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वैराग्य भाव - अमृत माँ जिनवाणी से - १०७


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०७     ?


                   "वैराग्य भाव"


                    कुछ विवेकी भक्तों ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रार्थना की थी- "महाराज अभी आहार लेना बंद मत कीजिए। चौमासा पूर्ण होने पर मुनि, आर्यिका आदि आकर आपका दर्शन करेंगे। चौमासा होने से वे कोई भी गुरुदर्शन हेतु नहीं आ सकेगें।"

       महाराज ने कहा- "प्राणी अकेला जन्म धारण करता है, अकेला जाता है, 'ऐसी एकला जासी एकला, साथी कुणि न कुणाचा.(कोई किसी का साथी नहीं है।) ' क्यों मै दूसरों के लिए अपने को रोकूँ, हम किसी को न आने को कहते हैं, और ना जाने को कहते हैं।"

        संघपति सेठ गेंदनमलजी ने कहा- "महाराज ! जो आपके शिष्य है वे अवश्य आवेंगे।

महाराज- "उनके लिए हम अपने आत्महित में क्यों बाधा डालें।"

    इसके पश्चात् ही महाराज के मन में कुंथलगिरि के पर्वत के शिखर पर जाने का विचार आया। यह ज्ञात होते ही भट्टारक जिनसेन स्वामी ने कहा, "महाराज ! आज का दिन ठीक नहीं है। आज तो अमावस्या है।"

        सामान्यतः आचार्यश्री के जीवन में सभी महत्व के कार्य मुहूर्त के विचार के साथ हुआ करते थे, किन्तु उस समय उनका मन समाधि के लिए अत्यंत उत्सुक हो चुका था। वैराग्य का सिंधु वेग से उद्देलित हो रहा था। इससे वे बोल उठे- "महावीर भगवान अमावस्या को ही तो मोक्ष गए हैं। इसमें क्या है? भवितव्यता अलंघनीय है।"

? उन्नीसवाँ दिन - १ सितम्बर १९५५ ?

                      पूज्यश्री के जल नहीं ग्रहण करने का आज चौथा दिन था। दोनों समय उपस्थित जनता को दर्शन दिए। आज सारा समय गुफा के अंदर ही व्यतीत किया। रात्रि १ बजे महाराजश्री की तबीयत काफी नरम हो गई थी, अतः बाहर के कमरे में करीब दो घंटे बैठे रहे।"


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

☀आज मुझे बहुत ही हर्ष का दिन है क्योंकि मैंने भावना की थी कि मै संस्कृति के परम उपकारक पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के जीवन चरित्र के १०८ प्रसंग रूपी श्रद्धा पुष्प सभी तक पंहुचाऊ। पूज्यश्री के प्रति भक्ति से ही यह कार्य संपन्न हो सका।

          प्रसंग प्रस्तुती में मेरा अपना कुछ भी नहीं है, चरित्रचक्रवर्ती ग्रन्थ में उपलब्ध जानकारी को ही आप सभी तक पहुचाने का प्रयास किया हूँ। 

          मेरी भावना है कि यह प्रसंग जन-२ तक पहुँचे जिससे सभी सदी के प्रथमाचार्य, श्रमण संस्कृति के परम उपकारक को समझे तथा पूज्य शान्तिसागरजी महाराज की तरह ही वर्तमान में भारतवर्ष में तपश्चरण कर रहे सभी साधुओं के प्रति हम सभी का विनयभाव बड़े।

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