आत्मा का परम आत्मा स्वरूप
परमात्मप्रकाश के आगे के दोहे में आचार्य योगीन्दु आत्मा व परम आत्मा की चर्चा करते हुए पुनः कहते हैं कि आत्मा व परम आत्मा मूल रूप में समान ही है मूल रूप में उनमें कोई भेद नहीं है। आत्मा और परमात्मा में भेद हुआ है तो मात्र कर्म के कारण। कर्मां से बँधी हुई आत्मा ही बहिरात्मा होती है तथा कर्म बन्धन से रहित आत्मा ही परम आत्मा होती है। आत्मा जितनी जितनी आसक्ति से कर्मों से बँधती है उतनी उतनी ही वह अपने परमात्म स्वरूप से दूर रहती है और जितनी-जितनी आत्मा आसक्ति रहित होती है उतनी उतनी वह अपने परमात्म स्वरूप के निकट होती जाती है। देखिये इसी से सम्बन्धित दोहा-
36. कम्म-णिबद्धु वि जोइया देहि वसंतु वि जो जि ।
होइ ण सयलु कया वि फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ।।
अर्थ - हे योगी! जो आत्मा, देह में बसता हुई भी कभी भी कर्म से बँधा हुआ और बिल्कुल देह सम नहीं होता, वह (आत्मा) ही सुविदित परम- आत्मा है, (ऐसा तुम) जानो।
शब्दार्थ - कम्म-णिबद्धु- कर्मों से बँधा हुआ, वि-और, जोइया-हे योगी!, देहि-देह में वसंतु-बसता हुआ, वि-भी, जो-जो, जि-बिल्कुल, होइ-होता है, ण-नहीं, सयलु -देह सम, कया वि-कभी भी, फुडु-सुविदितु मुणि-जानो, परमप्पउ-परम-आत्मा, सो-वह, जि-ही।
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