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सल्लेखना का निश्चय - अमृत माँ जिनवाणी से - ९२


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - ९२     ?


            "सल्लेखना का निश्चय"


              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने सल्लेखना करने का निश्चय गजपंथा में ही सन् १९५१ में किया था; किन्तु यम सल्लेखना को कार्यरूपता कुंथलगिरि में प्राप्त हुई थी। महाराज ने सन् १९५२ में बरामति चातुर्मास के समय पर्युषण में मुझसे कहा था कि- "हमने गजपंथा में द्वादशवर्ष वाली सल्लेखना का उत्कृष्ट नियम ले लिया है। अभी तक हमने यह बात जाहिर नहीं की थी। तुमसे कह रहे हैं। इसे तुम दूसरों को भी कहना चाहो, तो कह सकते हो।" इसके बाद से महाराज की संयम साधना, उपवास आदि बड़े उग्र रूप से हो चले थे।

               सन् १९५३ में अर्थात सल्लेखना से दो वर्ष पूर्व कुंथलगिरि में उनका चातुर्मास था, तब उनके उपवास बृहत रूप से चल रहे थे। मै व्रतों में पहुँचता हूँ तो क्या देखता हूँ कि पंचमी से महाराज ने पाँच दिन का उपवास व् मौन का नियम कर लिया है।

                  पाँच दिन पश्चात् महाराज ने आहार किया और पुनः पाँच उपवास की प्रतिज्ञा कर ली; किन्तु उस समय उन्होंने मौन नहीं लिया।

                    महाराज ने तपस्या का कारण समाधिमरण की तैयारी बताया था। इसके पश्चात् मैंने 'भगवती आराधना' ग्रन्थ को ध्यान पूर्वक पढ़ा, तब ज्ञात हुआ, कि आचार्य महाराज की नैसर्गिक प्रवृत्ति पूर्णतः शास्त्र संगत रही थी। उनकी चर्या को देखकर शास्त्र के कठिन प्रश्नों का समाधान प्राप्त होता था।

?   चतुर्थ दिन - १७ अगस्त १९५५   ?

                     महाराज ने आज के दिन में तीन बजे सिर्फ जल को छोड़कर आमरण सल्लेखना ग्रहण की। इस अवसर पर संघपति सेठ गेंदनमलजी बम्बई, रावजी देवचंदजी सोलापूर, गुरुभक्त सेठ चंदूलालजी सराफ बरामती, सेठ मानिकचंद वीरचंदजी मंत्री कुंथलगिरि सिद्ध क्षेत्र आदि उपस्थित थे।

                 त्यागी वर्ग में श्री १०५ क्षुल्लक विमलसागरजी, क्षुल्लक सुमतिसागरजी, श्री भट्टारक जिनसेनजी म्हसाल, ब्रम्हचारी भरमप्पा तथा आर्यिकाएँ उपस्थित थी। आचार्यश्री इस दिन पहाड़ के ऊपर मंदिर जी में पहुँच गए।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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