कथनी और करनी - अमृत माँ जिनवाणी से - ९६
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९६ ?
"कथनी और करनी"
पंडितजी ने कहा- "महाराज ! आपके समीप बैठकर ऐसा लगता है कि हम जीवित समयसार के पास बैठे हों। आप आत्मा और शरीर को ना केवल भिन्न मानते हैं तथा कहते हैं किन्तु प्रवृत्ति भी उसी प्रकार कर रहे हैं। शरीर आत्मा से भिन्न है। वह अपना मूल स्वभाव नहीं है, परभाव रूप है, फिर खिलाने-पिलाने आदि का व्यर्थ क्यों प्रयत्न किया जाय? यथार्थ में आपकी आत्म प्रवृत्ति अलौकिक है।"
महाराज बोले- "आत्मा को भिन्न बोलना और विषयों में लगना कैसे आत्मचिंतन है? शरीर से आत्मा भिन्न है, अतः आत्मा का ही चिंतन करना ठीक है। शरीर की क्या बात है? वह तो पर ही है। उसकी सेवा या चिंता क्यों करना? उसका क्यों ध्यान करना? देखो ! आत्मा के ध्यान से कर्मों का नाश होता है।"
? आठवां दिन - २१ अगस्त १९५५ ?
आज भी जल ग्रहण नहीं किया। विशेष बात यह हुई कि आचार्यश्री के गृहस्थ जीवन के भतीजे ने आजन्म ब्रम्हचर्य व्रत ग्रहण किया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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