शरीर में भेदबुद्धि - अमृत माँ जिनवाणी से - ९१
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९१ ?
"शरीर में भेद-बुद्धि"
एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने मुझसे पूंछा था- "क्यों पंडितजी चूल्हें में आग जलने से तुम्हे कष्ट होता है या नहीं ?
मैंने कहा- "महाराज ! उससे हमे क्या बाधा होगी। हम तो चूल्हे से पृथक हैं।"
महाराज बोले- "इसी प्रकार हमारे शरीर में रोग आदि होने पर भी हमे कोई बाधा नहीं होती है"
यथार्थ में पूज्यश्री गृहस्थ जीवन में अपने घर में पाहुने (मेहमान) सदृश रहते थे, और अहिंसा महाव्रती निर्ग्रंथराज बनने पर तो वे इस शरीर के भीतर ही पाहुने सदृश हो गए थे।
जब देह अपना नहीं है, उसका गुण, धर्म आत्मा से पृथक है तब देह अपना नहीं है, तब देह के अनुकूल या विपरीत परिणाम होने पर सम्यकज्ञानी सतपुरुष क्यों राग या द्वेष धारण करेगा?
यह तत्त्व बौद्धिक स्तर पर तो प्रत्येक विचारक के चित्त में जंच जाता है, किन्तु अनुभूति की दृष्टि से जब तक सम्यकदर्शन अंतःकरण में आविर्भूत नहीं होता है, और चरित्रमोह मंद नहीं होता है, तब तक इस जीव की प्रव्रत्ति नहीं होती है। सम्यक्त्व की बातें करने वाले हजारों मिल जाएँगे। बातें बनाने में क्या कुछ लगता है।
? तृतीय दिन - १६ अगस्त १९५५ ?
पूज्य आचार्यश्री ने आज भी जल नहीं लिया। आज उन्होंने भक्तों को दर्शन दिया व् शेष समय आत्मचिंतन, मनन व् ध्यान में बिताया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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