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भीष्म प्रतिज्ञा - अमृत माँ जिनवाणी से - १०२


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

             जिस तरह वर्तमान में हमारे धर्म पर सल्लेखना पर रोक के रूप में बहुत बड़ा संकट आया है उसी तरह सन् १९४७ में भी बम्बई कानून के माध्यम से एक बहुत बड़ा संकट जैन धर्म पर आया था। जिस तरह वर्तमान के संकट की तीव्रता का बोध हमारे साधू परमेष्ठी करा रहे है उसी तरह तत्कालीन श्रावको को पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने संकट की भयावहता से अवगत कराया।

          धर्मरक्षा पर्व रक्षाबंधन विष्णुकुमार मुनि द्वारा सात सौ मुनियों के उपसर्ग दूर करने के साथ प्रारम्भ हुआ था उसी तरह वर्तमान में भी धर्मरक्षा से सम्बंधित एक महत्वपूर्ण प्रसंग को मै आप सभी को स्मरण दिलाना चाहता है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने भी जैनधर्म की एक बड़े संकट से रक्षा के उपरांत, लंबे समय से धर्मरक्षा हेतु त्यागे गए अन्न को रक्षाबंधन की शुभ तिथि से ही पुनः ग्रहण किया था।

               रक्षाबंधन आ रहा है, प्रसंगवश जनजागृति हेतु सल्लेखना प्रसंगों के मध्य आप सभी को धर्मरक्षा के इन प्रसंगों से अवगत कराया जा रहा है।

?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०२     ?


                     "भीष्म प्रतिज्ञा"

         
                बम्बई सरकार ने सन् १९४७ में एक कानून बनाया। इस नियम ने अनेक उपद्रव उत्पन्न होने के योग्य वातावरण उत्पन्न कर दिया। इस कानून का वास्तविक कोई उपयोग नहीं था, किन्तु सुधार के जोश में जैनियों पर भी लादा गया था।

                     सर्वपरिस्थिति का पर्यालोचन कर अत्यंत अनुभवी आचार्य महाराज ने सोचा, अंतरात्मा ने उन्हें कड़े कदम उठाने की प्रेरणा की। उन्हें यह प्रतीत हुआ कि यदि चुपचाप बैठे रहे, तो अत्याचारी लोग प्रत्येक जैन मंदिर में प्रवेशाधिकार के नाम पर घुसेंगे और अवसर पड़ने पर महत्वपूर्ण जिनमंदिरों को हजम कर लेंगे। उन्होंने किसी से परामर्श नहीं किया।

                इन लोकोत्तर महात्मा ने जिनेन्द्र भगवान को साक्षी करके प्रतिज्ञा कर ली कि  "जब तक पूर्वोक्ति बम्बई कानून से आई हुई विपत्ति जैनधर्म के आयतनों-जिन मंदिरों से दूर नहीं होती है, तब तक मै अन्न नहीं ग्रहण करूँगा।"

           इस समाचार ने देशभर में फैलकर जैन समाज मात्र को चिंता के सागर में डूबा दिया। फलटण से हमारे पास तार से समाचार आने पर आँखों के सामने अँधेरा छा गया। शीघ्र ही बम्बई में अगस्त सन् १९४८ के अंतिम सप्ताह में प्रमुख जैन बंधुओ की एक बैठक हिराबाग़ की धर्मशाला में हुई। इसके अनंतर सर सेठ भागचंदजी सोनी आदि के साथ हम महाराज के पास फलटण पहुँचे।

         सबने महाराज से प्रार्थना की कि राजनीति का यंत्र मंद गति से चलता है। कायदे की बात का सुधार वैधानिक पद्धति से ही होगा। यह बात बहुत समयसाध्य है। अतः आप अन्य ग्रहण कीजिए। सारा समाज आपकी इच्छानुसार उद्योग करेगा।

           महाराज ने कहा- "हमने जिनेन्द्र भगवान के सामने जो प्रतिज्ञा ली है क्या उसे भंग कर दें?" हम सब लोग चुप हो गए। उस समय हजारों व्यक्तियों ने महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ति पर्यन्त अनेक संयम संबंधी नियम लिए। 

             जो लोग यह सोचते थे कि मुनियों को राजनीति में ना पड़कर आत्म-हित करना चाहिए, उनको महाराज कहते थे-

            जैनधर्म के मुख्य अंग जैनमंदिर के संरक्षण निमित्त उद्योग करना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि इस विषय में गृहस्थ लोग चुप होकर बैठ गए। धर्म पर राजनीति का हस्तक्षेप कैसे उचित कहा जा सकता है। शासन सत्ता का धर्म पर आक्रमण ना रोका जाय, तो भविष्य में बड़ी विपत्ति आये बिना ना रहेगी।"


?  चौदहवां दिन - २७ अगस्त १९५५ ?

                 आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण किया। अभिषेक के समय व् दोपहर के समय में भी आचार्यश्री ने उपस्थित जनता को दर्शन देकर जनता को शुभाशीर्वाद दिया।

                    विशेष बात यह रही कि गुफा में जब आचार्यश्री विराजमान थे तब उपस्थित लोगों ने निवेदन किया कि महाराज कुछ बांचकर सुनायें? तब आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि मै स्वयं जाग्रत हूँ, मुझे किसी की अपेक्षा नहीं है, अपनी आत्मा के ध्यान मे ही मग्न रहता हूँ।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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