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क्रमशः परमेष्ठि वंदना


Sneh Jain

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परमात्मप्रकाश के विषय में स्पष्ट करने हेतु मैं पुनः दोहरा रही हूँ कि परमात्मप्रकाश के रचियता छठी शताब्दी के आचार्य योगिन्दु अपभ्रंश भाषा के प्रथम अध्यात्म ग्रंथ रचनाकार हैं। इनका मैं ज्यादा गुणगान करना नहीं चाहती और वह इसलिए कि मैं चाहती हूँ कि आप उनका गुणगान करें। जब आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ को पूरा समझ लेंगे तो बंधुओं मेरा यह पूरा विश्वास है कि परमात्मप्रकाश के प्रति जो मेरी भावना है एक दिन वहीं भावना आप लोगों की भी होगी, और तभी मैं अपने मकसद में कामयाब हो सकूँगी। मेरा मकसद है किकबीरवाणीकी तरह परमात्मप्रकाश का वाचन भी एक दिनयोगिन्दुवाणीके नाम से होने लगे। इसके लिए मेरा आपसे निवेदन है मैं प्रतिदिन परमात्मप्रकाश के जिन दोहों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ आप उनको एक बार अवश्य गाने का प्रयास करें। इसकी राग दोहे की राग है जो बहुत आसान है। पूजन में जिस प्रकार विनय पाठइह विधि ठाड़ो होय केबोला जाता है उस ही राग में आप इसका भी गायन कर सकते हैं। आशा है आप का मेरे मकसद को पूरा करने में बहुत बड़ा योगदान होगा। यही हमारी आचार्य योगिन्दु के प्रति सच्ची शृद्धांजलि होगी।

मैं पुनः बतादूँ कि परमात्मप्रकाश एक प्रश्नोत्तर शैली में लिखी एक विशुद्ध कोटि की अध्यात्म रचना है। अपने काव्य को प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत करने हेतु ही शायद आचार्य योगिन्दु ने भट्टप्रभाकर नामक किसी प्रश्नकार पात्र की कल्पना की होगी। जैन परम्परानुसार प्रारम्भ में मंगलाचरण कर भट्टप्रभाकर प्रश्न पूछते हैं और योगिन्दु उनके प्रश्नों का उत्तर देते हैं। एक प्रश्न का उत्तर समाप्त होता है पुनः प्रश्नोत्तर का क्रम चलता है और इसी क्रम में परमात्मप्रकाश ग्रंथ की रचना पूर्ण होती है। आज के इस ब्लाँग में हम परमात्मप्रकाश के प्रारंम्भिक मंगलाचरण के शेष चार दोहों को पूरा करते हैं। प्रारम्भिक  तीन दोहें को हम पूर्व में कर चुके हैं। 

 

4.     ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे णिव्वाणि वसंति।

       णाणिं तिहुयणि गरुया वि भव-सायरि पडंति।।

अर्थ - पुनः उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो मोक्ष में रहते हैं, ज्ञान से तीन लोक में गुरु हैं और संसाररूपी समुद्र में नहीं पड़ते हैं।

शब्दार्थ - ते- उन, पुणु-पुनः, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गणसिद्ध समूहों को, जे-जो, णिव्वाणि-मोक्ष में, वसंति-रहते हैं, णाणिं-ज्ञानी होने के कारण, तिहुयणि-तीन लोक में, गरुया-गुरु, भव-सायरि-संसाररूपी समुद्र में, -अव्यय, पडंति-पडते हैं।

 

5.     ते पुणु वंदउँं सिद्ध-गण जे अप्पाणि वसंत।

      लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहिँ विमलु णियंत।।

 

अर्थ - 5.  पुनः उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो आत्मा (स्व) में रहते हुए भी इस समस्त लोक और अलोक को विशुद्धरूप से देखते हुए विद्यमान हैं।

शब्दार्थ - ते-उन, पुणु-पुनः, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गण- सिद्ध समूहों को, जे- जो, अप्पाणि-आत्मा में, वसंत-रहते हुए, लोयालोउ-लोक और अलोक को, वि - भी, सयलु-समस्त, इहु-इस, अच्छहिं-विद्यमान हैं, विमलु-विशुद्धरूप से, णियंत- देखते हुए।

 

6.     केवल-दंसण-णाणमय केवल-सुक्ख-सहाव।

      जिणवर वंदउँं भत्तियए जेहिँ पयासिय भाव।।

अर्थ -  (अब मैं) केवलदर्शन, केवलज्ञानमय और केवलसुखस्वभाव अरिहन्तों को भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ, जिनके द्वारा (समस्त) पदार्थ प्रकट किये गये हैं।

शब्दार्थ - केवल-दंसण-णाणमयकेवलदर्शन और केवलज्ञानमय, केवल-सुक्ख सहाव- केवल सुख स्वभाव, जिणवर- अर्हन्देवों को, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, भत्तियए-भक्तिपूर्वक, जेहिं-जिनके द्वारा, पयासिय-प्रकट किये गये हैं, भाव-पदार्थ।

 

7.     जे परमप्पु णियंति मुणि परम-समाहि धरेवि।

      परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि।।

अर्थ - . जो तीनों मुनि (आचार्य, उपाध्याय, साधु) परम आनन्द की (प्राप्ति) के प्रयोजन से परम समाधि को धारण करके (स्वयं में) परम आत्मा को देखते हैं, उन को भी नमस्कार करता हूँ।

शब्दार्थ - जे- जो, परमप्पु-परमात्मा को, णियंति-देखते हैं, मुणि-साधु, परम-समाहि -परम समाधि,धरेवि-धारणकर, परमाणंदहपरमआनन्द के, कारणिण-प्रयोजन से, तिण्णि वि -तीनों, ते- उनको, वि-भी, णवेवि-प्रणाम करके।

इस प्रकार 1 - 5 दोहों में त्रिकालिक सिद्ध परमेष्ठि को छठे दोहे में अर्हन्त परमेष्ठि को तथा सातवें दोहे में आचार्य, उपााध्याय साधु परमेष्ठि को एक साथ वंदन किया गया है। प्रारंभिक मंगलाचरण के बाद आगे के ब्लाग में भट्टप्रभाकर के द्वारा आचार्य योगिन्दु के समक्ष रखे गये प्रश्न के विषय को समझेंगे। विशेष जानकारी के लिए आप सम्पर्क कर सकते हैं - 09166088994

परमात्मप्रकाश के विषय में स्पष्ट करने हेतु मैं पुनः दोहरा रही हूँ कि परमात्मप्रकाश के रचियता छठी शताब्दी के आचार्य योगिन्दु अपभ्रंश भाषा के प्रथम अध्यात्म ग्रंथ रचनाकार हैं। इनका मैं ज्यादा गुणगान करना नहीं चाहती और वह इसलिए कि मैं चाहती हूँ कि आप उनका गुणगान करें। जब आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ को पूरा समझ लेंगे तो बंधुओं मेरा यह पूरा विश्वास है कि परमात्मप्रकाश के प्रति जो मेरी भावना है एक दिन वहीं भावना आप लोगों की भी होगी, और तभी मैं अपने मकसद में कामयाब हो सकूँगी। मेरा मकसद है किकबीरवाणीकी तरह परमात्मप्रकाश का वाचन भी एक दिनयोगिन्दुवाणीके नाम से होने लगे। इसके लिए मेरा आपसे निवेदन है मैं प्रतिदिन परमात्मप्रकाश के जिन दोहों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ आप उनको एक बार अवश्य गाने का प्रयास करें। इसकी राग दोहे की राग है जो बहुत आसान है। पूजन में जिस प्रकार विनय पाठइह विधि ठाड़ो होय केबोला जाता है उस ही राग में आप इसका भी गायन कर सकते हैं। आशा है आप का मेरे मकसद को पूरा करने में बहुत बड़ा योगदान होगा। यही हमारी आचार्य योगिन्दु के प्रति सच्ची शृद्धांजलि होगी।

मैं पुनः बतादूँ कि परमात्मप्रकाश एक प्रश्नोत्तर शैली में लिखी एक विशुद्ध कोटि की अध्यात्म रचना है। अपने काव्य को प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत करने हेतु ही शायद आचार्य योगिन्दु ने भट्टप्रभाकर नामक किसी प्रश्नकार पात्र की कल्पना की होगी। जैन परम्परानुसार प्रारम्भ में मंगलाचरण कर भट्टप्रभाकर प्रश्न पूछते हैं और योगिन्दु उनके प्रश्नों का उत्तर देते हैं। एक प्रश्न का उत्तर समाप्त होता है पुनः प्रश्नोत्तर का क्रम चलता है और इसी क्रम में परमात्मप्रकाश ग्रंथ की रचना पूर्ण होती है। आज के इस ब्लाँग में हम परमात्मप्रकाश के प्रारंम्भिक मंगलाचरण के शेष चार दोहों को पूरा करते हैं। प्रारम्भिक  तीन दोहें को हम पूर्व में कर चुके हैं। 

 

4.     ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे णिव्वाणि वसंति।

       णाणिं तिहुयणि गरुया वि भव-सायरि पडंति।।

अर्थ - पुनः उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो मोक्ष में रहते हैं, ज्ञान से तीन लोक में गुरु हैं और संसाररूपी समुद्र में नहीं पड़ते हैं।

शब्दार्थ - ते- उन, पुणु-पुनः, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गणसिद्ध समूहों को, जे-जो, णिव्वाणि-मोक्ष में, वसंति-रहते हैं, णाणिं-ज्ञानी होने के कारण, तिहुयणि-तीन लोक में, गरुया-गुरु, भव-सायरि-संसाररूपी समुद्र में, -अव्यय, पडंति-पडते हैं।

 

5.     ते पुणु वंदउँं सिद्ध-गण जे अप्पाणि वसंत।

      लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहिँ विमलु णियंत।।

 

अर्थ - 5.  पुनः उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो आत्मा (स्व) में रहते हुए भी इस समस्त लोक और अलोक को विशुद्धरूप से देखते हुए विद्यमान हैं।

शब्दार्थ - ते-उन, पुणु-पुनः, वंदउं-प्रणाम करता हूँ, सिद्ध-गण- सिद्ध समूहों को, जे- जो, अप्पाणि-आत्मा में, वसंत-रहते हुए, लोयालोउ-लोक और अलोक को, वि - भी, सयलु-समस्त, इहु-इस, अच्छहिं-विद्यमान हैं, विमलु-विशुद्धरूप से, णियंत- देखते हुए।

 

6.     केवल-दंसण-णाणमय केवल-सुक्ख-सहाव।

      जिणवर वंदउँं भत्तियए जेहिँ पयासिय भाव।।

अर्थ -  (अब मैं) केवलदर्शन, केवलज्ञानमय और केवलसुखस्वभाव अरिहन्तों को

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