? अमृत माँ जिनवाणी से - ६० ?
"चोर पर करुणा"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के गृहस्थ जीवन एक घटना पर वर्धमानसागर महाराज ने इस प्रकार प्रकाश डाला था-
"गृहस्थ अवस्था मे एक दिन महाराज, शौच के लिए खेत में गए थे, तो कि क्या देखते हैं कि हमारा ही नौकर एक गट्ठा ज्वारी चोरी कर के ले जा रहा था। उस चोर नौकर ने महाराज ने देख लिया।
महाराज की दृष्टि भी उस पर पड़ी। वे पीठ करके चुपचाप बैठ गए। उनका भाव था कि
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५९ ?
"क्रांतिकारी धार्मिक संतराज"
इस प्रकार शान्तिसागर जी महाराज के जीवन मे अवर्णनीय बाधाएँ, जो पिछले प्रसंगों में वर्णित की गई हैं, आती रहीं, किन्तु ये शान्तिसागर महाराज शांति के सागर ही रहे आये आये और कभी भी 'ज्वाला प्रसाद' नहीं बने।
धीरे धीरे समय बदला और लोगो को महाराज की क्रियाओं का ज्ञान हो गया। इससे विध्न की घटा दूर हो गई। इस प्रकाश में तो महाराज प्रचलित मिथ्या पृव्रत्तियों का उच्छेद करने वाले प
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५८ ?
"परम्परा वश अपार विध्न"
उस समय के मुनि लोग भी कहने लगे कि ऐसा करने से काम नहीं होगा। ये पंचम काल है। इसे देखकर ही आचरण करना चाहिए। ऐसी बात सुनकर आगम भक्त शान्तिसागर महाराज कहते थे, "यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं बनेगा, तो हम उपवास करते हुए समाधिमरण को ग्रहण करेंगे, किन्तु आगम की आज्ञा की उलंघन नहीं करेंगे।"
उस समय की परिस्थिति ऐसी ही विकट थी, जैसे की हम पुराणों में, आदिनाथ भगवान के समय विधमान पढ़त
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५७ ?
"क्षुल्लक जीवन में परम्परा वश अपार विध्न"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज बचपन से ही महान स्वाध्यायशील व्यक्ति थे। वे सर्वदा शास्त्रो का चिंतन किया करते थे। विशेष स्मृति के धनी होने के कारण पूर्वापर विचार कर वे शास्त्र के मर्म को बिना सहायक के स्वयं समझ जाते थे। इसलिए उन्हे प्रचलित सदाचार की प्रवृत्ति में पायी जाने वाली त्रुटियों का धीरे-धीरे शास्त्रों के प्रकाश मे परिज्ञान होता था।
एक दिन महाराज ने कहा था,
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५६ ?
"दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचार"
एक दिन शान्तिसागरजी महाराज से ज्ञात हुआ कि जब उन्होंने गृह त्याग किया था, तब निर्दोष रीति से संयमी जीवन नही पलता था।
प्रायः मुनि बस्ती में वस्त्र लपेटकर जाते थे और आहार के समय दिगम्बर होते थे।
आहार के लिए पहले से ही उपाध्याय ( जैन पुजारी ) गृहस्थ के यहाँ स्थान निश्चित कर लिया करता था, जहाँ दूसरे दिन साधु जाकर आहार किया करते थे।
ऐसी विकट स्थिति जब मुनियों
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५५ ?
"गिरिनारजी में ऐलक दीक्षा"
जब पूज्य क्षुल्लक शान्तिसागरजी महाराज कुम्भोज बाहुबली में विराजमान थे, तब कुछ समडोली आदि के धर्मात्मा भाई गिरिनारजी की यात्रा के लिए निकले और बाहुबली क्षेत्र के दर्शनार्थ वहाँ आये और महाराज का दर्शन कर अपना जन्म सफल माना। उन्होंने महाराज से प्रार्थना की कि नेमिनाथ भगवान के निर्वाण से पवित्र भूमि गिरिनारजी चलने की कृपा कीजिए।
शान्तिसागरजी महाराज की तीर्थभक्ति असाधा
☀इस प्रसंग को आप जरूर पढ़े। इस प्रसंग को पढ़कर आपको अनुभव होगा कि कैसी विषम स्थितियों मे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने दृढ़ता के साथ अपने अत्म कल्याण के मार्ग पर प्रवृत्ति की, जिसका ही परिणाम था कि मुगल साम्राज्य आदि के समय क्षतिग्रस्त हुई हमारी जैन संस्कृति का समृद्ध रूप अब पुनः निर्ग्रन्थ गुरुओ के दर्शन के रूप मे हमारे सामने है।
? अमृत माँ जिनवाणी से- ५४ ?
"अद्भुत युग"
मुनिश्री वर्धमान सागरजी जो आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के ग
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५३ ?
"क्षुल्लक दीक्षा"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के क्षुल्लक दीक्षा के वर्णन मुनि वर्धमान सागरजी करते हुए लेखक को बताते हैं कि-
देवेन्द्र कीर्ति महाराज, सतगोड़ा पाटिल की पाटिल की परिणति से पूर्ण परिचित थे, अतः उनके इशारे पर उत्तूर में दीक्षा मंडप सजाया गया। पाटिल को तालाब पर ले जाकर स्नान कराया गया। पश्चात वैभव के साथ उनका जलूस निकाला गया। उन्होंने स्वच्छ नवीन वस्त्र धारण किए थे। गाजे-
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५२ ?
"आचार्यश्री की विरक्ति का क्रम"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवनी के लेखक श्री दिवाकरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई, जो उस समय मुनि श्री वर्धमान सागर जी के रूप विद्यमान थे उनसे आचार्यश्री के जीवन के बारे में जान रहे थे। उन्होंने आचार्यश्री की विरक्ति के बारे में बताया।
उन्होंने कहा माघ मास में माता की मृत्यु होने के पश्चात महाराज के ह्रदय में वैराग्य का भाव वृद्धिगत हुआ। भोज से २२ मील दूर
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५१ ?
"जाप का क्रम"
चरित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी, पूज्य मुनिश्री वर्धमान सागर के पास उनके दर्शनों के लिए जाया करते थे। जो गृहस्थ जीवन में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के बड़े भाई थे। वह ९४ वर्ष की उम्र में भी अपनी मुनि चर्या का पालन भली भांति कर रहे थे।
वर्धमान सागरजी महाराज बिना किसी की सहायता के ही इस उम्र मे अपने केशलौंच भी शीघ्रता से कर लेते थे। उनसे प्रश्न किया गया- "महाराज ! आपके जाप का क्
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५० ?
"असंख्य चींटियों द्वारा उपसर्ग"
एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज जंगल के मंदिर के भीतर एकांत स्थान में ध्यान करने बैठे वहाँ पुजारी दीपक जलाने आया दीपक में तेल डालते समय कुछ तेल भूमि पर बह गया। वर्षा की ऋतु थी। दीपक जलाने के बाद पुजारी अपने स्थान पर आ गया था।
आचार्य महाराज ने बताया उस समय हम निंद्राविजय तप का पालन करते थे। इससे उस रात्रि को जाग्रत रहकर हमने ध्यान में काल व्य
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४९ ?
"तपश्चरण का प्रभाव"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कटनी के चातुर्मास के पश्चात जबलपुर जाते समय जब बिलहरी ग्राम पहुँचे, तो वहाँ के लोग पूज्यश्री की महिमा से प्रभावित हुए। वहाँ के सभी कुँए खारे पानी के थे।
एक स्थान पर आचार्य महाराज बैठे थे। भक्त लोगो ने उसी जगह कुआँ खोदा। वहाँ बढ़िया और अगाध जल की उपलबब्धि हुई। आज भी इस गाँव के लोग इन साधुराज की तपस्या को याद करते हैं।
एक बार कटनी की जैन शिक्ष
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४८ ?
"बालक का समाधान"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज सन् १९५३ में बारसी में विराजमान थे।
उत्तर भारत का एक बालक अपने कुटुम्बियों के साथ गुरुदेव के दर्शन को आया। वह बच्चा लगभग चार वर्ष का था। दर्शन के पूर्व कभी उसने महाराज के साँपयुक्त चित्र देखा था।
इससे वह महाराज से बोला- "तुम्हारा साँप कहाँ है?"
महाराज बच्चे के आश्रय को समझ गए। वे मुस्कराते हुए बोले, "वह साँप अब यहाँ नहीं है
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४७ ?
"दिव्यदृष्टि"
महिसाल ग्राम के पाटील श्री मलगोंड़ा केसगोंडा आचार्य महाराज ने निकट परिचय में रहे हैं। वृद्ध पाटील महोदय ने बताया, "आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज १९२२ के लगभग हमारे यहाँ पधारे थे।
उस समय उनका अपूर्व प्रभाव दिखाई पड़ता था। उनकी शांत व तपोमय मूर्ति प्रत्येक के मन को प्रभावित करती थी। उस समय की एक बात मुझे याद है।
एक दिन आचार्य ने अपने साथ में रहने वाले ब्रम्हचारी जिनगो
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४६ ?
"दुष्ट का प्रसंग"
कोगनोली चातुर्मास के समय आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कोगनोली की गुफा मे रहा करते थे। आहार के लिए वे सवेरे योग्य काल में जाते थे।
मार्ग में एक विप्रराज का ग्रह पड़ता था। उनका दिगम्बर रूप देखते हुए एक दिन उसका दिमाग कुछ गरम हो गया। उसने आकर दुष्ट की भाषा में इसने अपने घर के सामने से जाने की आपत्ति की। उसके ह्रदय को पीड़ा देने मे क्या लाभ यह सोचकर इन्होंने आने-जाने का मार्ग बद
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४५ ?
"दिव्यदृष्टि"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की चित्तवृत्ति में अनेक बातें स्वयमेव प्रतिबिम्बित हुआ करती थी।
एक समय की बात है कि पूज्यश्री का वर्षायोग जयपुर में व्यतीत हो रहा था। कुचड़ी (दक्षिण) के मंदिर के लिए ब्रम्हचारी पंचो की ओर से मूर्ति लेने जयपुर आए।
महाराज के दर्शन कर कहा- "स्वामिन् ! पंचो ने कहा है कि पूज्य गुरुदेव की इच्छानुसार मूर्ति लेना। उनका कथन हमे शिरोधार्य होगा।"
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४४ ?
"तृषा-परीषय जय"
एक दिन की घटना है। ग्रीष्मकाल था। महाराज आहार को निकले। दातार ने भक्तिपूर्वक भोजन कराया, किन्तु वह जल देना भूल गया। दूसरे दिन गुरुवर पूर्ववत मौनपूर्वक आहार को निकले। उस दिन दातार ने महाराज को भोजन कराया, किन्तु अंतराय के विशेष उदय वश वह भी जल देने की आवश्यक बात को भूल गया। कुछ क्षण जल की प्रतीक्षा के पश्चात महाराज चुप बैठ गए। मुख शुद्धि मात्र की। जल नही पिया।
चुपचाप वापिस आकर सामायिक मे न
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४३ ?
"शरीर निस्पृह साधुराज"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ज्ञान-ज्योति के धनी थे। वे शरीर को पर वस्तु मानते थे। उसके प्रति उनकी तनिक भी आशक्ति नही थी।
एक दिन पूज्य गुरुदेव से प्रश्न पूंछा गया- "महाराज ! आपके स्वर्गारोहण के पश्चात आपके शरीर का क्या करें?"
उत्तर- "मेरी बात मानोगे क्या?"
प्रश्नकर्ता- "हां महाराज ! आपकी बात क्यों नही मानेंगे?"
महाराज- "मेरी बात मानते हो, तो शरीर को नदी, नाला,
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४२ ?
"बंध तथा मुक्ति"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज किसी उदाहरण को समझाने के लिए बड़े सुंदर दृष्टान्त देते थे। एक समय वे कहने लगे- "यह जीव अपने हाथ से संकटमय संसार का निर्माण करता है। यदि यह समझदारी से काम लें तो संसार को शीघ्र समाप्त स्वयं कर सकता है।"
उन्होंने कहा- "एक बार चार मित्र देशाटन को निकले। रात्रि का समय जंगल मे व्यतीत करना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति को तीन-तीन घंटे पहरे देनो को बाँट दिए गए। प्रारम्भ
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४१ ?
"सुलझी हुई मनोवृत्ति"
एक समय एक महिला ने भूल से आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज को आहार में वह वस्तु दे दी, जिसका उन्होंने त्याग कर दिया था। उस पदार्थ का स्वाद आते ही वे अंतराय मानकर आहार लेना बंद कर चुपचाप बैठ गए।
उसके पश्चात उन्होंने पाँच दिन का उपवास किया और कठोर प्राश्चित भी लिया।यह देखकर वह महिला महाराज के पास आकर रोने लगी कि मेरी भूल के कारण आपको इतना कष्ट उठाना पड़ा।
महाराज ने उस वृद्धा को बड़े
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४० ?
"जीर्णोद्धार की प्रशंसा"
एक धार्मिक व्यक्ति ने पाँच मंदिरो का जीर्णोद्धार कराया था।
उसके बारे में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कहने लगे-
"जिन मंदिर का काम करके इसने अपने भव के लिए अपना सुंदर भवन अभी से बना लिया है।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३९ ?
"जन्मान्तर का अभ्यास"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने संधपति गेंदंमल जी के समक्ष दिवाकरजी कहा था कि हमे लगता है, "इस भव के पूर्व में भी हमने जिन मुद्रा धारण की होगी।"
उन्होंने पूछा- "आपके इस कथन का क्या आधार है?
उत्तर में उन्होंने कहा - "हमारे पास दीक्षा लेने पर पहले मूलाचार ग्रंथ नहीं था, किन्तु फिर भी अपने अनुभव से जिस प्रकार प्रवृति करते थे, उसका समर्थन हमे शास्त्र मे मिलता था- ऐसा ह
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३८ ?
"कोरा उपदेश धोबी तुल्य है"
अपने स्वरूप को बिना जाने जो जगत को चिल्लाकर उपदेश दिया जाता है, उसके विषय मे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने बड़े अनुभव की बात कही थी, "जब तुम्हारे पास कुछ नही है, तब जग को तुम क्या दोगे?
भव-२ में तुमने धोबी का काम किया। दूसरों के कपड़े धोते रहे और अपने को निर्मल बनाने की और तनिक भी विचार नहीं किया।
अरे भाई ! पहले अपनी आत्मा को उपदेश दो, नाना प्रकार की मिथ्या तरं
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३७ ?
"जीवनरक्षा व एकीभाव स्त्रोत का प्रभाव"
ब्रम्हचारी जिनदास समडोली वालों ने बताया कि आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की अपार समर्थ को मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है। उन्होंने मेरे प्राण बचाये, मुझे जीवनदान दिया, अन्यथा मैं आत्महत्या के दुष्परिणाम स्वरूप ना जाने किस योनी मे जाकर कष्ट भोगता।
बात इस प्रकार है कि मेरे पापोदय से मेरे मस्तक के मध्य भाग में कुष्ट का चिन्ह दिखाई पड़ने लगा। धीरे-२ उसने मेरे मस्तक को घेरना शु
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३६ ?
"अन्य साधुओ व जनता पर अपूर्व प्रभाव"
अन्य सम्प्रदाय के बड़े-२ साधू और मठाधीश आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के चरित्र और तपस्या के वैभव के आगे सदा झुकते रहे हैं।
एक बार जब महाराज हुबली पधारे, उस समय लिंगायत सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य सिद्धारूढ़ स्वामी ने इनके दर्शन किए और इनके भक्त बन गए। उन्होंने अपने शिष्यो से कहा था कि जीवन में ऐसे महापुरुष को अपना गुरु बनाना चाहिए।
एक समय कोल्हापुर के समीपवर