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सत्य, शिव एवं सुन्दर के समन्वयरूप परम आत्मा का कथन


Sneh Jain

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आचार्य योगिन्दु आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति में समभाव की प्राप्ति का होना आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार समभाव की प्राप्ति ही परम आत्मा की उपलब्धि का सबसे बड़ा सत्य है। समभावरूप सत्य की उपलब्धि के पश्चात् जिस परम आनन्द की प्राप्ति होती है वही परम आत्मा का शिव और सुन्दर पक्ष है। समभाव की प्राप्ति के अभाव में परम आत्मा की प्राप्ति संभव नहीं है। व्यवहारिक जगत में भी सुख और शान्ति मन में समभाव होने पर ही संभव है। राग और द्वेषरूप विषमता ही संसार के दुःखों का मूल है। आगे का दोहा इस ही कथन से सम्बन्धित है

35    जो सम-भाव -परिट्ठियहं जोइहँ कोइ फुरेइ।

      परमाणंदु जणंतु  फुडु  सो परमप्पु हवेइ ।।

अर्थ - समता भाव में सम्पूर्णरूप से स्थित योगियों के (हृदय में) परम- आनन्द को स्पष्टरूप से उत्पन्न करता हुआ जो कुछ प्रकट होता है, वह परम- आत्मा है।

शब्दार्थ - जो-जो, सम-भाव -परिट्ठियहं-समभाव में पूर्णरूप से स्थित, जोइहँ-योगियों के, कोइ-कुछ, फुरेइ-प्रकट होता है, परमाणंदु-परम-आनन्द को, जणंतु-उत्पन्न करता हुआ, फुडु - स्पष्टरूप से, सो-वहपरमप्पु-परम-आत्मा, हवेइ-है।

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