विचक्षण आत्मा का स्वरूप
आचार्य योगिन्दु मानव-मन के गूढ़ रहस्यों से भली भाँति अनभिज्ञ हैं, इसीलिए उनको रहस्यवादी कवि तथा इनके परमात्मप्रकाश को रहस्यवादी धारा के काव्य की संज्ञा दी गयी है। सभी जीवों के प्रति इनकी संवेदनात्मक दृष्टि ने ही इनको परमात्मप्रकाश लिखने को प्रेरित किया तथा इस संवेदनात्मक दृष्टि ने ही इनको उन्नत अध्यात्मकारों की श्रेणी में विराजमान किया है। इन्होंने मानव को मूर्छित अवस्था से हटाने के लिए बहुत ही सरल शैली अपनायी है जिससे प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति आत्मा का अनुभव कर अपनी इस मूर्छित अवस्था का त्याग कर सके। सर्व प्रथम इन्होंने आत्मा की मूर्छित अवस्था का मात्र 9 शब्दों में लक्षण बताया। अब आगे जागृत अवस्था को प्राप्त हुए प्राणी का लक्षण बताते है कि जो प्राणी देह की आसक्ति से परे होता है वही व्यक्ति जागृत आत्मा होता है और वही देह से भिन्न ज्ञानमय परमआत्मा का अनुभव कर सकता है। देखें, परमात्मप्रकाश का 14वाँ दोहा, ज्ञानी का लक्षण -
14. देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ।
परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ।।
अर्थ -जो परम समाधि में स्थित हुआ, देह से भिन्न, ज्ञानमय परमआत्मा को देखता है, वह ही अन्तरात्मा (जागृत) होता है।
शब्दार्थ - देह-विभिण्णउ- देह से भिन्न, णाणमउ-ज्ञानमय, जो-जो, परमप्पु-परमआत्मा को, णिएइ-देखता है, परमःसमाहि-परिट्ठियउ- परम समाधि में स्थित हुआ, पंडिउ- पंडित/जागृत/अन्तरात्मा, सो-वह, जि-ही, हवेइ-होता है।
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