बार करने की आवश्यक्ता नहीं पडती, किन्तु अदृश्य वस्तु को बोध गम्य बनाने हेतु उसका विभिन्न तरीके से बार बार कथन करने की आवश्यक्ता होती है। चूंकि आत्मा भी अदृश्य है, अतः आचार्य योगिन्दु को प्रत्येक जीव के सहज बोधगम्य हेतु उसका विभिन्न तरीकों से बार- बार कथन करना पड़ा है। आगे के दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः कहते है कि हमें परमात्मा की खोज करने हेतु बाहर भटकने की आवश्यक्ता नहीं है। हमारी देह के भीतर ही जो अनादि, अनन्त और केवलज्ञानरूपी कमल है वह ही परमात्मा है। अर्थात् आत्मा कर्मों के आवरण से परे होकर जब शुद्ध ज्ञानमय हो जाती है, आत्मा का वह स्वरूप ही परमात्मा है। देखिये इस से सम्बन्धित दोहा -
33 देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ -अणंतु।
केवल-णाण-फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु।।
अर्थ - जो देहरूपी मंदिर में अनादि, अनन्त (और) चमकता हुआ केवलज्ञानरूपी कमल बसता है, वह निःस्सन्देह दिव्य परम- आत्मा है।
शब्दार्थ - देहादेउलि-देहरूपी मंदिर में, जो-जो, वसइ-बसता है, देउ-दिव्य, अणाइ -अणंतु - शाश्वत, अनन्त, केवल-णाण-फुरंत-तणु- केवलज्ञानरूपी कमल चमकता हुआ, सो-वह, परमप्पु-परमात्मा, णिभंतु-निःस्सन्देह।
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