परम आत्मा का एक अद्भुत् लक्षण
आचार्य योगिन्दु ने जिस जिस तरह से आत्मा की अनुभूति की उन सब अनुभूतियों को जन कल्याणार्थ अभिव्यक्त भी किया। यहाँ आत्मा की अद्भुतता बताते हुए कहते हैं कि आत्मा निश्चितरूपसे देह में ही स्थित होती है फिर भी वह देह को स्पर्श नहीं करती और न ही वह देह के द्वारा स्पर्श की जाती है। अर्थात् देह में स्थित होने पर भी आत्मा का देह से पार्थक्य भाव है। यही कारण है कि जीव विभिन्न शरीर से जुदा होकर विभिन्न विभिन्न पर्यायों को प्राप्त होता रहता है। देखिये इस ही कथन से सम्बन्धित आगे का दोहा-
34. देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमे ँ देहु वि जो जि ।
देहे ँ छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ।।
अर्थ - जो देह में रहता हुआ भी नियम से देह को बिल्कुल ही नहीं छूता है (तथा) जो देह के द्वारा भी नहीं छूआ जाता, वह ही परम- आत्मा है, (ऐसा) (तू) समझ।
शब्दार्थ - देहे-देह में, वसंतु-रहता हुआ, वि-भी, णवि-नहीं, छिवइ-छूता है, णियमे ँ-नियम से, देहु-देह को, वि-ही, जो-जो, जि-बिल्कुल, देहे ँ-देह के द्वारा, छिप्पइ-छूआ जाता, जो-जो, वि-भी, णवि-नहीं, मुणि-समझो, परमप्पउ-परम आत्मा, सो-वह, जि-ही।
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