?जल का भी त्याग - अमृत माँ जिनवाणी से - ११०
? अमृत माँ जिनवाणी से - ११० ?
"जल का भी त्याग"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की दो-तीन माह से शरीर से अत्यंत विमुख वृत्ति हो गई थी। दूरदर्शी तथा विवेकी साधु होने के कारण उन्होंने जल ग्रहण की छूट रखी थी,
"किन्तु चार सितम्बर को अंतिम बार जल लेकर उससे भी सम्बन्ध छोड़ दिया था।
जगत में बहुत से लोग उपवास करते हैं। वे कभी तो फलाहार करते है कभी रस ग्रहण करते हैं, कभी औषधि लेते हैं, इसके अतिरिक्त और भी प्रकार से शरीर को पोषण प्रदान करते हैं।
यहाँ इन आत्मयोगी का उपवास जगत के लोगों से निराला था। शरीर को स्फूर्ति देने के लिए घी, तेल आदि की मालिश का पूर्ण परित्याग था। सभी प्रकार की भोज्य वस्तुएं छूट गयी थी।
उन्होंने जब भी जल लिया था, तब दिगंबर मुनि की आहार ग्रहण करने की विधि पूर्वक ही उसे ग्रहण किया था। खड़े होकर, दूसरे का आश्रय ना ले, अपने हाथ की अंजुलियों द्वारा थोडा सा जल मात्र लिया था चार सितम्बर को उक्त स्थिति में इन्होंने चार-छह अंजुली जल लिया था, परन्तु तीस दिन के अनाहार शरीर को खडे रखकर जल लेने की क्षमता भी उस देह में नहीं रही थी। वास्तव में ८४ वर्ष के वृद्ध तपस्वी के शरीर द्वारा ऐसी साधना इतिहास की दृष्टि से भी लोकोत्तर मानी जायेगी।
? बाइससवाँ दिन - ४ सितम्बर१९५५?
आज पूज्यश्री ने अंतिम जल ग्रहण किया, लेकिन अशक्ति बढ़ जाने के कारण बहुत थोडा जल लिया और बैठ गए।
दोपहर में २|| बजे बहुत जोरों की वर्षा हुई, फिर भी आचार्यश्री के पुण्य दर्शनों के लिए जनता पानी में बराबर बैठी रही, फिर भी आचार्यश्री ने २ मिनिट के लिए उपस्थित जनता को दर्शन दिए।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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