आचार्यश्री का श्रेष्ट विवेक - अमृत माँ जिनवाणी से - ८६
? अमृत माँ जिनवाणी से - ८६ ?
"आचार्यश्री का श्रेष्ट विवेक"
देशभूषणजी महाराज ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी के बारे में कहा- "आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने जीवन की एक विशेष घटना हमें बताई थी-
एक ग्राम में एक गरीब श्रावक था। उसकी आहार देने की तीव्र इच्छा थी, किन्तु बहुत अधिक दरिद्र होने से उसका साहस आहार देने का नहीं होता था।
एक दिन वह गरीब पडगाहन के लिए खड़ा हो गया। उसके यहाँ आचार्यश्री की विधि का योग मिल गया। उसके घर में चार ज्वार की रोटी थी। उन्होंने सोचा कि यदि उसकी चारों रोटी हम ग्रहण कर लेते हैं, तो गरीब क्या खाएगा? इससे उन्होंने छोटी सी भाकरी, थोडा दाल, चावल मात्र लिया। आहार दान देकर गरीब श्रावक का ह्रदय अत्यंत प्रसन्न हो रहा था।
उसके भक्ति से परिपूर्ण आहार को लेकर वे आए सामायिक को बैठे। उस दिन सामायिक में बहुत लगा। बहुत देर तक सामायिक होती रही। शुध्द तथा पवित्र मन से दिए गए आहार का परिणामों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। वे लोकोत्तर थे।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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