अपभ्रंश भाषा में आचार्य वंदना का सुंदर स्वरूप
अपभ्रंष भाषा के कवि स्वयंभू अपनी पउमचरिउ काव्य रचना प्रारम्भ करने से पूर्व आदि देव ऋषभदेव को नमस्कार कर अपने काव्य की सफलता की कामना करते हैं। उसके बाद आचार्यों की वंदना करते हैं -
णमह णव-कमल-कोमल-मणहर-वर-वहल-कन्ति-सोहिल्लं।
उसहस्स पाय-कमलं स-सुरासर-वन्दियं सिरसा।।
दीहर-समास-णालं सद्द-दलं अत्थ-केसरुग्घवियं।
बुह-महुयर-पीय रसं सयम्भु-कव्वुप्पलं जयउ।।
पहिलउ जयकारेवि परम-मुणि। मुणि-वयणे जाहँ सिद्धन्त-झुणिं।
झुणि जाहँ अणिट्ठिय रत्तिदिणु। जिणु हियए ण फिट्टइ एक्कु खणु।।
खणु खणु वि जाहँ ण विचलइ मणु। मणु मग्गइ जाहँ मोक्ख-गमणु
गमणु वि जहिं णउ जम्मणु मरणु।
मरणु वि कह होइ मुणिवरहँ। मुणिवर जे लग्गा जिणवरहँ।।
जिणवर जें लीय माण परहो। परु केव ढुक्कु जें परियणहो।।
परियणु मणे मण्णिउ जेहिं तिणु। तिण-समउ णाहिं लहु णरय-रिणु।।
रिणु केम होइ भव-भय-रहिय। भव-रहिय धम्म-संजम-सहिय।।
जे काय-वाय-मणे णिच्छिरिय जे काम-कोह-दुण्णय-तरिय।
ते एक्क-मणेण हउं वंदउं गुरु परमायरिय।।
अर्थ - जो नवकमलों की कोमल सुंदर और अत्यन्त सघन कान्ति की तरह षोभित हैं और जो सुर तथा असुरों के द्वारा वन्दित हैं, ऐसे ऋषभ भगवान् के चरणकमलों को षिर से नमन करो। जिसमें लम्बे-लम्बे समासों के मृणाल हैं, जिसमें षब्द रूपी दल हैं, जो अर्थरूपी पराग से परिपूर्ण है, और जिसका बुधजन रूपी भ्रमर रसपान करते हैं, स्वयंभू का ऐसा काव्य रूपी कमल जयषील हो।
पहले परममुनि का जय करता हूँ, जिन परममुनि की सिद्धान्त-वाणीमुनियों के मुख में रहती है, और जिनकी ध्वनि रात-दिन निस्सीम रहती है (कभी समाप्त नहीं होती), जिनके हृदय से जिनेन्द्र भगवान एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते। एक क्षण के लिए भी जिनका मन विचलित नहीं होता, मन भी ऐसा कि जो मोक्ष गमन की याचना करता है, गमन भी ऐसा कि जिसमें जन्म और मरण नहीं है। मृत्यु भी मुनिवरों की कहाँ होती है, उन मुनिवरों की जो जिनवर की सेवा में लगे हुए हैं। जिनवर भी वे, जो दूसरो का मान ले लेते हैं (अर्थात् जिनके सम्मुख किसी का मान नहीं ठहरता), जो परिजनों के पास भी पर के समान जाते हैं (अतः उनके लिए न तो कोई पर है, और न स्व), जो स्वजनों को अपने में तृण के समान समझते हैं, जिनके पास नरक का ऋण तिनके के बराबर भी नहीं है। जो संसार के भय से रहित हैं, उन्हें भय हो भी कैसे सकता है? वे भय से रहित और धर्म एवं संयम से सहित हैं।
जो मन-वचन और काय से कपट रहित हैं, जो काम और क्रोध के पाप से तर चुके हैं, ऐसे परमाचार्य गुरुओं को मैं एकमन से वंदना करता हूँ।
पंचमहव्वयतुंगा, तक्कालिय-सपरसमय-सुदधारा।
णाणागुणगणभरिया, आइरिया मम पसीदंतु।।
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