सिद्ध वंदना
भट्टप्रभाकर द्वारा ग्रंथ के प्रारम्भिक 5 दोहों में त्रिकालिक सिद्धों की वंदना, 6ठे दोहें में अरिहन्त परमेष्ठि की वंदना, 7वें दोहें में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठि को नमन कर 8-10 दोहें में आचार्य योगिन्दु से परमआत्मा के विषय में कथन करने की प्रार्थना की गई है। यहाँ सि़द्ध परमेष्ठि की वंदना के साथ प्रथम गाथा से ग्रंथ का शुभारंभ किया जा रहा है।
1. जे जाया झाणग्गियए ँ कम्म-कलंक डहेवि।
णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि।।
अर्थ - जो ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी दोषों को जलाकर, नित्य (शाश्वत), निरंजन (सभी दोषों से रहित), (और) ज्ञानमय हुए हैं, उन परम आत्माओं को नमस्कार करके
शब्दार्थ - जे-जो, जाया-हुए हैं, झाणग्गियएँ -ध्यानरूपी अग्नि से, कम्म-कलंक - कर्मरूपी दोषों को, डहेवि- जलाकर, णिच्च-णिरंजण-णाणमय - नित्य, निरंजन, ज्ञानमय ते-उन, परमप्प- परम-आत्माओं को, णमेवि- नमस्कार करके
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