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भविष्य एवं वर्तमानकालिक सिद्ध परमेष्ठि की वंदना


Sneh Jain

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मंगलाचरण के रूप में परमात्मप्रकाश के प्रथम दोहे में सिद्धालय में विराजमान सिद्ध परमेष्ठि को वंदन करने के बाद दोहा 2 और 3 में भविष्य में होनेवाले एवं वर्तमान में विद्यमान  सिद्ध परमेष्ठि को नमन किया गया है। (परमात्मप्रकाश, दोहा संख्या 2,3)

 

2.     ते वंदउँ सिरि-सिद्ध-गण होसहिँ जे वि अणंत।

       सिवमय-णिरुवम-णाणमय परम-समाहि भजंत।।

 

अर्थ - . और भी उन मंगलमय, अनुपम, ज्ञानयुक्त, अनन्त श्री सिद्ध समूहों को नमस्कार करता हूँ जो (आगामी काल में) परम समाधि को अनुभव करते हुए (सिद्ध) होंगे।

शब्दार्थ - ते-उन, वंदउं- नमस्कार करता हूँ, सिरि-सिद्ध-गण  - श्री सिद्ध समूहों को, होसहिं- होंगे, जे-जो, वि-और भी, अणंत- अनन्त, सिवमय -णिरुवम-णाणमय  - मंगलमय,अनुपम,ज्ञानमय  परम-समाहि  -परम समाधि को, भजंत- अनुभव करते हुए।

 

3.     ते हउँ वंदउँ सिद्ध-गण अच्छहिँं जे वि हवंत।

      परम-समाहि-महग्गियएँ कम्ंिमंधणइँ  हुणंत।।

 

अर्थऔर भी उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो (सिद्ध) परमसमाधिरूप उत्तम अग्नि में कर्मोंरूपी ईंधन को होम करते हुए (तथा) (सिद्धत्व को) प्राप्त करते हुए विद्यमान हैं।

शब्दार्थ - ते-उन, हउं-मैं, वंदउं- प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गण - सिद्ध समूहों को, अच्छहिं - विद्यमान हैं, जे - जो, वि-और भी, हवंत-प्राप्त करते हुए, परम-समाहि-महग्गियएंपरमसमाधि की उत्तम अग्नि में, कम्मिधणइं-कर्मोंरूपी ईधन को, हुणंत- होम करते हुए।

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