आत्मा के ध्यान करनेवाले की योग्यता और उसका फल
बन्धुओं किसी धर्मानुरागी को अपभ्रंश में आचार्य वंदना का स्वरूप देखना था इसलिए ब्लाँग के क्रम में कुछ परिवर्तन हो गया । अब आगे हम पुनः अपने विषय पर चलते हैं -
आत्मा का लक्षण बताने के बाद आचार्य कहते हैं कि इन उपरोक्त लक्षणों से युक्त आत्मा का ध्यान करनेवाला योग्य अर्थात् उचित पात्र वही है, जिसका मन संसार में फँसानेवाले कर्म बंधनों तथा देह से सम्बन्धित भोगों से हट चुका है। ऐसे व्यक्ति का ध्यान ही सफल ध्यान है और उस ध्यान के फल से ही उसको संसार के दुःखों से मुक्ति मिलती है, उसका संसार में आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। देखिये इसी कथन से सम्बन्धित आगे का दोहा -
32. भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ।।
अर्थ -संसार, शरीर और भोगों से विरक्त जो मन, आत्मा का ध्यान करता है, उसकी घनी लौकिक (संसाररूपी) बेल नष्ट हो जाती है।
शब्दार्थ - भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु - संसार, शरीर और भोगों से उदासीन हुआ मन, जो - जो, अप्पा - आत्मा का, झाएइ - ध्यान करता है, तासु - उसकी, गुरुक्की - घनी, वेल्लडी-बेल, संसारिणि - लौकिक, तुट्टेइ - नष्ट हो जाती है।
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