? अमृत माँ जिनवाणी से - ११० ?
"जल का भी त्याग"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की दो-तीन माह से शरीर से अत्यंत विमुख वृत्ति हो गई थी। दूरदर्शी तथा विवेकी साधु होने के कारण उन्होंने जल ग्रहण की छूट रखी थी,
"किन्तु चार सितम्बर को अंतिम बार जल लेकर उससे भी सम्बन्ध छोड़ दिया था।
जगत में बहुत से लोग उपवास करते हैं। वे कभी तो फलाहार करते है कभी रस ग्रहण करते हैं, कभी औषधि लेते हैं, इसके अतिरिक्त और भी प्रकार से शरीर को
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०९ ?
"मुनिबन्धु को सन्देश"
उस समय ९२ वर्ष की वय वाले मुनिबन्धु चरित्र चूड़ामणि श्री १०८ वर्धमान सागर महाराज के लिए पूज्यश्री ने सन्देश भेजा था कि- "अभी १२ वर्ष की सल्लेखना के ६-७ वर्ष तुम्हारे शेष हैं। अतः कोई गड़बड़ मत करना। जब तक शक्ति है तब तक आहार लेना। धीरज रखकर ध्यान किया करना।
हमारे अंत पर दुखी नहीं होना और परिणामों में विगाड मत लाना। शक्ति हो तो समीप में विहार करना। नहीं तो थोड़े दिन शेडवाल बस्ती
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०८ ?
"आध्यात्मिक सूत्र"
एक दिन दिवाकरजी पूज्य क्षपकराज आचार्यश्री शान्तिसागरजी के सम्मुख आचार्य माघनन्दी रचित आध्यात्मिक सूत्रो को पढ़ने लगा।
उन्होंने कहा- "महाराज देखिये ! जिस आत्मस्वरुप के चिन्तवन में आप संलग्न हैं और जिसका स्वाद आप ले रहे हैं उसके विषय में आचार्य के सूत्र बड़े मधुर लगते है, चिदानंद स्वरूपोहम (मै चिदानंद स्वरुप हूँ), ज्ञानज्योति-स्वरूपोहम (मै ज्ञान ज्योति स्वरुप हूँ), शुद्धआत्मानुभूति-स्वरूपो
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०७ ?
"वैराग्य भाव"
कुछ विवेकी भक्तों ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रार्थना की थी- "महाराज अभी आहार लेना बंद मत कीजिए। चौमासा पूर्ण होने पर मुनि, आर्यिका आदि आकर आपका दर्शन करेंगे। चौमासा होने से वे कोई भी गुरुदर्शन हेतु नहीं आ सकेगें।"
महाराज ने कहा- "प्राणी अकेला जन्म धारण करता है, अकेला जाता है, 'ऐसी एकला जासी एकला, साथी कुणि न कुणाचा.(कोई किसी का साथी नहीं है।) ' क्यों मै दूसरों
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०६ ?
"आत्मध्यान"
'आत्मा का चिंतन करो', यह बात दो या तीन वषों से पुनः-पुनः दोहरा रहे थे। उन्होंने सन् १९५४ में फलटण में चातुर्मास के पूर्व सब समाज को बुलाकर कहा था- "तुम अपना चातुर्मास अपने यहाँ कराना चाहते हो, तो एक बात सबको अंगीकार करनी पड़ेगी।"
सबने उनकी बात शिरोधार्य करने का वचन दिया।
पश्चात् महाराज ने कहा- "सब स्त्री पुरुष यदि प्रतिदिन कम से कम पाँच मिनिट पर्यन्त आत्मा का चिंतवन करने की
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०५ ?
"अद्भुत दृश्य"
यम समाधि के बारहवें दिन ता. २६ अगस्त को महाराज जल लेने को उठे। उनकी चर्या में तनिक भी शिथिलता नहीं थी।
मंदिर में भगवान का अभिषेक उन्होंने बड़े ध्यान से देखा। इससे समाधि की परम बेला में भी वे अभिषेक को देखकर निर्मलता प्राप्त करते थे। बाद में महाराज चर्या को निकले। हजारों की भीड़ उनकी चर्या देखने को पर्वत पर एकत्रित थी। अद्भुत दृश्य था।
नवधाभक्ति के बाद महाराज के बाद
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०४ ?
"११०५ दिन बाद अन्नाहार"
१६ अगस्त १९५१ को धर्म पर आये संकट से रक्षा के उपरांत रक्षाबंधन के दिन इस युग के अकम्पन ऋषिराज शान्तिसागरजी महाराज ने तथा उनके अतिशयभद्र वीतरागी तपस्वी शिष्य मुनि नेमिसागर ने अन्नाहार लिया।
आचार्य महाराज का अन्नाहार ११०५ दिनों के पश्चात् हुआ था। रोगी व्यक्ति को जब दो चार दिन को अन्न नहीं मिलता है, तो वह निरंतर अन्न को ही तरसता है। अन्न को तो प्राण कहता है। आचार्यश्री क
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०३ ?
"गंभीर स्थिति"
सन् १९४७ में बम्बई सरकार द्वारा पारित निर्णय के फलस्वरूप धर्म पर एक बड़ा संकट आया था। कोर्ट में उस निर्णय के विरोध में याचिका चल रही थी।
२४ जुलाई १९५१ का मंगलमय दिवस आया जब बम्बई कानून के सम्बन्ध में न्यायालय में निर्णय होना था। ११ बजे चीफ जस्टिस व् जस्टिस आ गए। पौने दो बजे प्रधान न्यायाधीश ने अपने बकील दास बाबू से पूंछा"कहिए दास बाबू आपका क्या मामला है?"
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
जिस तरह वर्तमान में हमारे धर्म पर सल्लेखना पर रोक के रूप में बहुत बड़ा संकट आया है उसी तरह सन् १९४७ में भी बम्बई कानून के माध्यम से एक बहुत बड़ा संकट जैन धर्म पर आया था। जिस तरह वर्तमान के संकट की तीव्रता का बोध हमारे साधू परमेष्ठी करा रहे है उसी तरह तत्कालीन श्रावको को पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने संकट की भयावहता से अवगत कराया।
धर्मरक्षा पर्व रक्षाबंधन विष्णुकुमार मुनि द्वारा सात सौ मुनियों के उपसर्ग दूर करने के साथ प्रारम्भ हुआ था
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०१ ?
"वीरसागरजी को आचार्य पद का दान"
ता. २६ शुक्रवार को आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को आचार्य पद प्रदान किया। उसका प्रारूप आचार्यश्री के भावानुसार मैंने(लेखक ने) लिखा था। भट्टारक लक्ष्मीसेनजी, कोल्हापुर आदि के प्रमार्शनुसार उसमें यथोचित परिवर्तन हुआ।
अंत में पुनः आचार्य महाराज को बांचकर सुनाया, तब उन्होंने कुछ मार्मिक संशोधन कराए।
उनका एक वाक्य बड़ा विचारपूर्ण था- "हम स्वयं के संतोष से
☀जय जिनेन्द्र बन्धुओं,
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवन चरित्र का यह प्रसंग सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर ज्ञात होगा कि यह प्रसंग सल्लेखना प्राप्ति की पवित्र भावना के साथ धर्म-ध्यान करने वाले हर एक श्रावक के लिए योग्य मार्गदर्शन है।
? अमृत माँ जिनवाणी से - १०० ?
"जलग्रहण का रहस्य"
आचार्य महाराज ने यम सल्लेखना लेते समय केवल जल लेने की छूट रखी थी। इस सम्बन्ध में मैंने कहा - "महराज ! यह जल की छूट रखने का आपका कार्य बहुत महत्व क
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९९ ?
"सप्तम प्रतिमा धारणा"
कल के प्रसंग में हमने देखा कि बाबूलाल मार्ले कोल्हापुर वालों ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का कमंडल पकड़ने हेतु भविष्य में क्षुल्लक दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की।
बाबूलाल मार्ले ने महाराज का कमण्डलु उठा लिया, तब महाराज बोले- "देखो ! क्षण भर का भरोसा नहीं है। कल क्या हो जायेगा यह कौन जानता है। तुम आगे दीक्षा लोगे यह ठीक है किन्तु बताओ ! अभी क्या लेते हो।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९८ ?
"विनोद में संयम की प्रेरणा"
कोल्हापुर के एक भक्त की कल्याणदायिनी मधुर वार्ता है। उनका नाम बाबूलाल मार्ले है। संपन्न होते हुए संयम पालना और संयमीयों की सेवा-भक्ति करना उनका व्रत है। वे दो प्रतिमाधारी थे।
वारसी से महाराज कुंथलगिरि को आते थे। महाराज का कमण्डलु उठाने लगे, तो महाराज ने कह दिया- "तुम हमारे कमण्डलु को हाथ मत लगाना। उसे मत उठाओ।" ये शब्द सुनते ही मार्ले चकित हुए।
मह
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९७ ?
"जनगौड़ा पाटील को देशना"
कुंथलगिरि में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के छोटे भाई कुमगोंडा पाटील के चिरंजीव श्री जनदौड़ा पाटील जयसिंगपुर से सपरिवार आए थे। आचार्य महाराज के चरणों को उन्होंने प्रणाम किया।
बाल्यकाल में जनगौड़ा आचार्य महराज की गोद में खूब खेल चुके थे, जब महाराज शान्तिसागरजी सातगौड़ा पाटील थे। उस समय का स्नेह दूसरे प्रकार का था, अब का स्नेह वीतरागता की ओर ले जाने
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९६ ?
"कथनी और करनी"
पंडितजी ने कहा- "महाराज ! आपके समीप बैठकर ऐसा लगता है कि हम जीवित समयसार के पास बैठे हों। आप आत्मा और शरीर को ना केवल भिन्न मानते हैं तथा कहते हैं किन्तु प्रवृत्ति भी उसी प्रकार कर रहे हैं। शरीर आत्मा से भिन्न है। वह अपना मूल स्वभाव नहीं है, परभाव रूप है, फिर खिलाने-पिलाने आदि का व्यर्थ क्यों प्रयत्न किया जाय? यथार्थ में आपकी आत्म प्रवृत्ति अलौकिक है।"
महाराज बोले- "आत्मा को भिन
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९५ ?
"जीवित समयसार"
एक दिन पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कहने लगे- "आत्मचिंतन द्वारा सम्यकदर्शन होता है। सम्यक्त्व होने पर दर्शन मोह के आभाव होते हुए भी चरित्र मोहनीय कर बैठा रहता है। उसका क्षय करने के लिए संयम को धारण करना आवश्यक है। संयम से चरित्र मोहनीय नष्ट होता होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण मोह के क्षय होने से, अरिहंत स्वरुप की प्राप्ति होती है।"
मैंने(लेखक) ने कहा "महाराज ! आपके समीप
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९४ ?
"विचारपूर्ण प्रवृत्ति"
बात उस समय की है जब आचार्य महाराज का कवलाना में दूसरी बार चातुर्मास हो रहा था। अन्य परित्याग के कारण उनका शरीर बहुत आशक्त हो गया था। उस समय उनकी देहस्थिति चिन्ताप्रद होती जा रही थी। एक दिन महाराज आहार के लिए नहीं निकल रहे थे। मै उनके चरणों में पहुँचा।
महाराज बोले- "आज हमारा इरादा आहार लेने का नहीं हो रहा है।"
मैंने प्रार्
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९३ ?
"गुणग्राहिता का सुन्दर उदाहरण"
एक बार एक छोटी बालिका गुरुदेव के दर्शन हेतु आई थी। उससे पूंछा गया- "बेटी ! तू किसकी ?"
वह चुप रही। तब पूछा, 'तू काय आई ची आहेस (तू क्या माता कि है)?' उसने कहा- "नहीं।" फिर कहा- "बापाची (क्या पिता की है) ?" उसने फिर नहीं कहा।
फिर पूंछा- "किसकी है ?" उसने कहा, "मी माझी (मै अपनी हूँ।)"
यह सुनते ही आचार्यश्री बहुत आनन्दित हो
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९२ ?
"सल्लेखना का निश्चय"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने सल्लेखना करने का निश्चय गजपंथा में ही सन् १९५१ में किया था; किन्तु यम सल्लेखना को कार्यरूपता कुंथलगिरि में प्राप्त हुई थी। महाराज ने सन् १९५२ में बरामति चातुर्मास के समय पर्युषण में मुझसे कहा था कि- "हमने गजपंथा में द्वादशवर्ष वाली सल्लेखना का उत्कृष्ट नियम ले लिया है। अभी तक हमने यह बात जाहिर नहीं की थी। तुमसे कह रहे हैं। इसे तुम दूसरों को भी कहना चाहो, तो क
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९१ ?
"शरीर में भेद-बुद्धि"
एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने मुझसे पूंछा था- "क्यों पंडितजी चूल्हें में आग जलने से तुम्हे कष्ट होता है या नहीं ?
मैंने कहा- "महाराज ! उससे हमे क्या बाधा होगी। हम तो चूल्हे से पृथक हैं।"
महाराज बोले- "इसी प्रकार हमारे शरीर में रोग आदि होने पर भी हमे कोई बाधा नहीं होती है"
यथार्थ में पूज्यश्री गृहस्थ जीवन मे
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९० ?
"पूर्ण स्वावलंबी"
मैंने (लेखक ने) २४ अगस्त के प्रभात में पर्वत पर कुटी में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन किये और नमोस्तु निवेदन किया। महाराज बोले, "बहुत देर में आये। आ गए, यह बहुत अच्छा किया। बहुत अच्छा हुआ तुम आ गए। बहुत अच्छा किया।" इस प्रकार चार बार पूज्यश्री के शब्दों को सुनकर स्पष्ट हुआ कि उन श्रेष्ट साधुराज के पवित्र अंतःकरण में मेरे प्रति करुणापूर्ण स्थान अवश्य है।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ८९ ?
"यम सल्लेखना"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के चरणों के समीप रहने से मन में ऐसा विश्वास जम गया था, कि आचार्य महाराज जब भी सल्लेखना स्वीकार करेंगे तब नियम सल्लेखना लेंगे, यम सल्लेखना नहीं लेंगे।
ऐसे ही उनका मनोगत अनेक बार ज्ञात हुआ था। मुझे यह विश्वास था कि, उनकी सल्लेखना नियम सल्लेखना के रूप में प्रारम्भ होगी किन्तु भविष्य का रूप किसे विदित था ?
जिसकी स्वप्न में
? अमृत माँ जिनवाणी से - ८८ ?
"सल्लेखना के लिए मानसिक तैयारी"
यम सल्लेखना लेने के दो माह पूर्व से ही पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के मन में शरीर के प्रति गहरी विरक्ति का भाव प्रवर्धमान हो रहा था।
इसका स्पष्ट पता इस घटना से होता है। कुंथलगिरि आते समय एक गुरुभक्त ने महाराज की पीठ दाद रोग को देखा। उस रोग से उनकी पीठ और कमर का भाग विशेष व्याप्त था।
भक्त ने कहा- "महाराज ! इस दाद की दवाई क्यों नहीं करते ? दवा लगाने
? अमृत माँ जिनवाणी से - ८७ ?
"पतित का उद्धारकार्य"
आचार्यश्री अनंतकीर्ति महाराज ने एक घटना का जिक्र किया कि एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कुंभोज पहुँचे।
एक व्यक्ति धर्ममार्ग से डिग चुका था। उसके सुधार के आचार्य महाराज के भाव उत्पन्न हुए। महाराज ने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाने का विचार किया। उस पर चंद्रसागर महाराज ने कहा- "महाराज ! वह दुष्ट है। बुलाने पर वह नहीं आएगा, तो आपका अपमान होगा।"
आचार्य महाराज
? अमृत माँ जिनवाणी से - ८६ ?
"आचार्यश्री का श्रेष्ट विवेक"
देशभूषणजी महाराज ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी के बारे में कहा- "आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने जीवन की एक विशेष घटना हमें बताई थी-
एक ग्राम में एक गरीब श्रावक था। उसकी आहार देने की तीव्र इच्छा थी, किन्तु बहुत अधिक दरिद्र होने से उसका साहस आहार देने का नहीं होता था।
एक दिन वह गरीब पडगाहन के लिए खड़ा हो गया। उसके यहाँ आचार्यश्री की विध