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जाने प्रथमाचार्य शान्तिसागरजी महराज को

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?असाधारण व्यक्तित्व - अमृत माँ जिनवाणी से - १३५

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३५    ?              "असाधारण व्यक्तित्व"              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का व्यक्तित्व असाधारण रहा है। सारा विश्व खोजने पर भी वे अलौकिक ही लगेंगे। ऐसी महान विभूति के अनुभवों के अनुसार प्रवृत्ति करने वालों को कभी भी कष्ट नहीं हो सकता।         एक दिन महाराज ने कहा था- हम इंद्रियों का तो निग्रह कर चुके हैं। हमारा ४० वर्ष का अनुभव है। सभी इंद्रियाँ हमारे मन के आधीन हो गई हैं। वे हम पर हुक्म नहीं चलाती हैं।"          उन्होंने कह

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?विनोद में भी संयम की प्रेरणा -२ - अमृत माँ जिनवाणी से - १३४

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३४    ?           "विनोद में संयम की प्रेरणा -२"             आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की प्रत्येक चेष्ठा संयम को प्रेरणा प्रदान करती थी। उनको विनोद में भी आत्मा को प्रकाश दायिनी सामग्री मिला करती थी।                   २८ अगस्त ५५ को क्षुल्लक सिध्दसागर की दीक्षा हुई थी। नवीन क्षुल्लक जी ने महाराज के चरणों में आकर प्रणाम किया और महाराज से क्षमायाचना की।      महाराज बोले- "भरमा ! तुमको तब क्षमा करेंगे, जब तुम निर्ग्रन्थ दीक्षा लोगे।"

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?सप्त तत्व निरूपण का रहस्य - अमृत माँ जिनवाणी से - १३३

☀सात तत्वों की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले श्रावक इस प्रसंग को पढ़कर बहुत ही आनंद का अनुभव करेंगे। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३३    ?           "सप्ततत्व निरूपण का रहस्य"           एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रश्न पूंछा गया- "भेद विज्ञान हो तो सम्यक्त्व है; अतः आत्मतत्व का विवेचन करना आचार्यों का कर्तव्य था, परंतु अजीव, आश्रव बन्धादि का विवेचन क्यों किया जाता है?          उत्तर- "रेत की राशि में किसी का मोती गिर गया। वह रेत के प्रत्येक कण को देखते फिरता है।

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?मृत्यु से युद्ध की तैयारी - अमृत माँ जिनवाणी से - १३२

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,       अभी तक पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की सल्लेखना के प्रसंगों का वर्णन चल रहा था। शांति के इन सागर की गुणगाथा जितनी भी गाई जाए उतनी कम है। अब हम उनके जीवन चरित्र के अन्य ज्ञात विशेष प्रसंगों के जानेंगे।      आज का प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण है, इस प्रसंग को जानकर आपका मानस निर्ग्रन्थ साधु की सूक्ष्म अहिंसा पालन की भावना को जानकर उनके प्रति भक्ति की भावना के साथ अत्यंत आनंद का अनुभव करेगा। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३२    ?              "मृत्य

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?देव पर्याय की कथा - अमृत माँ जिनवाणी से - १३१

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३१    ?                "देव पर्याय की कथा"              लेखक पंडित सुमेरचंदजी दिवाकर ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर के उत्कृष्ट सल्लेखना के उपरांत स्वर्गारोहण के पश्चात् अपनी कल्पना के आधार पर उनके स्वर्ग की अवस्था का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया हैं-           औदारिक शरीर परित्याग के अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही उनका वैक्रियिक शरीर परिपूर्ण हो गया और वे उपपाद शैय्या से उठ गए। उस समय उन्होंने विचार किया होगा कि यह आनंद और वैभव की सामग्री कहाँ से आ गई? 

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भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न - अमृत माँ जिनवाणी से - १३०

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३०    ?        "भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न"                 कोल्हापुर के भट्टारक जिनसेनजी को ७ जुलाई १९५३ में स्वप्न आया था कि आचार्य शान्तिसागर जी महाराज तीसरे भव में तीर्थंकर होंगे। भट्टारक महाराज की बात को सुनकर आचार्य महाराज ने भी कहा कि: "१२ वर्ष पूर्व हमे भी ऐसा स्वप्न आया था कि तुम पुष्करार्ध द्वीप में तीर्थंकर पद धारण करोगे।"          कभी-कभी अयोग्य, अपात्र, प्रमादी, विषयाशक्त व्यक्ति भी स्वयं तीर्थंकर होने की कल्पना कर बैठते हैं, किन

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शिष्यों को संदेश - अमृत माँ जिनवाणी से - १२९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२९  ?                "शिष्यों को सन्देश"                 स्वर्गयात्रा के पूर्व आचार्यश्री ने अपने प्रमुख शिष्यों को यह सन्देश भेजा था, कि हमारे जाने पर शोक मत करना और आर्तध्यान नहीं करना।        आचार्य महाराज का यह अमर सन्देश हमे निर्वाण प्राप्ति के पूर्व तक का कर्तव्य-पथ बता गया है। उन्होंने समाज के लिए जो हितकारी बात कही थी वह प्रत्येक भव में काम की वस्तु है।                 ?अनुमान?               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज

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जीवन की उज्ज्वल घटनाओं की स्मृति - अमृत माँ जिनवाणी से - १२८

?  अमृत माँ जिनवाणी से - १२८  ?   "जीवन की उज्जवल घटनाओं की स्मृति"            आचार्यश्री के शरीर के संस्कार के उपरांत धीरे-धीरे पर्वत से नीचे आए, रात्रि को लगभग ८ बजे पर्वत पर हम पुनः पहुँचे। तपोग्नि से पुनीत देह को घेरे भौतिक अग्नि वेग से जल रही थी। हम वहीं लगभग ३ घंटे बैठे। उठने का मन ही नहीं होता था।            आचार्यश्री के जीवन की पुण्य घटनाओं तथा सत्संगों की बार-बार याद आती थी, कि इस वर्ष का (सन् १९५५ ) का पर्युषण पर्व इन महामानव के समीप वीताने का मौका ही न आया। अग्नि

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चरणों में प्रणामांजलि - अमृत माँ जिनवाणी से - १२७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२७   ?                "चरणों में प्रणामांजलि"                  विमानस्थित आचार्य परमेष्ठी के द्रव्य मंगल रूप शरीर के पास पहुँच चरणों को स्पर्श कर मैंने प्रणाम किया। चरण की लम्बी गज रेखा स्पष्ट दृष्टिगोचर हुई। मुझे अन्य लोगों के साथ विमान को कन्धा देने का प्रथम अवसर मिला।    ?ॐ सिद्धाय नमः की उच्च ध्वनि?            धर्म सूर्य के अस्तंगत होने से व्यथित भव्य समुदाय ॐ सिद्धाय नमः, ॐ सिद्धाय नमः का उच्च स्वर में उच्चारण करता हुआ विमान के साथ बढ़त

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निधि लुट गई - अमृत माँ जिनवाणी से - १२६

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १२६    ?                    "निधि लुट गई"                  समाधिमरण की सफल साधना से बड़ी जीवन में कोई निधि नहीं है। उस परीक्षा में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज प्रथम श्रेणी में प्रथम आए, इस विचार से तो मन में संतोष होना था, किन्तु उस समय मन विहल हो गया था। जीवन से अधिक पूज्य और मान्य धर्म की निधि लूट गई, इस ममतावश नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी।           उनके पद्मासन शरीर को पर्वत के उन्नत स्थल पर विराजमान कर सब लोगों को दर्शन कराया गया। उस

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स्वर्गारोहण की रात्रि का वर्णन - अमृत माँ जिनवाणी से - १२५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२५  ?         "स्वर्गारोहण की रात्रि का वर्णन"                          आचार्य महाराज का स्वर्गारोहण भादों सुदी दूज को सल्लेखना ग्रहण के ३६ वें दिन प्रभात में ६ बजकर ५० मिनिट पर हुआ था।                  उस दिन वैधराज महाराज की कुटि में रात्रि भर रहे थे। उन्होंने महाराज के विषय में बताया था कि- "दो बजे रात को हमने जब महाराज की नाडी देखी, तो नाड़ी की गति बिगड़ी हुई अनियमित थी। तीन, चार ठोके के बाद रूकती थी, फिर चलती थी। हाथ-पैर ठन्डे हो रहे थे। रुधिर का

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आचार्यश्री का स्वर्ग प्रयाण - अमृत माँ जिनवाणी से - १२४

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२४  ?         ?आचार्यश्री का स्वर्ग प्रयाण?             आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के सल्लेखनारत अब तक ३५ दिन निकल गए थे, रात्री भी व्यतीत हो गई। नभोमंडल में सूर्य का आगमन हुआ। घडी में ६ बजकर ५० मिनिट हुए थे जब चारित्र चक्रवर्ती साधु शिरोमणी पूज्य क्षपकराज आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने स्वर्ग को प्रयाण किया।            वह दिन रविवार था। अमृतसिद्धि योग था। १८ सितम्बर भादों सुदी द्वितीया का दिन था। उस समय हस्त नक्षत्र था।           ?ध

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सल्लेखना का ३५ वां दिन - अमृत माँ जिनवाणी से - १२३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२३   ?           "सल्लेखना का ३५ वाँ दिन"                  युग के अनुसार हीन सहनन को धारण करने वाले किसी मनुष्य का यह निर्मलता पूर्वक स्वीकृत समाधिमरण युग-२ तक अद्वितीय माना जायेगा।            आचार्य महाराज का मन तो सिद्ध भगवान के चरणों का विशेष रूप से अनुगामी था। वह सिद्धालय में जाकर अनंतसिद्धों के साथ अपने स्वरुप में निमग्न होता था।            आचार्य महाराज के समीप अखंड शांति थी। जो संभवतः उन शांति के सागर की मानसिक स्थिति का अनुशरण करती थी।

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परलोक यात्रा के पूर्व - अमृत माँ जिनवाणी से - १२२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२२  ?                "परलोक यात्रा के पूर्व"                  आज का प्रसंग पिछले प्रसंग के आगे का ही कथन है। उससे जोड़कर ही आगे पढ़ें।                मुझे (लेखक को) आशा नहीं थी कि अब पर्वत पर गुरुदेव के पास पहुँचने का सौभाग्य मिलेगा। मै तो किसी-किसी भाई से कहता था, "गुरुदेव तो ह्रदय में विराजमान हैं, वे सदा विराजमान रहेंगे। उनके भौतिक शरीर के दर्शन न हुए, तो क्या? मेरे मनोमंदिर में तो उनके चरण सदा विद्यमान  हैं। उनका दर्शन तो सर्वदा हुआ ही करेगा।"

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पीठ का दर्शन - अमृत माँ जिनवाणी से - १२१

?  अमृत माँ जिनवाणी से - १२१  ?                   "पीठ का दर्शन"             एक-एक व्यक्ति ने पंक्ति बनाकर बड़े व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिपूर्वक क्षपकराज पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन किये। महाराज तो आत्मध्यान में निमग्न रहते थे। वास्तव में ऐसा दिखता था कि मानो वे लेटे-लेटे सामायिक कर रहे हों। बात यथार्थ में भी यही थी।          जब मै (लेखक) पर्वत पर पहुँचा, तब महाराज करवट बदल चुके थे, इससे उनकी पीठ ही दिखाई पड़ी। मैंने सोचा- "सचमुच में अब हमे महाराज की पीठ ही त

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अंतिम दर्शन - अमृत माँ जिनवाणी से - १२०

?  अमृत माँ जिनवाणी से - १२०  ?                  "अंतिम दर्शन"            पिछले प्रसंग में देखा दूर-२ से लोग अहिंसा के श्रेष्ठ आराधक के दर्शनार्थ आ रहे थे। उस समय जनता में अपार क्षोभ बढ़ रहा था।               कुछ बेचारे दुखी ह्रदय से लौट गए और कुछ इस आशा से कि शायद आगे दर्शन मिल जाएँ ठहरे रहे। अंत में सत्रह सितम्बर को सुबह महाराज के दर्शन सब को मिलेंगे, ऐसी सूचना तारीख १६ की रात्री को लोगों को मिली।             बड़े व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिपूर्वक एक-एक व्यक्ति की पंक्ति

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चिंतपूर्ण शरीर स्थिति - अमृत माँ जिनवाणी से - ११९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११९  ?              "चिंतापूर्ण शरीर स्थिति"               तारीख १३ सितम्बर को सल्लेखना का ३१ वां दिन था। उस दिन आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के शरीर की स्थिति बहुत ही चिंताजनक हो गई और ऐसा लगने लगा कि अब इस आध्यात्मिक सूर्य के अस्तंगत होने में तनिक भी देर नहीं है।          यह सूर्य अब क्षितिज को स्पर्श कर चूका है। भूतल पर से आपका दर्शन लोगों को नहीं होता; हाँ शैल शिखर से उस सूर्य की कुछ-२ ज्योति दिखाई पड़ रही है। उस समय महाराज की स्थिति अद्भुत थी।

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तेजपुंज शरीर - अमृत माँ जिनवाणी से - ११८

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ११८    ?                    "तेजपुञ्ज शरीर"               पूज्य शान्तिसागरजी महाराज का शरीर आत्मतेज का अद्भुत पुञ्ज दिखता था। ३० से भी अधिक उपवास होने पर देखने वालों को ऐसा लगता था, मानों महाराज ने ५ - १० उपवास किये हों। उनके दर्शन से जड़वादी मानव के मन में आत्मबल की प्रतिष्ठा अंकित हुए बिना नहीं रहती थी।          देशभूषण-कुलभूषण भगवान के अभिषेक का जब उन्होंने अंतिम बार दर्शन किया था, उस दिन शुभोदय से महाराज के ठीक पीछे मुझे (लेखक को) खड़े होने का स

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जिनेश्वर के लघुनंदन - अमृत माँ जिनवाणी से - ११७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११७   ?              "जिनेश्वर के लघुनंदन"               संसार मृत्यु के नाम से घबड़ाता है और उसके भय से नीच से नीच कार्य करने को तत्पर हो जाता है, किन्तु शान्तिसागरजी महाराज मृत्यु को चुनौती दे, उससे युद्ध करते हुए जिनेश्वर के नंदन के समान शोभायमान होते थे।          जैन शास्त्र कहते हैं कि मृत्यु विजेता बनने के लिए मुमुक्षु को मृत्यु के भय का परित्याग कर उसे मित्र सदृश मानना चाहिए। इसी मर्म को हृदयस्थ करने के कारण आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अ

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आत्मबल का प्रभाव - अमृत माँ जिनवाणी से - ११६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११६   ?                 "आत्मबल का प्रभाव"                पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की शरीर रूपी गाड़ी तो पूर्णतः शक्तिशून्य हो चुकी थी, केवल आत्मा का बल शरीर को खीच रहा था।               यह आत्मा का ही बल था, जो सल्लेखना के २६ वें दिन ८ सितम्बर को सायंकाल के समय उन सधुराज ने २२ मिनिट पर्यन्त लोककल्याण के लिए अपना अमर सन्देश दिया, जिससे विश्व के प्रत्येक शांतिप्रेमी को प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त होती है। ?  २८ वां दिन - १० सितम्बर

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शरीर के प्रति घारणा - अमृत माँ जिनवाणी से - ११५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११५   ?                "शरीर के प्रति धारणा"           अन्न के द्वारा जिस देह का पोषण होता है, वह अनात्मा (आत्मा रहित) रूप है। इस बात को सभी लोग जानते हैं। परंतु इस पर विश्वास नहीं है।        पूज्य शान्तिसागरजी महाराज ने कहा था- "अनंत काला पासून जीव पुद्गल दोन्ही भिन्न आहे। हे सर्व जग जाणतो, परंतु विश्वास नहीं।"        उनका यह कथन भी था तथा तदनुसार उनकी दृढ़ धारणा थी कि- "जीव का पक्ष लेने पर पुद्गल का घात होता है और पुद्गल का पक्ष लेने पर जीव का

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आगम का सार - अमृत माँ जिनवाणी से - ११४

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११४   ?                 "आगम का सार"               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने सल्लेखना के२६ वे दिन के अमर सन्देश में कहा था- "जीव एकला आहे, एकला आहे ! जीवाचा कोणी नांही रे बाबा ! कोणी नाही.(जीव अकेला है,अकेला है। जीव का कोई नहीं बाबा, कोई नहीं है।)"         इसके सिवाय गुरुदेव के ये बोल अनमोल रहे- "जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो। पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो। परंतु मोक्षचा जाणारा जीव हा एकलाच आहे पुद्गल नहीं( जीव का प

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सबकी शुभकामना - अमृत माँ जिनवाणी से - ११३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११३   ?              "सबकी शुभकामना"               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज वास्तव में लोकोत्तर महात्मा थे। विरोधी व विपक्षी के प्रति भी उनके मन मे सद्भावना रहती थी। एक दिन मैंने कहा- "महाराज ! मुझे आशीर्वाद दीजिये, ऐसी प्रार्थना है।             महाराज ने कहा था- "तुम ही क्यों जो भी धर्म पर चलता है, उसके लिए हमारा आशीर्वाद है कि वह सद्बुद्धि प्राप्त कर आत्मकल्याण करे।" ?पच्चीसवाँ दिन - ७ सितम्बर११५५?                  सल्लेखना

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लोक कल्याण की उमंग - अमृत माँ जिनवाणी से - ११२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११२   ?              "लोककल्याण की उमंग"                     कुंभोज बाहुबली क्षेत्र पर आचार्यश्री पहुँचे। उनके पवित्र ह्रदय में सहसा एक उमंग आई, कि इस क्षेत्र पर यदि बाहुबली भगवान की एक विशाल मूर्ति मिराजमान हो जाए, तो उससे आसपास के लाखों की संख्या वाले ग्रामीण जैन कृषक-वर्ग का बड़ा हित होगा। महाराज ने अपना मनोगत व्यक्त किया ही था, कि शीघ्र ही अर्थ का प्रबंध हो गया।          उस प्रसंग पर आचार्य महाराज ने ये मार्मिक उद्गार व्यक्त किये थे- "दक्षिण में

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अभिषेक दर्शन - अमृत माँ जिनवाणी से - १११

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १११   ?                  "अभिषेक दर्शन"           मैंने देखा, कि महाराज एकाग्र चित्त हो जिनेन्द्र भगवान की छवि को ही देखते थे। इधर-उधर उनकी निगाह नहीं पड़ती थी। मुख से थके मादे व्यक्ति के सामान शब्द नहीं निकलता था। तत्वदृष्टि से विचार किया जाय, तो कहना होगा कि शरीर तो पोषक सामग्री के आभाव में शक्ति तथा सामर्थ्य रहित हो चुका था, किन्तु अनन्तशक्ति पुञ्ज आत्मा की सहायता उस शरीर को मिलती थी, इससे ही वह टिका हुआ था। और आत्मदेव की आराधना में सहायता करता था।

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