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गंभीर स्थिति - अमृत माँ जिनवाणी से - १०३


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०३     ?


                   "गंभीर स्थिति"

             
                     सन् १९४७ में बम्बई सरकार द्वारा पारित निर्णय के फलस्वरूप धर्म पर एक बड़ा संकट आया था। कोर्ट में उस निर्णय के विरोध में याचिका चल रही थी।

             २४ जुलाई १९५१ का मंगलमय दिवस आया जब बम्बई कानून के सम्बन्ध में न्यायालय में निर्णय होना था। ११ बजे चीफ जस्टिस व् जस्टिस आ गए। पौने दो बजे प्रधान न्यायाधीश ने अपने बकील दास बाबू से पूंछा"कहिए दास बाबू आपका क्या मामला है?"

                एकदम गंभीर वातावरण हो गया। दास बाबू के अपने केस की कथा प्रारम्भ की। इस प्रकार बहस चल रही थी कि न्यायाधीश जलपान के लिए दो बजे उठ गए।उस न्यायाधीश के रंगढंग ऐसा दिखा कि अब मामला ख़ारिज होने में देरी नहीं। जजों के प्रश्नो के आगे जैनों के तरफ का उत्तर असरकारी नहीं दिखता था। सैकड़ों जैन भाइयों के चेहरों पर उदासी छा गई। हमारे मन में इस बात की चिंता थी कि कहीं अपने विरुद्ध निर्णय हुआ, तो इसका आचार्य महाराज पर अच्छा असर नहीं पड़ेगा।

       ?"आचार्यश्री की आराधना"?

            पास बैठे बारामती से आए सेठ तुलजाराम चतुरचंद ने सुनाया कि- "आचार्य महाराज ने तीन दिन से बिलकुल भी आहार नहीं लिया है। वे दिन-रात भगवान के जाप में ही लगे हैं। वे किसी से कुछ बातचीत न करके निरंतर प्रभु नाम स्मरण में ही संलग्न हैं। कुटी से बाहर कुछ क्षणों को आये थे। शौचादि से निवृत्त् हो देवदर्शनादी के बाद जाप जपने में लग जाते हैं। यह बात सुनते ही मन में विचार होने लगा, इतने बड़े महापुरुष की जिनेन्द्र आराधना अवश्य कार्य करेगी।"

        ? धर्म के पक्ष में निर्णय ?

           लगभग १५ मिनिट के बाद न्यायाधीश आए, और मामला पुनः प्रारम्भ हो गया। बकीलो द्वारा अपने पक्ष रखे गए, न्यायाधीश द्वारा भी बहुत से सवाल हुए। 

            लेकिन जब निर्णय आया तो सुनते ही सबको आश्चर्य हुआ। कानून के विशेषज्ञ चकित हुए कि जहाँ मामले में पराजय की स्थिति थी, वहाँ धर्मपक्ष की पूर्णतः विजय हो गई। धार्मिक जैन समाज के हर्ष की सीमा न थी। 

          आचार्य महाराज को केस की सफलता का तार भेज दिया गया। २४ जुलाई की रात्रि को बम्बई के श्री चन्द्रप्रभ विद्यालय में सभा हुई। हमने कहा था कि "इस महान कार्य की सफलता के मुख्य कारण रत्नत्रय मूर्ति आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज हैं।

           ?अकम्पन ऋषि?

             हमने यथा उपस्थित मण्डली ने महाराज से विनय की- "महाराज, सेवा करने वाला काम पूरा करने पर अपनी मज़दूरी माँगता हूँ। मजदूरी यही है कि आप अन्न  ग्रहण करें।"
  
               महाराज बोले- "यह बच्चों का खेल नहीं है। अभी हम हाईकोर्ट का सील लगा लिफाफा देखेंगे और विचारेंगे। सुप्रीम कोर्ट की अपील की अवधि को भी समाप्त होने दो।"


 ?१६ अगस्त सन् १९५१ का रक्षाबंधन?


     सभी लोगों ने गुरुचरणों में पहुँचकर प्रार्थना व् अत्यधिक आग्रह किया।

        तब महाराज ने कहा- "हमे अपनी तो फिकर नहीं है, किन्तु हमारे निमित्त से जो हजारों व्यक्तियों ने जो त्याग कर रखा है, उनका विचार कर हम कल आहार कर लेंगे।" यह बात ता. १५ अगस्त को ज्ञात कर बारामती के भाइयों को अपार हर्ष हुआ।"


? पन्द्रहवां दिन - २८ अगस्त १९५५ ?

             आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन दिए। विशेष बात यह हुई कि आचार्यश्री के संघ में सात वर्ष से साथ रहने वाले ब्र. भरमप्पा को क्षुल्लक दीक्षा दी गई। उनका नाम सिद्धसागर रखा गया। दीक्षा विधि आचार्यश्री के निर्देशानुसार १०५ क्षुल्लक श्री सुमतिसागर ने कराई। अंत में आचार्यश्री ने शुभाशीर्वाद दिया।

?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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