भट्टप्रभाकर की आचार्य योगिन्दु से विनम्र प्रार्थना
पंच परमेष्ठि को नमन करने के बाद भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से चारो गतियों के दुःखों से मुक्त करनेवाले परम आत्मा का कथन करने हेतु निवेदन करता है। इसका आगे के तीन दोहों में निम्न प्रकार से कथन है -
8. भाविं पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ।
भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ।।
अर्थ - (इस प्रकार) अपने भावों को निर्मल करके (तथा) पंच गुरुओं को भावपूर्वक प्रणाम करके भट्टप्रभाकर के द्वारा श्री योगीन्दु मुनिराज से (यह) प्रार्थना की गयी -
शब्दार्थ - भाविं-भावपूर्वक, पणविवि-प्रणाम करके, पंच-गुरु - पाँचों गुरुओं को, सिरि-जोइन्दु-जिणाउ- श्री योगिन्दु मुनिराज से, भट्टपहायरि-भट्टप्रभाकर के द्वारा, विण्णविउ-प्रार्थना की गयी, विमलु-निर्मल, करेविणु-करके, भाउ-भाव को।
9. गउ संसारि वसंताहँं सामिय कालु अणंतु।
पर मइँं किं पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु।।
अर्थ -. हे स्वामि! (इस) संसार में रहते हुए अनन्त समय व्यतीत गया, परन्तु मेरे द्वारा कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया गया, (किन्तु) विपुल दुःख ही प्राप्त किया गया है ।
शब्दार्थ - गउ-व्यतीत हो गया, संसारि-संसार में, वसंताहं-रहते हुए का, सामिय-हे स्वामी! कालु-समय, अणंतु-अनन्त, पर-परन्तु, मइं-मेरे द्वारा, किंपि-कुछ भी, ण-नहीं, पत्तु-प्राप्त किया गया, सुहु-सुख, दुक्खु-दुःख, जि-ही, पत्तु-प्राप्त किया गया, महंतु-विपुल।
10. चउ-गइ-दुक्खहँ तत्ताहँ जो परमप्पउ कोइ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि ।।
अर्थ - चारों गतियों के दुःखों से दुःखी (जीवों) के लिए चारों गतियों के दुःख का विनाश करनेवाला जो कोई (अंतरंग स्थित) परम आत्मा है, वह (उसके विषय में) ही कृपापूर्वक कहो।
शब्दार्थ - चउ-गइ-दुक्खहं- चारों गतियों के दुःखों से, तत्ताहं - दुःखी के लिए, जो- जो, परमप्पउ-परम आत्मा, कोइ-कोई, चउ-गइ-दुक्ख-विणासयर- चारों गतियों के दुःख का विनाश करनेवाला, कहहु-कहो, पसाए-कृपा पूर्वक, वि - ही।
भट्टप्रभाकर की विनम्र प्रार्थना को सुनकर आचार्य योगिन्दु अपने ग्रंथ का शुभारंभ किस प्रकार करते हैं, देखिये आगे के ब्लाँग में।
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