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वीर सागर जी को आचार्य पद का दान - अमृत माँ जिनवाणी से - १०१


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०१     ?


     "वीरसागरजी को आचार्य पद का दान"


                   ता. २६ शुक्रवार को आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को आचार्य पद प्रदान किया। उसका प्रारूप आचार्यश्री के भावानुसार मैंने(लेखक ने) लिखा था। भट्टारक लक्ष्मीसेनजी, कोल्हापुर आदि के प्रमार्शनुसार उसमें यथोचित परिवर्तन हुआ।

            अंत में पुनः आचार्य महाराज को बांचकर सुनाया, तब उन्होंने कुछ मार्मिक संशोधन कराए।

             उनका एक वाक्य बड़ा विचारपूर्ण था- "हम स्वयं के संतोष से अपने प्रथम निर्ग्रन्थ शिष्य वीरसागर को आचार्य पद देते हैं।"

       ?मुनि वीरसागर को सन्देश ?

           आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को यह महत्वपूर्ण सन्देश भेजा था- "आगम के अनुसार प्रवृत्ति करना और सुयोग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना, जिससे परम्परा बराबर चले। "

             उन्होंने यह भी कहा था- "वीरसागर बहुत दूर है यहाँ नही आ सकता अन्यथा यहाँ बुलाकर आचार्यपद देते।" उनके ये शब्द महत्व के थे, वीरसागर को हमारा आशीर्वाद कहना और कहना कि शांतभाव रखे; शोक करने की जरुरत नहीं है।"

               उस समय महराज का एक-एक शब्द अनमोल था। वे बड़ी मार्मिक बातें कहते थे। क्षुल्लक सिद्धसागर को महाराज ने कहा था- "रेल मोटर से मत जाना।" इस आदेश के प्रकाश में उच्च त्यागी अपना कल्याण सोच सकते हैं, कर्तव्य जान सकते हैं।

            शिष्यों को व्रत ग्रहण करने की प्रेरणा करते हुए वे बोले- "स्वर्ग में आओगे, तो हमारे साथी रहोगे।"


? तेरहवाँ दिन - २६ अगस्त १९५५ ?


                      आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन व् शुभाशीर्वाद दिया। आज दिन महासभा के महामंत्री दर्शनार्थ आये।

                विशेष बात यह हुई कि तीन हजार जनता के समक्ष आचार्यश्री ने क्षमाभाव ग्रहण किया और कहा कि वे सब पुरानी बातों को भूल गये हैं व् यह भी चाहतें हैं कि प्राणीमात्र उनको क्षमा करे।

             आचार्यश्री ने इस समय महासभा को भी याद किया। महासभा के लिए कोई सन्देश देने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा- महासभा सदैव की तरह धर्मरक्षा में सदा कटिबद्ध रहे, धर्म को कभी न भूले और धर्म के विरुद्ध कोई भी कार्य न करे।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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