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आत्मा के तीन प्रकार का नामोल्लेख तथा मूर्छित आत्मा का स्वरूप


Sneh Jain

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आचार्य योगिन्दु एक शुद्ध कोटि के अध्यात्मकार हैं। वे देह के आश्रित भेदों से प्राणियों के भेद को प्रमुखता नहीं देते। समस्त जगत की मानव जाति को वे आत्म अवस्था की तीन कोटियों में विभाजित कर देखते हैं। उनके अनुसार आत्मा के तीन भेद हैं- मूढ, विचक्षण, परमब्रह्म। शब्दकोश में इनके अर्थ इस प्रकार मिलते हैं -1.  मूढ - मूर्ख, मन्दबुद्धि, जड़, अज्ञानी, नासमझ आदि, 2. विचक्षण-स्पष्टदर्शी, विद्वान, पण्डित, दक्ष, विशेषज्ञ, कुशल आदि। 3. परमब्रह्म- परमात्मा। ब्रह्मदेव ने मूच्र्छित आत्मा को बहिरात्मा, विचक्षण आत्मा को अन्तरात्मा तथा परम आत्मा को शुद्ध आत्मा नाम दिया है। इन तीन प्रकार की आत्मा का नामोल्लेख करने के बाद आचार्य यागिन्दु मूढ आत्मा का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि जो देह को ही आत्मा मानता है, वह ही मूर्ख आत्मा होता है। बात छोटी सी है कि जो देह को ही आत्मा मानता है वह मूर्छित होता है किन्तु इसका विश्लेषण किया जाये तो इससे पोथियाँ भरी जा सकती है। देह में आसक्ति ही उपभोगतावादी संस्कृति का बढावा तथा सुसंस्कृति की अवनति का कारण है, जिसे आज हम देख रहे है, अनुभव कर रहे हैं, और भुगत रहे हैं।  देखते हैं, दोहा संख्या 13

 

13.   मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ।

     देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ।।

अर्थ - आत्मा तीन प्रकार की होती है - मूच्र्छित (बहिरात्मा), जागृत (अन्तरात्मा) और परम-आत्मा (शुद्ध आत्मा) जो देह को ही आत्मा मानता है, वह मनुष्य बहिरात्मा (मूच्र्छित) होता है।

शब्दार्थ - मूढु - मूर्छित, वियक्खणु- जागृत, बंभुपरु- परमआत्मा, अप्पा-आत्मा, तिविहु-तीन प्रकार की, हवेइ- होती है, देहु- देह को, जि-ही, अप्पा-आत्मा, जो-जो, मुणइ-मानता है, सो-वह, जणु-मनुष्य, मूढु-अज्ञानी (मूर्छित), हवेइ- होता है।

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